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Shramik krishak Maitrui Swsthaya kendra,Chengaile
सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसम्मत चिकित्सा संभव है
सिर्फ विकसित देशों में नहीं,हमारे जैसे गरीब देशों में भी।
"সবার জন্যে স্বাস্থ্য" সম্ভব।
भारत सरकार की गठित एक उच्चस्तरीय स्वास्थ्य कमिटी ने ऐसा ही कहा है। कांग्रेस के सत्ताकाल में 2010 में गठित इस कमिटी के सभापिति डा. श्रीनाथ रेड्डी थे। रेड्डी कमिटी ने कहा था, अभ्यंतरीन उत्पादन के 1.4 से बढ़ाकर 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य के मद में सरकार अगर खर्च करें तो हमारे देश में भी सबके लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम की व्यवस्था लागू की जी सकती है। यानी यह आपका या मेरा आकाश कुसुम सपना नहीं है, सरकार की सलाहकार विशेषज्ञ समिति ही ऐसा कह रही है। बहरहाल, भारत की बात छोड़ दें, इस दुनिया के कम से कम 41 देशों की सरकारों ने यह व्यवस्था लागू कर दी है। जर्मनी और इंग्लैंड की तरह धनी देशों से लेकर पेरु या श्रीलंका की तरह तथाकथित गरीब देशों में भी यह व्यवस्था चालू हो गयी है।उन्होंने ऐसा कैसे संभव कर दिखाया? हमारे अपने देश में यह क्यों संभव नहीं हो पा रहा है?
क्या होना चाहिए था ?
विश्व स्वास्थ्य संस्था या WHO (World Health Organization) ने 1978 में एक सनद जारी किया, जिसमें कहा गया कि सन् 2000 के अंदर सबके लिए स्वास्थ्य व्यवस्था लागू करनी होगी। इस सनद पर दस्तखत करने वाले तमाम देशों में भारतवर्ष अन्यतम रहा है। आज 2017 में भी भारत ने यह स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू नहीं किया है। आज भी जेब से पैसे खर्च करके स्वास्थ्य (या सरल भाषा में इलाज) खरीदना होता है। इसके बावजूद उपयुक्त, सही, विज्ञानसम्मत चिकित्सा मिलेगी ,इसकी कोई गारंटी नहीं है।ऐसा क्यों है, बताइये।
इन मांगों को लेकर हम पिछले चार साल से आंदोलन कर रहे हैं। अगस्त ,2015 में 33 संगठनों को लेकर बंगालभर में सबके लिए स्वास्थ्य प्रचार समिति का गठन करके सघन प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। बंगालभर में यह प्रचार अभियान चल रहा है। 24 जनवरी,2016 को स्वास्थ्य की मांग लेकर कोलकाता यूनिवर्सिटी इंस्टीच्युट में एक जन कांवेंशन हो गया। जिसमें डा. श्रीनाथ रेड्डी, डा.विनायक सेन और दूसरों ने अपने वक्तव्य पेश किये। पिछले साल 7 अप्रैल को, हमने `विश्व स्वास्थ्य दिवस ' `सबके लिए स्वास्थ्य दिवस' के रुप में मनाया। हमने इस मौके पर डा. श्रीनाथ रेड्डी कमिटी की सिफारिशों के मुताबिक ये मांगें रखी थींः
केंद्र या राज्य की सरकारी संस्था के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा दी जायें।
सभी स्वास्थ्य सेवाएं निःशुल्क हों।
सारी अत्यावश्यक दवाइयां निःशुल्क दी जायें।
सभी नागरिकों को आधार कार्ड की तर्ज पर HEALTH ENTITLEMENT CARD दिया जाये। जिस कार्ड के जरिये भारतवर्ष में कहीं भी उन्हें स्वास्थ्य सेवाें निःशुल्क मिलें।
स्वास्थ्य बीमा भ्रष्टाचार का स्रोत है,इस व्यवस्था को तुरंत खत्म कर दिया जाये।
लेकिन हुआ क्या ?
कांगेसी सरकार ने तो रेड्डी समिति की किसी भी सिफारिश को नहीं माना.इस पर तुर्रा यह कि भाजपा ने सत्ता में आकर स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में 9.4 प्रतिशत कटौती कर दी।सरकार की भूमिका मैनेजर की हो गयी और स्वास्थ्य क्षेत्र में गैरसरकारी निवेश को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
इस बीच पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तृणमूल सरकार के जमाने में कई उल्लेखनीय परिवर्तन हो गये हैं।पश्चिम बंगाल सरकार के स्वास्थ्य विभाग की ओर से प्रकाशित Health on the March,14 -15 के मुताबिकः
फरवरी, 2012में डाक्टरों से जेनेरिक दवाएं नूस्खे पर लिखने के लिए कहा गया।
2.सरकारी अस्पतालों में अस्वस्थ नवजात शिशुओं की चिकित्सा के लिए सिक निओनेटाल केअर यूनिट(एसएलसीयू) और सिक निओनेटाल स्टेबेलाइजिंग यूनिट की संख्या बढ़ा दी गयी।
3.विभिन्न सरकारी अस्पतालों में उचित मूल्य पर दवाओं की दुकानें चालू हो गयी हैं,जहां से 142 अत्यावश्यक दवाइयां 48 से 67.25 प्रतिशत कम कीमत पर खरीदी जा सकती है।इसके अलावा इन दुकानों में एंजिओप्लास्टि में इस्तेमाल किये जाने वाले स्टेंट, पेसमेकर, अस्थि चिकित्सा के लिए इम्प्लांट इत्यादि भी रियायती दरों पर खरीदे जा सकते हैं।
4,मेडिकल कालेजों की संख्या बढ़कर 17 हो गयीं,जहां 2200 सीटें हैं।
4.पिछड़ा क्षेत्र विकास खाते से देहात में तेरह मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों की स्थापना का कमा चल रहा है।
6.जिला अस्पतालों और मेडिकल कालेज अस्पतालों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है।
7. 9 फरवरी,2014 को जारी एक सरकारी निर्देश में कहा गया है कि सरकारी अस्पतालों में आउटडोर और इनडोर फ्री बेड पर निःशुल्क अत्यावश्यक दवाओं की आपूर्ति की जाये।
8. 3 मार्च,2014 को जारी एक आदेश में कहा गया है कि अब से सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की लिखी दवाइयों का पूरा कोर्स मरीजों को दिया जायेगा।
9. विभिन्न सरकारी अस्पतालों में सिटी स्कैन, एमआरआई, एक्सरे और किसी किसी मामले में विभिन्न तरह की खून की जांच के लिए सरकार ने पीपीपी माडल के तहत गैरसरकारी संस्थाओं के साथ समझौता किया है,जिसके तहत मरीज बाजार की तुलना में कुछ कम कीमत पर ये जांच पड़ताल करा सकते हैं।
इसके अलावा अक्तूबर,2015 से पश्चिम बंगाल के सारे सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कालेजों में चिकित्सा पर सारा खर्च निःशुल्क कर दिया गया है (हालांकि पीपीपी माडल की सारी सेवाओं पर यह लागू नहीं है।
वास्तव में हुआ क्या है?
सारी चिकित्सा निःशुल्क है,ऐसा सुनने पर लगता है कि `यह तो जैसे सबके लिए स्वास्थ्य का हमारा सपना सच हो गया'। किंतु मित्रों.असल में ऐसी कोई तस्वीर बनती नहीं है। सबकुछ मुफ्त मिलेगा,ऐसा सरकारी ऐलान हो जाने के बावजूद पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल रहा है। सभी दवाइयां नहीं मिल रही हैं। आपरेशन, रेडियोथेरापी, केमोथेपरापी के लिए लंबा इंतजार करना पड़ रहा है।पेस मेकर, स्टेंट, प्रस्थेसिस काफी मात्रा में न मिलने से मरीजों को खाली हाथ लौटाकर बार बार बुलाया जा रहा है। ढांचा, डाक्टर, नर्स, स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या बढ़ाये बिना सबकुछ मुफ्त है,ऐलान कर देने से चिकित्सा का स्तर लगातार गिर रहा है।कहीं वार्मर में बच्चा झुलस रहा है तो कहीं तीमारदार डाक्टर नर्स को पीट रहे हैं।असलियत की तस्वीर यह है।
हाल में हमारी मुख्यमंत्री ने कोलकाता के बड़े बड़े निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम के प्रबंधकों को बुलाकर उन्हें थोड़ा बहुत डांटा फटकारा है। जिनपर आरोप है कि वे मुनाफाखोरी के लिए मरीजों की परवाह नहीं करते।किंतु समझने वाली बात तो यह है कि जो लोग कारोबार चला रहे हैं ,वे डांट फटकार की वजह से मरीजों के हित में सोचना शुरु कर देंगे,ऐसा समझना गलत है। स्वास्थ्य के साथ जहां रुपयों का लेन देन का मामला जुड़ा हुआ है,ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था में किसी भी स्थिति में मुनाफा को हाशिये पर रखकर पहले मरीज के सर्वोत्तम हित के बारे में सोचा नहीं जा सकता। इसके अलावा सवाल तो यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज कराने के बदले गैरसरकारी अस्पतालों में सेहत खरीदने के लिए लोग आखिर क्यों चले जाते हैं। जा इसलिए रहे हैं कि मुफ्त में जो मिलने का ऐलान है,हकीकत में उसका कोई वजूद ही नहीं है।अगर जेब में पैसे हों तो लोग सरकारी अस्पताल के दरवज्जे पर झांकने भी नहीं जाते। बड़ी संख्या में सुपरस्पेशलिटी अस्पताल हैं, जहां डाक्टर नहीं हैं, नर्स नहीं है, दवाएं और उपकरण नहीं हैं। बेड मिलता नहीं है और मरणासन्न रोगी को इस अस्पताल से उस अस्पताल को रिफर करते रहने की मजह से परिजन उसे लेकर भटकते ही रहते हैं। अंत में कोई उपाय न होने की वजह से ही वे गैरसरकारी अस्पतालों में चले जाते हैं।जिनके पास पैसे हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ है तो जिनके पास पैसे नहीं हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ और है।दोनों ही व्यवस्था साथ सात चलते रहने की स्थिति में विज्ञानसंगत चिकित्सा किसीकी नहीं होती। किसी को जरुरत के हिसाब से काफी ज्यादा मिल जाता है तो दूसरों को थोड़ा बहुत फ्री माल मिल जाता है। इस समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि देश में सभी के लिए एक ही व्यवस्था बनायी जाये, जिससे पैसे पर यह कतई निर्भर न हो कि किसे किस तरह का इलाज मिलता है। ऐसी व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार लें, कोई मुनाफाखोर स्वास्थ्यविक्रेता नहीं। यह सोचने पर अचरज होता है कि सारा जोर `सबके लिए आधार कार्ड' की मांग पर है लेकिन `सबके लिए स्वास्थ्य' को लेकर तनिक परवाह किसी को नहीं है।
इसलिए इस साल भी हम विश्व स्वास्थ्य दिवस सबके लिए स्वास्थ की मांग दिवस के रुप में मनाने जा रहे हैं।आप भी आइये। आइये कि हम आवाज उठायें कि स्वास्थ्य कोई भीख नहीं है, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है।सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसंगत चिकित्सा की जिम्मेदारी सरकार लें।
श्रमजीवी स्वास्थ्य पहल
2014 के बाद भारत सरकार ने स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में कटौती कर दी।
`सबके लिए स्वास्थ्य' संभव है।
सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसम्मत चिकित्सा संभव है
सिर्फ विकसित देशों में नहीं,हमारे जैसे गरीब देशों में भी।
"সবার জন্যে স্বাস্থ্য" সম্ভব।
भारत सरकार की गठित एक उच्चस्तरीय स्वास्थ्य कमिटी ने ऐसा ही कहा है। कांग्रेस के सत्ताकाल में 2010 में गठित इस कमिटी के सभापिति डा. श्रीनाथ रेड्डी थे। रेड्डी कमिटी ने कहा था, अभ्यंतरीन उत्पादन के 1.4 से बढ़ाकर 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य के मद में सरकार अगर खर्च करें तो हमारे देश में भी सबके लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम की व्यवस्था लागू की जी सकती है। यानी यह आपका या मेरा आकाश कुसुम सपना नहीं है, सरकार की सलाहकार विशेषज्ञ समिति ही ऐसा कह रही है। बहरहाल, भारत की बात छोड़ दें, इस दुनिया के कम से कम 41 देशों की सरकारों ने यह व्यवस्था लागू कर दी है। जर्मनी और इंग्लैंड की तरह धनी देशों से लेकर पेरु या श्रीलंका की तरह तथाकथित गरीब देशों में भी यह व्यवस्था चालू हो गयी है।उन्होंने ऐसा कैसे संभव कर दिखाया? हमारे अपने देश में यह क्यों संभव नहीं हो पा रहा है?
क्या होना चाहिए था ?
विश्व स्वास्थ्य संस्था या WHO (World Health Organization) ने 1978 में एक सनद जारी किया, जिसमें कहा गया कि सन् 2000 के अंदर सबके लिए स्वास्थ्य व्यवस्था लागू करनी होगी। इस सनद पर दस्तखत करने वाले तमाम देशों में भारतवर्ष अन्यतम रहा है। आज 2017 में भी भारत ने यह स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू नहीं किया है। आज भी जेब से पैसे खर्च करके स्वास्थ्य (या सरल भाषा में इलाज) खरीदना होता है। इसके बावजूद उपयुक्त, सही, विज्ञानसम्मत चिकित्सा मिलेगी ,इसकी कोई गारंटी नहीं है।ऐसा क्यों है, बताइये।
इन मांगों को लेकर हम पिछले चार साल से आंदोलन कर रहे हैं। अगस्त ,2015 में 33 संगठनों को लेकर बंगालभर में सबके लिए स्वास्थ्य प्रचार समिति का गठन करके सघन प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। बंगालभर में यह प्रचार अभियान चल रहा है। 24 जनवरी,2016 को स्वास्थ्य की मांग लेकर कोलकाता यूनिवर्सिटी इंस्टीच्युट में एक जन कांवेंशन हो गया। जिसमें डा. श्रीनाथ रेड्डी, डा.विनायक सेन और दूसरों ने अपने वक्तव्य पेश किये। पिछले साल 7 अप्रैल को, हमने `विश्व स्वास्थ्य दिवस ' `सबके लिए स्वास्थ्य दिवस' के रुप में मनाया। हमने इस मौके पर डा. श्रीनाथ रेड्डी कमिटी की सिफारिशों के मुताबिक ये मांगें रखी थींः
केंद्र या राज्य की सरकारी संस्था के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा दी जायें।
सभी स्वास्थ्य सेवाएं निःशुल्क हों।
सारी अत्यावश्यक दवाइयां निःशुल्क दी जायें।
सभी नागरिकों को आधार कार्ड की तर्ज पर HEALTH ENTITLEMENT CARD दिया जाये। जिस कार्ड के जरिये भारतवर्ष में कहीं भी उन्हें स्वास्थ्य सेवाें निःशुल्क मिलें।
स्वास्थ्य बीमा भ्रष्टाचार का स्रोत है,इस व्यवस्था को तुरंत खत्म कर दिया जाये।
लेकिन हुआ क्या ?
कांगेसी सरकार ने तो रेड्डी समिति की किसी भी सिफारिश को नहीं माना.इस पर तुर्रा यह कि भाजपा ने सत्ता में आकर स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में 9.4 प्रतिशत कटौती कर दी।सरकार की भूमिका मैनेजर की हो गयी और स्वास्थ्य क्षेत्र में गैरसरकारी निवेश को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
इस बीच पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तृणमूल सरकार के जमाने में कई उल्लेखनीय परिवर्तन हो गये हैं।पश्चिम बंगाल सरकार के स्वास्थ्य विभाग की ओर से प्रकाशित Health on the March,14 -15 के मुताबिकः
फरवरी, 2012में डाक्टरों से जेनेरिक दवाएं नूस्खे पर लिखने के लिए कहा गया।
2.सरकारी अस्पतालों में अस्वस्थ नवजात शिशुओं की चिकित्सा के लिए सिक निओनेटाल केअर यूनिट(एसएलसीयू) और सिक निओनेटाल स्टेबेलाइजिंग यूनिट की संख्या बढ़ा दी गयी।
3.विभिन्न सरकारी अस्पतालों में उचित मूल्य पर दवाओं की दुकानें चालू हो गयी हैं,जहां से 142 अत्यावश्यक दवाइयां 48 से 67.25 प्रतिशत कम कीमत पर खरीदी जा सकती है।इसके अलावा इन दुकानों में एंजिओप्लास्टि में इस्तेमाल किये जाने वाले स्टेंट, पेसमेकर, अस्थि चिकित्सा के लिए इम्प्लांट इत्यादि भी रियायती दरों पर खरीदे जा सकते हैं।
4,मेडिकल कालेजों की संख्या बढ़कर 17 हो गयीं,जहां 2200 सीटें हैं।
4.पिछड़ा क्षेत्र विकास खाते से देहात में तेरह मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों की स्थापना का कमा चल रहा है।
6.जिला अस्पतालों और मेडिकल कालेज अस्पतालों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है।
7. 9 फरवरी,2014 को जारी एक सरकारी निर्देश में कहा गया है कि सरकारी अस्पतालों में आउटडोर और इनडोर फ्री बेड पर निःशुल्क अत्यावश्यक दवाओं की आपूर्ति की जाये।
8. 3 मार्च,2014 को जारी एक आदेश में कहा गया है कि अब से सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की लिखी दवाइयों का पूरा कोर्स मरीजों को दिया जायेगा।
9. विभिन्न सरकारी अस्पतालों में सिटी स्कैन, एमआरआई, एक्सरे और किसी किसी मामले में विभिन्न तरह की खून की जांच के लिए सरकार ने पीपीपी माडल के तहत गैरसरकारी संस्थाओं के साथ समझौता किया है,जिसके तहत मरीज बाजार की तुलना में कुछ कम कीमत पर ये जांच पड़ताल करा सकते हैं।
इसके अलावा अक्तूबर,2015 से पश्चिम बंगाल के सारे सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कालेजों में चिकित्सा पर सारा खर्च निःशुल्क कर दिया गया है (हालांकि पीपीपी माडल की सारी सेवाओं पर यह लागू नहीं है।
वास्तव में हुआ क्या है?
सारी चिकित्सा निःशुल्क है,ऐसा सुनने पर लगता है कि `यह तो जैसे सबके लिए स्वास्थ्य का हमारा सपना सच हो गया'। किंतु मित्रों.असल में ऐसी कोई तस्वीर बनती नहीं है। सबकुछ मुफ्त मिलेगा,ऐसा सरकारी ऐलान हो जाने के बावजूद पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल रहा है। सभी दवाइयां नहीं मिल रही हैं। आपरेशन, रेडियोथेरापी, केमोथेपरापी के लिए लंबा इंतजार करना पड़ रहा है।पेस मेकर, स्टेंट, प्रस्थेसिस काफी मात्रा में न मिलने से मरीजों को खाली हाथ लौटाकर बार बार बुलाया जा रहा है। ढांचा, डाक्टर, नर्स, स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या बढ़ाये बिना सबकुछ मुफ्त है,ऐलान कर देने से चिकित्सा का स्तर लगातार गिर रहा है।कहीं वार्मर में बच्चा झुलस रहा है तो कहीं तीमारदार डाक्टर नर्स को पीट रहे हैं।असलियत की तस्वीर यह है।
हाल में हमारी मुख्यमंत्री ने कोलकाता के बड़े बड़े निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम के प्रबंधकों को बुलाकर उन्हें थोड़ा बहुत डांटा फटकारा है। जिनपर आरोप है कि वे मुनाफाखोरी के लिए मरीजों की परवाह नहीं करते।किंतु समझने वाली बात तो यह है कि जो लोग कारोबार चला रहे हैं ,वे डांट फटकार की वजह से मरीजों के हित में सोचना शुरु कर देंगे,ऐसा समझना गलत है। स्वास्थ्य के साथ जहां रुपयों का लेन देन का मामला जुड़ा हुआ है,ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था में किसी भी स्थिति में मुनाफा को हाशिये पर रखकर पहले मरीज के सर्वोत्तम हित के बारे में सोचा नहीं जा सकता। इसके अलावा सवाल तो यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज कराने के बदले गैरसरकारी अस्पतालों में सेहत खरीदने के लिए लोग आखिर क्यों चले जाते हैं। जा इसलिए रहे हैं कि मुफ्त में जो मिलने का ऐलान है,हकीकत में उसका कोई वजूद ही नहीं है।अगर जेब में पैसे हों तो लोग सरकारी अस्पताल के दरवज्जे पर झांकने भी नहीं जाते। बड़ी संख्या में सुपरस्पेशलिटी अस्पताल हैं, जहां डाक्टर नहीं हैं, नर्स नहीं है, दवाएं और उपकरण नहीं हैं। बेड मिलता नहीं है और मरणासन्न रोगी को इस अस्पताल से उस अस्पताल को रिफर करते रहने की मजह से परिजन उसे लेकर भटकते ही रहते हैं। अंत में कोई उपाय न होने की वजह से ही वे गैरसरकारी अस्पतालों में चले जाते हैं।जिनके पास पैसे हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ है तो जिनके पास पैसे नहीं हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ और है।दोनों ही व्यवस्था साथ सात चलते रहने की स्थिति में विज्ञानसंगत चिकित्सा किसीकी नहीं होती। किसी को जरुरत के हिसाब से काफी ज्यादा मिल जाता है तो दूसरों को थोड़ा बहुत फ्री माल मिल जाता है। इस समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि देश में सभी के लिए एक ही व्यवस्था बनायी जाये, जिससे पैसे पर यह कतई निर्भर न हो कि किसे किस तरह का इलाज मिलता है। ऐसी व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार लें, कोई मुनाफाखोर स्वास्थ्यविक्रेता नहीं। यह सोचने पर अचरज होता है कि सारा जोर `सबके लिए आधार कार्ड' की मांग पर है लेकिन `सबके लिए स्वास्थ्य' को लेकर तनिक परवाह किसी को नहीं है।
इसलिए इस साल भी हम विश्व स्वास्थ्य दिवस सबके लिए स्वास्थ की मांग दिवस के रुप में मनाने जा रहे हैं।आप भी आइये। आइये कि हम आवाज उठायें कि स्वास्थ्य कोई भीख नहीं है, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है।सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसंगत चिकित्सा की जिम्मेदारी सरकार लें।
श्रमजीवी स्वास्थ्य पहल
2014 के बाद भारत सरकार ने स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में कटौती कर दी।
`सबके लिए स्वास्थ्य' संभव है।
सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसम्मत चिकित्सा संभव है
सिर्फ विकसित देशों में नहीं,हमारे जैसे गरीब देशों में भी।
"সবার জন্যে স্বাস্থ্য" সম্ভব।
भारत सरकार की गठित एक उच्चस्तरीय स्वास्थ्य कमिटी ने ऐसा ही कहा है। कांग्रेस के सत्ताकाल में 2010 में गठित इस कमिटी के सभापिति डा. श्रीनाथ रेड्डी थे। रेड्डी कमिटी ने कहा था, अभ्यंतरीन उत्पादन के 1.4 से बढ़ाकर 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य के मद में सरकार अगर खर्च करें तो हमारे देश में भी सबके लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम की व्यवस्था लागू की जी सकती है। यानी यह आपका या मेरा आकाश कुसुम सपना नहीं है, सरकार की सलाहकार विशेषज्ञ समिति ही ऐसा कह रही है। बहरहाल, भारत की बात छोड़ दें, इस दुनिया के कम से कम 41 देशों की सरकारों ने यह व्यवस्था लागू कर दी है। जर्मनी और इंग्लैंड की तरह धनी देशों से लेकर पेरु या श्रीलंका की तरह तथाकथित गरीब देशों में भी यह व्यवस्था चालू हो गयी है।उन्होंने ऐसा कैसे संभव कर दिखाया? हमारे अपने देश में यह क्यों संभव नहीं हो पा रहा है?
क्या होना चाहिए था ?
विश्व स्वास्थ्य संस्था या WHO (World Health Organization) ने 1978 में एक सनद जारी किया, जिसमें कहा गया कि सन् 2000 के अंदर सबके लिए स्वास्थ्य व्यवस्था लागू करनी होगी। इस सनद पर दस्तखत करने वाले तमाम देशों में भारतवर्ष अन्यतम रहा है। आज 2017 में भी भारत ने यह स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू नहीं किया है। आज भी जेब से पैसे खर्च करके स्वास्थ्य (या सरल भाषा में इलाज) खरीदना होता है। इसके बावजूद उपयुक्त, सही, विज्ञानसम्मत चिकित्सा मिलेगी ,इसकी कोई गारंटी नहीं है।ऐसा क्यों है, बताइये।
इन मांगों को लेकर हम पिछले चार साल से आंदोलन कर रहे हैं। अगस्त ,2015 में 33 संगठनों को लेकर बंगालभर में सबके लिए स्वास्थ्य प्रचार समिति का गठन करके सघन प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। बंगालभर में यह प्रचार अभियान चल रहा है। 24 जनवरी,2016 को स्वास्थ्य की मांग लेकर कोलकाता यूनिवर्सिटी इंस्टीच्युट में एक जन कांवेंशन हो गया। जिसमें डा. श्रीनाथ रेड्डी, डा.विनायक सेन और दूसरों ने अपने वक्तव्य पेश किये। पिछले साल 7 अप्रैल को, हमने `विश्व स्वास्थ्य दिवस ' `सबके लिए स्वास्थ्य दिवस' के रुप में मनाया। हमने इस मौके पर डा. श्रीनाथ रेड्डी कमिटी की सिफारिशों के मुताबिक ये मांगें रखी थींः
केंद्र या राज्य की सरकारी संस्था के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा दी जायें।
सभी स्वास्थ्य सेवाएं निःशुल्क हों।
सारी अत्यावश्यक दवाइयां निःशुल्क दी जायें।
सभी नागरिकों को आधार कार्ड की तर्ज पर HEALTH ENTITLEMENT CARD दिया जाये। जिस कार्ड के जरिये भारतवर्ष में कहीं भी उन्हें स्वास्थ्य सेवाें निःशुल्क मिलें।
स्वास्थ्य बीमा भ्रष्टाचार का स्रोत है,इस व्यवस्था को तुरंत खत्म कर दिया जाये।
लेकिन हुआ क्या ?
कांगेसी सरकार ने तो रेड्डी समिति की किसी भी सिफारिश को नहीं माना.इस पर तुर्रा यह कि भाजपा ने सत्ता में आकर स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में 9.4 प्रतिशत कटौती कर दी।सरकार की भूमिका मैनेजर की हो गयी और स्वास्थ्य क्षेत्र में गैरसरकारी निवेश को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
इस बीच पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तृणमूल सरकार के जमाने में कई उल्लेखनीय परिवर्तन हो गये हैं।पश्चिम बंगाल सरकार के स्वास्थ्य विभाग की ओर से प्रकाशित Health on the March,14 -15 के मुताबिकः
फरवरी, 2012में डाक्टरों से जेनेरिक दवाएं नूस्खे पर लिखने के लिए कहा गया।
2.सरकारी अस्पतालों में अस्वस्थ नवजात शिशुओं की चिकित्सा के लिए सिक निओनेटाल केअर यूनिट(एसएलसीयू) और सिक निओनेटाल स्टेबेलाइजिंग यूनिट की संख्या बढ़ा दी गयी।
3.विभिन्न सरकारी अस्पतालों में उचित मूल्य पर दवाओं की दुकानें चालू हो गयी हैं,जहां से 142 अत्यावश्यक दवाइयां 48 से 67.25 प्रतिशत कम कीमत पर खरीदी जा सकती है।इसके अलावा इन दुकानों में एंजिओप्लास्टि में इस्तेमाल किये जाने वाले स्टेंट, पेसमेकर, अस्थि चिकित्सा के लिए इम्प्लांट इत्यादि भी रियायती दरों पर खरीदे जा सकते हैं।
4,मेडिकल कालेजों की संख्या बढ़कर 17 हो गयीं,जहां 2200 सीटें हैं।
4.पिछड़ा क्षेत्र विकास खाते से देहात में तेरह मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों की स्थापना का कमा चल रहा है।
6.जिला अस्पतालों और मेडिकल कालेज अस्पतालों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है।
7. 9 फरवरी,2014 को जारी एक सरकारी निर्देश में कहा गया है कि सरकारी अस्पतालों में आउटडोर और इनडोर फ्री बेड पर निःशुल्क अत्यावश्यक दवाओं की आपूर्ति की जाये।
8. 3 मार्च,2014 को जारी एक आदेश में कहा गया है कि अब से सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की लिखी दवाइयों का पूरा कोर्स मरीजों को दिया जायेगा।
9. विभिन्न सरकारी अस्पतालों में सिटी स्कैन, एमआरआई, एक्सरे और किसी किसी मामले में विभिन्न तरह की खून की जांच के लिए सरकार ने पीपीपी माडल के तहत गैरसरकारी संस्थाओं के साथ समझौता किया है,जिसके तहत मरीज बाजार की तुलना में कुछ कम कीमत पर ये जांच पड़ताल करा सकते हैं।
इसके अलावा अक्तूबर,2015 से पश्चिम बंगाल के सारे सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कालेजों में चिकित्सा पर सारा खर्च निःशुल्क कर दिया गया है (हालांकि पीपीपी माडल की सारी सेवाओं पर यह लागू नहीं है।
वास्तव में हुआ क्या है?
सारी चिकित्सा निःशुल्क है,ऐसा सुनने पर लगता है कि `यह तो जैसे सबके लिए स्वास्थ्य का हमारा सपना सच हो गया'। किंतु मित्रों.असल में ऐसी कोई तस्वीर बनती नहीं है। सबकुछ मुफ्त मिलेगा,ऐसा सरकारी ऐलान हो जाने के बावजूद पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल रहा है। सभी दवाइयां नहीं मिल रही हैं। आपरेशन, रेडियोथेरापी, केमोथेपरापी के लिए लंबा इंतजार करना पड़ रहा है।पेस मेकर, स्टेंट, प्रस्थेसिस काफी मात्रा में न मिलने से मरीजों को खाली हाथ लौटाकर बार बार बुलाया जा रहा है। ढांचा, डाक्टर, नर्स, स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या बढ़ाये बिना सबकुछ मुफ्त है,ऐलान कर देने से चिकित्सा का स्तर लगातार गिर रहा है।कहीं वार्मर में बच्चा झुलस रहा है तो कहीं तीमारदार डाक्टर नर्स को पीट रहे हैं।असलियत की तस्वीर यह है।
हाल में हमारी मुख्यमंत्री ने कोलकाता के बड़े बड़े निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम के प्रबंधकों को बुलाकर उन्हें थोड़ा बहुत डांटा फटकारा है। जिनपर आरोप है कि वे मुनाफाखोरी के लिए मरीजों की परवाह नहीं करते।किंतु समझने वाली बात तो यह है कि जो लोग कारोबार चला रहे हैं ,वे डांट फटकार की वजह से मरीजों के हित में सोचना शुरु कर देंगे,ऐसा समझना गलत है। स्वास्थ्य के साथ जहां रुपयों का लेन देन का मामला जुड़ा हुआ है,ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था में किसी भी स्थिति में मुनाफा को हाशिये पर रखकर पहले मरीज के सर्वोत्तम हित के बारे में सोचा नहीं जा सकता। इसके अलावा सवाल तो यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज कराने के बदले गैरसरकारी अस्पतालों में सेहत खरीदने के लिए लोग आखिर क्यों चले जाते हैं। जा इसलिए रहे हैं कि मुफ्त में जो मिलने का ऐलान है,हकीकत में उसका कोई वजूद ही नहीं है।अगर जेब में पैसे हों तो लोग सरकारी अस्पताल के दरवज्जे पर झांकने भी नहीं जाते। बड़ी संख्या में सुपरस्पेशलिटी अस्पताल हैं, जहां डाक्टर नहीं हैं, नर्स नहीं है, दवाएं और उपकरण नहीं हैं। बेड मिलता नहीं है और मरणासन्न रोगी को इस अस्पताल से उस अस्पताल को रिफर करते रहने की मजह से परिजन उसे लेकर भटकते ही रहते हैं। अंत में कोई उपाय न होने की वजह से ही वे गैरसरकारी अस्पतालों में चले जाते हैं।जिनके पास पैसे हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ है तो जिनके पास पैसे नहीं हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ और है।दोनों ही व्यवस्था साथ सात चलते रहने की स्थिति में विज्ञानसंगत चिकित्सा किसीकी नहीं होती। किसी को जरुरत के हिसाब से काफी ज्यादा मिल जाता है तो दूसरों को थोड़ा बहुत फ्री माल मिल जाता है। इस समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि देश में सभी के लिए एक ही व्यवस्था बनायी जाये, जिससे पैसे पर यह कतई निर्भर न हो कि किसे किस तरह का इलाज मिलता है। ऐसी व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार लें, कोई मुनाफाखोर स्वास्थ्यविक्रेता नहीं। यह सोचने पर अचरज होता है कि सारा जोर `सबके लिए आधार कार्ड' की मांग पर है लेकिन `सबके लिए स्वास्थ्य' को लेकर तनिक परवाह किसी को नहीं है।
इसलिए इस साल भी हम विश्व स्वास्थ्य दिवस सबके लिए स्वास्थ की मांग दिवस के रुप में मनाने जा रहे हैं।आप भी आइये। आइये कि हम आवाज उठायें कि स्वास्थ्य कोई भीख नहीं है, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है।सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसंगत चिकित्सा की जिम्मेदारी सरकार लें।
श्रमजीवी स्वास्थ्य पहल
-- 2014 के बाद भारत सरकार ने स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में कटौती कर दी।(I could not complete the talk as the link disrupted and the talk ended abruptly.But you may get the point in dscription.I had to focus on the Shramik krishak Maitrui Swsthaya kendra,Chengaile to inform the rest of the nation about this excellent experiment.
आवाज उठायें कि स्वास्थ्य कोई भीख नहीं है, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है।सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसंगत चिकित्सा की जिम्मेदारी सरकार लें।
`सबके लिए स्वास्थ्य' संभव है।
सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसम्मत चिकित्सा संभव है
सिर्फ विकसित देशों में नहीं,हमारे जैसे गरीब देशों में भी।
"সবার জন্যে স্বাস্থ্য" সম্ভব।
भारत सरकार की गठित एक उच्चस्तरीय स्वास्थ्य कमिटी ने ऐसा ही कहा है। कांग्रेस के सत्ताकाल में 2010 में गठित इस कमिटी के सभापिति डा. श्रीनाथ रेड्डी थे। रेड्डी कमिटी ने कहा था, अभ्यंतरीन उत्पादन के 1.4 से बढ़ाकर 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य के मद में सरकार अगर खर्च करें तो हमारे देश में भी सबके लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम की व्यवस्था लागू की जी सकती है। यानी यह आपका या मेरा आकाश कुसुम सपना नहीं है, सरकार की सलाहकार विशेषज्ञ समिति ही ऐसा कह रही है। बहरहाल, भारत की बात छोड़ दें, इस दुनिया के कम से कम 41 देशों की सरकारों ने यह व्यवस्था लागू कर दी है। जर्मनी और इंग्लैंड की तरह धनी देशों से लेकर पेरु या श्रीलंका की तरह तथाकथित गरीब देशों में भी यह व्यवस्था चालू हो गयी है।उन्होंने ऐसा कैसे संभव कर दिखाया? हमारे अपने देश में यह क्यों संभव नहीं हो पा रहा है?
क्या होना चाहिए था ?
विश्व स्वास्थ्य संस्था या WHO (World Health Organization) ने 1978 में एक सनद जारी किया, जिसमें कहा गया कि सन् 2000 के अंदर सबके लिए स्वास्थ्य व्यवस्था लागू करनी होगी। इस सनद पर दस्तखत करने वाले तमाम देशों में भारतवर्ष अन्यतम रहा है। आज 2017 में भी भारत ने यह स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू नहीं किया है। आज भी जेब से पैसे खर्च करके स्वास्थ्य (या सरल भाषा में इलाज) खरीदना होता है। इसके बावजूद उपयुक्त, सही, विज्ञानसम्मत चिकित्सा मिलेगी ,इसकी कोई गारंटी नहीं है।ऐसा क्यों है, बताइये।
इन मांगों को लेकर हम पिछले चार साल से आंदोलन कर रहे हैं। अगस्त ,2015 में 33 संगठनों को लेकर बंगालभर में सबके लिए स्वास्थ्य प्रचार समिति का गठन करके सघन प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। बंगालभर में यह प्रचार अभियान चल रहा है। 24 जनवरी,2016 को स्वास्थ्य की मांग लेकर कोलकाता यूनिवर्सिटी इंस्टीच्युट में एक जन कांवेंशन हो गया। जिसमें डा. श्रीनाथ रेड्डी, डा.विनायक सेन और दूसरों ने अपने वक्तव्य पेश किये। पिछले साल 7 अप्रैल को, हमने `विश्व स्वास्थ्य दिवस ' `सबके लिए स्वास्थ्य दिवस' के रुप में मनाया। हमने इस मौके पर डा. श्रीनाथ रेड्डी कमिटी की सिफारिशों के मुताबिक ये मांगें रखी थींः
केंद्र या राज्य की सरकारी संस्था के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा दी जायें।
सभी स्वास्थ्य सेवाएं निःशुल्क हों।
सारी अत्यावश्यक दवाइयां निःशुल्क दी जायें।
सभी नागरिकों को आधार कार्ड की तर्ज पर HEALTH ENTITLEMENT CARD दिया जाये। जिस कार्ड के जरिये भारतवर्ष में कहीं भी उन्हें स्वास्थ्य सेवाें निःशुल्क मिलें।
स्वास्थ्य बीमा भ्रष्टाचार का स्रोत है,इस व्यवस्था को तुरंत खत्म कर दिया जाये।
लेकिन हुआ क्या ?
कांगेसी सरकार ने तो रेड्डी समिति की किसी भी सिफारिश को नहीं माना.इस पर तुर्रा यह कि भाजपा ने सत्ता में आकर स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में 9.4 प्रतिशत कटौती कर दी।सरकार की भूमिका मैनेजर की हो गयी और स्वास्थ्य क्षेत्र में गैरसरकारी निवेश को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
इस बीच पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तृणमूल सरकार के जमाने में कई उल्लेखनीय परिवर्तन हो गये हैं।पश्चिम बंगाल सरकार के स्वास्थ्य विभाग की ओर से प्रकाशित Health on the March,14 -15 के मुताबिकः
फरवरी, 2012में डाक्टरों से जेनेरिक दवाएं नूस्खे पर लिखने के लिए कहा गया।
2.सरकारी अस्पतालों में अस्वस्थ नवजात शिशुओं की चिकित्सा के लिए सिक निओनेटाल केअर यूनिट(एसएलसीयू) और सिक निओनेटाल स्टेबेलाइजिंग यूनिट की संख्या बढ़ा दी गयी।
3.विभिन्न सरकारी अस्पतालों में उचित मूल्य पर दवाओं की दुकानें चालू हो गयी हैं,जहां से 142 अत्यावश्यक दवाइयां 48 से 67.25 प्रतिशत कम कीमत पर खरीदी जा सकती है।इसके अलावा इन दुकानों में एंजिओप्लास्टि में इस्तेमाल किये जाने वाले स्टेंट, पेसमेकर, अस्थि चिकित्सा के लिए इम्प्लांट इत्यादि भी रियायती दरों पर खरीदे जा सकते हैं।
4,मेडिकल कालेजों की संख्या बढ़कर 17 हो गयीं,जहां 2200 सीटें हैं।
4.पिछड़ा क्षेत्र विकास खाते से देहात में तेरह मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों की स्थापना का कमा चल रहा है।
6.जिला अस्पतालों और मेडिकल कालेज अस्पतालों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है।
7. 9 फरवरी,2014 को जारी एक सरकारी निर्देश में कहा गया है कि सरकारी अस्पतालों में आउटडोर और इनडोर फ्री बेड पर निःशुल्क अत्यावश्यक दवाओं की आपूर्ति की जाये।
8. 3 मार्च,2014 को जारी एक आदेश में कहा गया है कि अब से सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की लिखी दवाइयों का पूरा कोर्स मरीजों को दिया जायेगा।
9. विभिन्न सरकारी अस्पतालों में सिटी स्कैन, एमआरआई, एक्सरे और किसी किसी मामले में विभिन्न तरह की खून की जांच के लिए सरकार ने पीपीपी माडल के तहत गैरसरकारी संस्थाओं के साथ समझौता किया है,जिसके तहत मरीज बाजार की तुलना में कुछ कम कीमत पर ये जांच पड़ताल करा सकते हैं।
इसके अलावा अक्तूबर,2015 से पश्चिम बंगाल के सारे सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कालेजों में चिकित्सा पर सारा खर्च निःशुल्क कर दिया गया है (हालांकि पीपीपी माडल की सारी सेवाओं पर यह लागू नहीं है।
वास्तव में हुआ क्या है?
सारी चिकित्सा निःशुल्क है,ऐसा सुनने पर लगता है कि `यह तो जैसे सबके लिए स्वास्थ्य का हमारा सपना सच हो गया'। किंतु मित्रों.असल में ऐसी कोई तस्वीर बनती नहीं है। सबकुछ मुफ्त मिलेगा,ऐसा सरकारी ऐलान हो जाने के बावजूद पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल रहा है। सभी दवाइयां नहीं मिल रही हैं। आपरेशन, रेडियोथेरापी, केमोथेपरापी के लिए लंबा इंतजार करना पड़ रहा है।पेस मेकर, स्टेंट, प्रस्थेसिस काफी मात्रा में न मिलने से मरीजों को खाली हाथ लौटाकर बार बार बुलाया जा रहा है। ढांचा, डाक्टर, नर्स, स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या बढ़ाये बिना सबकुछ मुफ्त है,ऐलान कर देने से चिकित्सा का स्तर लगातार गिर रहा है।कहीं वार्मर में बच्चा झुलस रहा है तो कहीं तीमारदार डाक्टर नर्स को पीट रहे हैं।असलियत की तस्वीर यह है।
हाल में हमारी मुख्यमंत्री ने कोलकाता के बड़े बड़े निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम के प्रबंधकों को बुलाकर उन्हें थोड़ा बहुत डांटा फटकारा है। जिनपर आरोप है कि वे मुनाफाखोरी के लिए मरीजों की परवाह नहीं करते।किंतु समझने वाली बात तो यह है कि जो लोग कारोबार चला रहे हैं ,वे डांट फटकार की वजह से मरीजों के हित में सोचना शुरु कर देंगे,ऐसा समझना गलत है। स्वास्थ्य के साथ जहां रुपयों का लेन देन का मामला जुड़ा हुआ है,ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था में किसी भी स्थिति में मुनाफा को हाशिये पर रखकर पहले मरीज के सर्वोत्तम हित के बारे में सोचा नहीं जा सकता। इसके अलावा सवाल तो यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज कराने के बदले गैरसरकारी अस्पतालों में सेहत खरीदने के लिए लोग आखिर क्यों चले जाते हैं। जा इसलिए रहे हैं कि मुफ्त में जो मिलने का ऐलान है,हकीकत में उसका कोई वजूद ही नहीं है।अगर जेब में पैसे हों तो लोग सरकारी अस्पताल के दरवज्जे पर झांकने भी नहीं जाते। बड़ी संख्या में सुपरस्पेशलिटी अस्पताल हैं, जहां डाक्टर नहीं हैं, नर्स नहीं है, दवाएं और उपकरण नहीं हैं। बेड मिलता नहीं है और मरणासन्न रोगी को इस अस्पताल से उस अस्पताल को रिफर करते रहने की मजह से परिजन उसे लेकर भटकते ही रहते हैं। अंत में कोई उपाय न होने की वजह से ही वे गैरसरकारी अस्पतालों में चले जाते हैं।जिनके पास पैसे हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ है तो जिनके पास पैसे नहीं हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ और है।दोनों ही व्यवस्था साथ सात चलते रहने की स्थिति में विज्ञानसंगत चिकित्सा किसीकी नहीं होती। किसी को जरुरत के हिसाब से काफी ज्यादा मिल जाता है तो दूसरों को थोड़ा बहुत फ्री माल मिल जाता है। इस समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि देश में सभी के लिए एक ही व्यवस्था बनायी जाये, जिससे पैसे पर यह कतई निर्भर न हो कि किसे किस तरह का इलाज मिलता है। ऐसी व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार लें, कोई मुनाफाखोर स्वास्थ्यविक्रेता नहीं। यह सोचने पर अचरज होता है कि सारा जोर `सबके लिए आधार कार्ड' की मांग पर है लेकिन `सबके लिए स्वास्थ्य' को लेकर तनिक परवाह किसी को नहीं है।
इसलिए इस साल भी हम विश्व स्वास्थ्य दिवस सबके लिए स्वास्थ की मांग दिवस के रुप में मनाने जा रहे हैं।आप भी आइये। आइये कि हम आवाज उठायें कि स्वास्थ्य कोई भीख नहीं है, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है।सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसंगत चिकित्सा की जिम्मेदारी सरकार लें।
श्रमजीवी स्वास्थ्य पहल
2014 के बाद भारत सरकार ने स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में कटौती कर दी।
`सबके लिए स्वास्थ्य' संभव है।
सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसम्मत चिकित्सा संभव है
सिर्फ विकसित देशों में नहीं,हमारे जैसे गरीब देशों में भी।
"সবার জন্যে স্বাস্থ্য" সম্ভব।
भारत सरकार की गठित एक उच्चस्तरीय स्वास्थ्य कमिटी ने ऐसा ही कहा है। कांग्रेस के सत्ताकाल में 2010 में गठित इस कमिटी के सभापिति डा. श्रीनाथ रेड्डी थे। रेड्डी कमिटी ने कहा था, अभ्यंतरीन उत्पादन के 1.4 से बढ़ाकर 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य के मद में सरकार अगर खर्च करें तो हमारे देश में भी सबके लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम की व्यवस्था लागू की जी सकती है। यानी यह आपका या मेरा आकाश कुसुम सपना नहीं है, सरकार की सलाहकार विशेषज्ञ समिति ही ऐसा कह रही है। बहरहाल, भारत की बात छोड़ दें, इस दुनिया के कम से कम 41 देशों की सरकारों ने यह व्यवस्था लागू कर दी है। जर्मनी और इंग्लैंड की तरह धनी देशों से लेकर पेरु या श्रीलंका की तरह तथाकथित गरीब देशों में भी यह व्यवस्था चालू हो गयी है।उन्होंने ऐसा कैसे संभव कर दिखाया? हमारे अपने देश में यह क्यों संभव नहीं हो पा रहा है?
क्या होना चाहिए था ?
विश्व स्वास्थ्य संस्था या WHO (World Health Organization) ने 1978 में एक सनद जारी किया, जिसमें कहा गया कि सन् 2000 के अंदर सबके लिए स्वास्थ्य व्यवस्था लागू करनी होगी। इस सनद पर दस्तखत करने वाले तमाम देशों में भारतवर्ष अन्यतम रहा है। आज 2017 में भी भारत ने यह स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू नहीं किया है। आज भी जेब से पैसे खर्च करके स्वास्थ्य (या सरल भाषा में इलाज) खरीदना होता है। इसके बावजूद उपयुक्त, सही, विज्ञानसम्मत चिकित्सा मिलेगी ,इसकी कोई गारंटी नहीं है।ऐसा क्यों है, बताइये।
इन मांगों को लेकर हम पिछले चार साल से आंदोलन कर रहे हैं। अगस्त ,2015 में 33 संगठनों को लेकर बंगालभर में सबके लिए स्वास्थ्य प्रचार समिति का गठन करके सघन प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। बंगालभर में यह प्रचार अभियान चल रहा है। 24 जनवरी,2016 को स्वास्थ्य की मांग लेकर कोलकाता यूनिवर्सिटी इंस्टीच्युट में एक जन कांवेंशन हो गया। जिसमें डा. श्रीनाथ रेड्डी, डा.विनायक सेन और दूसरों ने अपने वक्तव्य पेश किये। पिछले साल 7 अप्रैल को, हमने `विश्व स्वास्थ्य दिवस ' `सबके लिए स्वास्थ्य दिवस' के रुप में मनाया। हमने इस मौके पर डा. श्रीनाथ रेड्डी कमिटी की सिफारिशों के मुताबिक ये मांगें रखी थींः
केंद्र या राज्य की सरकारी संस्था के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा दी जायें।
सभी स्वास्थ्य सेवाएं निःशुल्क हों।
सारी अत्यावश्यक दवाइयां निःशुल्क दी जायें।
सभी नागरिकों को आधार कार्ड की तर्ज पर HEALTH ENTITLEMENT CARD दिया जाये। जिस कार्ड के जरिये भारतवर्ष में कहीं भी उन्हें स्वास्थ्य सेवाें निःशुल्क मिलें।
स्वास्थ्य बीमा भ्रष्टाचार का स्रोत है,इस व्यवस्था को तुरंत खत्म कर दिया जाये।
लेकिन हुआ क्या ?
कांगेसी सरकार ने तो रेड्डी समिति की किसी भी सिफारिश को नहीं माना.इस पर तुर्रा यह कि भाजपा ने सत्ता में आकर स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में 9.4 प्रतिशत कटौती कर दी।सरकार की भूमिका मैनेजर की हो गयी और स्वास्थ्य क्षेत्र में गैरसरकारी निवेश को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
इस बीच पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तृणमूल सरकार के जमाने में कई उल्लेखनीय परिवर्तन हो गये हैं।पश्चिम बंगाल सरकार के स्वास्थ्य विभाग की ओर से प्रकाशित Health on the March,14 -15 के मुताबिकः
फरवरी, 2012में डाक्टरों से जेनेरिक दवाएं नूस्खे पर लिखने के लिए कहा गया।
2.सरकारी अस्पतालों में अस्वस्थ नवजात शिशुओं की चिकित्सा के लिए सिक निओनेटाल केअर यूनिट(एसएलसीयू) और सिक निओनेटाल स्टेबेलाइजिंग यूनिट की संख्या बढ़ा दी गयी।
3.विभिन्न सरकारी अस्पतालों में उचित मूल्य पर दवाओं की दुकानें चालू हो गयी हैं,जहां से 142 अत्यावश्यक दवाइयां 48 से 67.25 प्रतिशत कम कीमत पर खरीदी जा सकती है।इसके अलावा इन दुकानों में एंजिओप्लास्टि में इस्तेमाल किये जाने वाले स्टेंट, पेसमेकर, अस्थि चिकित्सा के लिए इम्प्लांट इत्यादि भी रियायती दरों पर खरीदे जा सकते हैं।
4,मेडिकल कालेजों की संख्या बढ़कर 17 हो गयीं,जहां 2200 सीटें हैं।
4.पिछड़ा क्षेत्र विकास खाते से देहात में तेरह मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों की स्थापना का कमा चल रहा है।
6.जिला अस्पतालों और मेडिकल कालेज अस्पतालों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है।
7. 9 फरवरी,2014 को जारी एक सरकारी निर्देश में कहा गया है कि सरकारी अस्पतालों में आउटडोर और इनडोर फ्री बेड पर निःशुल्क अत्यावश्यक दवाओं की आपूर्ति की जाये।
8. 3 मार्च,2014 को जारी एक आदेश में कहा गया है कि अब से सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की लिखी दवाइयों का पूरा कोर्स मरीजों को दिया जायेगा।
9. विभिन्न सरकारी अस्पतालों में सिटी स्कैन, एमआरआई, एक्सरे और किसी किसी मामले में विभिन्न तरह की खून की जांच के लिए सरकार ने पीपीपी माडल के तहत गैरसरकारी संस्थाओं के साथ समझौता किया है,जिसके तहत मरीज बाजार की तुलना में कुछ कम कीमत पर ये जांच पड़ताल करा सकते हैं।
इसके अलावा अक्तूबर,2015 से पश्चिम बंगाल के सारे सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कालेजों में चिकित्सा पर सारा खर्च निःशुल्क कर दिया गया है (हालांकि पीपीपी माडल की सारी सेवाओं पर यह लागू नहीं है।
वास्तव में हुआ क्या है?
सारी चिकित्सा निःशुल्क है,ऐसा सुनने पर लगता है कि `यह तो जैसे सबके लिए स्वास्थ्य का हमारा सपना सच हो गया'। किंतु मित्रों.असल में ऐसी कोई तस्वीर बनती नहीं है। सबकुछ मुफ्त मिलेगा,ऐसा सरकारी ऐलान हो जाने के बावजूद पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल रहा है। सभी दवाइयां नहीं मिल रही हैं। आपरेशन, रेडियोथेरापी, केमोथेपरापी के लिए लंबा इंतजार करना पड़ रहा है।पेस मेकर, स्टेंट, प्रस्थेसिस काफी मात्रा में न मिलने से मरीजों को खाली हाथ लौटाकर बार बार बुलाया जा रहा है। ढांचा, डाक्टर, नर्स, स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या बढ़ाये बिना सबकुछ मुफ्त है,ऐलान कर देने से चिकित्सा का स्तर लगातार गिर रहा है।कहीं वार्मर में बच्चा झुलस रहा है तो कहीं तीमारदार डाक्टर नर्स को पीट रहे हैं।असलियत की तस्वीर यह है।
हाल में हमारी मुख्यमंत्री ने कोलकाता के बड़े बड़े निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम के प्रबंधकों को बुलाकर उन्हें थोड़ा बहुत डांटा फटकारा है। जिनपर आरोप है कि वे मुनाफाखोरी के लिए मरीजों की परवाह नहीं करते।किंतु समझने वाली बात तो यह है कि जो लोग कारोबार चला रहे हैं ,वे डांट फटकार की वजह से मरीजों के हित में सोचना शुरु कर देंगे,ऐसा समझना गलत है। स्वास्थ्य के साथ जहां रुपयों का लेन देन का मामला जुड़ा हुआ है,ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था में किसी भी स्थिति में मुनाफा को हाशिये पर रखकर पहले मरीज के सर्वोत्तम हित के बारे में सोचा नहीं जा सकता। इसके अलावा सवाल तो यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज कराने के बदले गैरसरकारी अस्पतालों में सेहत खरीदने के लिए लोग आखिर क्यों चले जाते हैं। जा इसलिए रहे हैं कि मुफ्त में जो मिलने का ऐलान है,हकीकत में उसका कोई वजूद ही नहीं है।अगर जेब में पैसे हों तो लोग सरकारी अस्पताल के दरवज्जे पर झांकने भी नहीं जाते। बड़ी संख्या में सुपरस्पेशलिटी अस्पताल हैं, जहां डाक्टर नहीं हैं, नर्स नहीं है, दवाएं और उपकरण नहीं हैं। बेड मिलता नहीं है और मरणासन्न रोगी को इस अस्पताल से उस अस्पताल को रिफर करते रहने की मजह से परिजन उसे लेकर भटकते ही रहते हैं। अंत में कोई उपाय न होने की वजह से ही वे गैरसरकारी अस्पतालों में चले जाते हैं।जिनके पास पैसे हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ है तो जिनके पास पैसे नहीं हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ और है।दोनों ही व्यवस्था साथ सात चलते रहने की स्थिति में विज्ञानसंगत चिकित्सा किसीकी नहीं होती। किसी को जरुरत के हिसाब से काफी ज्यादा मिल जाता है तो दूसरों को थोड़ा बहुत फ्री माल मिल जाता है। इस समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि देश में सभी के लिए एक ही व्यवस्था बनायी जाये, जिससे पैसे पर यह कतई निर्भर न हो कि किसे किस तरह का इलाज मिलता है। ऐसी व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार लें, कोई मुनाफाखोर स्वास्थ्यविक्रेता नहीं। यह सोचने पर अचरज होता है कि सारा जोर `सबके लिए आधार कार्ड' की मांग पर है लेकिन `सबके लिए स्वास्थ्य' को लेकर तनिक परवाह किसी को नहीं है।
इसलिए इस साल भी हम विश्व स्वास्थ्य दिवस सबके लिए स्वास्थ की मांग दिवस के रुप में मनाने जा रहे हैं।आप भी आइये। आइये कि हम आवाज उठायें कि स्वास्थ्य कोई भीख नहीं है, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है।सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसंगत चिकित्सा की जिम्मेदारी सरकार लें।
श्रमजीवी स्वास्थ्य पहल
2014 के बाद भारत सरकार ने स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में कटौती कर दी।
`सबके लिए स्वास्थ्य' संभव है।
सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसम्मत चिकित्सा संभव है
सिर्फ विकसित देशों में नहीं,हमारे जैसे गरीब देशों में भी।
"সবার জন্যে স্বাস্থ্য" সম্ভব।
भारत सरकार की गठित एक उच्चस्तरीय स्वास्थ्य कमिटी ने ऐसा ही कहा है। कांग्रेस के सत्ताकाल में 2010 में गठित इस कमिटी के सभापिति डा. श्रीनाथ रेड्डी थे। रेड्डी कमिटी ने कहा था, अभ्यंतरीन उत्पादन के 1.4 से बढ़ाकर 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य के मद में सरकार अगर खर्च करें तो हमारे देश में भी सबके लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम की व्यवस्था लागू की जी सकती है। यानी यह आपका या मेरा आकाश कुसुम सपना नहीं है, सरकार की सलाहकार विशेषज्ञ समिति ही ऐसा कह रही है। बहरहाल, भारत की बात छोड़ दें, इस दुनिया के कम से कम 41 देशों की सरकारों ने यह व्यवस्था लागू कर दी है। जर्मनी और इंग्लैंड की तरह धनी देशों से लेकर पेरु या श्रीलंका की तरह तथाकथित गरीब देशों में भी यह व्यवस्था चालू हो गयी है।उन्होंने ऐसा कैसे संभव कर दिखाया? हमारे अपने देश में यह क्यों संभव नहीं हो पा रहा है?
क्या होना चाहिए था ?
विश्व स्वास्थ्य संस्था या WHO (World Health Organization) ने 1978 में एक सनद जारी किया, जिसमें कहा गया कि सन् 2000 के अंदर सबके लिए स्वास्थ्य व्यवस्था लागू करनी होगी। इस सनद पर दस्तखत करने वाले तमाम देशों में भारतवर्ष अन्यतम रहा है। आज 2017 में भी भारत ने यह स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू नहीं किया है। आज भी जेब से पैसे खर्च करके स्वास्थ्य (या सरल भाषा में इलाज) खरीदना होता है। इसके बावजूद उपयुक्त, सही, विज्ञानसम्मत चिकित्सा मिलेगी ,इसकी कोई गारंटी नहीं है।ऐसा क्यों है, बताइये।
इन मांगों को लेकर हम पिछले चार साल से आंदोलन कर रहे हैं। अगस्त ,2015 में 33 संगठनों को लेकर बंगालभर में सबके लिए स्वास्थ्य प्रचार समिति का गठन करके सघन प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। बंगालभर में यह प्रचार अभियान चल रहा है। 24 जनवरी,2016 को स्वास्थ्य की मांग लेकर कोलकाता यूनिवर्सिटी इंस्टीच्युट में एक जन कांवेंशन हो गया। जिसमें डा. श्रीनाथ रेड्डी, डा.विनायक सेन और दूसरों ने अपने वक्तव्य पेश किये। पिछले साल 7 अप्रैल को, हमने `विश्व स्वास्थ्य दिवस ' `सबके लिए स्वास्थ्य दिवस' के रुप में मनाया। हमने इस मौके पर डा. श्रीनाथ रेड्डी कमिटी की सिफारिशों के मुताबिक ये मांगें रखी थींः
केंद्र या राज्य की सरकारी संस्था के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा दी जायें।
सभी स्वास्थ्य सेवाएं निःशुल्क हों।
सारी अत्यावश्यक दवाइयां निःशुल्क दी जायें।
सभी नागरिकों को आधार कार्ड की तर्ज पर HEALTH ENTITLEMENT CARD दिया जाये। जिस कार्ड के जरिये भारतवर्ष में कहीं भी उन्हें स्वास्थ्य सेवाें निःशुल्क मिलें।
स्वास्थ्य बीमा भ्रष्टाचार का स्रोत है,इस व्यवस्था को तुरंत खत्म कर दिया जाये।
लेकिन हुआ क्या ?
कांगेसी सरकार ने तो रेड्डी समिति की किसी भी सिफारिश को नहीं माना.इस पर तुर्रा यह कि भाजपा ने सत्ता में आकर स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में 9.4 प्रतिशत कटौती कर दी।सरकार की भूमिका मैनेजर की हो गयी और स्वास्थ्य क्षेत्र में गैरसरकारी निवेश को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
इस बीच पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तृणमूल सरकार के जमाने में कई उल्लेखनीय परिवर्तन हो गये हैं।पश्चिम बंगाल सरकार के स्वास्थ्य विभाग की ओर से प्रकाशित Health on the March,14 -15 के मुताबिकः
फरवरी, 2012में डाक्टरों से जेनेरिक दवाएं नूस्खे पर लिखने के लिए कहा गया।
2.सरकारी अस्पतालों में अस्वस्थ नवजात शिशुओं की चिकित्सा के लिए सिक निओनेटाल केअर यूनिट(एसएलसीयू) और सिक निओनेटाल स्टेबेलाइजिंग यूनिट की संख्या बढ़ा दी गयी।
3.विभिन्न सरकारी अस्पतालों में उचित मूल्य पर दवाओं की दुकानें चालू हो गयी हैं,जहां से 142 अत्यावश्यक दवाइयां 48 से 67.25 प्रतिशत कम कीमत पर खरीदी जा सकती है।इसके अलावा इन दुकानों में एंजिओप्लास्टि में इस्तेमाल किये जाने वाले स्टेंट, पेसमेकर, अस्थि चिकित्सा के लिए इम्प्लांट इत्यादि भी रियायती दरों पर खरीदे जा सकते हैं।
4,मेडिकल कालेजों की संख्या बढ़कर 17 हो गयीं,जहां 2200 सीटें हैं।
4.पिछड़ा क्षेत्र विकास खाते से देहात में तेरह मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों की स्थापना का कमा चल रहा है।
6.जिला अस्पतालों और मेडिकल कालेज अस्पतालों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है।
7. 9 फरवरी,2014 को जारी एक सरकारी निर्देश में कहा गया है कि सरकारी अस्पतालों में आउटडोर और इनडोर फ्री बेड पर निःशुल्क अत्यावश्यक दवाओं की आपूर्ति की जाये।
8. 3 मार्च,2014 को जारी एक आदेश में कहा गया है कि अब से सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की लिखी दवाइयों का पूरा कोर्स मरीजों को दिया जायेगा।
9. विभिन्न सरकारी अस्पतालों में सिटी स्कैन, एमआरआई, एक्सरे और किसी किसी मामले में विभिन्न तरह की खून की जांच के लिए सरकार ने पीपीपी माडल के तहत गैरसरकारी संस्थाओं के साथ समझौता किया है,जिसके तहत मरीज बाजार की तुलना में कुछ कम कीमत पर ये जांच पड़ताल करा सकते हैं।
इसके अलावा अक्तूबर,2015 से पश्चिम बंगाल के सारे सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कालेजों में चिकित्सा पर सारा खर्च निःशुल्क कर दिया गया है (हालांकि पीपीपी माडल की सारी सेवाओं पर यह लागू नहीं है।
वास्तव में हुआ क्या है?
सारी चिकित्सा निःशुल्क है,ऐसा सुनने पर लगता है कि `यह तो जैसे सबके लिए स्वास्थ्य का हमारा सपना सच हो गया'। किंतु मित्रों.असल में ऐसी कोई तस्वीर बनती नहीं है। सबकुछ मुफ्त मिलेगा,ऐसा सरकारी ऐलान हो जाने के बावजूद पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल रहा है। सभी दवाइयां नहीं मिल रही हैं। आपरेशन, रेडियोथेरापी, केमोथेपरापी के लिए लंबा इंतजार करना पड़ रहा है।पेस मेकर, स्टेंट, प्रस्थेसिस काफी मात्रा में न मिलने से मरीजों को खाली हाथ लौटाकर बार बार बुलाया जा रहा है। ढांचा, डाक्टर, नर्स, स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या बढ़ाये बिना सबकुछ मुफ्त है,ऐलान कर देने से चिकित्सा का स्तर लगातार गिर रहा है।कहीं वार्मर में बच्चा झुलस रहा है तो कहीं तीमारदार डाक्टर नर्स को पीट रहे हैं।असलियत की तस्वीर यह है।
हाल में हमारी मुख्यमंत्री ने कोलकाता के बड़े बड़े निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम के प्रबंधकों को बुलाकर उन्हें थोड़ा बहुत डांटा फटकारा है। जिनपर आरोप है कि वे मुनाफाखोरी के लिए मरीजों की परवाह नहीं करते।किंतु समझने वाली बात तो यह है कि जो लोग कारोबार चला रहे हैं ,वे डांट फटकार की वजह से मरीजों के हित में सोचना शुरु कर देंगे,ऐसा समझना गलत है। स्वास्थ्य के साथ जहां रुपयों का लेन देन का मामला जुड़ा हुआ है,ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था में किसी भी स्थिति में मुनाफा को हाशिये पर रखकर पहले मरीज के सर्वोत्तम हित के बारे में सोचा नहीं जा सकता। इसके अलावा सवाल तो यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज कराने के बदले गैरसरकारी अस्पतालों में सेहत खरीदने के लिए लोग आखिर क्यों चले जाते हैं। जा इसलिए रहे हैं कि मुफ्त में जो मिलने का ऐलान है,हकीकत में उसका कोई वजूद ही नहीं है।अगर जेब में पैसे हों तो लोग सरकारी अस्पताल के दरवज्जे पर झांकने भी नहीं जाते। बड़ी संख्या में सुपरस्पेशलिटी अस्पताल हैं, जहां डाक्टर नहीं हैं, नर्स नहीं है, दवाएं और उपकरण नहीं हैं। बेड मिलता नहीं है और मरणासन्न रोगी को इस अस्पताल से उस अस्पताल को रिफर करते रहने की मजह से परिजन उसे लेकर भटकते ही रहते हैं। अंत में कोई उपाय न होने की वजह से ही वे गैरसरकारी अस्पतालों में चले जाते हैं।जिनके पास पैसे हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ है तो जिनके पास पैसे नहीं हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ और है।दोनों ही व्यवस्था साथ सात चलते रहने की स्थिति में विज्ञानसंगत चिकित्सा किसीकी नहीं होती। किसी को जरुरत के हिसाब से काफी ज्यादा मिल जाता है तो दूसरों को थोड़ा बहुत फ्री माल मिल जाता है। इस समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि देश में सभी के लिए एक ही व्यवस्था बनायी जाये, जिससे पैसे पर यह कतई निर्भर न हो कि किसे किस तरह का इलाज मिलता है। ऐसी व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार लें, कोई मुनाफाखोर स्वास्थ्यविक्रेता नहीं। यह सोचने पर अचरज होता है कि सारा जोर `सबके लिए आधार कार्ड' की मांग पर है लेकिन `सबके लिए स्वास्थ्य' को लेकर तनिक परवाह किसी को नहीं है।
इसलिए इस साल भी हम विश्व स्वास्थ्य दिवस सबके लिए स्वास्थ की मांग दिवस के रुप में मनाने जा रहे हैं।आप भी आइये। आइये कि हम आवाज उठायें कि स्वास्थ्य कोई भीख नहीं है, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है।सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसंगत चिकित्सा की जिम्मेदारी सरकार लें।
श्रमजीवी स्वास्थ्य पहल
आवाज उठायें कि स्वास्थ्य कोई भीख नहीं है, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है।सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसंगत चिकित्सा की जिम्मेदारी सरकार लें।
`सबके लिए स्वास्थ्य' संभव है।
सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसम्मत चिकित्सा संभव है
सिर्फ विकसित देशों में नहीं,हमारे जैसे गरीब देशों में भी।
"সবার জন্যে স্বাস্থ্য" সম্ভব।
भारत सरकार की गठित एक उच्चस्तरीय स्वास्थ्य कमिटी ने ऐसा ही कहा है। कांग्रेस के सत्ताकाल में 2010 में गठित इस कमिटी के सभापिति डा. श्रीनाथ रेड्डी थे। रेड्डी कमिटी ने कहा था, अभ्यंतरीन उत्पादन के 1.4 से बढ़ाकर 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य के मद में सरकार अगर खर्च करें तो हमारे देश में भी सबके लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम की व्यवस्था लागू की जी सकती है। यानी यह आपका या मेरा आकाश कुसुम सपना नहीं है, सरकार की सलाहकार विशेषज्ञ समिति ही ऐसा कह रही है। बहरहाल, भारत की बात छोड़ दें, इस दुनिया के कम से कम 41 देशों की सरकारों ने यह व्यवस्था लागू कर दी है। जर्मनी और इंग्लैंड की तरह धनी देशों से लेकर पेरु या श्रीलंका की तरह तथाकथित गरीब देशों में भी यह व्यवस्था चालू हो गयी है।उन्होंने ऐसा कैसे संभव कर दिखाया? हमारे अपने देश में यह क्यों संभव नहीं हो पा रहा है?
क्या होना चाहिए था ?
विश्व स्वास्थ्य संस्था या WHO (World Health Organization) ने 1978 में एक सनद जारी किया, जिसमें कहा गया कि सन् 2000 के अंदर सबके लिए स्वास्थ्य व्यवस्था लागू करनी होगी। इस सनद पर दस्तखत करने वाले तमाम देशों में भारतवर्ष अन्यतम रहा है। आज 2017 में भी भारत ने यह स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू नहीं किया है। आज भी जेब से पैसे खर्च करके स्वास्थ्य (या सरल भाषा में इलाज) खरीदना होता है। इसके बावजूद उपयुक्त, सही, विज्ञानसम्मत चिकित्सा मिलेगी ,इसकी कोई गारंटी नहीं है।ऐसा क्यों है, बताइये।
इन मांगों को लेकर हम पिछले चार साल से आंदोलन कर रहे हैं। अगस्त ,2015 में 33 संगठनों को लेकर बंगालभर में सबके लिए स्वास्थ्य प्रचार समिति का गठन करके सघन प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। बंगालभर में यह प्रचार अभियान चल रहा है। 24 जनवरी,2016 को स्वास्थ्य की मांग लेकर कोलकाता यूनिवर्सिटी इंस्टीच्युट में एक जन कांवेंशन हो गया। जिसमें डा. श्रीनाथ रेड्डी, डा.विनायक सेन और दूसरों ने अपने वक्तव्य पेश किये। पिछले साल 7 अप्रैल को, हमने `विश्व स्वास्थ्य दिवस ' `सबके लिए स्वास्थ्य दिवस' के रुप में मनाया। हमने इस मौके पर डा. श्रीनाथ रेड्डी कमिटी की सिफारिशों के मुताबिक ये मांगें रखी थींः
केंद्र या राज्य की सरकारी संस्था के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा दी जायें।
सभी स्वास्थ्य सेवाएं निःशुल्क हों।
सारी अत्यावश्यक दवाइयां निःशुल्क दी जायें।
सभी नागरिकों को आधार कार्ड की तर्ज पर HEALTH ENTITLEMENT CARD दिया जाये। जिस कार्ड के जरिये भारतवर्ष में कहीं भी उन्हें स्वास्थ्य सेवाें निःशुल्क मिलें।
स्वास्थ्य बीमा भ्रष्टाचार का स्रोत है,इस व्यवस्था को तुरंत खत्म कर दिया जाये।
लेकिन हुआ क्या ?
कांगेसी सरकार ने तो रेड्डी समिति की किसी भी सिफारिश को नहीं माना.इस पर तुर्रा यह कि भाजपा ने सत्ता में आकर स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में 9.4 प्रतिशत कटौती कर दी।सरकार की भूमिका मैनेजर की हो गयी और स्वास्थ्य क्षेत्र में गैरसरकारी निवेश को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
इस बीच पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तृणमूल सरकार के जमाने में कई उल्लेखनीय परिवर्तन हो गये हैं।पश्चिम बंगाल सरकार के स्वास्थ्य विभाग की ओर से प्रकाशित Health on the March,14 -15 के मुताबिकः
फरवरी, 2012में डाक्टरों से जेनेरिक दवाएं नूस्खे पर लिखने के लिए कहा गया।
2.सरकारी अस्पतालों में अस्वस्थ नवजात शिशुओं की चिकित्सा के लिए सिक निओनेटाल केअर यूनिट(एसएलसीयू) और सिक निओनेटाल स्टेबेलाइजिंग यूनिट की संख्या बढ़ा दी गयी।
3.विभिन्न सरकारी अस्पतालों में उचित मूल्य पर दवाओं की दुकानें चालू हो गयी हैं,जहां से 142 अत्यावश्यक दवाइयां 48 से 67.25 प्रतिशत कम कीमत पर खरीदी जा सकती है।इसके अलावा इन दुकानों में एंजिओप्लास्टि में इस्तेमाल किये जाने वाले स्टेंट, पेसमेकर, अस्थि चिकित्सा के लिए इम्प्लांट इत्यादि भी रियायती दरों पर खरीदे जा सकते हैं।
4,मेडिकल कालेजों की संख्या बढ़कर 17 हो गयीं,जहां 2200 सीटें हैं।
4.पिछड़ा क्षेत्र विकास खाते से देहात में तेरह मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों की स्थापना का कमा चल रहा है।
6.जिला अस्पतालों और मेडिकल कालेज अस्पतालों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है।
7. 9 फरवरी,2014 को जारी एक सरकारी निर्देश में कहा गया है कि सरकारी अस्पतालों में आउटडोर और इनडोर फ्री बेड पर निःशुल्क अत्यावश्यक दवाओं की आपूर्ति की जाये।
8. 3 मार्च,2014 को जारी एक आदेश में कहा गया है कि अब से सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की लिखी दवाइयों का पूरा कोर्स मरीजों को दिया जायेगा।
9. विभिन्न सरकारी अस्पतालों में सिटी स्कैन, एमआरआई, एक्सरे और किसी किसी मामले में विभिन्न तरह की खून की जांच के लिए सरकार ने पीपीपी माडल के तहत गैरसरकारी संस्थाओं के साथ समझौता किया है,जिसके तहत मरीज बाजार की तुलना में कुछ कम कीमत पर ये जांच पड़ताल करा सकते हैं।
इसके अलावा अक्तूबर,2015 से पश्चिम बंगाल के सारे सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कालेजों में चिकित्सा पर सारा खर्च निःशुल्क कर दिया गया है (हालांकि पीपीपी माडल की सारी सेवाओं पर यह लागू नहीं है।
वास्तव में हुआ क्या है?
सारी चिकित्सा निःशुल्क है,ऐसा सुनने पर लगता है कि `यह तो जैसे सबके लिए स्वास्थ्य का हमारा सपना सच हो गया'। किंतु मित्रों.असल में ऐसी कोई तस्वीर बनती नहीं है। सबकुछ मुफ्त मिलेगा,ऐसा सरकारी ऐलान हो जाने के बावजूद पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल रहा है। सभी दवाइयां नहीं मिल रही हैं। आपरेशन, रेडियोथेरापी, केमोथेपरापी के लिए लंबा इंतजार करना पड़ रहा है।पेस मेकर, स्टेंट, प्रस्थेसिस काफी मात्रा में न मिलने से मरीजों को खाली हाथ लौटाकर बार बार बुलाया जा रहा है। ढांचा, डाक्टर, नर्स, स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या बढ़ाये बिना सबकुछ मुफ्त है,ऐलान कर देने से चिकित्सा का स्तर लगातार गिर रहा है।कहीं वार्मर में बच्चा झुलस रहा है तो कहीं तीमारदार डाक्टर नर्स को पीट रहे हैं।असलियत की तस्वीर यह है।
हाल में हमारी मुख्यमंत्री ने कोलकाता के बड़े बड़े निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम के प्रबंधकों को बुलाकर उन्हें थोड़ा बहुत डांटा फटकारा है। जिनपर आरोप है कि वे मुनाफाखोरी के लिए मरीजों की परवाह नहीं करते।किंतु समझने वाली बात तो यह है कि जो लोग कारोबार चला रहे हैं ,वे डांट फटकार की वजह से मरीजों के हित में सोचना शुरु कर देंगे,ऐसा समझना गलत है। स्वास्थ्य के साथ जहां रुपयों का लेन देन का मामला जुड़ा हुआ है,ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था में किसी भी स्थिति में मुनाफा को हाशिये पर रखकर पहले मरीज के सर्वोत्तम हित के बारे में सोचा नहीं जा सकता। इसके अलावा सवाल तो यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज कराने के बदले गैरसरकारी अस्पतालों में सेहत खरीदने के लिए लोग आखिर क्यों चले जाते हैं। जा इसलिए रहे हैं कि मुफ्त में जो मिलने का ऐलान है,हकीकत में उसका कोई वजूद ही नहीं है।अगर जेब में पैसे हों तो लोग सरकारी अस्पताल के दरवज्जे पर झांकने भी नहीं जाते। बड़ी संख्या में सुपरस्पेशलिटी अस्पताल हैं, जहां डाक्टर नहीं हैं, नर्स नहीं है, दवाएं और उपकरण नहीं हैं। बेड मिलता नहीं है और मरणासन्न रोगी को इस अस्पताल से उस अस्पताल को रिफर करते रहने की मजह से परिजन उसे लेकर भटकते ही रहते हैं। अंत में कोई उपाय न होने की वजह से ही वे गैरसरकारी अस्पतालों में चले जाते हैं।जिनके पास पैसे हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ है तो जिनके पास पैसे नहीं हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ और है।दोनों ही व्यवस्था साथ सात चलते रहने की स्थिति में विज्ञानसंगत चिकित्सा किसीकी नहीं होती। किसी को जरुरत के हिसाब से काफी ज्यादा मिल जाता है तो दूसरों को थोड़ा बहुत फ्री माल मिल जाता है। इस समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि देश में सभी के लिए एक ही व्यवस्था बनायी जाये, जिससे पैसे पर यह कतई निर्भर न हो कि किसे किस तरह का इलाज मिलता है। ऐसी व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार लें, कोई मुनाफाखोर स्वास्थ्यविक्रेता नहीं। यह सोचने पर अचरज होता है कि सारा जोर `सबके लिए आधार कार्ड' की मांग पर है लेकिन `सबके लिए स्वास्थ्य' को लेकर तनिक परवाह किसी को नहीं है।
इसलिए इस साल भी हम विश्व स्वास्थ्य दिवस सबके लिए स्वास्थ की मांग दिवस के रुप में मनाने जा रहे हैं।आप भी आइये। आइये कि हम आवाज उठायें कि स्वास्थ्य कोई भीख नहीं है, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है।सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसंगत चिकित्सा की जिम्मेदारी सरकार लें।
श्रमजीवी स्वास्थ्य पहल
2014 के बाद भारत सरकार ने स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में कटौती कर दी।
`सबके लिए स्वास्थ्य' संभव है।
सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसम्मत चिकित्सा संभव है
सिर्फ विकसित देशों में नहीं,हमारे जैसे गरीब देशों में भी।
"সবার জন্যে স্বাস্থ্য" সম্ভব।
भारत सरकार की गठित एक उच्चस्तरीय स्वास्थ्य कमिटी ने ऐसा ही कहा है। कांग्रेस के सत्ताकाल में 2010 में गठित इस कमिटी के सभापिति डा. श्रीनाथ रेड्डी थे। रेड्डी कमिटी ने कहा था, अभ्यंतरीन उत्पादन के 1.4 से बढ़ाकर 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य के मद में सरकार अगर खर्च करें तो हमारे देश में भी सबके लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम की व्यवस्था लागू की जी सकती है। यानी यह आपका या मेरा आकाश कुसुम सपना नहीं है, सरकार की सलाहकार विशेषज्ञ समिति ही ऐसा कह रही है। बहरहाल, भारत की बात छोड़ दें, इस दुनिया के कम से कम 41 देशों की सरकारों ने यह व्यवस्था लागू कर दी है। जर्मनी और इंग्लैंड की तरह धनी देशों से लेकर पेरु या श्रीलंका की तरह तथाकथित गरीब देशों में भी यह व्यवस्था चालू हो गयी है।उन्होंने ऐसा कैसे संभव कर दिखाया? हमारे अपने देश में यह क्यों संभव नहीं हो पा रहा है?
क्या होना चाहिए था ?
विश्व स्वास्थ्य संस्था या WHO (World Health Organization) ने 1978 में एक सनद जारी किया, जिसमें कहा गया कि सन् 2000 के अंदर सबके लिए स्वास्थ्य व्यवस्था लागू करनी होगी। इस सनद पर दस्तखत करने वाले तमाम देशों में भारतवर्ष अन्यतम रहा है। आज 2017 में भी भारत ने यह स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू नहीं किया है। आज भी जेब से पैसे खर्च करके स्वास्थ्य (या सरल भाषा में इलाज) खरीदना होता है। इसके बावजूद उपयुक्त, सही, विज्ञानसम्मत चिकित्सा मिलेगी ,इसकी कोई गारंटी नहीं है।ऐसा क्यों है, बताइये।
इन मांगों को लेकर हम पिछले चार साल से आंदोलन कर रहे हैं। अगस्त ,2015 में 33 संगठनों को लेकर बंगालभर में सबके लिए स्वास्थ्य प्रचार समिति का गठन करके सघन प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। बंगालभर में यह प्रचार अभियान चल रहा है। 24 जनवरी,2016 को स्वास्थ्य की मांग लेकर कोलकाता यूनिवर्सिटी इंस्टीच्युट में एक जन कांवेंशन हो गया। जिसमें डा. श्रीनाथ रेड्डी, डा.विनायक सेन और दूसरों ने अपने वक्तव्य पेश किये। पिछले साल 7 अप्रैल को, हमने `विश्व स्वास्थ्य दिवस ' `सबके लिए स्वास्थ्य दिवस' के रुप में मनाया। हमने इस मौके पर डा. श्रीनाथ रेड्डी कमिटी की सिफारिशों के मुताबिक ये मांगें रखी थींः
केंद्र या राज्य की सरकारी संस्था के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा दी जायें।
सभी स्वास्थ्य सेवाएं निःशुल्क हों।
सारी अत्यावश्यक दवाइयां निःशुल्क दी जायें।
सभी नागरिकों को आधार कार्ड की तर्ज पर HEALTH ENTITLEMENT CARD दिया जाये। जिस कार्ड के जरिये भारतवर्ष में कहीं भी उन्हें स्वास्थ्य सेवाें निःशुल्क मिलें।
स्वास्थ्य बीमा भ्रष्टाचार का स्रोत है,इस व्यवस्था को तुरंत खत्म कर दिया जाये।
लेकिन हुआ क्या ?
कांगेसी सरकार ने तो रेड्डी समिति की किसी भी सिफारिश को नहीं माना.इस पर तुर्रा यह कि भाजपा ने सत्ता में आकर स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में 9.4 प्रतिशत कटौती कर दी।सरकार की भूमिका मैनेजर की हो गयी और स्वास्थ्य क्षेत्र में गैरसरकारी निवेश को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
इस बीच पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तृणमूल सरकार के जमाने में कई उल्लेखनीय परिवर्तन हो गये हैं।पश्चिम बंगाल सरकार के स्वास्थ्य विभाग की ओर से प्रकाशित Health on the March,14 -15 के मुताबिकः
फरवरी, 2012में डाक्टरों से जेनेरिक दवाएं नूस्खे पर लिखने के लिए कहा गया।
2.सरकारी अस्पतालों में अस्वस्थ नवजात शिशुओं की चिकित्सा के लिए सिक निओनेटाल केअर यूनिट(एसएलसीयू) और सिक निओनेटाल स्टेबेलाइजिंग यूनिट की संख्या बढ़ा दी गयी।
3.विभिन्न सरकारी अस्पतालों में उचित मूल्य पर दवाओं की दुकानें चालू हो गयी हैं,जहां से 142 अत्यावश्यक दवाइयां 48 से 67.25 प्रतिशत कम कीमत पर खरीदी जा सकती है।इसके अलावा इन दुकानों में एंजिओप्लास्टि में इस्तेमाल किये जाने वाले स्टेंट, पेसमेकर, अस्थि चिकित्सा के लिए इम्प्लांट इत्यादि भी रियायती दरों पर खरीदे जा सकते हैं।
4,मेडिकल कालेजों की संख्या बढ़कर 17 हो गयीं,जहां 2200 सीटें हैं।
4.पिछड़ा क्षेत्र विकास खाते से देहात में तेरह मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों की स्थापना का कमा चल रहा है।
6.जिला अस्पतालों और मेडिकल कालेज अस्पतालों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है।
7. 9 फरवरी,2014 को जारी एक सरकारी निर्देश में कहा गया है कि सरकारी अस्पतालों में आउटडोर और इनडोर फ्री बेड पर निःशुल्क अत्यावश्यक दवाओं की आपूर्ति की जाये।
8. 3 मार्च,2014 को जारी एक आदेश में कहा गया है कि अब से सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की लिखी दवाइयों का पूरा कोर्स मरीजों को दिया जायेगा।
9. विभिन्न सरकारी अस्पतालों में सिटी स्कैन, एमआरआई, एक्सरे और किसी किसी मामले में विभिन्न तरह की खून की जांच के लिए सरकार ने पीपीपी माडल के तहत गैरसरकारी संस्थाओं के साथ समझौता किया है,जिसके तहत मरीज बाजार की तुलना में कुछ कम कीमत पर ये जांच पड़ताल करा सकते हैं।
इसके अलावा अक्तूबर,2015 से पश्चिम बंगाल के सारे सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कालेजों में चिकित्सा पर सारा खर्च निःशुल्क कर दिया गया है (हालांकि पीपीपी माडल की सारी सेवाओं पर यह लागू नहीं है।
वास्तव में हुआ क्या है?
सारी चिकित्सा निःशुल्क है,ऐसा सुनने पर लगता है कि `यह तो जैसे सबके लिए स्वास्थ्य का हमारा सपना सच हो गया'। किंतु मित्रों.असल में ऐसी कोई तस्वीर बनती नहीं है। सबकुछ मुफ्त मिलेगा,ऐसा सरकारी ऐलान हो जाने के बावजूद पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल रहा है। सभी दवाइयां नहीं मिल रही हैं। आपरेशन, रेडियोथेरापी, केमोथेपरापी के लिए लंबा इंतजार करना पड़ रहा है।पेस मेकर, स्टेंट, प्रस्थेसिस काफी मात्रा में न मिलने से मरीजों को खाली हाथ लौटाकर बार बार बुलाया जा रहा है। ढांचा, डाक्टर, नर्स, स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या बढ़ाये बिना सबकुछ मुफ्त है,ऐलान कर देने से चिकित्सा का स्तर लगातार गिर रहा है।कहीं वार्मर में बच्चा झुलस रहा है तो कहीं तीमारदार डाक्टर नर्स को पीट रहे हैं।असलियत की तस्वीर यह है।
हाल में हमारी मुख्यमंत्री ने कोलकाता के बड़े बड़े निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम के प्रबंधकों को बुलाकर उन्हें थोड़ा बहुत डांटा फटकारा है। जिनपर आरोप है कि वे मुनाफाखोरी के लिए मरीजों की परवाह नहीं करते।किंतु समझने वाली बात तो यह है कि जो लोग कारोबार चला रहे हैं ,वे डांट फटकार की वजह से मरीजों के हित में सोचना शुरु कर देंगे,ऐसा समझना गलत है। स्वास्थ्य के साथ जहां रुपयों का लेन देन का मामला जुड़ा हुआ है,ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था में किसी भी स्थिति में मुनाफा को हाशिये पर रखकर पहले मरीज के सर्वोत्तम हित के बारे में सोचा नहीं जा सकता। इसके अलावा सवाल तो यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज कराने के बदले गैरसरकारी अस्पतालों में सेहत खरीदने के लिए लोग आखिर क्यों चले जाते हैं। जा इसलिए रहे हैं कि मुफ्त में जो मिलने का ऐलान है,हकीकत में उसका कोई वजूद ही नहीं है।अगर जेब में पैसे हों तो लोग सरकारी अस्पताल के दरवज्जे पर झांकने भी नहीं जाते। बड़ी संख्या में सुपरस्पेशलिटी अस्पताल हैं, जहां डाक्टर नहीं हैं, नर्स नहीं है, दवाएं और उपकरण नहीं हैं। बेड मिलता नहीं है और मरणासन्न रोगी को इस अस्पताल से उस अस्पताल को रिफर करते रहने की मजह से परिजन उसे लेकर भटकते ही रहते हैं। अंत में कोई उपाय न होने की वजह से ही वे गैरसरकारी अस्पतालों में चले जाते हैं।जिनके पास पैसे हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ है तो जिनके पास पैसे नहीं हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ और है।दोनों ही व्यवस्था साथ सात चलते रहने की स्थिति में विज्ञानसंगत चिकित्सा किसीकी नहीं होती। किसी को जरुरत के हिसाब से काफी ज्यादा मिल जाता है तो दूसरों को थोड़ा बहुत फ्री माल मिल जाता है। इस समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि देश में सभी के लिए एक ही व्यवस्था बनायी जाये, जिससे पैसे पर यह कतई निर्भर न हो कि किसे किस तरह का इलाज मिलता है। ऐसी व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार लें, कोई मुनाफाखोर स्वास्थ्यविक्रेता नहीं। यह सोचने पर अचरज होता है कि सारा जोर `सबके लिए आधार कार्ड' की मांग पर है लेकिन `सबके लिए स्वास्थ्य' को लेकर तनिक परवाह किसी को नहीं है।
इसलिए इस साल भी हम विश्व स्वास्थ्य दिवस सबके लिए स्वास्थ की मांग दिवस के रुप में मनाने जा रहे हैं।आप भी आइये। आइये कि हम आवाज उठायें कि स्वास्थ्य कोई भीख नहीं है, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है।सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसंगत चिकित्सा की जिम्मेदारी सरकार लें।
श्रमजीवी स्वास्थ्य पहल
2014 के बाद भारत सरकार ने स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में कटौती कर दी।
`सबके लिए स्वास्थ्य' संभव है।
सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसम्मत चिकित्सा संभव है
सिर्फ विकसित देशों में नहीं,हमारे जैसे गरीब देशों में भी।
"সবার জন্যে স্বাস্থ্য" সম্ভব।
भारत सरकार की गठित एक उच्चस्तरीय स्वास्थ्य कमिटी ने ऐसा ही कहा है। कांग्रेस के सत्ताकाल में 2010 में गठित इस कमिटी के सभापिति डा. श्रीनाथ रेड्डी थे। रेड्डी कमिटी ने कहा था, अभ्यंतरीन उत्पादन के 1.4 से बढ़ाकर 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य के मद में सरकार अगर खर्च करें तो हमारे देश में भी सबके लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम की व्यवस्था लागू की जी सकती है। यानी यह आपका या मेरा आकाश कुसुम सपना नहीं है, सरकार की सलाहकार विशेषज्ञ समिति ही ऐसा कह रही है। बहरहाल, भारत की बात छोड़ दें, इस दुनिया के कम से कम 41 देशों की सरकारों ने यह व्यवस्था लागू कर दी है। जर्मनी और इंग्लैंड की तरह धनी देशों से लेकर पेरु या श्रीलंका की तरह तथाकथित गरीब देशों में भी यह व्यवस्था चालू हो गयी है।उन्होंने ऐसा कैसे संभव कर दिखाया? हमारे अपने देश में यह क्यों संभव नहीं हो पा रहा है?
क्या होना चाहिए था ?
विश्व स्वास्थ्य संस्था या WHO (World Health Organization) ने 1978 में एक सनद जारी किया, जिसमें कहा गया कि सन् 2000 के अंदर सबके लिए स्वास्थ्य व्यवस्था लागू करनी होगी। इस सनद पर दस्तखत करने वाले तमाम देशों में भारतवर्ष अन्यतम रहा है। आज 2017 में भी भारत ने यह स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू नहीं किया है। आज भी जेब से पैसे खर्च करके स्वास्थ्य (या सरल भाषा में इलाज) खरीदना होता है। इसके बावजूद उपयुक्त, सही, विज्ञानसम्मत चिकित्सा मिलेगी ,इसकी कोई गारंटी नहीं है।ऐसा क्यों है, बताइये।
इन मांगों को लेकर हम पिछले चार साल से आंदोलन कर रहे हैं। अगस्त ,2015 में 33 संगठनों को लेकर बंगालभर में सबके लिए स्वास्थ्य प्रचार समिति का गठन करके सघन प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। बंगालभर में यह प्रचार अभियान चल रहा है। 24 जनवरी,2016 को स्वास्थ्य की मांग लेकर कोलकाता यूनिवर्सिटी इंस्टीच्युट में एक जन कांवेंशन हो गया। जिसमें डा. श्रीनाथ रेड्डी, डा.विनायक सेन और दूसरों ने अपने वक्तव्य पेश किये। पिछले साल 7 अप्रैल को, हमने `विश्व स्वास्थ्य दिवस ' `सबके लिए स्वास्थ्य दिवस' के रुप में मनाया। हमने इस मौके पर डा. श्रीनाथ रेड्डी कमिटी की सिफारिशों के मुताबिक ये मांगें रखी थींः
केंद्र या राज्य की सरकारी संस्था के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा दी जायें।
सभी स्वास्थ्य सेवाएं निःशुल्क हों।
सारी अत्यावश्यक दवाइयां निःशुल्क दी जायें।
सभी नागरिकों को आधार कार्ड की तर्ज पर HEALTH ENTITLEMENT CARD दिया जाये। जिस कार्ड के जरिये भारतवर्ष में कहीं भी उन्हें स्वास्थ्य सेवाें निःशुल्क मिलें।
स्वास्थ्य बीमा भ्रष्टाचार का स्रोत है,इस व्यवस्था को तुरंत खत्म कर दिया जाये।
लेकिन हुआ क्या ?
कांगेसी सरकार ने तो रेड्डी समिति की किसी भी सिफारिश को नहीं माना.इस पर तुर्रा यह कि भाजपा ने सत्ता में आकर स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में 9.4 प्रतिशत कटौती कर दी।सरकार की भूमिका मैनेजर की हो गयी और स्वास्थ्य क्षेत्र में गैरसरकारी निवेश को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
इस बीच पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तृणमूल सरकार के जमाने में कई उल्लेखनीय परिवर्तन हो गये हैं।पश्चिम बंगाल सरकार के स्वास्थ्य विभाग की ओर से प्रकाशित Health on the March,14 -15 के मुताबिकः
फरवरी, 2012में डाक्टरों से जेनेरिक दवाएं नूस्खे पर लिखने के लिए कहा गया।
2.सरकारी अस्पतालों में अस्वस्थ नवजात शिशुओं की चिकित्सा के लिए सिक निओनेटाल केअर यूनिट(एसएलसीयू) और सिक निओनेटाल स्टेबेलाइजिंग यूनिट की संख्या बढ़ा दी गयी।
3.विभिन्न सरकारी अस्पतालों में उचित मूल्य पर दवाओं की दुकानें चालू हो गयी हैं,जहां से 142 अत्यावश्यक दवाइयां 48 से 67.25 प्रतिशत कम कीमत पर खरीदी जा सकती है।इसके अलावा इन दुकानों में एंजिओप्लास्टि में इस्तेमाल किये जाने वाले स्टेंट, पेसमेकर, अस्थि चिकित्सा के लिए इम्प्लांट इत्यादि भी रियायती दरों पर खरीदे जा सकते हैं।
4,मेडिकल कालेजों की संख्या बढ़कर 17 हो गयीं,जहां 2200 सीटें हैं।
4.पिछड़ा क्षेत्र विकास खाते से देहात में तेरह मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों की स्थापना का कमा चल रहा है।
6.जिला अस्पतालों और मेडिकल कालेज अस्पतालों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है।
7. 9 फरवरी,2014 को जारी एक सरकारी निर्देश में कहा गया है कि सरकारी अस्पतालों में आउटडोर और इनडोर फ्री बेड पर निःशुल्क अत्यावश्यक दवाओं की आपूर्ति की जाये।
8. 3 मार्च,2014 को जारी एक आदेश में कहा गया है कि अब से सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की लिखी दवाइयों का पूरा कोर्स मरीजों को दिया जायेगा।
9. विभिन्न सरकारी अस्पतालों में सिटी स्कैन, एमआरआई, एक्सरे और किसी किसी मामले में विभिन्न तरह की खून की जांच के लिए सरकार ने पीपीपी माडल के तहत गैरसरकारी संस्थाओं के साथ समझौता किया है,जिसके तहत मरीज बाजार की तुलना में कुछ कम कीमत पर ये जांच पड़ताल करा सकते हैं।
इसके अलावा अक्तूबर,2015 से पश्चिम बंगाल के सारे सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कालेजों में चिकित्सा पर सारा खर्च निःशुल्क कर दिया गया है (हालांकि पीपीपी माडल की सारी सेवाओं पर यह लागू नहीं है।
वास्तव में हुआ क्या है?
सारी चिकित्सा निःशुल्क है,ऐसा सुनने पर लगता है कि `यह तो जैसे सबके लिए स्वास्थ्य का हमारा सपना सच हो गया'। किंतु मित्रों.असल में ऐसी कोई तस्वीर बनती नहीं है। सबकुछ मुफ्त मिलेगा,ऐसा सरकारी ऐलान हो जाने के बावजूद पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल रहा है। सभी दवाइयां नहीं मिल रही हैं। आपरेशन, रेडियोथेरापी, केमोथेपरापी के लिए लंबा इंतजार करना पड़ रहा है।पेस मेकर, स्टेंट, प्रस्थेसिस काफी मात्रा में न मिलने से मरीजों को खाली हाथ लौटाकर बार बार बुलाया जा रहा है। ढांचा, डाक्टर, नर्स, स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या बढ़ाये बिना सबकुछ मुफ्त है,ऐलान कर देने से चिकित्सा का स्तर लगातार गिर रहा है।कहीं वार्मर में बच्चा झुलस रहा है तो कहीं तीमारदार डाक्टर नर्स को पीट रहे हैं।असलियत की तस्वीर यह है।
हाल में हमारी मुख्यमंत्री ने कोलकाता के बड़े बड़े निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम के प्रबंधकों को बुलाकर उन्हें थोड़ा बहुत डांटा फटकारा है। जिनपर आरोप है कि वे मुनाफाखोरी के लिए मरीजों की परवाह नहीं करते।किंतु समझने वाली बात तो यह है कि जो लोग कारोबार चला रहे हैं ,वे डांट फटकार की वजह से मरीजों के हित में सोचना शुरु कर देंगे,ऐसा समझना गलत है। स्वास्थ्य के साथ जहां रुपयों का लेन देन का मामला जुड़ा हुआ है,ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था में किसी भी स्थिति में मुनाफा को हाशिये पर रखकर पहले मरीज के सर्वोत्तम हित के बारे में सोचा नहीं जा सकता। इसके अलावा सवाल तो यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज कराने के बदले गैरसरकारी अस्पतालों में सेहत खरीदने के लिए लोग आखिर क्यों चले जाते हैं। जा इसलिए रहे हैं कि मुफ्त में जो मिलने का ऐलान है,हकीकत में उसका कोई वजूद ही नहीं है।अगर जेब में पैसे हों तो लोग सरकारी अस्पताल के दरवज्जे पर झांकने भी नहीं जाते। बड़ी संख्या में सुपरस्पेशलिटी अस्पताल हैं, जहां डाक्टर नहीं हैं, नर्स नहीं है, दवाएं और उपकरण नहीं हैं। बेड मिलता नहीं है और मरणासन्न रोगी को इस अस्पताल से उस अस्पताल को रिफर करते रहने की मजह से परिजन उसे लेकर भटकते ही रहते हैं। अंत में कोई उपाय न होने की वजह से ही वे गैरसरकारी अस्पतालों में चले जाते हैं।जिनके पास पैसे हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ है तो जिनके पास पैसे नहीं हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ और है।दोनों ही व्यवस्था साथ सात चलते रहने की स्थिति में विज्ञानसंगत चिकित्सा किसीकी नहीं होती। किसी को जरुरत के हिसाब से काफी ज्यादा मिल जाता है तो दूसरों को थोड़ा बहुत फ्री माल मिल जाता है। इस समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि देश में सभी के लिए एक ही व्यवस्था बनायी जाये, जिससे पैसे पर यह कतई निर्भर न हो कि किसे किस तरह का इलाज मिलता है। ऐसी व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार लें, कोई मुनाफाखोर स्वास्थ्यविक्रेता नहीं। यह सोचने पर अचरज होता है कि सारा जोर `सबके लिए आधार कार्ड' की मांग पर है लेकिन `सबके लिए स्वास्थ्य' को लेकर तनिक परवाह किसी को नहीं है।
इसलिए इस साल भी हम विश्व स्वास्थ्य दिवस सबके लिए स्वास्थ की मांग दिवस के रुप में मनाने जा रहे हैं।आप भी आइये। आइये कि हम आवाज उठायें कि स्वास्थ्य कोई भीख नहीं है, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है।सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसंगत चिकित्सा की जिम्मेदारी सरकार लें।
श्रमजीवी स्वास्थ्य पहल
सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसम्मत चिकित्सा संभव है
सिर्फ विकसित देशों में नहीं,हमारे जैसे गरीब देशों में भी।
"সবার জন্যে স্বাস্থ্য" সম্ভব।
भारत सरकार की गठित एक उच्चस्तरीय स्वास्थ्य कमिटी ने ऐसा ही कहा है। कांग्रेस के सत्ताकाल में 2010 में गठित इस कमिटी के सभापिति डा. श्रीनाथ रेड्डी थे। रेड्डी कमिटी ने कहा था, अभ्यंतरीन उत्पादन के 1.4 से बढ़ाकर 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य के मद में सरकार अगर खर्च करें तो हमारे देश में भी सबके लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम की व्यवस्था लागू की जी सकती है। यानी यह आपका या मेरा आकाश कुसुम सपना नहीं है, सरकार की सलाहकार विशेषज्ञ समिति ही ऐसा कह रही है। बहरहाल, भारत की बात छोड़ दें, इस दुनिया के कम से कम 41 देशों की सरकारों ने यह व्यवस्था लागू कर दी है। जर्मनी और इंग्लैंड की तरह धनी देशों से लेकर पेरु या श्रीलंका की तरह तथाकथित गरीब देशों में भी यह व्यवस्था चालू हो गयी है।उन्होंने ऐसा कैसे संभव कर दिखाया? हमारे अपने देश में यह क्यों संभव नहीं हो पा रहा है?
क्या होना चाहिए था ?
विश्व स्वास्थ्य संस्था या WHO (World Health Organization) ने 1978 में एक सनद जारी किया, जिसमें कहा गया कि सन् 2000 के अंदर सबके लिए स्वास्थ्य व्यवस्था लागू करनी होगी। इस सनद पर दस्तखत करने वाले तमाम देशों में भारतवर्ष अन्यतम रहा है। आज 2017 में भी भारत ने यह स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू नहीं किया है। आज भी जेब से पैसे खर्च करके स्वास्थ्य (या सरल भाषा में इलाज) खरीदना होता है। इसके बावजूद उपयुक्त, सही, विज्ञानसम्मत चिकित्सा मिलेगी ,इसकी कोई गारंटी नहीं है।ऐसा क्यों है, बताइये।
इन मांगों को लेकर हम पिछले चार साल से आंदोलन कर रहे हैं। अगस्त ,2015 में 33 संगठनों को लेकर बंगालभर में सबके लिए स्वास्थ्य प्रचार समिति का गठन करके सघन प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। बंगालभर में यह प्रचार अभियान चल रहा है। 24 जनवरी,2016 को स्वास्थ्य की मांग लेकर कोलकाता यूनिवर्सिटी इंस्टीच्युट में एक जन कांवेंशन हो गया। जिसमें डा. श्रीनाथ रेड्डी, डा.विनायक सेन और दूसरों ने अपने वक्तव्य पेश किये। पिछले साल 7 अप्रैल को, हमने `विश्व स्वास्थ्य दिवस ' `सबके लिए स्वास्थ्य दिवस' के रुप में मनाया। हमने इस मौके पर डा. श्रीनाथ रेड्डी कमिटी की सिफारिशों के मुताबिक ये मांगें रखी थींः
केंद्र या राज्य की सरकारी संस्था के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा दी जायें।
सभी स्वास्थ्य सेवाएं निःशुल्क हों।
सारी अत्यावश्यक दवाइयां निःशुल्क दी जायें।
सभी नागरिकों को आधार कार्ड की तर्ज पर HEALTH ENTITLEMENT CARD दिया जाये। जिस कार्ड के जरिये भारतवर्ष में कहीं भी उन्हें स्वास्थ्य सेवाें निःशुल्क मिलें।
स्वास्थ्य बीमा भ्रष्टाचार का स्रोत है,इस व्यवस्था को तुरंत खत्म कर दिया जाये।
लेकिन हुआ क्या ?
कांगेसी सरकार ने तो रेड्डी समिति की किसी भी सिफारिश को नहीं माना.इस पर तुर्रा यह कि भाजपा ने सत्ता में आकर स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में 9.4 प्रतिशत कटौती कर दी।सरकार की भूमिका मैनेजर की हो गयी और स्वास्थ्य क्षेत्र में गैरसरकारी निवेश को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
इस बीच पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तृणमूल सरकार के जमाने में कई उल्लेखनीय परिवर्तन हो गये हैं।पश्चिम बंगाल सरकार के स्वास्थ्य विभाग की ओर से प्रकाशित Health on the March,14 -15 के मुताबिकः
फरवरी, 2012में डाक्टरों से जेनेरिक दवाएं नूस्खे पर लिखने के लिए कहा गया।
2.सरकारी अस्पतालों में अस्वस्थ नवजात शिशुओं की चिकित्सा के लिए सिक निओनेटाल केअर यूनिट(एसएलसीयू) और सिक निओनेटाल स्टेबेलाइजिंग यूनिट की संख्या बढ़ा दी गयी।
3.विभिन्न सरकारी अस्पतालों में उचित मूल्य पर दवाओं की दुकानें चालू हो गयी हैं,जहां से 142 अत्यावश्यक दवाइयां 48 से 67.25 प्रतिशत कम कीमत पर खरीदी जा सकती है।इसके अलावा इन दुकानों में एंजिओप्लास्टि में इस्तेमाल किये जाने वाले स्टेंट, पेसमेकर, अस्थि चिकित्सा के लिए इम्प्लांट इत्यादि भी रियायती दरों पर खरीदे जा सकते हैं।
4,मेडिकल कालेजों की संख्या बढ़कर 17 हो गयीं,जहां 2200 सीटें हैं।
4.पिछड़ा क्षेत्र विकास खाते से देहात में तेरह मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों की स्थापना का कमा चल रहा है।
6.जिला अस्पतालों और मेडिकल कालेज अस्पतालों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है।
7. 9 फरवरी,2014 को जारी एक सरकारी निर्देश में कहा गया है कि सरकारी अस्पतालों में आउटडोर और इनडोर फ्री बेड पर निःशुल्क अत्यावश्यक दवाओं की आपूर्ति की जाये।
8. 3 मार्च,2014 को जारी एक आदेश में कहा गया है कि अब से सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की लिखी दवाइयों का पूरा कोर्स मरीजों को दिया जायेगा।
9. विभिन्न सरकारी अस्पतालों में सिटी स्कैन, एमआरआई, एक्सरे और किसी किसी मामले में विभिन्न तरह की खून की जांच के लिए सरकार ने पीपीपी माडल के तहत गैरसरकारी संस्थाओं के साथ समझौता किया है,जिसके तहत मरीज बाजार की तुलना में कुछ कम कीमत पर ये जांच पड़ताल करा सकते हैं।
इसके अलावा अक्तूबर,2015 से पश्चिम बंगाल के सारे सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कालेजों में चिकित्सा पर सारा खर्च निःशुल्क कर दिया गया है (हालांकि पीपीपी माडल की सारी सेवाओं पर यह लागू नहीं है।
वास्तव में हुआ क्या है?
सारी चिकित्सा निःशुल्क है,ऐसा सुनने पर लगता है कि `यह तो जैसे सबके लिए स्वास्थ्य का हमारा सपना सच हो गया'। किंतु मित्रों.असल में ऐसी कोई तस्वीर बनती नहीं है। सबकुछ मुफ्त मिलेगा,ऐसा सरकारी ऐलान हो जाने के बावजूद पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल रहा है। सभी दवाइयां नहीं मिल रही हैं। आपरेशन, रेडियोथेरापी, केमोथेपरापी के लिए लंबा इंतजार करना पड़ रहा है।पेस मेकर, स्टेंट, प्रस्थेसिस काफी मात्रा में न मिलने से मरीजों को खाली हाथ लौटाकर बार बार बुलाया जा रहा है। ढांचा, डाक्टर, नर्स, स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या बढ़ाये बिना सबकुछ मुफ्त है,ऐलान कर देने से चिकित्सा का स्तर लगातार गिर रहा है।कहीं वार्मर में बच्चा झुलस रहा है तो कहीं तीमारदार डाक्टर नर्स को पीट रहे हैं।असलियत की तस्वीर यह है।
हाल में हमारी मुख्यमंत्री ने कोलकाता के बड़े बड़े निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम के प्रबंधकों को बुलाकर उन्हें थोड़ा बहुत डांटा फटकारा है। जिनपर आरोप है कि वे मुनाफाखोरी के लिए मरीजों की परवाह नहीं करते।किंतु समझने वाली बात तो यह है कि जो लोग कारोबार चला रहे हैं ,वे डांट फटकार की वजह से मरीजों के हित में सोचना शुरु कर देंगे,ऐसा समझना गलत है। स्वास्थ्य के साथ जहां रुपयों का लेन देन का मामला जुड़ा हुआ है,ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था में किसी भी स्थिति में मुनाफा को हाशिये पर रखकर पहले मरीज के सर्वोत्तम हित के बारे में सोचा नहीं जा सकता। इसके अलावा सवाल तो यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज कराने के बदले गैरसरकारी अस्पतालों में सेहत खरीदने के लिए लोग आखिर क्यों चले जाते हैं। जा इसलिए रहे हैं कि मुफ्त में जो मिलने का ऐलान है,हकीकत में उसका कोई वजूद ही नहीं है।अगर जेब में पैसे हों तो लोग सरकारी अस्पताल के दरवज्जे पर झांकने भी नहीं जाते। बड़ी संख्या में सुपरस्पेशलिटी अस्पताल हैं, जहां डाक्टर नहीं हैं, नर्स नहीं है, दवाएं और उपकरण नहीं हैं। बेड मिलता नहीं है और मरणासन्न रोगी को इस अस्पताल से उस अस्पताल को रिफर करते रहने की मजह से परिजन उसे लेकर भटकते ही रहते हैं। अंत में कोई उपाय न होने की वजह से ही वे गैरसरकारी अस्पतालों में चले जाते हैं।जिनके पास पैसे हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ है तो जिनके पास पैसे नहीं हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ और है।दोनों ही व्यवस्था साथ सात चलते रहने की स्थिति में विज्ञानसंगत चिकित्सा किसीकी नहीं होती। किसी को जरुरत के हिसाब से काफी ज्यादा मिल जाता है तो दूसरों को थोड़ा बहुत फ्री माल मिल जाता है। इस समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि देश में सभी के लिए एक ही व्यवस्था बनायी जाये, जिससे पैसे पर यह कतई निर्भर न हो कि किसे किस तरह का इलाज मिलता है। ऐसी व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार लें, कोई मुनाफाखोर स्वास्थ्यविक्रेता नहीं। यह सोचने पर अचरज होता है कि सारा जोर `सबके लिए आधार कार्ड' की मांग पर है लेकिन `सबके लिए स्वास्थ्य' को लेकर तनिक परवाह किसी को नहीं है।
इसलिए इस साल भी हम विश्व स्वास्थ्य दिवस सबके लिए स्वास्थ की मांग दिवस के रुप में मनाने जा रहे हैं।आप भी आइये। आइये कि हम आवाज उठायें कि स्वास्थ्य कोई भीख नहीं है, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है।सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसंगत चिकित्सा की जिम्मेदारी सरकार लें।
श्रमजीवी स्वास्थ्य पहल
2014 के बाद भारत सरकार ने स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में कटौती कर दी।
`सबके लिए स्वास्थ्य' संभव है।
सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसम्मत चिकित्सा संभव है
सिर्फ विकसित देशों में नहीं,हमारे जैसे गरीब देशों में भी।
"সবার জন্যে স্বাস্থ্য" সম্ভব।
भारत सरकार की गठित एक उच्चस्तरीय स्वास्थ्य कमिटी ने ऐसा ही कहा है। कांग्रेस के सत्ताकाल में 2010 में गठित इस कमिटी के सभापिति डा. श्रीनाथ रेड्डी थे। रेड्डी कमिटी ने कहा था, अभ्यंतरीन उत्पादन के 1.4 से बढ़ाकर 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य के मद में सरकार अगर खर्च करें तो हमारे देश में भी सबके लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम की व्यवस्था लागू की जी सकती है। यानी यह आपका या मेरा आकाश कुसुम सपना नहीं है, सरकार की सलाहकार विशेषज्ञ समिति ही ऐसा कह रही है। बहरहाल, भारत की बात छोड़ दें, इस दुनिया के कम से कम 41 देशों की सरकारों ने यह व्यवस्था लागू कर दी है। जर्मनी और इंग्लैंड की तरह धनी देशों से लेकर पेरु या श्रीलंका की तरह तथाकथित गरीब देशों में भी यह व्यवस्था चालू हो गयी है।उन्होंने ऐसा कैसे संभव कर दिखाया? हमारे अपने देश में यह क्यों संभव नहीं हो पा रहा है?
क्या होना चाहिए था ?
विश्व स्वास्थ्य संस्था या WHO (World Health Organization) ने 1978 में एक सनद जारी किया, जिसमें कहा गया कि सन् 2000 के अंदर सबके लिए स्वास्थ्य व्यवस्था लागू करनी होगी। इस सनद पर दस्तखत करने वाले तमाम देशों में भारतवर्ष अन्यतम रहा है। आज 2017 में भी भारत ने यह स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू नहीं किया है। आज भी जेब से पैसे खर्च करके स्वास्थ्य (या सरल भाषा में इलाज) खरीदना होता है। इसके बावजूद उपयुक्त, सही, विज्ञानसम्मत चिकित्सा मिलेगी ,इसकी कोई गारंटी नहीं है।ऐसा क्यों है, बताइये।
इन मांगों को लेकर हम पिछले चार साल से आंदोलन कर रहे हैं। अगस्त ,2015 में 33 संगठनों को लेकर बंगालभर में सबके लिए स्वास्थ्य प्रचार समिति का गठन करके सघन प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। बंगालभर में यह प्रचार अभियान चल रहा है। 24 जनवरी,2016 को स्वास्थ्य की मांग लेकर कोलकाता यूनिवर्सिटी इंस्टीच्युट में एक जन कांवेंशन हो गया। जिसमें डा. श्रीनाथ रेड्डी, डा.विनायक सेन और दूसरों ने अपने वक्तव्य पेश किये। पिछले साल 7 अप्रैल को, हमने `विश्व स्वास्थ्य दिवस ' `सबके लिए स्वास्थ्य दिवस' के रुप में मनाया। हमने इस मौके पर डा. श्रीनाथ रेड्डी कमिटी की सिफारिशों के मुताबिक ये मांगें रखी थींः
केंद्र या राज्य की सरकारी संस्था के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा दी जायें।
सभी स्वास्थ्य सेवाएं निःशुल्क हों।
सारी अत्यावश्यक दवाइयां निःशुल्क दी जायें।
सभी नागरिकों को आधार कार्ड की तर्ज पर HEALTH ENTITLEMENT CARD दिया जाये। जिस कार्ड के जरिये भारतवर्ष में कहीं भी उन्हें स्वास्थ्य सेवाें निःशुल्क मिलें।
स्वास्थ्य बीमा भ्रष्टाचार का स्रोत है,इस व्यवस्था को तुरंत खत्म कर दिया जाये।
लेकिन हुआ क्या ?
कांगेसी सरकार ने तो रेड्डी समिति की किसी भी सिफारिश को नहीं माना.इस पर तुर्रा यह कि भाजपा ने सत्ता में आकर स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में 9.4 प्रतिशत कटौती कर दी।सरकार की भूमिका मैनेजर की हो गयी और स्वास्थ्य क्षेत्र में गैरसरकारी निवेश को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
इस बीच पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तृणमूल सरकार के जमाने में कई उल्लेखनीय परिवर्तन हो गये हैं।पश्चिम बंगाल सरकार के स्वास्थ्य विभाग की ओर से प्रकाशित Health on the March,14 -15 के मुताबिकः
फरवरी, 2012में डाक्टरों से जेनेरिक दवाएं नूस्खे पर लिखने के लिए कहा गया।
2.सरकारी अस्पतालों में अस्वस्थ नवजात शिशुओं की चिकित्सा के लिए सिक निओनेटाल केअर यूनिट(एसएलसीयू) और सिक निओनेटाल स्टेबेलाइजिंग यूनिट की संख्या बढ़ा दी गयी।
3.विभिन्न सरकारी अस्पतालों में उचित मूल्य पर दवाओं की दुकानें चालू हो गयी हैं,जहां से 142 अत्यावश्यक दवाइयां 48 से 67.25 प्रतिशत कम कीमत पर खरीदी जा सकती है।इसके अलावा इन दुकानों में एंजिओप्लास्टि में इस्तेमाल किये जाने वाले स्टेंट, पेसमेकर, अस्थि चिकित्सा के लिए इम्प्लांट इत्यादि भी रियायती दरों पर खरीदे जा सकते हैं।
4,मेडिकल कालेजों की संख्या बढ़कर 17 हो गयीं,जहां 2200 सीटें हैं।
4.पिछड़ा क्षेत्र विकास खाते से देहात में तेरह मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों की स्थापना का कमा चल रहा है।
6.जिला अस्पतालों और मेडिकल कालेज अस्पतालों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है।
7. 9 फरवरी,2014 को जारी एक सरकारी निर्देश में कहा गया है कि सरकारी अस्पतालों में आउटडोर और इनडोर फ्री बेड पर निःशुल्क अत्यावश्यक दवाओं की आपूर्ति की जाये।
8. 3 मार्च,2014 को जारी एक आदेश में कहा गया है कि अब से सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की लिखी दवाइयों का पूरा कोर्स मरीजों को दिया जायेगा।
9. विभिन्न सरकारी अस्पतालों में सिटी स्कैन, एमआरआई, एक्सरे और किसी किसी मामले में विभिन्न तरह की खून की जांच के लिए सरकार ने पीपीपी माडल के तहत गैरसरकारी संस्थाओं के साथ समझौता किया है,जिसके तहत मरीज बाजार की तुलना में कुछ कम कीमत पर ये जांच पड़ताल करा सकते हैं।
इसके अलावा अक्तूबर,2015 से पश्चिम बंगाल के सारे सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कालेजों में चिकित्सा पर सारा खर्च निःशुल्क कर दिया गया है (हालांकि पीपीपी माडल की सारी सेवाओं पर यह लागू नहीं है।
वास्तव में हुआ क्या है?
सारी चिकित्सा निःशुल्क है,ऐसा सुनने पर लगता है कि `यह तो जैसे सबके लिए स्वास्थ्य का हमारा सपना सच हो गया'। किंतु मित्रों.असल में ऐसी कोई तस्वीर बनती नहीं है। सबकुछ मुफ्त मिलेगा,ऐसा सरकारी ऐलान हो जाने के बावजूद पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल रहा है। सभी दवाइयां नहीं मिल रही हैं। आपरेशन, रेडियोथेरापी, केमोथेपरापी के लिए लंबा इंतजार करना पड़ रहा है।पेस मेकर, स्टेंट, प्रस्थेसिस काफी मात्रा में न मिलने से मरीजों को खाली हाथ लौटाकर बार बार बुलाया जा रहा है। ढांचा, डाक्टर, नर्स, स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या बढ़ाये बिना सबकुछ मुफ्त है,ऐलान कर देने से चिकित्सा का स्तर लगातार गिर रहा है।कहीं वार्मर में बच्चा झुलस रहा है तो कहीं तीमारदार डाक्टर नर्स को पीट रहे हैं।असलियत की तस्वीर यह है।
हाल में हमारी मुख्यमंत्री ने कोलकाता के बड़े बड़े निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम के प्रबंधकों को बुलाकर उन्हें थोड़ा बहुत डांटा फटकारा है। जिनपर आरोप है कि वे मुनाफाखोरी के लिए मरीजों की परवाह नहीं करते।किंतु समझने वाली बात तो यह है कि जो लोग कारोबार चला रहे हैं ,वे डांट फटकार की वजह से मरीजों के हित में सोचना शुरु कर देंगे,ऐसा समझना गलत है। स्वास्थ्य के साथ जहां रुपयों का लेन देन का मामला जुड़ा हुआ है,ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था में किसी भी स्थिति में मुनाफा को हाशिये पर रखकर पहले मरीज के सर्वोत्तम हित के बारे में सोचा नहीं जा सकता। इसके अलावा सवाल तो यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज कराने के बदले गैरसरकारी अस्पतालों में सेहत खरीदने के लिए लोग आखिर क्यों चले जाते हैं। जा इसलिए रहे हैं कि मुफ्त में जो मिलने का ऐलान है,हकीकत में उसका कोई वजूद ही नहीं है।अगर जेब में पैसे हों तो लोग सरकारी अस्पताल के दरवज्जे पर झांकने भी नहीं जाते। बड़ी संख्या में सुपरस्पेशलिटी अस्पताल हैं, जहां डाक्टर नहीं हैं, नर्स नहीं है, दवाएं और उपकरण नहीं हैं। बेड मिलता नहीं है और मरणासन्न रोगी को इस अस्पताल से उस अस्पताल को रिफर करते रहने की मजह से परिजन उसे लेकर भटकते ही रहते हैं। अंत में कोई उपाय न होने की वजह से ही वे गैरसरकारी अस्पतालों में चले जाते हैं।जिनके पास पैसे हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ है तो जिनके पास पैसे नहीं हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ और है।दोनों ही व्यवस्था साथ सात चलते रहने की स्थिति में विज्ञानसंगत चिकित्सा किसीकी नहीं होती। किसी को जरुरत के हिसाब से काफी ज्यादा मिल जाता है तो दूसरों को थोड़ा बहुत फ्री माल मिल जाता है। इस समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि देश में सभी के लिए एक ही व्यवस्था बनायी जाये, जिससे पैसे पर यह कतई निर्भर न हो कि किसे किस तरह का इलाज मिलता है। ऐसी व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार लें, कोई मुनाफाखोर स्वास्थ्यविक्रेता नहीं। यह सोचने पर अचरज होता है कि सारा जोर `सबके लिए आधार कार्ड' की मांग पर है लेकिन `सबके लिए स्वास्थ्य' को लेकर तनिक परवाह किसी को नहीं है।
इसलिए इस साल भी हम विश्व स्वास्थ्य दिवस सबके लिए स्वास्थ की मांग दिवस के रुप में मनाने जा रहे हैं।आप भी आइये। आइये कि हम आवाज उठायें कि स्वास्थ्य कोई भीख नहीं है, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है।सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसंगत चिकित्सा की जिम्मेदारी सरकार लें।
श्रमजीवी स्वास्थ्य पहल
2014 के बाद भारत सरकार ने स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में कटौती कर दी।
`सबके लिए स्वास्थ्य' संभव है।
सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसम्मत चिकित्सा संभव है
सिर्फ विकसित देशों में नहीं,हमारे जैसे गरीब देशों में भी।
"সবার জন্যে স্বাস্থ্য" সম্ভব।
भारत सरकार की गठित एक उच्चस्तरीय स्वास्थ्य कमिटी ने ऐसा ही कहा है। कांग्रेस के सत्ताकाल में 2010 में गठित इस कमिटी के सभापिति डा. श्रीनाथ रेड्डी थे। रेड्डी कमिटी ने कहा था, अभ्यंतरीन उत्पादन के 1.4 से बढ़ाकर 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य के मद में सरकार अगर खर्च करें तो हमारे देश में भी सबके लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम की व्यवस्था लागू की जी सकती है। यानी यह आपका या मेरा आकाश कुसुम सपना नहीं है, सरकार की सलाहकार विशेषज्ञ समिति ही ऐसा कह रही है। बहरहाल, भारत की बात छोड़ दें, इस दुनिया के कम से कम 41 देशों की सरकारों ने यह व्यवस्था लागू कर दी है। जर्मनी और इंग्लैंड की तरह धनी देशों से लेकर पेरु या श्रीलंका की तरह तथाकथित गरीब देशों में भी यह व्यवस्था चालू हो गयी है।उन्होंने ऐसा कैसे संभव कर दिखाया? हमारे अपने देश में यह क्यों संभव नहीं हो पा रहा है?
क्या होना चाहिए था ?
विश्व स्वास्थ्य संस्था या WHO (World Health Organization) ने 1978 में एक सनद जारी किया, जिसमें कहा गया कि सन् 2000 के अंदर सबके लिए स्वास्थ्य व्यवस्था लागू करनी होगी। इस सनद पर दस्तखत करने वाले तमाम देशों में भारतवर्ष अन्यतम रहा है। आज 2017 में भी भारत ने यह स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू नहीं किया है। आज भी जेब से पैसे खर्च करके स्वास्थ्य (या सरल भाषा में इलाज) खरीदना होता है। इसके बावजूद उपयुक्त, सही, विज्ञानसम्मत चिकित्सा मिलेगी ,इसकी कोई गारंटी नहीं है।ऐसा क्यों है, बताइये।
इन मांगों को लेकर हम पिछले चार साल से आंदोलन कर रहे हैं। अगस्त ,2015 में 33 संगठनों को लेकर बंगालभर में सबके लिए स्वास्थ्य प्रचार समिति का गठन करके सघन प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। बंगालभर में यह प्रचार अभियान चल रहा है। 24 जनवरी,2016 को स्वास्थ्य की मांग लेकर कोलकाता यूनिवर्सिटी इंस्टीच्युट में एक जन कांवेंशन हो गया। जिसमें डा. श्रीनाथ रेड्डी, डा.विनायक सेन और दूसरों ने अपने वक्तव्य पेश किये। पिछले साल 7 अप्रैल को, हमने `विश्व स्वास्थ्य दिवस ' `सबके लिए स्वास्थ्य दिवस' के रुप में मनाया। हमने इस मौके पर डा. श्रीनाथ रेड्डी कमिटी की सिफारिशों के मुताबिक ये मांगें रखी थींः
केंद्र या राज्य की सरकारी संस्था के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा दी जायें।
सभी स्वास्थ्य सेवाएं निःशुल्क हों।
सारी अत्यावश्यक दवाइयां निःशुल्क दी जायें।
सभी नागरिकों को आधार कार्ड की तर्ज पर HEALTH ENTITLEMENT CARD दिया जाये। जिस कार्ड के जरिये भारतवर्ष में कहीं भी उन्हें स्वास्थ्य सेवाें निःशुल्क मिलें।
स्वास्थ्य बीमा भ्रष्टाचार का स्रोत है,इस व्यवस्था को तुरंत खत्म कर दिया जाये।
लेकिन हुआ क्या ?
कांगेसी सरकार ने तो रेड्डी समिति की किसी भी सिफारिश को नहीं माना.इस पर तुर्रा यह कि भाजपा ने सत्ता में आकर स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में 9.4 प्रतिशत कटौती कर दी।सरकार की भूमिका मैनेजर की हो गयी और स्वास्थ्य क्षेत्र में गैरसरकारी निवेश को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
इस बीच पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तृणमूल सरकार के जमाने में कई उल्लेखनीय परिवर्तन हो गये हैं।पश्चिम बंगाल सरकार के स्वास्थ्य विभाग की ओर से प्रकाशित Health on the March,14 -15 के मुताबिकः
फरवरी, 2012में डाक्टरों से जेनेरिक दवाएं नूस्खे पर लिखने के लिए कहा गया।
2.सरकारी अस्पतालों में अस्वस्थ नवजात शिशुओं की चिकित्सा के लिए सिक निओनेटाल केअर यूनिट(एसएलसीयू) और सिक निओनेटाल स्टेबेलाइजिंग यूनिट की संख्या बढ़ा दी गयी।
3.विभिन्न सरकारी अस्पतालों में उचित मूल्य पर दवाओं की दुकानें चालू हो गयी हैं,जहां से 142 अत्यावश्यक दवाइयां 48 से 67.25 प्रतिशत कम कीमत पर खरीदी जा सकती है।इसके अलावा इन दुकानों में एंजिओप्लास्टि में इस्तेमाल किये जाने वाले स्टेंट, पेसमेकर, अस्थि चिकित्सा के लिए इम्प्लांट इत्यादि भी रियायती दरों पर खरीदे जा सकते हैं।
4,मेडिकल कालेजों की संख्या बढ़कर 17 हो गयीं,जहां 2200 सीटें हैं।
4.पिछड़ा क्षेत्र विकास खाते से देहात में तेरह मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों की स्थापना का कमा चल रहा है।
6.जिला अस्पतालों और मेडिकल कालेज अस्पतालों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है।
7. 9 फरवरी,2014 को जारी एक सरकारी निर्देश में कहा गया है कि सरकारी अस्पतालों में आउटडोर और इनडोर फ्री बेड पर निःशुल्क अत्यावश्यक दवाओं की आपूर्ति की जाये।
8. 3 मार्च,2014 को जारी एक आदेश में कहा गया है कि अब से सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की लिखी दवाइयों का पूरा कोर्स मरीजों को दिया जायेगा।
9. विभिन्न सरकारी अस्पतालों में सिटी स्कैन, एमआरआई, एक्सरे और किसी किसी मामले में विभिन्न तरह की खून की जांच के लिए सरकार ने पीपीपी माडल के तहत गैरसरकारी संस्थाओं के साथ समझौता किया है,जिसके तहत मरीज बाजार की तुलना में कुछ कम कीमत पर ये जांच पड़ताल करा सकते हैं।
इसके अलावा अक्तूबर,2015 से पश्चिम बंगाल के सारे सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कालेजों में चिकित्सा पर सारा खर्च निःशुल्क कर दिया गया है (हालांकि पीपीपी माडल की सारी सेवाओं पर यह लागू नहीं है।
वास्तव में हुआ क्या है?
सारी चिकित्सा निःशुल्क है,ऐसा सुनने पर लगता है कि `यह तो जैसे सबके लिए स्वास्थ्य का हमारा सपना सच हो गया'। किंतु मित्रों.असल में ऐसी कोई तस्वीर बनती नहीं है। सबकुछ मुफ्त मिलेगा,ऐसा सरकारी ऐलान हो जाने के बावजूद पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल रहा है। सभी दवाइयां नहीं मिल रही हैं। आपरेशन, रेडियोथेरापी, केमोथेपरापी के लिए लंबा इंतजार करना पड़ रहा है।पेस मेकर, स्टेंट, प्रस्थेसिस काफी मात्रा में न मिलने से मरीजों को खाली हाथ लौटाकर बार बार बुलाया जा रहा है। ढांचा, डाक्टर, नर्स, स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या बढ़ाये बिना सबकुछ मुफ्त है,ऐलान कर देने से चिकित्सा का स्तर लगातार गिर रहा है।कहीं वार्मर में बच्चा झुलस रहा है तो कहीं तीमारदार डाक्टर नर्स को पीट रहे हैं।असलियत की तस्वीर यह है।
हाल में हमारी मुख्यमंत्री ने कोलकाता के बड़े बड़े निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम के प्रबंधकों को बुलाकर उन्हें थोड़ा बहुत डांटा फटकारा है। जिनपर आरोप है कि वे मुनाफाखोरी के लिए मरीजों की परवाह नहीं करते।किंतु समझने वाली बात तो यह है कि जो लोग कारोबार चला रहे हैं ,वे डांट फटकार की वजह से मरीजों के हित में सोचना शुरु कर देंगे,ऐसा समझना गलत है। स्वास्थ्य के साथ जहां रुपयों का लेन देन का मामला जुड़ा हुआ है,ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था में किसी भी स्थिति में मुनाफा को हाशिये पर रखकर पहले मरीज के सर्वोत्तम हित के बारे में सोचा नहीं जा सकता। इसके अलावा सवाल तो यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज कराने के बदले गैरसरकारी अस्पतालों में सेहत खरीदने के लिए लोग आखिर क्यों चले जाते हैं। जा इसलिए रहे हैं कि मुफ्त में जो मिलने का ऐलान है,हकीकत में उसका कोई वजूद ही नहीं है।अगर जेब में पैसे हों तो लोग सरकारी अस्पताल के दरवज्जे पर झांकने भी नहीं जाते। बड़ी संख्या में सुपरस्पेशलिटी अस्पताल हैं, जहां डाक्टर नहीं हैं, नर्स नहीं है, दवाएं और उपकरण नहीं हैं। बेड मिलता नहीं है और मरणासन्न रोगी को इस अस्पताल से उस अस्पताल को रिफर करते रहने की मजह से परिजन उसे लेकर भटकते ही रहते हैं। अंत में कोई उपाय न होने की वजह से ही वे गैरसरकारी अस्पतालों में चले जाते हैं।जिनके पास पैसे हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ है तो जिनके पास पैसे नहीं हैं,उनके लिए इंतजाम कुछ और है।दोनों ही व्यवस्था साथ सात चलते रहने की स्थिति में विज्ञानसंगत चिकित्सा किसीकी नहीं होती। किसी को जरुरत के हिसाब से काफी ज्यादा मिल जाता है तो दूसरों को थोड़ा बहुत फ्री माल मिल जाता है। इस समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि देश में सभी के लिए एक ही व्यवस्था बनायी जाये, जिससे पैसे पर यह कतई निर्भर न हो कि किसे किस तरह का इलाज मिलता है। ऐसी व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार लें, कोई मुनाफाखोर स्वास्थ्यविक्रेता नहीं। यह सोचने पर अचरज होता है कि सारा जोर `सबके लिए आधार कार्ड' की मांग पर है लेकिन `सबके लिए स्वास्थ्य' को लेकर तनिक परवाह किसी को नहीं है।
इसलिए इस साल भी हम विश्व स्वास्थ्य दिवस सबके लिए स्वास्थ की मांग दिवस के रुप में मनाने जा रहे हैं।आप भी आइये। आइये कि हम आवाज उठायें कि स्वास्थ्य कोई भीख नहीं है, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है।सबके लिए निःशुल्क विज्ञानसंगत चिकित्सा की जिम्मेदारी सरकार लें।
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