डिजिटल हिंदूराष्ट्र में किसान और खेतिहर मजदूर आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?
पलाश विश्वास
डिजिटल हिंदूराष्ट्र में किसान और खेतिहर मजदूर आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? हरित क्रांति के बाद से लगातार गहराते कृषि संकट को सुलझाने के लिए क्या हिंदुत्व के एजंडे में कोई परिकल्पना है?इस सवाल का जबाव सत्ता वरग के किसी भी व्यक्ति से मिलना मुश्किल है क्योंकि ग्रामीण भारत और कृषि दोनों किसी भी तरह के विमर्श से बहार है।
सुनहले दिनों के ख्वाबों में हकीकत की जमीन पर नरेंद्र मोदी सरकार के पहले दो साल में कृषि वृद्धि दर का औसत 1.6 प्रतिशत रहा है। लगातार दो साल 2014 और 2015 में सूखा पड़ा, ऐसा करीब 100 साल से ज्यादा वक्त बाद हुआ है। सूखे का असर 10 से ज्यादा राज्योंं में रहा है, जिसकी वजह से पानी का संकट हुआ।
मुक्त बाजार की बहार में किसानों के मरने जीने से किसी को फर्क नहीं पड़ता और भोपाल गैस त्रासदी की निरंतरता जारी है। कीटनाशक दवाइयों बनाने के गैस भंडार से गैस लीक हो जाने से राजधानी दिल्ली में करीब ढाई सौ बच्चे बीमार हो गये हैं तो बाकी देश को यह बात अभीतक समझ में नहीं आ रहा है कि पूरा देश किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए मुकम्मल गैस भंडार में तब्दील है।लेकिन जिस जहरीली गैस से कृषि संकट का निदान हरित क्रांति में सोचा गया है,वह भोपाल के बाद नई दिल्ली को भी संक्रमित कर रहा है तो यह समझना जरुरी है कि देहात का संकट नगरों और महानगरों को भी संक्रमित कर रहा है।
डिजिटल इंडिया में किसानों की आत्महत्या रुकने के बजाय बढ़ गयी है।ताजा आंकड़े इशारा करते हैं कि आत्महत्या करने वाले कुल किसानों में से 70 प्रतिशत से अधिक संख्या उन गरीब किसानों की है, जिनके पास दो हेक्टेयर से भी कम जमीन है।देस के वित्तीय प्रबंधकों के लिए बाजार का विस्तार सर्वोच्च प्राथमिकता पर है और राजकाज भी मुनाफे की अर्थव्वस्था से संचालित है।विकास का मतलब है समृद्ध और सत्ता के सवर्ण वर्ग का विकास और वृद्धि का मतलब भी समृद्ध और सत्ता के सवर्ण वर्ग की वृद्धि है। इस विकास और वृद्धि का बंद बूंद रिसाव से ही बहुसंख्य आम जनता की जिंदगी और उनका वजूद निर्भर है और तमाम आर्थिक सुधारों की दिशा भी वहीं है।
खेती और किसानों की समस्या सुलझाये बिना अंधाधुंध शहरीकरण और उपभोक्ता बाजार के विकास और वृद्धि की अर्थव्यवस्था में बहुसंख्य आबादी के लिए,किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए और देश की बुनियादी उत्पादन प्रमाली और नैसर्गिक स्थानीय रोजगार के लिए नीति निर्धारकों और चुने हुए जन प्रतिनिधियों के दिलो दिमाग में कोई जगह नहीं है।जाहिर है कि केंद्र सरकार के क्राइम रिकार्ड ब्यूरो(एनसीआरबी) की एक्सीडेंटल डेथ एंड सुइसाइड शीर्षक रपट के आंकड़ों के मुताबिक भारत के हिंदू राष्ट्र डिजिटल इंडिया बन जाने के बाद 2014-15 के दौरान दो साल में देश के बारह हजार किसानों और खेतिहर मजदूरों ने समरसता के मनुस्मृति राजकाज के बावजूद आत्महत्या कर ली है।
गौरतलब है कि ये आंकड़े नोटबंदी से पहले के हैं।नोटबंदी से कृषि संकट गहरा जाने से और पैदावर में असर के नतीजे आने अभी बाकी हैं।बहरहाल यह मानने की वजह अभी कोई नहीं है कि नोटबंदी से किसानों की हालत में कोई सुधार हुआ है।डिजिटल इंडिया में गुजर बसर करने के लिए जाहिर है कि इस वर्ग के पास क्रयशक्ति नहीं है और समाजिक योजनाओं और सरकारी खर्च के बावजूद उन्हें कोई राहत नहीं है।जनसंख्या के हिसाब से इनमें कमसेकम नब्वे फीसद लोग हिंदू है और हिंदुत्व के एजंडे में ऐसे सर्वहारा तबके के अछूत पिछड़े आदिवासी हिंदुओं के लिए मनुस्मृति विधान के तहत कोई जगह नहीं है।गौरतलब है कि एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक करीब 39 प्रतिशत किसानों ने दीवालिया होने, कर्ज के बोझ तले दबे होने या कृषि संबंधी मसलों की वजह से मौत को गले लगाया है, 20 प्रतिशत कृषि श्रमिकों की आत्महत्या की भी यही वजह रही है। किसानों की आत्महत्या में छोटे व सीमांत किसानों की आत्महत्या का प्रतिशत करीब 73 रहा है। इस श्रेणी में वे किसान आते हैं, जिनके पास एक हेक्टेयर (एक हेक्टेयर 10,000 वर्गमीटर के बराबर होता है) से कम जमीन है। 2014 में भी करीब 73 प्रतिशत छोटे व सीमांत किसानों ने आत्महत्या की थी।
डिजिटल कैशलैस इंडिया में आटोमेशन के आधार अंधियारे में बेरोजगारी जिस घने कुहासे की तरह देश का प्रयावरण बनता जा रहा है और देश विदेश में नौकरियों से जिस पैमाने पर छंटनी हो रही है और उस तुलना में रोजगार सृजन की कोई परिकल्पना नहीं है,तो किसानों और खेतिहर मजदूरों की दुनिया में पढ़े लिखे लोगों के लिए रोजगार का अभूतपूर्व संकटभी गहरा रहा है,जिसके दबाव में कृषि आजीविका से जुड़े समुदायों, समाज और परिवारों के लिए आजीविका और रोजगार के सारे विकल्प खत्म हो जाने से खेतों पर दबाव और उसीतरह बढ़ेगा जैसा हमने अस्सी के दशक में पंजाब जैसे समृद्ध राज्य में देखा है जिससे निपटने की कोई तैयारी दीख नहीं रही है।
बहरहाल इस रपट में पश्चिम बंगाल समेत सात राज्यों में एक भी किसान आत्महत्या का मामला दर्ज दिखाया नहीं गया है।गौरतलब है कि राज्यों ने अपने पुलिस रिकार्ड के आधार पर एनसीआरबी को तथ्य दिये हैं।
इसका सीधा मतलब यह हुआ कि जिन राज्यों में किसानों की आत्महत्या का मामला दर्ज ही नहीं हुआ हैं,उनके आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
बंगाल के किसान संगठन यह मानने के लिए कतई तैयार नहीं है कि बंगाल में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की है और 2014 -15 में बंगाल में भी किसानों की आत्महत्या सुर्खियां बनती रही है। वे वारदातें जाहिर है कि पुलिस रिकार्ड में न होने के कारण इस रपट में भी नहीं है।
इसी तरह उत्तर प्रदेश योजना आयोग के सदस्य सुधीर पंवार ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया, 'किसानों की आत्महत्या के ये आंकड़े हकीकत बयान नहीं करते, क्योंकि बड़े पैमाने में आत्महत्याओं को दर्ज ही नहीं किया जाता है। इसकी कोई सटीक वजह नहीं है। हां, इससे साफ साफ पता चलता है कि गांवों में आर्थिक तनाव पिछले कुछ साल के दौरान बढ़ा है, जिसकी प्रमुख वजह लगातार दो साल पड़ा सूखा और कृषि उत्पादों का उचित मूल्य न मिलना है।'
गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल, मिजोरम, नागालैंड और गोवा उन राज्यों में शामिल हैं जहां किसान आत्महत्या का एक भी मामला दर्ज नहीं किया गया।
अभी हालत यह है कि हर रोज देश में औसतन 35 किसान खुदकशी करते हैं।इस मामले में भगवा राज्य महाराष्ट्र सबसे आगे है।जहां किसान सबसे ज्यादा आत्महत्या करते हैं।2015 में महाराष्ट्र में 3.30 किसानों ने आत्महत्या की है।
खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या के मामले में भी महाराष्ट्र सबसे आगे है,जहां 1261 लोगों ने आत्महत्या की।इसके बाद तेलंगाना में 1,358 और कर्नाटक में 1,197 किसानों ने खुदकुशी की।
छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में भी 854 किसानों ने जिंदगी के बदले मौत को चुना। मध्यप्रदेश और आंध्र प्रदेश से भी कई किसानों ने आत्महत्या का रास्ता चुना।
गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभालने के बाद से लगातार वायदा किया है कि किसानों की आमदनी दो गुणी हो जायेगी।इसके अलावा विभिन्न सरकारी एजंसियों में कृषि विकास दर में उछाला का दावा किया जाता रहा है।
खास बात यह कि इस अवधि में किसानों की आत्महत्या की घटनाएं 5,650 से बढ़कर 8.007 हो गयी यानी किसानों की आत्महत्या दर में 42 प्रतिशत वृद्धि हो गयी है। इसके मुकाबले इसी अवधि में खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या की घटनाएं 6,710 से घटकर 4,595 हो गयी है।फिर भी इस रपट के मुताबिक खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या की घटनाओं में भी 31 प्रतिशत वृद्धि हुई है।
खेती के लिए कर्ज लेकर चुका न पाने की वजह से सबसे ज्यादा आत्महत्याएं हुई हैं। 38.7 प्रतिशत किसानों ने कर्ज के बोझ के चलते आत्महत्या कर ली है।19.5 प्रतिशत किसानों ने दूसरी वजहों से खुदकशी की है।
किसानों की आत्महत्या का विश्लेषण करते हुए एनसीआरबी रपट में आत्महत्या के कारणों का ब्यौरा दिया गया है। रिपोर्ट में किसानों की आत्महत्या के लिए बैंकों और माइक्रो फाइनेंस को जिम्मेदार माना गया हैं।
देशभर में 3000 से अधिक किसानों, लगभग 80 फीसदी ने कर्ज की वजह से आत्महत्या की। यह आंकड़ा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि अब तक यही माना जाता था कि किसान महाजनों से लिए कर्ज और उनके उत्पीड़न के चलते आत्महत्या करता है। कृषि संबंधित मामले जैसे फसलों की उपज में कमी भी आत्महत्या के लिए जिम्मेदार कारक के रूप में सामने आया है।
रपट के अनुसार खेती करने वाले मजदूरों में आत्महत्या के लिए बीमारी और पारिवारिक समस्या भी प्रमुख कारण के रूप में सामने आये हैं।
एनसीआरबी ने कहा, 'पिछले 2-3 साल में असमान व अपर्याप्त मॉनसूनी बारिश की वजह से कृषि क्षेत्र में लगे लोगोंं की समस्याएं बढ़ी हैं। किसानों के इस तरह के अप्रत्याशित कदम उठाने के पीछे यह एक बड़ी वजह है।' इस सूची के राज्योंं में एक बार फिर महाराष्ट्र पहले स्थान पर रहा है, जहां 2015 में कृषि क्षेत्र में लगे लोगों ने सबसे ज्यादा 4,291 आत्महत्याएं की हैं। इसके बाद कर्नाटक (1,559), तेलंगाना (1,400), मध्य प्रदेश (1,290), छत्तीसगढ़ (954) और आंध्र प्रदेश (916) का स्थान है।
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