कश्मीर की बाढ़ और अंधराष्ट्रवाद की हवा
हमारे बचपन में बड़े-बुजुर्ग सिखाया करते थे कि आस-पास कहीं कोई त्रासदी घटने की सूरत में हमें अपने घर में भी त्योहार या जश्न आदि नहीं मनाना चाहिए। लेकिन कश्मीर में ज्ञात इतिहास की सबसे भयानक आपदा के बाद भारतीय राज्य एवं समाज के एक हिस्से का आचरण इसके ठीक उलट देखने में आ रहा है। दशकों से भारतीय राज्य और इस्लामिक कट्टरपंथियों के आतंक का दंश झेल रही कश्मीरी अवाम को अब एक नये क़हर का सामना करना पड़ रहा है। समूचा श्रीनगर शहर जलमग्न हो गया है और लाखों लोग कई दिनों से भोजन और पानी की किल्लत के बीच अपने घरों की ऊपरी मंजिलों या छतों पर फंसे हुए हैं। जम्मू एवं कश्मीर के अन्य हिस्सों में कई गांवों का तो नामोनिशान तक मिट गया है। हलांकि बारिश अब रुक गयी है और पानी भी पीेछे हट रहा है लेकिन अब सबसे बड़ा ख़तरा महामारी फैलने का है। किसी भी पैमाने से देखने पर यह हमारे समकालीन इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक है। लेकिन कश्मीर में बाढ़ की इस त्रासदी के बाद भारत के अन्य हिस्सों में अंधराष्ट्रवाद की हवा ने थमने की बजाय और तेज़ी पकड़ ली है। इस हिमालयाकार त्रासदी पर चिंतन-मनन कर इसके जड़ों की तलाश करने की बजाय पूँजीवादी मीडिया भारतीय सेना के शौर्य और पराक्रम का प्रचार करने में ही व्यस्त है। सोशल मीडिया पर भी भक्तगण भारतीय सेना का महिमामंडन करने का यह सुनहरा मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते हैं। इस अंधराष्ट्रवादी मुहिम में यहां तक कि वे फ़र्जी तस्वीर का भी सहारा ले रहे हैं। जो लोग सेना का गुणगान करते नहीं अघा रहे हैं उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि यदि सेना वाक़ई कश्मीर की जनता की भलाई के लिए ही वहां तैनात है तो फिर इस अंधराष्ट्रवादी मुहिम की भला क्या ज़रूरत है? वह अपने-आप कश्मीरी जनता का दिल जीत लेगी। कश्मीर से जो ख़बरें आ रही हैं उनसे से तो ऐसा लगता है कि राहत और बचाव कार्य को लेकर भी वहां एक जनअसंतोष पनप रहा है। आम कश्मीरियों का कहना है कि सेना के बचाव और राहत कार्य में वीआईपियोंं, रईसों एवं पर्यटकों को प्राथमिकता दी जा रही है।
मीडिया के कवरेज़ को देखने से ऐसा जान पड़ता है मानो भारतीय सेना कश्मीर में राहत और बचाव का काम करके कश्मीरी जनता पर कोई एहसान कर रही है। एक झटके में ही कश्मीर की जनता द्वारा अपने आत्मनिर्णय के जनवादी अधिकार के लिए दश्ाकों से किये जा रहे बहादुराना संघर्ष को भुलाने की कोशिश की जा रही है और भारतीय सेना की वर्दी पर लगे अनगिनत कश्मीरियों के खू़न के धब्बों को बाढ़ के पानी से धोने की कोशिशें की जा रही हैं। सच्चाई यह है कि यदि भारतीय सेना आज कश्मीर में राहत और बचाव कर रही है तो यह कोई एहसान नहीं है। सेना का यह दायित्व होता है कि वह देश के किसी भी हिस्से में प्राकृतिक अथवा मानवीय आपदा आने पर राहत और बचाव का काम करे। होना तो यह चाहिए कि सामान्य परिस्थितियों में भी सेना देश के अलग-अलग हिस्सों में बांध, पुल, सड़क व अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण के उत्पादक कार्यों में लगे। विशेषकर सेना के श्ाीर्ष अधिकारियों को भी इस किस्म के कामों में अवश्य लगाया जाना चाहिए क्योंकि वे आम तौर पर विलासिता भरी ज़िन्दगी जीते हैं। लेकिन अमूमन होता यह है कि सेना शासक वर्ग की सेवा में लिप्त होने के कारण अपने ही देश की जनता का खून बहाती है और उसके मानवाधिकारों का हनन करती है। जम्मू-कश्मीर एवं उत्तर-पूर्व के राज्यों में दश्ाकों से एएफसपीए जैसा काला कानून लगा है जिससे वहां वस्तुत: सैन्य शासन जैसी स्थिति है और वहां की युवा पीढ़ी संगीनों के साये और बूटों की आवाज़ों के बीच जवान हुई है ।
कश्मीर की त्रासदी को इसी सन्दर्भ में समझा जा सकता है। कुछ लोग इसे एक प्राकृतिक अथवा दैवीय आपदा बता रहे हैं तो कुछ इसे मानवजनित आपदा बता रहे हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि यह पूॅुजीवादजनित आपदा है। यह अंधाध्ाुंध पूॅ्जीवादी विकास की तार्किक परिणति है। साथ ही कश्मीर में भारत के वस्तुत: सैन्य शासन जैसी स्थिति ने इस त्रासदी के परिमाण को बड़ा करने में मदद की है। कश्मीर की त्रासदी को 2010 की लेह त्रासदी और 2013 की केदारनाथ त्रासदी की निरन्तरता में ही देखा जाना चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में समूचे हिमालय क्षेत्र में सामान्य से कहीं अधिक वर्षा और बादल फटने की घटनायें सीधे-सीधे जलवायु परिवर्तन की परिघटना से जुड़ी हुई हैं जिसका कारण मुनाफ़ाकेन्द्रित अंधाधुंध पूंजीवादी विकास ही है। हिमालय के क्षेत्र में जंगलों को काटे जाने से सूनी हुई पहाडि़यों पर जब बेहद कम समय में बेतहाशा बारिश होती है तो यह पानी बहकर आस-पास की घाटियों की ओर जाता है। कश्मीर की मौजूदा त्रासदी में भी यही हुआ। एक समय हुआ करता था जब कश्मीर घाटी अपनी झीलों के लिए जानी जाती थी। ये झीलें और अन्य जलाशय केवल प्राकृतिक सुन्दरता के लिए नहीं होते बल्कि ये घाटी के समूचे पारिस्थितिक-तंत्र से जुड़े रहते हैं। ये झीलें व जलाशय प्राकृतिक सोखते का काम करते हैं। लेकिन देश के अन्य हिस्सों की भांति कश्मीर में भी अंधाधुंध और अनियोजित शहरी विकास की वजह से वहां की झीलों एवं झेलम नदी के फ्लड प्लेन (नदी के किनारे का ऐसा इलाका जहां तक पानी ज़्यादा होने पर नदी का पानी का फैलाव होता है) पर रिहाइशें एवें होटल-रेस्तरां आदि बसा दिये गये। ग़ौरतलब है कि पर्यटन कश्मीर घाटी की अर्थव्यवस्था का मुख्य अंग होने की वजह से वहां होटल मालिकों, ट्रेवेल एजेंटों, हाउस बोट मालिकों की जमात स्थानीय नेताओं से मिलीभगत से पर्यावरण नियमों को ताक पर रखकर अंधाधुंध तरीके से निर्माण कार्य हुआ। इस अनियोजित शहरी विकास में जल के निकास की कोई योजना नहीं बनायी गयी। तमाम पर्यावरणविद लंबे अरसे से घाटी में इस किस्म की आपदा आने की चेतावनी देते रहे हैं और वहां के ड्रेनेज सिस्टम को दुरुस्त करने एवं झेलम के फ्लड प्लेन पर रिहाइशों को नियंत्रित करने की सिफ़ारिशें करते आये हैं। लेकिन जैसाकि पिछले साल केदारनाथ की त्रासदी में देखने को आया था, ये सिफ़ारिशें सरकारी दफ़्तरों की फाइलों में पड़ी धूल फांकती रहीं। कश्मीर में समस्या ने इतना विकराल रूप इसलिए भी ग्रहण कर लिया क्योंकि कश्मीर पर क़ब्ज़ा बनाये रखने के लिए भारतीय राज्य ने अपना पूरा ध्यान सुरक्षा एवं सामरिक मसलों पर दिया। सुरक्षा एवं सैन्य प्रशासन पर ज़ोर की वजह से सिविल प्रशासन को पूरी तरह नज़रअन्दाज़ किया गया। पर्यावरणविदों की चेतावनी के बावजूद आपदा प्रबंधन की कोई योजना ही नहीं थी। यहां तक कि जम्मू एवं कश्मीर के मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला ने भी स्वीकार किया है कि बाढ़ में उनका पूरा प्रशासन की मानो बह गया। उनके इसी बयान से वहां सिविल प्रशासन की ख़स्ता हालत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
सवाल यह उठता है कि क्या इस बार की त्रासदी से कोई सबक लिया जायेगा या फिर हर बार की तरह समय बीतने के साथ ही इसको भी भुला दिया जायेगा और जब अगली त्रासदी आयेगी तो फिर हाय-तौबा मचायी जायेगी। मोदी सरकार के रवैय्ये से तो उम्मीद बांधने की कोई वजह नहीं दिखती। योजनाबद्ध विकास तो दूर मोदी ने तो योजना का दिखावा करने वाले योजना आयोग को ही इतिहास के कचरापेटी में डालकर निर्बाध पूँजीवाद को बुलेट ट्रेन की गति से दौड़ाने की ठान ली है। श्रम कानूनों की ही तरह पर्यावरण से जुड़े सारे नियम-कायदे ढीले किये जा रहे हैं ताकि पूँजीपतियों के मुनाफे़ की अंधी हवस को पूरा करने में वे अड़चन न पैदा करें। इस निर्बन्ध पूँजीवादी विकास से पर्यावरण का ही नहीं अब तो ज़्यादा से ज़्यादा स्पष्ट होता जा रहा है कि पृथ्वी पर जीवन का ही अस्तित्व ख़तरे में है। इस गंभीर समस्या से लोगों का ध्यान हटाने के लिए एवं कश्मीर में अपना वर्चस्व और पुख़्ता करने के लिए शासक वर्ग अंधराष्ट्रवाद की हवा को तेज़ी से फैला रहा है। हमें शासक वर्ग के मंसूबे पहचानने होंगे और इससे पहले कि मुनाफ़े की हवस में वे मानवता को तबाह करे हमें पूँजीवादी व्यवस्था को ही तबाह करना होगा।
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