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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, June 15, 2009

स्वर्ग से बिदाई / गोरख पाण्डेय

रचनाकार: गोरख पाण्डेय                 


 संग्रह का मुखपृष्ठ: स्वर्ग से बिदाई / गोरख पाण्डेय


पहिले-पहिल जब वोट मांगे अइले
तोह्के खेतवा दिअइबो
ओमें फसली उगइबो ।
बजडा के रोटिया देई -देई नुनवा
सोचलीं कि अब त बदली कनुनवा।
अब जमीनदरवा के पनही न सहबो,
अब ना अकारथ बहे पाई खूनवा।

दुसरे चुनउवा में जब उपरैलें त बोले लगले ना
तोहके कुँइयाँ खोनइबो
सब पियसिया मेटैबो
ईहवा से उड़ी- उड़ी ऊंहा जब गैलें
सोंचलीं ईहवा के बतिया भुलैले
हमनी के धीरे से जो मनवा परैलीं
जोर से कनुनिया-कनुनिया चिलैंले ।

तीसरे चुनउवा में चेहरा देखवलें त बोले लगले ना
तोहके महल उठैबो
ओमें बिजुरी लागैबों
चमकल बिजुरी त गोसैयां दुअरिया
हमरी झोपडिया मे घहरे अन्हरिया
सोंचलीं कि अब तक जेके चुनलीं
हमके बनावे सब काठ के पुतरिया ।

अबकी टपकिहें त कहबों कि देख तूं बहुत कइलना
तोहके अब ना थकईबो
अपने हथवा उठईबो
हथवा में हमरे फसलिया भरल बा
हथवा में हमरे लहरिया भरलि बा
एही हथवा से रुस औरी चीन देश में
लूट के किलन पर बिजुरिया गिरल बा ।
जब हम ईंहवो के किलवा ढहैबो त एही हाथें ना
तोहके मटिया मिलैबों
ललका झंडा फहरैबों
त एही हाथें ना
पहिले-पहिल जब वोट मांगे अइले ....


समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई

समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

हाथी से आई

घोड़ा से आई

अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...

नोटवा से आई

बोटवा से आई

बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद...

गाँधी से आई

आँधी से आई

टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद...

काँगरेस से आई

जनता से आई

झंडा से बदली हो आई, समाजवाद...

डालर से आई

रूबल से आई

देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद...

वादा से आई

लबादा से आई

जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद...

लाठी से आई

गोली से आई

लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद...

महंगी ले आई

गरीबी ले आई

केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद...

छोटका का छोटहन

बड़का का बड़हन

बखरा बराबर लगाई, समाजवाद...

परसों ले आई

बरसों ले आई

हरदम अकासे तकाई, समाजवाद...

धीरे-धीरे आई

चुपे-चुपे आई

अँखियन पर परदा लगाई

समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई ।

(रचनाकाल :1978)


सूतन रहलीं सपन एक देखलीं

सपन मनभावन हो सखिया,

फूटलि किरनिया पुरुब असमनवा

उजर घर आँगन हो सखिया,

अँखिया के नीरवा भइल खेत सोनवा

त खेत भइलें आपन हो सखिया,

गोसयाँ के लठिया मुरइआ अस तूरलीं

भगवलीं महाजन हो सखिया,

केहू नाहीं ऊँचा नीच केहू के न भय

नाहीं केहू बा भयावन हो सखिय,

मेहनति माटी चारों ओर चमकवली

ढहल इनरासन हो सखिया,

बैरी पैसवा के रजवा मेटवलीं

मिलल मोर साजन हो सखिया ।


(रचनाकाल : 1979)


हमारी यादों में छटपटाते हैं

कारीगर के कटे हाथ

सच पर कटी ज़ुबानें चीखती हैं हमारी यादों में

हमारी यादों में तड़पता है

दीवारों में चिना हुआ

प्यार ।


अत्याचारी के साथ लगातार

होने वाली मुठभेड़ों से

भरे हैं हमारे अनुभव ।


यहीं पर

एक बूढ़ा माली

हमारे मृत्युग्रस्त सपनों में

फूल और उम्मीद

रख जाता है ।


(रचनाकाल : 1980)


डबाडबा गई है तारों-भरी

शरद से पहले की यह

अँधेरी नम

रात ।

उतर रही है नींद

सपनों के पंख फैलाए

छोटे-मोटे ह्ज़ार दुखों से

जर्जर पंख फैलाए

उतर रही है नींद

हत्यारों के भी सिरहाने ।

हे भले आदमियो !

कब जागोगे

और हथियारों को

बेमतलब बना दोगे ?

हे भले आदमियो !

सपने भी सुखी और

आज़ाद होना चाहते हैं ।


(रचनाकाल : 1980)


आग के ठंडे झरने-सा

बह रहा था

संगीत

जिसे सुना नहीं जा सकता था

कम-से-कम

पाँच रुपयों के बिना ।

'चलो, स्साला पैसा गा रहा है'

पंडाल के पास से

खदेड़े जाते हुए लोगों में से

कोई कह रहा था ।

जादू टूट रहा है--

मुझे लगा--स्वर्ग और

नरक के बीच तना हुआ

साफ़ नज़र आता है

यहाँ से

पुलिस का डंडा

आग

बाहर है पंडाल के

भीतर

झरना ठंडा ।


वे डरते हैं

किस चीज़ से डरते हैं वे

तमाम धन-दौलत

गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद ?

वे डरते हैं

कि एक दिन

निहत्थे और ग़रीब लोग

उनसे डरना

बंद कर देंगे ।


(रचनाकाल:1979)


मेहनत से मिलती है
छिपाई जाती है स्वार्थ से
फिर, मेहनत से मिलती है.


ये आँखें हैं तुम्हारी
तकलीफ़ का उमड़ता हुआ समुन्दर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिये.


हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।

चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।

हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।

हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।


चैन की बाँसुरी बजाइये आप

शहर जलता है और गाइये आप

हैं तटस्थ या कि आप नीरो हैं

असली सूरत ज़रा दिखाइये आप


(रचनाकाल :1978)


1

जब तक वह ज़मीन पर था

कुर्सी बुरी थी

जा बैठा जब कुर्सी पर वह

ज़मीन बुरी हो गई ।

2

उसकी नज़र कुर्सी पर लगी थी

कुर्सी लग गयी थी

उसकी नज़र को

उसको नज़रबन्द करती है कुर्सी

जो औरों को

नज़रबन्द करता है ।

3

महज ढाँचा नहीं है

लोहे या काठ का

कद है कुर्सी

कुर्सी के मुताबिक़ वह

बड़ा है छोटा है

स्वाधीन है या अधीन है

ख़ुश है या ग़मगीन है

कुर्सी में जज्ब होता जाता है

एक अदद आदमी ।

4

फ़ाइलें दबी रहती हैं

न्याय टाला जाता है

भूखों तक रोटी नहीं पहुँच पाती

नहीं मरीज़ों तक दवा

जिसने कोई ज़ुर्म नहीं किया

उसे फाँसी दे दी जाती है

इस बीच

कुर्सी ही है

जो घूस और प्रजातन्त्र का

हिसाब रखती है ।

5

कुर्सी ख़तरे में है तो प्रजातन्त्र ख़तरे में है

कुर्सी ख़तरे में है तो देश ख़तरे में है

कुर्सी ख़तरे में है तु दुनिया ख़तरे में है

कुर्सी न बचे

तो भाड़ में जायें प्रजातन्त्र

देश और दुनिया ।

6

ख़ून के समन्दर पर सिक्के रखे हैं

सिक्कों पर रखी है कुर्सी

कुर्सी पर रखा हुआ

तानाशाह

एक बार फिर

क़त्ले-आम का आदेश देता है ।

7

अविचल रहती है कुर्सी

माँगों और शिकायतों के संसार में

आहों और आँसुओं के

संसार में अविचल रहती है कुर्सी

पायों में आग

लगने

तक ।

8

मदहोश लुढ़ककर गिरता है वह

नाली में आँख खुलती है

जब नशे की तरह

कुर्सी उतर जाती है ।

9

कुर्सी की महिमा

बखानने का

यह एक थोथा प्रयास है

चिपकने वालों से पूछिये

कुर्सी भूगोल है

कुर्सी इतिहास है ।


(रचनाकाल : 1980)


झुर-झुर बहे बहार
गमक गेंदा की आवे!
दुख की तार-तार
चूनर पहने
लौट गई गौरी
नइहर रहने
चन्दन लगे किवाड़
पिया की याद सतावे.

भाई चुप भाभी
देता ताने
अब तो माई बाप न पहव्हानें
बचपन की मनुहार
नयन से नीर बहावे.

परदेसी ने की जो अजब ठगी
हुई धूल-माटी की
यह जिनगी
जोबन होवे भार
कि सुख सुपना हो जावे.


रास्ते में उगे हैं काँटे

रास्ते में उगे हैं पहाड़

देह में उगे हैं हाथ

हाथों में उगे हैं औज़ार


(रचनाकाल : 1979)


फूल हैं गोया मिट्टी के दिल हैं
धड़कते हुए
बादलों के ग़लीचों पे रंगीन बच्चे
मचलते हुए
प्यार के काँपते होंठ हैं
मौत पर खिलखिलाती हुई चम्पई

ज़िन्दगी
जो कभी मात खाए नहीं
और ख़ुश्बू हैं
जिसको कोई बाँध पाये नहीं

ख़ूबसूरत हैं इतने
कि बरबस ही जीने की इच्छा जगा दें
कि दुनिया को और जीने लायक बनाने की
इच्छा जगा दें.


हमारे वतन की नई ज़िन्दगी हो
नई ज़िन्दगी इक मुकम्मिल ख़ुशी हो
नया हो गुलिस्ताँ नई बुलबुलें हों
मुहब्बत की कोई नई रागिनी हो
न हो कोई राजा न हो रंक कोई
सभी हों बराबर सभी आदमी हों
न ही हथकड़ी कोई फ़सलों को डाले
हमारे दिलों की न सौदागरी हो
ज़ुबानों पे पाबन्दियाँ हों न कोई
निगाहों में अपनी नई रोशनी हो
न अश्कों से नम हो किसी का भी दामन
न ही कोई भी क़ायदा हिटलरी हो
सभी होंठ आज़ाद हों मयक़दे में
कि गंगो-जमन जैसी दरियादिली हो
नये फ़ैसले हों नई कोशिशें हों
नयी मंज़िलों की कशिश भी नई हो.


समय का पहिया चले रे साथी
समय का पहिया चले
फ़ौलादी घोंड़ों की गति से आग बरफ़ में जले रे साथी
समय का पहिया चले
रात और दिन पल पल छिन
आगे बढ़ता जाय
तोड़ पुराना नये सिरे से
सब कुछ गढ़ता जाय
पर्वत पर्वत धारा फूटे लोहा मोम सा गले रे साथी
समय का पहिया चले
उठा आदमी जब जंगल से
अपना सीना ताने
रफ़्तारों को मुट्ठी में कर
पहिया लगा घुमाने
मेहनत के हाथों से
आज़ादी की सड़के ढले रे साथी
समय का पहिया चले 


कला कला के लिए हो
जीवन को ख़ूबसूरत बनाने के लिए
न हो
रोटी रोटी के लिए हो
खाने के लिए न हो

मज़दूर मेहनत करने के लिए हों
सिर्फ़ मेहनत
पूंजीपति हों मेहनत की जमा पूंजी के
मालिक बन जाने के लिए
यानि,जो हो जैसा हो वैसा ही रहे
कोई परिवर्तन न हो
मालिक हों
ग़ुलाम हों
ग़ुलाम बनाने के लिए युद्ध हो
युद्ध के लिए फ़ौज हो
फ़ौज के लिए फिर युद्ध हो

फ़िलहाल कला शुद्ध बनी रहे
और शुद्ध कला के
पावन प्रभामंडल में
बने रहें जल्लाद
आदमी को
फाँसी पर चढ़ाने लिए.


फावड़ा उठाते हैं हम तो

मिट्टी सोना बन जाती है

हम छेनी और हथौड़े से

कुछ ऎसा जादू करते हैं

पानी बिजली हो जाता है

बिजली से हवा-रोशनी

औ' दूरी पर काबू करते हैं

हमने औज़ार उठाए तो

इंसान उठा

झुक गए पहाड़

हमारे क़दमों के आगे

हमने आज़ादी की बुनियाद रखी

हम चाहें तो बंदूक भी उठा सकते हैं

बंदूक कि जो है

एक और औज़ार

मगर जिससे तुमने

आज़ादी छीनी है सबकी


हम नालिश नहीं

फ़ैसला करते हैं ।


(रचनाकाल : 1980)


माया महाठगिनि हम जानी,
पुलिस फौज के बल पर राजे बोले मधुरी बानी,
यह कठपुतली कौन नचावे पंडित भेद न पावें,
सात समन्दर पार बसें पिय डोर महीन घुमावें,
रूबल के संग रास रचावे डालर हाथ बिकानी,
जन-मन को बाँधे भरमावे जीवन मरन बनावे,
अजगर को रस अमृत चखावे जंगल राज चलावे,
बंधन करे करम के जग को अकरम मुक्त करानी,
बिड़ला घर शुभ लाभ बने मँहगू घर खून-पसीना,
कहत कबीर सुनो भाई साधो जब मानुष ने चीन्हा,
लिया लुआठा हाथ भगी तब कंचनभृग की रानी.

(विद्रोही संत कवि से क्षमा-याचना सहित)


एक झीना-सा परदा था, परदा उठा
सामने थी दरख्तों की लहराती हरियालियां
झील में चांद कश्ती चलाता हुआ
और खुशबू की बांहों में लिपटे हुए फूल ही फूल थे

फिर तो सलमों-सितारों की साड़ी पहन
गोरी परियां कहीं से उतरने लगीं
उनकी पाजेब झन-झन झनकने लगी
हम बहकने लगे

अपनी नज़रें नज़ारों में खोने लगीं
चांदनी उंगलियों के पोरों पे खुलने लगी
उनके होठ, अपने होठों में घुलने लगे
और पाजेब झन-झन झनकती रही
हम पीते रहे और बहकते रहे
जब तलक हल तरफ बेखुदी छा गई

हम न थे, तुम न थे
एक नग़मा था पहलू में बजता हुआ
एक दरिया था सहरा में उमड़ा हुआ
बेखुदी थी कि अपने में डूबी हुई

एक परदा था झीना-सा, परदा गिरा
और आंखें खुलीं...
खुद के सूखे हलक में कसक-सी उठी
प्यास ज़ोरों से महसूस होने लगी।

हत्या की ख़बर फैली हुई है

अख़बार पर,

पंजाब में हत्या

हत्या बिहार में

लंका में हत्या

लीबिया में हत्या

बीसवीं सदी हत्या से होकर जा रही है

अपने अंत की ओर

इक्कीसवीं सदी

की सुबह

क्या होगा अख़बार पर ?

ख़ून के धब्बे

या कबूतर

क्या होगा

उन अगले सौ सालों की

शुरुआत पर

लिखा ?


हमारी ख्वाहिशों का नाम इन्क़लाब है,

हमारी ख्वाहिशों का सर्वनाम इन्क़लाब है,

हमारी कोशिशों का एक नाम इन्क़लाब है,

हमारा आज एकमात्र काम इन्क़लाब है,

ख़तम हो लूट किस तरह जवाब इन्क़लाब है,

ख़तम हो किस तरह सितम जवाब इन्कलाब है,

हमारे हर सवाल का जवाब इन्क़लाब है,

सभी पुरानी ताकतों का नाश इन्क़लाब है,

सभी विनाशकारियों का नाश इन्क़लाब है,

हरेक नवीन सृष्टि का विकास इन्क़लाब है,

विनाश इन्क़लाब है विकास इन्क़लाब है,

सुनो कि हम दबे हुओं की आह इन्कलाब है,

खुलो कि मुक्ति की खुली निगाह इन्क़लाब है,

उठो कि हम गिरे हुओं की राह इन्क़लाब है,

चलो बढ़े चलो युग प्रवाह इन्क़लाब है ।


पैसे की बाहें हज़ार अजी पैसे की

महिमा है अपरम्पार अजी पैसे की

पैसे में सब गुण

पैसा है निर्गुण

उल्लू पर देवी सवार अजी पैसे की

पैसे के पण्डे

पैसे के झण्डे

डण्डे से टिकी सरकार अजी पैसे की

पैसे के गाने

पैसे की ग़ज़लें

सबसे मीठी झनकार अजी पैसे की

पैसे की अम्मा

पैसे के बप्पा

लपटों से बनी ससुराल अजी पैसे की

मेहनत से जिन्सें

जिन्सों के दुखड़े

दुखड़ों से आती बहार अजी पैसे की

सोने के लड्डू

चाँदी की रोटी

बढ़ जाए भूख हर बार अजी पैसे की

पैसे की लूटें

लूटों की फ़ौजें

दुनिया है घायल शिकार अजी पैसे की

पैसे के बूते

इंसाफ़ी जूते

खाए जा पंचों ! मार अजी पैसे की ।

http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A5%88%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4_/_%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%96_%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%AF



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