ट्रंप उपनिवेश में आगे डिजिटल सत्यानाश!
पहली को बजट की जिद अर्थतंत्र को बदलने की कवायद और पांच राज्यों को झुनझुना!
पीएम को सीएम के खत से बदलेगी नहीं कयामत की फिजां!
यूपी वाले अपनी निर्णायक ताकत को समझें और जनादेश को समूचे देश के लिए सामूहिक आत्महत्या बनने न दें,आज सबसे बड़ी चुनौती यही है।
पलाश विश्वास
अक्सर बार बार ठोकर खा्ते जाने के बावजूद संभलकर चलने की आदत बनती नहीं है।आदत नहीं सुधरने का मतलब आगे फिर सत्यानाश है।
हम बामसेफ के आभारी हैं कि बामसेफ से करीब एक दशक तक जुड़े रहने की वजह से अंबेडकरी मिशन के तमाम लोगों से लगातार संवाद करने का मौका मिला है।वह संवाद आज भी कमोबेश जारी है,जिस वजह से हम हवा हवाई बातें नहीं करते लिखते हैं।
बामसेफ के मंचों से देशभर में आर्थिक मुद्दों पर करीब एक दशक तक हम बातें करते रहे हैं, मुंबई में बजट का विश्लेषण करते रहे हैं और हर सेक्टर में जाकर अर्थव्यवस्था की बुनियादी मुद्दों पर संवाद भी करते रहे हैं।
अब हम बरसों से बामसेफ में नहीं हैं और जिन साथियों को लेकर अंबेडकर के आर्थिक विचारों पर हम जमीनी हकीकत और राजकाज,नीति निर्धारण के तहत ग्लोबीकरण ,निजीकरण उदारीकरण पर लगातार संवाद कर रहे थे,वे तमाम साथी भी अब बामसेफ में नहीं हैं।
फिरभी हमारे मुद्दे और सरोकार अब भी वे ही हैं।
बहुसंख्य मेहनतकश जनता के हकूक के मुद्दे,उनकी बुनियादी जरुरतों और बुनियादी सेवाओं के मुद्दे ,जल जंगल जमीन आजाविका,पर्यावरण जलवायु, नागरिकता, नागरिक मानवाधिकार कानून का राज,संवैधानिक रक्षा कवच,समता ,न्याय,सबके लिए समान अवसर और संसाधनों पर आम जनता के हक के सवाल और मुक्तबाजार के प्रतिरोध के मुद्दे वे ही हैं,जिन्हें हमने बामसेफ के मार्फत बहुजन आंदोलन के मुद्दे बनाने की कोशिश लगभग एक दशक से करते रहे हैं।जो हम कर नहीं सके हैं।
सिर्फ हम बामसेफ की भाषा का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं,जो यकीनन बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर की भाषा भी नहीं रही है।
विमर्श की भाषा बहुजनों की भी भाषा होनी चाहिए।
बाकी तमाम हककूक से वंचित रहने के साथ ज्ञान और शिक्षा के हकहकूक से हजारों साल से मनुस्मृति विधान के चलते अस्पृश्य बने रहने के नर्क से निकलने के लिए मनुस्मृति के मुताबिक अपनी जाति पहचान को मिटाना बेहद जरुरी है और जाति धर्म नस्ल की भाषा में संवाद का मतलब फिर वही मनुस्मृति सौंदर्यशास्त्र और व्याकरण है.जिससे मुक्त होने के लिए जनमजात जिस जुबान में बात करने को हमें अभ्यस्त बनाया गया है,घृणा की उस जुबान से मुक्त होने की जरुरत है जो सीधे तौर पर तथागत गौतम बुद्ध का पंथ है।यही एकमात्र मुक्तिमार्ग है।
धम्म प्रवर्तन की भाषा में हिंसा का वर्जन दरअसल वर्गीय ध्रूवीकरण है,जिसकी कोई काट ब्रांह्मण धर्म और उसके ग्लोबल हिंदुत्व के पास नहीं है और ग्लोबल हिंदुत्व के प्रतिरोध का यही एकमात्र वैकल्पिक ग्लोबल एजंडा संभव है ,जो हमारे इतिहास और लोक की विरासत है।
तथागत गौतम बुद्ध के मुकाबले न कोई कल्कि अवतार है और न कोई डान डोनाल्ड है,इसे समझ लें तो प्रतिरोध की मजमीन अब बी बनायी जा सकती है।
धर्मस्थलों को फिर ज्ञान के केंद्रों में तब्दील करने का तथागत का आंदोलन ही संस्थागत फासिज्म के राजकाज से मुक्त होने का रास्ता है।
पिछले दिनों एक साक्षात्कार में विद्याभूषण रावत ने मुझसे यही पूछा था कि बहुजनों को शिकायत है कि आपकी भाषा अंबेडकरी कम और वामपक्षी ज्यादा लगती है।उस संक्षिप्त बातचीत में तमाम मुद्दों के साथ इसका जवाब पूरा दे नहीं सका था।
अब अंबेडकर के रचना समग्र को उठाकर देख लें, डिप्रेस्ड क्लास के अलावा, ब्राह्मणवाद के अलावा वंचितों के हकहकूक की उनकी विचारधारा में गालीगलौज कितने हैं।जिस भाषा का इस्तेमाल अब अंबेडकरी मिशन के नाम लोग करते अघाते नहीं और जिस भाषा के बूते वे किसी को भी अंबेडकरी तमगा देकर उसके पिछलग्गू बन जाते हैं, यी तर्क और विज्ञान के विमर्श की भाषा में संवाद करने वाले बहुजनों को कम्युनिस्ट बताकर उनका बहिस्कार से हिचकते नहीं हैं,अंबेडकर के विचारों में उस जाति घृणा की कितनी जगह है। तथागत गौतम बुद्ध के पंचशील की भाषा पर भी गौर करें।
गौरतलब है कि अंबेडकर ने डिप्रेस्ड क्लास कहा है,जाति उन्मूलन की बात कही है।उन्होने अस्पृश्यता खत्म करने के लिए पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद,दोनों का पुरजोर विरोध किया है लेकिन कहीं भी जाति बतौर वंचित वर्ग को संबोधित नहीं किया है बल्कि वर्ग संघर्ष की बात करने वाले कामरेड इसके उलट जाति से इंकार करते हुए जाति वर्चस्व के समीकरण में अपनी विचारधारा और वर्ग संघर्ष दोनों को तिलांजलि देकर मनुस्मृति शासन की निरंतरता बनाये रखने का धतकरम किया है।
वर्ग की बात जब अंबेडकर खुद कर रहे थे, जब अंबेडकर ने लड़ाई की शुरुआत ही वर्कर्स पार्टी और ट्रेड यूनियन आंदोलन के साथ अस्पृशयता विरोधी आंदोलन से की थी,तब जाति से नत्थी अंबेडकरी मिशन के औचित्य पर बहस उसी तरह जरुरी है जैसे वामपक्ष का जाति के यथार्थ से इंकार और बहुसंख्य सर्वहारा से विश्वासघात की चीड़ फाड़ अनिवार्य है।वाम आंदोलन में अंबेडकर की अनुपस्थिति की वजह से वर्गीय ध्रूवीकरण हुआ नहीं है और जाति व्यवस्था पहले से कहीं ज्यादा मजबूत है,इस सच का सामना भी करें।
आरक्षण पर बहस की गुंजाइश है।जब तक जाति उन्मूलन नहीं होगा,जब तक जीवन के सभी क्षेत्रों में बहुजनों के खिलाफ नस्ली भेदभाव का सिलिसला जारी रहेगा, आरक्षण के अलावा वंचितों को समान अवसर और न्याय दिलाने का दूसरा कोई रास्ता नहीं है।हालांकि सत्ता वर्ग ने निजीकरण और मुक्तबाजार के जरिये आरक्षण खत्म करने का चाकचौबंद इंतजाम कर लिया है और मुक्त बाजार का समर्थन करने के आत्मघाती करतबसे अंबेडकरी आंदोलन आरक्षण को तिलांजलि देने में ब्राह्मणतंत्र का सहायक बना है और इस कार्यक्रम में बहुजनों के सारे राम मनुस्मृति के हनुमान बने रहे हैं।
यह भी गौर करने लायक बात है कि वर्णव्यवस्था और जाति व्यवस्था के तहत हजारों जातियों में बंटे हुए भारतीय मेहनतकशों को आरक्षण के तहत बाबासाहेब ने सिर्फ तीन वर्गों में संगठित करके जातियों को उन्ही संवैधानिक वर्गों में अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग में संगठित करने का करिश्मा कर दिखाया है।
अब अगर तमाम अनुसूचित और पिछड़े फिरभी जाति में गोलबंद बने रहकर अंबेडकरी मिशन चलाना चाहते हैं,तो यह फिर अस्पृश्यता के मटके और झाड़ु से खुद को नत्थी करने के अलावा और क्या है,हम यह नहीं समझते।भाषा का तेवर भी वहीं है।
बहरहाल महामहिम ट्रंप के 20 जनवरी को राष्ट्रपति बनते ही उनके एक के बाद एक कारनामे से साफ जाहिर है कि अमेरिकी श्वेत बिरादरी और दुनियाभर के उनके भाई बंधु के अलावा बाकी दुनिया और खासकर काली इंसानियत के लिए वे क्या कयामत बरपाने वाले हैं।
हम जो पिछले पच्चीस साल से उत्पादन प्रणाली को अर्थव्यवस्था की बुनियाद बताते हुए भारतीय कृषि को भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार बता रहे थे,उसका मतलब अब शायद समझाने की जरुरत भी नहीं पड़ेगी।अब भी नहीं समझे तो हिंदुत्व का नर्क, जन्मफल, नियति, देवमंडल,अवातार तिलिस्म,धर्मस्थल और पीठ,तंत्र मंत्र ताबीज यंत्र का विशुध आयुर्वेद योगाभ्यास,लोक परलोक और स्वर्गवास आपको मुबारक।
शिक्षा और शोध को तिलांजलि देकर ज्ञान के बजाय तकनीक को सर्वोच्च प्राथमिकता देकर हर हाथ में थ्रीजी फोर जी फाइव जी सौंपकर देश को मुक्तबाजार में, कैसलैस डिजिटल इंडिया बनाने की प्रक्रिया में हम जो अमेरिकी उपनिवेश बनते रहे हैं,वह एक झटके से ट्रंप उपनिवेश है।आने वाले दिनों में सरकार आधार को और बड़े स्तर पर लागू करने की तैयारी कर रही है। आधार के जरिए ही अब आप आईटी रिटर्न भी भर सकेंगे। केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने आज आधार पर आंकड़े जारी करते हुए कहा कि इस समय देश में 111 करोड़ लोग आधार का इस्तेमाल कर रहे हैं। देश के 99.6 फीसदी युवाओं के पास आधार कार्ड है। आधार के जरिए 4.47 करोड़ बैंक अकाउंट खुले हैं। नोटबंदी के बाद हर दिन नए आधार या उनमें सुधार से जुड़ी 5-6 लाख अर्जिंयां मिल रही हैं। रविशंकर प्रसाद ने कहा कि आधार के चलते पिछले 2 साल में सरकार ने 36 हजार करोड़ रुपये की बचत की है।
प्रकृति,कृषि,पर्यावरण,जल जंगल जमीन और उनसे जुड़े समुदायों के खिलाफ मुक्तबाजारी नरसंहारी अश्वमेध जारी है और रोजगार सृजन तकनीक तक सीमाबद्ध करते जाने के पच्चीस साल इस देश के भविष्य के लिए अंधकार युग में वापसी का हिंदुत्व पुनरुत्थान है।यही फिर ट्रंप के श्वेत वर्चस्व का ग्लोबल हिंदुत्व जायनी है।
बहुजनों को यह राजनीति और अर्थव्यस्था दोनों समझनी चाहिए।
नोटबंदी से एक मुश्त खेती और कारोबार के खत्म होने के बाद फिर जो डिजिटल सत्यानाश की आपाधापी में यह अग्रिम बजट है,सरकारी खर्च बढाकर इकोनामी का लाटरी में बदलने की कवायद के तहत आम जनता पर सारे टैक्स और वित्तीय घाटे का बोझ डालने के केसरिया हिंदुत्व नस्ली अर्थतंत्र तैयार करने का डिजिटल कैसलैस महोत्सव है,उसका अंजाम डोनाल्ड के कारनामों के मुताबिक समझ लें तो बेहतर।
लोकतंत्र के बारे मेंखास बात यह है किविकसित देशों में लोकतंत्र और तीसरी दुनिया के देशों में लोकतंत्र में बुनियादी फर्क यह है कि यहां वोट न उम्मीदवार की काबिलियत और उसकी पृष्ठभूमि को देखकर गिरते हैं और न चुनाव प्रचार में बुनियादी मुद्दों और मसलों,अर्थव्यवस्था,विदेश नीति और कानून व्यवस्था के साथ सात बुनियादी सेवाओं के हालचाल,कानून व्यवस्था,नागरिक और मानवाधिकार,जल जंगल जमीन आजीविका या पर्यावरण पर किसी तरह की बहस होती है और न विचारधारा के तहत कोई बहस होती है।
जांत पांत धर्म क्षेत्र नस्ल वगैरह वगैरह से जुड़े भावनात्मक मुद्दों पर लोग निर्णायक वोट भावनाओं में बहकर गेर देते हैं।
चुनाव पूर्व लोक लुभावन बजट हो या टैक्स रियायतें हों या आरक्षण या सब्सिडी या कर्ज या पानी बिजली सड़क वगैरह वगैरह स्थानीय मुद्दों को लेकर भी वोट पड़ जाते हैं।नतीजतन जो जनादेश बनता है ,वह दस दिगंत सत्यानाश जो हो सो तो हैं ही,अगले चुनाव तक सर धुनते रहने के अलावा ट्रंप विरोधी महिलाओं के वाशिंगटन मार्च जैसी कोई बगावत के लिए हमारी रीढ़ जबाव देती रही है और इसतरह हमने संविधान और लोकतंत्र को अपने धतकरम से सिरे से फेल कर दिया है।स्यापा करने से मौत का मंजर बदलता नहीं है।
ले मशालें लिखने वाले हमारी तराई के जनकवि बल्ली सिंह चीमा ने लिखा हैः
वोट से पहले सोच जरा
बारी बारी से लूटें इकरार किया है हाथ कमल ने ।
भृष्टाचार में इक दूजे का साथ दिया है हाथ कमल ने।
दारू पीकर जय मत बोल वोट से पहले सोच जरा
पर्वत नदियां जंगल सब बरबाद किया है हाथ कमल ने।
बहरहाल,ऊपरी तौर पर लगता है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी जन भावनाओं के उभार की वजह से दक्षिणपंथी श्वेत वर्चस्व के ग्लोबल जायनी हिंदुत्व एजंडा की वजह से यूं ही अमेरिका के राष्ट्रपति बन गये हैं।
हम बार बार लिखते रहे हैं कि पहले अश्वेत राष्ट्रपति बाराक हुसैन ओबामा अमेरिकी राष्ट्र और जनता को युद्धक अर्थव्यवस्था के शिकंजे से निकल वहीं सके हैं। अमेरिका में लगातार गरीबी और बेरोजगारी बढ़ी है।कानून व्यवस्था के हालात संगीन हैं।
देशभक्ति के हिंदुत्व उन्माद से जहां विविधता और बहुलता सहिष्णुता का इतिहास और विरासत खत्म है तो वहीं पिछले पच्चीस साल में अभूतपूर्व युद्धोन्माद और हथियारों की होड़,ऱक्षा घोटालों और रक्षा आंतरिक सुरक्षा में विनिवेश के माध्यम से हमने सत्ता वर्ग को अपने हितों के लिए भारत लोक गणराज्य को सैन्य राष्ट्र बनाने की छूट दी है।
इस दौरान हमारे महान सैन्यतंत्र ने विदेशी किसी शत्रु के खिलाफ कोई युद्ध नहीं लड़ा है रंगबिरंग सर्जिकल मीडिया ब्लिट्ज के सिवाय।सार युद्ध गृहयुद्ध महाभारत सलवाजुड़ुम बहुजनों के खिलाफ,आदिवासियों के खिलाफ कारपोरेट हित में सलवा जुड़ुम है और बहुजन सितारे इस युद्ध के बारे में,सलवा जुड़ुम के बारे में,मुक्तबाजार के बारे में,यहां तक नोटबंदी के डिजिटल कैसलैस बहुजन सफाया अभियान के बारे में मौन हैं।
हम जो लोग इस तिलिस्म को तोड़ने में लगे हैं,वे आपको दुश्मन नजर आते हैं और सिर्फ ब्राह्मणों को गरियाकर मनुस्मृति के जो सिपाहसालार बने हैं ,उनकी वानर सेना में तब्दील आपको हमारी भाषा भी समझ में नहीं आ रही है।हमें सख्त अफसोस है।
अमेरिकी नागरिकों को सत्ता सौंपने और आप्रवासियों के खिलाफ नस्ली गुस्सा की दुधारी तलवार से पापुलर वोटों से हारने के बावजूद बड़े निर्णायक राज्यों में बहुमत के एकमुश्त वोटों के बहुमत से समुची दुनिया अब ट्रंप महाराज के हवाले हैं।हमारे यहां सिंहासन पर उन्हीं का खड़ाऊं है।
इस जनादेश के बाद अमेरिका का क्या होना है और बाकी दुनिया का क्या होना है,उसे दुनियाभर के विरोध प्रतिरोध से बदल पाने की कोई संभावना नहीं है।
गौरतलब है कि 16 मई ,2014 के बाद भारत की अर्थव्यवस्था,संसदीय प्रणाली और नीति निर्माण पद्धति से लेकर कर प्रणाली ,बुनियादी सेवाओं और जरुरतों के सारे परिदृश्य सिरे से बदल गये हैं।आम जनता के लिए अब कोई योजना नहीं है न विकास है।लाटरी के झुनझुना मोबाइल परमाणु बम है।हिरोशिमा नागासाकी महोत्सव है।भुखमरी और मंदी,बेरोजगारी और बेदखली विस्थापन का भविष्य है।
यूपी जीतने के लिए कायदा कानून और अर्थव्यवस्था से लेकर मुक्त बाजार के व्याकरण को जैसे ताक पर रखकर नोटबंदी जारी की गयी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों और देश के कारपोरेट घरानों के एकाधिकार वर्चस्व के लिए जैसे जबरन कैशलैस डिजिटल इंडिया बनाने के लिए अर्थव्यवस्था को ही लाटरी में तब्दील कर दिया गया है,तो 2014 के उस जनादेश की परिणति के बारे में मतदाताओं को अपने वजूद के लिए सोचना चाहिए, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो रहा है।इसलिए जनादेश से कुछ बदलने के आसार कम है।
एकबार फिर यूपी के रास्ते हिंदुस्तान फतह करने के लिएसत्ता वर्ग बुनियादी मसलों को किनारे करके हिंदुत्व की सुनामी राम के सौगंध के साथ बनाने में जुटे हैें और यूपी की जनता को ही वानर सेना में तब्दील करके हिंदुस्तान फतह करने की चाकचौबंद तैयारी है।जिसका प्रतिरोध अगर संभव है तो वह करिश्मा यूपी वालों कोही कर दिखाना है।
दूसरी ओर,चुनाव जीतने के मकसद से बजट के इस्तेमाल के इरादे के तहत पहली जनवरी को ही बजट पेश करने की जिद को सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग की हरी झंडी मिल जाने से,फिर उस बजट में पांच राज्यों में विधानसभा के मद्देनजर चुनाव आयोग ने बजट प्रावधान पर जो निषेधाज्ञा लागू कर दी है,उससे पांचों राज्यों के लिए और उनकी जनता के लिए यह नोटबंदी के बाद दुधारी मार है।
उत्तराखंड,मणिपुर और गोवा के लोग सालभर अगर झुनझुना बजाने के लिए छोड़ दिये गये,तो आगे उनका गुजारा कैसे होगा,यह नोटबंदी करने वाले झोलाछाप विशेषज्ञ ही तय करने वाले हैं।हमारे पास झुनझुना बजाने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है।
नशाग्रस्त पंजाब में हालात और खराब होंगे और यूपी कितना और पिछड़ जायेगा,यह बाद में देखा जाना है। झुनझुना बजाने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है।
भारत में बहुमत का जलवा हम अक्सर समझ नहीं पाते और चुनाव से पहले और चुनाव के बाद जनादेश की भूमिका,देश की अर्थव्यवस्था,कायदा कानून,बहुलता विविधता, लोकतांत्रिक संस्थानों पर उसके दीर्घस्थायी असर,राष्ट्रीय संसाधनों से लेकर जलवायु पर्यावरण,भूख,बेरोजगारी जैसी बुनियादी चुनौतियों, समता और न्याय के लक्ष्य,बुनियादी सेवाओं और जरुरतों के बारे में वोट डालने से पहले हम कतई नहीं सोचते।
अर्थव्यवस्था और वित्तीय प्रबंधन,नीति निर्धारण के बारे में बहुजनों की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती,यही मनुस्मृति के फासिस्ट नस्ली राजकाज की पूंजी है।
भावनाओं में बहकर हवाओं के इशारों से हम अपना नुमाइंदा चुनकर जो जनादेश बनाते हैं,उसे सामूहिक आत्महत्या कहे तो वह भी कम होगा।
हर बार हम जनादेश मार्फत सामूहिक आत्महत्या ही करते हैं।
मसलन अमेरिका में पचास राज्य हैं और उनकी किस्मत का फैसला चुनिंदा कुछ राज्यों के वोट से हो जाता है जैसे डोनाल्ड ट्रंप का चुनाव अमेरिकी बहुमत के खिलाफ हो गया और इसका खामियाजा सिर्फ अमेरिका ही नहीं,बाकी दुनिया को भी भुगतना होगा।
जनादेश यूपी वालों का होगा और उसका दीर्घकालीन असर पूरे देश पर होना है।
भारत में भी यूपी बिहार तमिलनाडु मध्यप्रदेश,महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भावनाओं की सुनामी से पूरे मुल्क को फतह करने का सिलसिला आजाद भारत का लोकतंत्र है।
यूपी का जनादेश हमेशा पूरे देश की किस्मत का फैसला करने वाला होता है और इसीलिए देश के सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री यूपी से ही चुने जाते रहे हैं।
ओड़ीशा, झारखंड, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ ,केरल,गोवा,पंजाब,राजस्थान और पूर्वोत्तर के राज्यों से राष्ट्रीय नेतृत्व का उभार असंभव है।
हालांकि गुजरात से नरेंद्र मोदी का उत्थान एक अपवाद ही कहा जा सकता है लेकिन यह भी जनप्रतिनिधित्व या लोकतंत्र का करिश्मा नहीं है।हिंदुत्व के एजंडे के मुताबिक भावनाओं की जिस सुनामी से मोदी देश के नेता बने, उस तरह किसी माणिक सरकार,चंद्रबाबू नायडु या नवीन पटनायक और यहां तक कि किसी ममता बनर्जी या नीतीश कुमार के भी के प्रधानमंत्री बनने के आसार नहीं है।
अजूबा लोकतंत्र हमारा है,जहां राजनीति में स्त्री के परतिनिधित्व से पितृसत्ता के तहत पूरी राजनीति लामबंद है।
उत्तराखंड जैसा राज्य और पूर्वोत्तर के तमाम राज्य केंद्र सरकार की मेहरबानी पर निर्भर है क्योंकि राष्ट्रीय नेतत्व के लिए ये राज्य निर्णायक नहीं है।
ऐसे राज्यों में नेतृत्व न पिद्दी है और न पिद्दी का शोरबा है।
बहरहाल मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर मांग की है आम बजट को विधानसभा चुनाव के बाद पेश करने पर विचार करें, ताकि उत्तर प्रदेश के विकास व जनता के हित में योजनाओं की घोषणा हो सके। अखिलेश ने अपने पत्र में चुनाव आयोग की ओर से भारत सरकार को 23 जनवरी को जारी किए गए पत्र का हवाला देते हुए लिखा है।इस पत्र में आयोग ने निर्देश दिया है कि भारत सरकार के आगामी बजट में चुनाव आचार संहिता से प्रभावित पांच राज्यों के हित में कोई भी विशेष योजना घोषित नहीं की जाए।
इसकी कोई सुनवाई होने के आसार नहीं है।
पीएम को किसी सीएम के खत से हालात बदलने बाले नहीं है।
कदम कदम कदमबोशी करने वाले बागी हो नहीं सकते।
देश किसी कुनबे का महाभारत या मूसलपर्व भी नहीं है कि धोबीपाट से जीत लें।
अखिलेश का भी इसे चुनावी मुद्दा बनाने के अलावा हकीकत की चुनौतियों से निबटने का कोई इरादा लग नहीं रहा है क्योंकि उन्होंने यूपी को हिंदुत्व के एजंडे का गिलोटिन बनाने से रोकने के लिए अब तक कुछ भी नहीं किया है बल्कि फासिज्म के राजकाज को मजबूती से अंजाम देने में वे सबसे आगे रहे हैं।
इसके उलट यूपी से सबसे ज्यादा लोकसभा सदस्य और राज्यसभा सदस्य हैं तो राष्ट्रपति चुनाव में अप्रत्यक्ष मतदान में यूपी के वोट का मूल्य सबसे ज्यादा है।
अखिलेश यादव अगर बाहैसियत सीएम यूपी वालों का ईमानदारी से नुमांइदंगी कर रहे होते तो यूपी की सरजमीं का बेजां इस्तेमाल रोककर नरसंहारी अश्वमेधी अभियान को रोकने में उनकी कोई न कोई पहल जरुर होती।
आवाम की रहमुनमाई करने के बजाय अखिलेश ने यूपी और यूपीवालों को फासिज्म का सबसे उपजाऊ उपनिवेश बना दिया है।
अंदेशा यही है कि इस खुदकशी का अंजाम यूपी के जनादेश में भी नजर आयेगा।
आजादी के बाद के मतदान का पूरा इतिहास उठा लें तो राष्ट्र के भविष्य निर्माण में सकारात्मक नकारात्मक दोनों प्रभाव हमेशा यूपी का ज्यादा रहा है।
भारत की राजनीति जिस हिंदुत्व के एजंडे से सिरे से बदल गयी है,उसके पीछे जो आरक्षण विरोधी आंदोलन हो या राममंदिर आंदोलन और बाबरी विध्वंस हो,उसकी जमीन यूपी है।गुजरात नरसंहार और 1984 में सिखों के नरसंहार यूपी की ताकत,यूपी के जनादेश के बेजां इस्तेमाल का अंजाम हैं।तो दूसरी ओर सामाजिक बदलाव के आंदोलन के तहत यूपी में भाजपा 16 साल से और कांग्रेस 29 साल से सत्ता से बाहर है।
क्या यूपी वालों का नेतृत्व करके फासिज्म के खिलाफ लड़ाई में अखिलेश आगे आने को तैयार हैं,इस सवाल का जबाव यूपी वालों को खुद से जरुर पूछना चाहिए और उसके मुताबिक फैसला करना चाहिए कि उनका जनादेश क्या हो।
यूपी वाले अपनी अपनी निर्णायक ताकत को समझें और जनादेश को समूचे देश के लिए सामूहिक आत्महत्या बनने न दें,आज सबसे बड़ी चुनौती यही है।
अखिलेश ने अपने पत्र में लिखा है कि अगर चुनाव से पहले बजट पेश होता है तो यूपी के लिए आप किसी योजना का ऐलान नहीं कर सकते, ऐसे में यूपी का बड़ा नुकसान होगा। यूपी राज्य जिसमें देश की बड़ी जनसंख्या निवास करती है को भारत के आगामी सामान्य/रेल बजट में कोई विशेष लाभ/योजना प्राप्त नहीं हो सकेगी, जिसका सीधा प्रतिकूल प्रभाव यूपी के विकासकार्यों एवं यहां के 20 करोड़ निवासियों के हितों पर पड़ेंगा। साथ ही अखिलेश ने यह भी लिखा है कि 2012 में राज्यों के चुनाव की वजह से चुनाव बाद बजट पेश किया गया था।
अखिलेश यादव ने कहा कि ऐसी स्थिति में अब प्रबल संभावना बन गई है कि उत्तर प्रदेश को आम बजट का कोई विशेष लाभ या योजना मिलने नहीं जा रही है। अखिलेश ने लिखा है जनसंख्या के लिहाज से उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है, ऐसे में यह उत्तर प्रदेश के साथ इंसाफ नहीं होगा। इसका सीधा प्रतिकूल प्रभाव प्रदेश के विकास कार्यों और यहां के 20 करोड़ निवासियों के हितों पर पड़ेगा। अखिलेश ने याद दिलाया कि फरवरी-मार्च 2012 में भी राज्यों के आम चुनावों को देखते हुए तत्कालीन केंद्र सरकार ने चुनावों की निष्पक्षता बनाए रखने के लिए खुद ही निर्वाचन के बाद सामान्य और रेल बजट पेश किया था। उत्तर प्रदेश में 11 फरवरी से 8 मार्च के बीच सात चरणों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के अखिलेश धड़े के बीच गठबंधन के बावजूद बहुकोणीय मुकाबला होने की उम्मीद है। यूपी विधानसभा में कुल 403 सीटें हैं। 2012 के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी ने 224 सीट जीतकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। इसके बाद बसपा को 80, बीजेपी को 47, कांग्रेस को 28, रालोद को 9 और अन्य को 24 सीटें मिलीं थीं।
गौरतलब है कि चुनाव आयोग ने केंद्र से कहा कि बजट में वह पांच राज्यों के बारे में कोई विशेष घोषणा न की जाए, जहां विधानसभा चुनाव होने हैं। आयोग ने एक फरवरी को बजट पेश करने को मंजूरी दे दी है।
गौरतलब है कि पंजाब और गोवा में मतदान 4 फरवरी से शुरू होना है, वहीं उत्तर प्रदेश में 11 फरवरी से होगा. पांचों राज्यों में 11 मार्च को नतीजे आएंगे। 16 राजनीतिक दलों ने चुनाव आयोग से आग्रह किया था कि वह सरकार से चुनाव के बाद केंद्रीय बजट पेश करने के लिए कहे ताकि इसका उपयोग पांच राज्यों में मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए नहीं किया जा सके, जहां चुनाव होने हैं। केंद्र सरकार के एक फरवरी को बजट पेश करने के खिलाफ दाखिल याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने बीते सोमवार को खारिज कर दिया था। कोर्ट ने कहा कि आम बजट केंद्रीय होता है और इसका राज्यों से कोई लेना-देना नहीं है।
एचडीएफसी बैंक ने अक्टूबर से लेकर दिसंबर की तिमाही में 4500 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया है। इस वजह है कि आय वृद्धि 18 साल के निचले स्तर में गिरावट और लागत पर खर्चा अधिक हो गया। एचडीएफसी बैंक ने बताया कि सितंबर 2016 में बैंक में 95,002 कर्मचारी थे, जो दिसंबर में 5 प्रतिशत घटकर 90,421 तक आ गए।
इकॉनोमिक्स टाइम्स के मुताबिक, एचडीएफसी बैंक ने कहा कि उसका मुनाफा 15 प्रतिशत बढ़कर 3,865 करोड़ रुपए हो गया, जो एक साल पहले 3,357 करोड़ रुपए था। लेकिन यह जून 1998 से उसकी सबसे कम ग्रोथ है। बॉन्ड और करंसी में प्री-टैक्स प्रॉफिट भी 253 करोड़ रुपए रह गया, जो पिछले साल 513 करोड़ था। नोटबंदी के बाद बैंकों की इनकम भी मात्र 9.4 प्रतिशत ही बढ़ी है।
मंगलवार को जारी हुए नतीजों में कहा गया कि बैंक के परिचालन खर्च में 0.55 प्रतिशत की गिरावट आई है और दिसंबर के अंत में यह 4.843 करोड़ रह गया, जो सितंबर में 4, 870 करोड़ रुपए था। इसके अलावा बाकी परिचालन खर्च भी 1.83 प्रतिशत गिरकर 3,154 करोड़ पर आ गया। सितंबर में यह 3,213 करोड़ रुपए था। हालांकि कर्मचारी लागत में 1.93 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और यह 1,689 करोड़ से 1,657 करोड़ तक आ गया।
विशेषज्ञों का कहना है कि किसी बैंक द्वारा एक तिमाही में इतनी बड़ी छंटनी का यह पहला मामला है, जो आगे भी जारी रह सकता है अगर स्थितियां नहीं सुधरीं। बैंक ने संकेत दिया है कि उसका फोकस फिलहाल उत्पादकता पर है और भविष्य में हायरिंग में गिरावट रहने वाली है। बैंक के डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर परेश सुखतांकर ने बताया कि छंटनी कर्मचारियों की उत्पादकता और उनकी कार्यक्षमता बढ़ाने का एक नियमित हिस्सा है।
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