फिर दर्द होता है तो चीखना मजबूरी भी है।
शायद जब तक जीता रहूंगी मेरी चीखें आपको तकलीफ देती रहेंगी,अफसोस।
जो बच्चे 30-35 साल की उम्र में हाथ पांव कटे लहूलुहान हो रहे हैं,उनमें से हरेक के चेहरे पर मैं अपना ही चेहरा नत्थी पाता हूं।
बत्रा साहेब की मेहरबानी है कि उन्होंने फासिज्म के प्रतिरोध में खड़े भारत के महान रचनाकारों को चिन्हित कर दिया।इन प्रतिबंधित रचनाकारों में कोई जीवित और सक्रिय रचनाकार नहीं है तो इससे साफ जाहिर है कि संघ परिवार के नजरिये से भी उनके हिंदुत्व के प्रतिरोध में कोई समकालीन रचनाकार नहीं है।
उन्हीं मृत रचनाकारों को प्रतिबंधित करने के संघ परिवार के कार्यक्रम के बारे में समकालीन रचनाकारों की चुप्पी उनकी विचारधारा,उनकी प्रतिबद्धता और उनकी रचनाधर्मिता को अभिव्यक्त करती है।
जैसे इस वक्त सारे के सारे लोग नीतीश कुमार के खिलाफ बोल लिख रहे हैं।जैसे कि बिहार का राजनीतिक दंगल की देश का सबसे ज्वलंत मुद्दा हो।
डोकलाम की युद्ध परिस्थितियां, प्राकृतिक आपदाएं,किसानों की आत्महत्या,व्यापक छंटनी और बेरोजगारी, दार्जिंलिंग में हिंसा, कश्मीर की समस्या, जीएसटी, आधार अनिवार्यता, नोटबंदी का असर , खुदरा कारोबार पर एकाधिकार वर्चस्व, शिक्षा और चिकित्सा पर एकाधिकार कंपनियों का वर्चस्व, बच्चों का अनिश्चित भविष्य, महिलाओं पर बढ़ते हुए अत्याचार,दलित उत्पीड़न की निरंतरता,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ नरसंहार संस्कृति जैसे मुद्दों पर कोई बहस की जैसे कोई गुंजाइश ही नहीं है।
गौरतलब है कि मुक्तिबोध पर अभी हिंदुत्व जिहादियों की कृपा नहीं हुई है।शायद उन्हें समझना हर किसी के बस में नहीं है,गोबरपंथियों के लिए तो वे अबूझ ही हैं।
पलाश विश्वास
सत्ता समीकरण और सत्ता संघर्ष मीडिया का रोजनामचा हो सकता है,लेकिन यह रोजनामचा ही समूचा विमर्श में तब्दील हो जाये,तो शायद संवाद की कोई गुंजाइश नहीं बचती।आम जनता की दिनचर्या,उनकी तकलीफों,उनकी समस्याओं में किसी की कोई दिलचस्पी नजर नहीं आती तो सारे बुनियादी सवाल और मुद्दे जिन बुनियादी आर्थिक सवालों से जुड़े हैं,उनपर संवाद की स्थिति बनी नहीं है।
हमारे लिए मुद्दे कभी नीतीशकुमार हैं तो कभी लालू प्रसाद तो कभी अखिलेश यादव तो कभी मुलायसिंह यादव,तो कभी मायावती तो कभी ममता बनर्जी।हम उनकी सियासत के पक्ष विपक्ष में खड़े होकर फासिज्म के राजकाज का विरोध करते रहते हैं।
जैसे इस वक्त सारे के सारे लोग नीतीश कुमार के खिलाफ बोल लिख रहे हैं।जैसे कि बिहार का राजनीतिक दंगल की देश का सबसे ज्वलंत मुद्दा हो।
डोकलाम की युद्ध परिस्थितियां, प्राकृतिक आपदाएं,किसानों की आत्महत्या,व्यापक छंटनी और बेरोजगारी, दार्जिंलिंग में हिंसा, कश्मीर की समस्या, जीएसटी, आधार अनिवार्यता, नोटबंदी का असर , खुदरा कारोबार पर एकाधिकार वर्चस्व, शिक्षा और चिकित्सा पर एकाधिकार कंपनियों का वर्चस्व, बच्चों का अनिश्चित भविष्य, महिलाओं पर बढ़ते हुए अत्याचार,दलित उत्पीड़न की निरंतरता,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ नरसंहार संस्कृति जैसे मुद्दों पर कोई बहस की जैसे कोई गुंजाइश ही नहीं है।
लोकतंत्र का मतलब यह है कि राजकाज में नागरिकों का प्रतिनिधित्व और नीति निर्माण प्रक्रिया में जनता की हिस्सेदारी।
सत्ता संघर्ष तक हमारी राजनीति सीमाबद्ध है और राजकाज,राजनय,नीति निर्माण,वित्तीय प्रबंधन,संसाधनों के उपयोग जैसे आम जनता के लिए जीवन मरण के प्रश्नों को संबोधित करने का कोई प्रयास किसी भी स्तर पर नहीं हो रहा है।
सामाजिक यथार्थ से कटे होने की वजह से हम सबकुछ बाजार के नजरिये से देखने को अभ्यस्त हो गये हैं।
बाजार का विकास और विस्तार के लिए आर्थिक सुधारों के डिजिटल इंडिया को इसलिए सर्वदलीय समर्थन है और इसकी कीमत जिस बहुसंख्य जनगण को अपने जल जंगल जमीन रोजगार आजीविका नागरिक और मानवाधिकार खोकर चुकानी पड़ती है,उसकी परवाह न राजनीति को है और न साहित्य और संस्कृति को।
हम जब साहित्य और संस्कृति के इस भयंकर संकट को चिन्हित करके समकालीन संस्कृतिकर्म की प्रासंगिकता और प्रतिबद्धता पर सवाल उठाये,तो समकालीन रचनाकारों में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई है।
बत्रा साहेब की मेहरबानी है कि उन्होंने फासिज्म के प्रतिरोध में खड़े भारत के महान रचनाकारों को चिन्हित कर दिया।
इन प्रतिबंधित रचनाकारों में कोई जीवित और सक्रिय रचनाकार नहीं है तो इससे साफ जाहिर है कि संघ परिवार के नजरिये से भी उनके हिंदुत्व के प्रतिरोध में कोई समकालीन रचनाकार नहीं है।
उन्हीं मृत रचनाकारों को प्रतिबंधित करने के संघ परिवार के कार्यक्रम के बारे में समकालीन रचनाकारों की चुप्पी उनकी विचारधारा,उनकी प्रतिबद्धता और उनकी रचनाधर्मिता को अभिव्यक्त करती है।
गौरतलब है कि मुक्तिबोध पर अभी हिंदुत्व जिहादियों की कृपा नहीं हुई है।शायद उन्हें समझना हर किसी के बस में नहीं है,गोबरपंथियों के लिए तो वे अबूझ ही हैं।अगर कांटेट के लिहाज से देखें तो फासिजम के राजकाज के लिए सबसे खतरनाक मुक्तिबोध है,जो वर्गीय ध्रूवीकरण की बात अपनी कविताओं में कहते हैं और उनका अंधेरा फासिज्म का अखंड आतंकाकारी चेहरा है।शायद महामहिम बत्रा महोदय ने अभी मुक्तबोध को कायदे से पढ़ा नहीं है।
बत्रा साहेब की कृपा से जो प्रतिबंधित हैं,उनमें रवींद्र,गांधी,प्रेमचंद,पाश, गालिब को समझना भी गोबरपंथियों के लिए असंभव है।
जिन गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस के रामराज्य और मर्यादा पुरुषोत्तम को कैंद्रित यह मनुस्मृति सुनामी है,उन्हें भी वे कितना समझते होंगे,इसका भी अंदाजा लगाना मुश्किल है।
बंगाली दिनचर्या में रवींद्रनाथ की उपस्थिति अनिवार्य सी है, जाति, धर्म, वर्ग, राष्ट्र, राजनीति के सारे अवरोधों के आर पार रवींद्र बांग्लाभाषियों के लिए सार्वभौम हैं,लेकिन बंगाली होने से ही लोग रवींद्र के जीवन दर्शन को समझते होंगे,ऐसी प्रत्याशा करना मुश्किल है।
कबीर दास और सूरदास लोक में रचे बसे भारत के सबसे बड़े सार्वजनीन कवि हैं,जिनके बिना भारतीयता की कल्पना असंभव है और देश के हर हिस्से में जिनका असर है। मध्यभारत में तो कबीर को गाने की वैसी ही संस्कृति है,जैसे बंगाल में रवींद्र नाथ को गाने की है और उसी मध्यभारत में हिंदुत्व के सबसे मजबूत गढ़ और आधार है।
निजी समस्याओं से उलझने के दौरान इन्हीं वजहों से लिखने पढ़ने के औचित्य पर मैंने कुछ सवाल खड़े किये थे,जाहिर है कि इसपर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई है।
मैंने कई दिनों पहले लिखा,हालांकि हमारे लिखने से कुछ बदलने वाला नहीं है.प्रेमचंद.टैगोर,गालिब,पाश,गांधी जैसे लोगों पर पाबंदी के बाद जब किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा तो हम जैसे लोगों के लिखने न लिखने से आप लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।अमेरिका से सावधान के बाद जब मैंने साहित्यिक गतिविधियां बंंद कर दी,जब 1970 से लगातार लिखते रहने के बावजूद अखबारों में लिखना बंद कर दिया है,तब सिर्फ सोशल मीडिया में लिखने न लिखने से किसी को कोई फ्रक नहीं पड़ेगा।
कलेजा जख्मी है।दिलोदिमाग लहूलुहान है।हालात संगीन है और फिजां जहरीली।ऐसे में जब हमारी समूची परंपरा और इतिहास पर रंगभेदी हमले का सिलसिला है और विचारधाराओं,प्रतिबद्धताओं के मोर्टे पर अटूट सन्नाटा है,तब ऐशे समय में अपनों को आवाज लगाने या यूं ही चीखते चले जाना का भी कोई मतलब नहीं है।
जिन वजहों से लिखता रहा हूं,वे वजहें तेजी से खत्म होती जा रही है।वजूद किरचों के मानिंद टूटकर बिखर गया है।जिंदगी जीना बंद नहीं करना चाहता फिलहाल,हालांकि अब सांसें लेना भी मुश्किल है।लेकिन इस दुस्समय में जब सबकुछ खत्म हो रहा है और इस देश में नपुंसक सन्नाटा की अवसरवादी राजनीति के अलावा कुछ भी बची नहीं है,तब शायद लिखते रहने का कोई औचित्यभी नहीं है।
मुश्किल यह कि आंखर पहचानते न पहचानते हिंदी जानने की वजह से अपने पिता भारत विभाजन के शिकार पूर्वी बंगाल और पश्चिम पाकिस्तान के विभाजनपीड़ितों के नैनीताल की तराई में नेता मेरे पिता की भारत भर में बिखरे शरणार्थियों के दिन प्रतिदिन की समस्याओं के बारे में रोज उनके पत्र व्यवहार औऱ आंदोलन के परचे लिखते रहने से मेरी जो लिखने पढ़ने की आदत बनी है और करीब पांच दशकों से जो लगातार लिख पढ़ रहा हूं,अब समाज और परिवार से कटा हुआ अपने घर और अपने पहाड़ से हजार मील दूर बैठे मेरे लिए जीने का कोई दूसरा बहाना नहीं है।
फिर दर्द होता है तो चीखना मजबूरी भी है।
शायद जब तक जीता रहूंगी मेरी चीखें आपको तकलीफ देती रहेंगी,अफसोस।
अभी अखबारों और मीडिया में लाखों की छंटनी की खबरें आयी हैं।जिनके बच्चे सेटिल हैं,उन्हें अपने बच्चों पर गर्व होगा लेकिन उन्हें बाकी बच्चों की भी थोड़ी चिंता होती तो शायद हालात बदल जाते।
मेरे लिए रोजगार अनिवार्य है क्योंकि मेरा इकलौता बेटा अभी बेरोजगार है।इसलिए जो बच्चे 30-35 साल की उम्र में हाथ पांव कटे लहूलुहान हो रहे हैं,उनमें से हरेक के चेहरे पर मैं अपना ही चेहरा नत्थी पाता हूं।
अभी सर्वे आ गया है कि नोटबंदी के बाद पंद्रह लाख लोग बेरोजगार हो गये हैं।जीएसटी का नतीजा अभी आया नहीं है।असंगठित क्षेत्र का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है और संगठित क्षेत्र में विनिवेश और निजीकरण के बाद ठेके पर नौकरियां हैं तो ठीक से पता लगना मुश्किल है कि कुल कितने लोगों की नौकरियां बैंकिंग, बीमा, निर्माण, विनिर्माण, खुदरा बाजार,संचार,परिवहन जैसे क्षेत्रों में रोज खथ्म हो रही है।
मसलन रेलवे में सत्रह लाख कर्मचारी रेलवे के अभूतपूर्व विस्तार के बाद अब ग्यारह लाख हो गये हैं जिन्हें चार लाख तक घटाने का निजी उपक्रम रेलवे का आधुनिकीकरण है,भारत के आम लोग इस विकास के माडल से खुश हैं और इसके समर्थक भी हैं।
संकट कितना गहरा है,उसके लिए हम अपने आसपास का नजारा थोड़ा बयान कर रहे हैं।बंगाल में 56 हजार कल कारखाने बंद होने के सावल पर परिव्रतन की सरकार बनी।बंद कारखाने तो खुले ही नहीं है और विकास का पीपीपी माडल फारमूला लागू है।कपड़ा,जूट,इंजीनियरिंग,चाय उद्योग ठप है।कल कारखानों की जमीन पर तमाम तरहके हब हैं और तेजी से बाकी कलकारखाने बंद हो रहे हैं।
आसपास के उत्पादन इकाइयों में पचास पार को नौकरी से हटाया जा रहा हो।यूपी और उत्तराखंड में भी विकास इसी तर्ज पर होना है और बिहार का केसरिया सुशासन का अंजाम भी यही होना है।
सिर्फ आईटी नहीं,बाकी क्षेत्रों में भी डिजिटल इंडिया के सौजन्य से तकनीकी दक्षता और ऩई तकनीक के बहाने एनडीवी की तर्ज पर 30-40 आयुवर्ग के कर्मचारियों की व्यापक छंटनी हो रही है।
सोदपुर कोलकाता का सबसे तेजी से विकसित उपनगर और बाजार है,जो पहले उत्पादन इकाइयों का केद्र हुआ करता था।यहां रोजाना लाखों यात्री ट्रेनों से नौकरी या काराबोर या अध्ययन के लिए निकलते हैं।चार नंबर प्लैटफार्म के सारे टिकट काउंटर महीनेभर से बंद है।आरक्षण काफी दिनों से बंद रहने के बाद आज खुला दिखा।जबकि टिकट के लिए एकर नंबर प्लेटफार्म पर दो खिडकियां हैं।
सोदपुर स्टेशन के दो रेलवे बुकिंग क्लर्क की कैंसर से मौत हो गयी हैा,जिनकी जगह नियुक्ति नहीं हुई है।सात दूसरे कर्मचारियों का तबादला हो गया है और बचे खुचे लोगं से काम निकाला जा रहा है।
आम जनता को इससे कुछ लेना देना नहीं है।
आर्थिक सुधारों,नोटबंदी,जीएसटी,आधार के खिलाफ आम लोगों को कुछ नहीं सुनना है।उनमें से ज्यादातर बजरंगी है।
बजरंगी इसलिए हैं कि उनसे कोई संवाद नहीं हो रहा है।
बुनियादी सवालों और मुद्दों से न टकराने का यह नतीजा है,क्षत्रपों के दल बदल, अवसरवाद जो हो सो है,लेकिन जनता के हकहकूक के सिलसिले में सन्नाटा का यह अखंड बजरंगी समय है।
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