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Memories of Another day

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Thursday, September 26, 2013

काले अक्षर वाले ही नहीं, काली करतूतों वाले भी हैं सेंसर बोर्ड में

काले अक्षर वाले ही नहीं, काली करतूतों वाले भी हैं सेंसर बोर्ड में

Thursday, 26 September 2013 08:57

अनिल बंसल
नई दिल्ली। केंद्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष लीला सैमसन को सूचना और प्रसारण मंत्री की नाराजगी के बाद भले अपना बयान वापस लेना पड़ा हो, पर बोर्ड की हकीकत तो और भी दयनीय है। सैमसन ने कहा था कि बोर्ड के नब्बे फीसद सदस्य अनपढ़ और संवेदनहीन हैं। यह बात उन्होंने अपने मंत्री मनीष तिवारी को भी बताई थी। जवाब में नाराज मंत्री ने कह दिया कि वे देश के लोगों के नुमाइंदे हैं, उन्हें बदला नहीं जा सकता। पर सैमसन को पता नहीं होगा कि उनके बोर्ड के कई सदस्यों के कारनामे तो शर्मसार करने वाले हैं। मसलन एक महिला सदस्य को मुंबई में चोरी के आरोप में पकड़ा गया था, तो एक सम्मानित सदस्य महिला से बस में छेड़खानी करते धरे गए थे। 
दरअसल फिल्म सेंसर बोर्ड के सदस्यों का यह विवाद हाल में रिलीज हुई फिल्म 'ग्रैंड मस्ती' को लेकर तेज हुआ है। मुंबई के कुछ लोगों ने बोर्ड की अध्यक्ष सैमसन को ई-मेल के जरिए शिकायत भेजी थी कि उनके रहते 'ग्रैंड मस्ती' जैसी फिल्म को प्रसारण की अनुमति कैसे मिल गई। दरअसल इस फिल्म के संवाद द्विअर्थी होने के कारण कई लोगों को अश्लील लगे हैं। शिकायत में सैमसन को यही बताया गया था कि फिल्म में महिलाओं का भौंडा चित्रण तो हुआ ही है, उन्हें उपभोग की वस्तु की तरह पेश किया गया है। इसके जवाब में सैमसन ने ई-मेल से ही अपनी मजबूरी उजागर की थी। 
उन्होंने बोर्ड में योग्य सदस्यों के न होने का दुखड़ा रोया था। इतना ही नहीं यह भी बताया था कि जब इसकी जानकारी उन्होंने मनीष तिवारी को दी तो उन्हें अच्छा नहीं लगा। लीला सैमसन और मुंबई के लोगों के बीच हुए पत्राचार का देश के लोगों को शायद पता भी नहीं चल पाता अगर यह मामला सुप्रीम कोर्ट में न आया होता। इसी फिल्म के खिलाफ जब बीते शुक्रवार को एक महिला वकील ज्योतिका कालरा ने फरियाद की कि 'ग्रैंड मस्ती' को मिली मंजूरी परफिर से विचार के लिए सेंसर बोर्ड को हिदायत दी जाए। इस पर न्यायमूर्ति बीएस चौहान ने उन्हें अदालत के बजाय बोर्ड की अध्यक्ष से संपर्क की सलाह दी। तब कालरा ने बतौर सबूत सैमसन के ई-मेल संदेश को अदालत में पढ़ कर सुनाया। 

राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण ही बोर्ड के सदस्यों की संख्या में भी खासा इजाफा हुआ है। उनको नामित करने से पहले मंत्रालय उनके अतीत की छानबीन भी नहीं कराता। इसके लिए कोई बुनियादी योग्यता भी मंत्रालय ने नहीं तय की है। नतीजतन सत्तारूढ़ पार्टी के कार्यकर्ता या नेताओं के चंपू ही नामित हो जाते हैं। इस साल जनवरी में मुजफ्फरनगर में पुलिस ने बस में सफर कर रही महिला एक महिला से छेड़खानी करने के आरोप में बृजभूषण त्यागी को पकड़ा तो थानेदार उसका परिचय जान कर हैरत में पड़ गया। इन महाशय ने बताया कि ये सुप्रीम कोर्ट में वकालत करते हैं और फिल्म सेंसर बोर्ड के सदस्य हैं। पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की धाराओं 354, 504, 506 और 323 के तहत इन्हें पकड़ लिया। 
फिल्म सेंसर बोर्ड के उपरोक्त करामाती सदस्य ने विरोध करने पर महिला के पति से मारपीट भी की थी। मामला तूल पकड़ गया तो नशे में धुत ये महाशय महिला के पैरों पर पड़ कर माफी मांगने लगे। पर महिला अड़ गई। 
एक और मामला देखिए। मुंबई में फिल्म सेंसर बोर्ड की सदस्य मीनाक्षी सिंह को पुलिस ने चोरी के आरोप में इसी साल मार्च में गिरफ्तार किया था। दरअसल चर्च गेट के पास चार मार्च को इरोज सिनेमा के मिनी थिएटर में भोजपुरी फिल्म के प्रदर्शन के दौरान किरण श्रीवास्तव के पर्स से हीरे की दो अंगूठी और हार गायब हुए थे। फिल्म के प्रदर्शन के बाद किरण को जब इसका पता चला तो उन्होंने पुलिस में मामला दर्ज कराया और मीनाक्षी सिंह पर शक भी जताया। पुलिस ने सीसीटीवी फुटेज की जांच में उनके शक को सही पाया और छापा मार कर बोर्ड की सदस्य के घर से चोरी का सामान बरामद कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। मनीष तिवारी ने ऐसे कारनामों को अंजाम देने वाले सदस्यों पर कभी कोई कार्रवाई की या नहीं, इसका पता नहीं चल पाया।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/1-2009-08-27-03-35-27/52149-2013-09-26-03-30-07

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