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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Sunday, May 30, 2010

Fwd: Rajkishore and Mastram kapoor on caste based census



---------- Forwarded message ----------
From: dilip mandal <dilipcmandal@gmail.com>
Date: 2010/5/30
Subject: Rajkishore and Mastram kapoor on caste based census

मस्तराम कपूर

जातिवार जनगणना की जरूरत

बीस साल पहले जब मंडल रिपोर्ट लागू होने पर देश भर में आत्मदाह और आगजनी का तूफान उठा था तो इन पंक्तियों के लेखक ने बुद्धिजीवियों का एक सरसरी सर्वेक्षण किया था, यह जानने के लिए कि कौन मंडल समर्थक है और कौन मंडल विरोधी। तब पता चला था कि द्विज वर्णों के सभी बुद्धिजीवी करीब- करीब (एक-दो अपवाद सहित)

मंडल-विरोधी थे। लगभग यही स्थिति जातिवार जनगणना और विधानमंडल में महिलाओं के आरक्षण के संदर्भ में बनी है। महिला आरक्षण के समर्थक भी करीब-करीब सभी द्विज जातियों से हैं और जातिवार जनगणना का विरोध करने वाले भी। महिला आरक्षण के संबंध में इन बुद्धिजीवियों का सरल तर्क यह है कि अगर नौकरियों आदि में आरक्षण संविधान सम्मत है तो संसद और विधानसभाओं के आरक्षण भी संविधान सम्मत हैं। वे यह देखना ही नहीं चाहते कि संसद और विधानसभाओं के आरक्षण (राजनीतिक आरक्षण) अंगे्रजों ने हम पर थोपे थे, 'फूट डालो और राज करो' की नीति के तहत। इन आरक्षणों ने दो राष्ट्रों के सिद्धांत को जन्म दिया, जिसके खिलाफ पूरे स्वाधीनता आंदोलन में लड़ाई लड़ी गई, महात्मा गांधी ने इनके विरोध में आमरण अनशन किया और इन्हीं के कारण (यानी दो राष्ट्रों के सिद्धांत के आधार पर) देश का बंटवारा हुआ। संविधान बनाते समय इन आरक्षणों को सर्वसम्मति से समाप्त

किया  गया, केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए इन्हें दस साल के लिए जारी रखा गया। इनके  विपरीत नौकरियों आदि के आरक्षण (सामाजिक आरक्षण) हमने खुद अपनाए जाति-व्यवस्था के अन्यायों

को  दूर करने के लिए। आंखें बंद  कर सिर्फ आरक्षण शब्द को लेकर चलने वाले ये बुद्धिजीवी दोनों प्रकार के आरक्षणों के बीच स्पष्ट भेद और परस्पर विरोधी चरित्र को देखना ही नहीं चाहते और कुतर्क पर कुतर्क

गढ़ते  जाते हैं। ये कुतर्क तब और स्पष्ट हो जाते हैं जब राजनीतिक आरक्षणों की मांग करने वाले महिलाओं के लिए सामाजिक आरक्षण की मांग नहीं करते, क्योंकि सामाजिक आरक्षण मिलने से उनके साथ पिछड़ा विशेषण जुड़ जाएगा। अब ये बुद्धिजीवी जातिवार जनगणना के विचार के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। पिछले साठ सालों से

उन्होंने  लगातार इस विचार  को दबाने का कोशिश की। कांग्रेस, भाजपा और वामपंथी पार्टियां, जो मूलत: द्विज वर्चस्व वाली पार्टियां हैं, जातिवार जनगणना कराने से बचती रहीं, क्योंकि इससे जाति-व्यवस्था के शोषण की असली तस्वीर सामने आती थी। यह बात सामने आती कि पंद्रह सोलह प्रतिशत द्विज जातियां नब्बे फीसद से अधिक सत्ता-स्थानों पर कब्जा जमाए बैठी हैं। जवाहरलाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक सभी प्रधानमंत्रियों ने जातिवार जनगणना न कराने का फैसला किया।

बीच में देवगौड़ा  की सरकार ने जातिवार जनगणना का फैसला किया, लेकिन कांग्रेस ने उस सरकार को गिरा दिया और बाद में बनी वाजपेयी सरकार ने पहला काम देवगौड़ा सरकार के फैसले को बदलने का किया। अब जब विद्वानों ने जोरदार तरीके से यह बात रखी कि जातिवार जनगणना के बगैर हमारे पास सहीं आंकड़े नहीं होंगे और हम गरीबी निवारण और जाति- व्यवस्था के विनाश जैसे संवैधानिक कार्यक्रमों को ठीक से लागू नहीं कर सकते, तो मनमोहन सिंह ने जातिवार जनगणना कराने का आश्वासन संसद में दिया। लेकिन इस पर द्विजवर्णीय बुद्धिजीवियों ने तलवार भांजना शुरू कर दिया है। जो लोग एक समय मंडल के विरोध में खड़े थे और महिला आरक्षण के हक में शहीद होने को तैयार हैं, अब जातिवार जनगणना के खिलाफ खम ठोंक कर अखाड़े में उतर पड़े हैं। इनमें जो लोग राजनीतिक माहौल में बदलाव या न्यायालयों के बदलते रवैए के कारण सामाजिक न्याय के समर्थक हो गए थे, वे भी महिला आरक्षण और जातिवार जनगणना के मुद्दे पर फिर बिदक गए हैं। ये ऐसेऐसे तर्क निकाल रहे हैं कि ब्रह्मा का दिमाग भी चकरा जाए। एक तर्क जो आमतौर पर अफसरी योग्यता वाले लोगों के मुंह से सुनने को मिल रहा है, वही है जिसे कभी जवाहरलाल नेहरू ने प्रस्तुत किया था। यह तर्क है कि क्या बस या रेल की यात्रा के

समय हर यात्री से उसकी जाति पूछी जाएगी? यह समाज विज्ञान की गंभीर प्रक्रिया और अनुसंधान का मखौल है। सरकारी विभागों और संस्थाओं में जो बुद्धिजीवी भरे हैं (हर बड़े पद पर बैठा व्यक्ति अपने को प्रतिभाशाली तो मानता ही है) उनकी दलीलें इसी तरह की मिलेंगी जो या तो गंभीर विचार को मजाक में उड़ाएंगी या उसे व्यावहारिक रूप से नामुमकिन बताएंगी, जैसे कि मंत्रिमंडल की बैठक में गृह मंत्रालय के नौकरशाहों ने अव्यावहारिकता के तर्क से जातिवार जनगणना के विचार को काटना चाहा था। अगर ये आंकड़े दस साल में एक बार जमा करने और उनका वैज्ञानिक विश्लेषण, वर्गीकरण आदि करने में हमारा सरकारी तंत्र सक्षम नहीं है तो उसे सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति की डींग मारने का क्या हक है। सूचना प्रौद्योगिकी में अग्रणी होने का दावा करने वाला देश अगर अपनी जनसंख्या का पूरा प्रोफाइल तैयार नहीं कर सकता तो उसे हम क्या कहेंगे? हर नागरिक के चित्र और अंगुलियों के निशानों सहित सारी जानकारी तो इकट्ठी की जा सकती है, पर सदियों पुरानी बीमारी यानी जाति-व्यवस्था की सभी पेचीदगियों को समझने के लिए आंकड़े इकट्ठा नहीं किए जा सकते। हम पुलिस-राज्य बनाने के लिए तैयार हैं, मगर समता का समाज नहीं। एक प्रसिद्ध   बुद्धिजीवी प्रताप भानु मेहता ने जातिवार जनगणना के खिलाफ एक लेख (इंडियन एक्सप्रेस में) लिखा है जिसमें उन्होंने इस विचार के खिलाफ आठ कारण गिनाए हैं। इस लेख में जातिवार जनगणना के विरोधियों के सारे तर्क समाहित हैं। वे जातिवार जनगणना कराने के विचार को भयानक विपत्ति कहते हैं जो आधुनिक भारत की हर अच्छी चीज का क्षुद्रीकरण करती है, और अस्मिता की राजनीति की तानाशाही ही लादती है। उनका कहना है कि जातिवार जनगणना का विचार उन सब चीजों को उभारता है जिनके खिलाफ हमने लंबी लड़ाई लड़ी। बात काफी ईमानदारी से कही गई है। द्विज जातियों की सारी लड़ाई जाति-व्यवस्था के शोषण पर पर्दा डालने की रही है और जातिवार जनगणना उसका पर्दाफाश कर सकती है। एक तरफ सब प्राणियों के बीच वेदांतिक आत्मिक एकता और दूसरी तरफ छुआछूत की सीमा तक लौकिक भेदभाव, इस पाखंड को बनाए रखने की कोशिश ही तो है हमारा ज्ञान-साधना आडंबर। वे कहते हैं कि जाति-गणना का मतलब है, हम अपनी जाति से कभी बच नहीं सकेंगे। क्या कूड़े को दरी के नीचे सरकाने से उससे बचा जा सकता है? हमारे समाज ने अब तक जाति की गंदगी को दरी के नीचे छिपाने का ही काम किया है। निन्यानवे प्रतिशत

परिवार  अब भी जन्मकुंडली के अनुसार जाति और गोत्र देख कर शादियां करते हैं, भले वे प्रगतिशीलता का मुखौटा पहने रहें। यह सही है कि जाति और धर्म आदि की हमारी पहचानें हमारी चुनी हुई नहीं हैं, बल्कि ये दिए गए तथ्य हैं। यह भी सही है कि हम इनसे बच नहीं सकते, लेकिन इसीलिए यह जरूरी है कि हम इनके दबावों को भली- भांति समझें और इन दबावोें को अपने फैसलों पर हावी न होने दें। यह काम शुतुरमुर्ग की तरह आंखें बंद कर लेने से नहीं होगा।

वैसे  संविधान ने जाति-उन्मूलन  का रास्ता दिखाया है और जातिवार जनगणना और आरक्षण व्यवस्था इसी उद्देश्य के लिए हैं, बशर्ते कि हम पाखंड छोड़ कर ईमानदारी से संविधान की व्यवस्था को लागू करें। जो सचमुच जातिमुक्त होना चाहते हैं वे जनगणना में अपने को 'जाति-मुक्त' लिखवा सकते हैं। लेकिन सही मायनों में जाति-मुक्त होने के लिए भीतर छिपी गंदगी को धोना पड़ेगा और यह काम इतना आसान नहीं है। इस अन्याय के सारे आयामों को समझना पड़ेगा और उसके लिए आंकड़े जमा करने पड़ेंगे। मेहता का कहना है कि दलित पिछड़े वर्गों के सशक्तीकरण का एक भी कार्यक्रम ऐसा नहीं है जिसके लिए जातिवार जनगणना की जरूरत हो। वैसे जातिवार जनगणना का यह उद्देश्य है भी नहीं। इसका उद्देश्य तो ऊंची जातियों द्वारा छोटी जातियों के शोषण का पता लगाना है। लेकिन अगर सशक्तीकरण का मतलब अस्सी प्रतिशत लोगों को भिखमंगेपन के स्तर से ऊपर उठाना है तो उसके लिए जनता

के  विभिन्न तबकों  की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति का पता लगाना पड़ेगा और यह काम जातिवार जनगणना से ही होगा। मेहता का यह कहना भी सही है कि जाति आधुनिक राज्य के वर्गीकरण से पहले की चीज

है। इसीलिए हमारा  कहना है कि जाति को खत्म किए बिना आधुनिक राज्य का निर्माण नहीं हो सकता। जब तक आधुनिक राज्य की विभिन्न संस्थाओं पर कुछ द्विज जातियों का वर्चस्व बना हुआ है तब तक आधुनिक राज्य एक ढकोसला है। इसीलिए राज्य के हर विभाग और हर संस्था में- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में- काम करने वालों की जातिगत पहचान कर जातीय असंतुलन को दूर करना पड़ेगा। साठ साल के पसोपेश के बाद संविधान के एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य की पूर्ति के लिए सही कदम उठाया जा रहा है। निहित स्वार्थ इसके खिलाफ एकजुट हो सकते हैं और इस प्रयास को विफल कर सकते हैं। अत: जाति-आधारित जनगणना का समर्थन करने वाले नेताओं को मिल कर प्रधानमंत्री के हाथ मजबूत करने चाहिए। अगर जातियों से संबंधित आंकड़े ठीक से इकट्ठा किए गए (यह काम फरवरी 2011 में व्यक्तिश: गणना के समय आसानी से हो सकता है) तो हम आने वाले सौ- पचास वर्षों में जाति-व्यवस्था के उन्मूलन की उम्मीद कर सकते हैं। हर जनगणना से प्राप्त आंकड़ों के

आधार  पर पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त नागरिक वर्गों को संविधान के अनुच्छेद 16 (4) के अनुसार आरक्षण की परिधि से बाहर किया जा सकता है जिससे आरक्षण का लाभ उत्तरोत्तर निचले क्रम के लोगों को मिलता जाएगा और एक दिन सभी को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिल जाएगा; एक सीमा तक समता स्थापित हो जाएगी और जाति-व्यवस्था क्षीण हो जाएगी। यह हमारे पूर्वज संविधान-निर्माताओं का सपना है और इसे साकार करना हम सबका परम कर्तव्य होना चाहिए। इस सपने की हत्या जातिवार जनगणना की मांग करने वालों ने नहीं की, जैसा कि के सुब्रह्मण्यम (इंडियन एक्सप्रेस, तेरह मई) कहते हैं, इस सपने की हत्या उन्होंने की जो जातिवार जनगणना को अब तक टालते रहे। 


परत-दर-परत 

हम  हिंदुस्तानी  हैं, पर कुछ और भी हैं

राजकिशोर  

जनगणना  का मामला गंभीर होता जा रहा है। सबसे पहले यह मुद्दा उठा कि जातिवार जनगणना की जाए, ताकि मालूम पड़े कि भारत में किस जाति के कितने  लोग रहते हैं तथा किसकी  क्या हैसियत है। यह सवाल मुख्यत: पिछड़ावादी नेताओं ने उठाया, जिनमें विपक्ष और सत्ता, दोनों दलों के सांसद थे। अगर यह मांग सिर्फ विपक्षी नेताओं ने उठाई होती, तो इसकी उपेक्षा कर देना सरकार के लिए बहुत आसान होता, जैसा 2001 की पिछली जनगणना के समय हुआ था। लेकिन इस बार कांग्रेस तथा उसके सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल अन्य दलों ने भी उठाई। यहां तक कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के कुछ सदस्य भी जातिवार जनगणना के पक्ष में हैं और उन्होंने इस मांग का समर्थन किया। अब यह प्राय: निश्चित हो चला है कि जनगणना में जातियों की गिनती भी की जाएगी। 

इसके  साथ ही, एक और विवाद शुरू हो गया है कि सिर्फ पिछड़ी जातियों की गणना की जाए या सभी जातियों की। चूंकि सरकारी नौकरियों में आरक्षण अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के अलावा सिर्फ अन्य पिछड़े वर्गों को दिया गया है, इसलिए कुछ विद्वान इस पर अड़े हुए हैं कि अगर जनगणना में जाति को शामिल किया जाता है, तो सिर्फ पिछड़ी जातियों की संख्या जानना ही काफी है। बाकी जातियों की संख्या जान कर हम क्या करेंगे? यह एक अनावश्यक चीज है और इससे नुकसान हो सकता है।

 

हमारे खयाल से, यह दृष्टिकोण पूर्णत: भ्रामक है। जातिवार जनगणना का आरक्षण से कोई सीधा संबंध नहीं है। जनगणना से प्राप्त आंकड़ों का उपयोग बहुत सारी दृष्टियों से होता है। इससे मोटे तौर पर देश की सामाजिक-आर्थिक हकीकत सामने आ जाती है। इन आंकड़ों के आधार पर पंचवर्षीय योजनाओं का प्रारूप तय किया जाता है और विशेष क्षेत्रों तथा समुदायों के लिए विशेष योजनाएं बनाई जाती हैं। जनगणना से प्राप्त आंकड़ों का उपयोग समाजशास्त्रीय और राजनीतिवैज्ञानिक विश्लेषण के लिए भी किया जाता है, जो किसी देश की स्थिति को समझने के लिए लगभग अनिवार्य है। चूंकि भारत का समाज वर्गों से कहीं ज्यादा जातियों में बंटा हुआ है, इसलिए जनगणना के दायरे में सभी जातियों को ले आना इस दृष्टि से भी बहुत उपयोगी है कि देश के संसाधनों का वितरण किन जातियों के बीच कितना हुआ है और इसकी पृष्ठभूमि क्या है। जाहिर है, इस प्रकार की जानकारियां समतामूलक समाज बनाने में मदद ही करेंगी। देश को इन जरूरी जानकारियों से वंचित करने का प्रयास एक प्रतिगामी कदम है।  

जातिवार जनगणना के विरोधियों का कहना है कि इससे जातिवाद बढ़ेगा।  इस बात में कितना दम है, इसके बारे में हम अभी से पूर्वकल्पना नहीं कर सकते।  जिस कसौटी पर इस सवाल को जांचा जा सकता है, वह यह है कि 1931 के बाद जातिवार जनगणना बंद कर देने के बाद जातिवाद घटा या बढ़ा। कोई भी व्यक्ति यही उत्तर देगा कि जीवन के हर क्षेत्र में जातिवाद बढ़ा है और राजनीति में सबसे ज्यादा बढ़ा है। बेशक इन अस्सी वर्षों में जातिवाद को चुनौती भी मिली है। इसका कारण शिक्षा का विस्तार, आधुनिक चेतना का उदय तथा पिछड़े समूहों की आय और सामाजिक हैसियत का बढ़ना है। जातिवाद की भावना को कमजोर करनेवाले ये कारक भविष्य में मजबूत ही होने जा रहे हैं। इसलिए हमें तो नहीं लगता कि जातिवार जनगणना से आधुनिकता का यह तत्व कहीं से कमजोर होगा। और अगर जातिवाद बढ़ता भी है, तो इस सचाई से मुंह चुराने से क्या फायदा कि जाति हमारी मानसिक और सामाजिक संरचना का एक मजबूत फैक्टर है ? अगर भारत को जातियों के गणतंत्र में ही तब्दील होना है, तो जनगणना का आधार चाहे जो निश्चित कीजिए, यह प्रक्रिया तो पहले से ही चालू है। इसे रोकने के लिए जाति तोड़ने का जो आंदोलन चलाने की जरूरत है, उसमें किसी भी दल या समूह की गंभीर तो क्या, साधारण दिलचस्पी भी दिखाई नहीं पड़ती। 

दिलचस्प यह है कि जो दो-तीन छोटे-छोटे समूह जातिवार जनगणना का विरोध  कर रहे हैं, उनके अधिकांश  सदस्य सवर्ण हैं। सभी  जातियों की वास्तविक संख्या सामने आ जाए, यह बात सवर्ण समूहों को चुभ क्यों रह रही है?  इसका एक उत्तर यह है कि वे इस तथ्य को सांख्यिकीय आधार पर प्रगट होने से इसलिए डर रहे हैं कि देश के अधिकांश संसाधनों पर अभी भी कुछ सवर्ण समूहों का ही कब्जा है। राजनीति में दलित और पिछड़ावाद आ गया है, लेकिन राष्ट्रीय संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण तक इसकी धमक नहीं पहुंच पाई है। दलित तथा पिछड़ावादी नेतृत्व राजनीतिक सफलता पा कर ही संतुष्ट या प्रसन्न है, उसने इस बात की फिक्र नहीं की है कि संसाधनों के वितरण का आधार समता व न्याय हो। लेकिन यह कोशिश तो सवर्ण नेतृत्व ने भी नहीं की है। इसलिए जहां तक भारतीय संविधान के मूल लक्ष्यों को प्राप्त करने का सवाल है, सवर्ण, पिछड़ा और दलित, तीनों श्रेणियों का नेतृत्व एक जैसा अपराधी है। 

पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक मुखर समूह प्रचारित कर रहा है कि हम जनगणना में अपनी जाति हिन्दुस्तानी बताएं। यह सुनने में अच्छी, पर विचित्र किस्म की मांग है। अगर हम सबकी एक ही जाति है - हिंदुस्तानी, तो हम धर्म के स्तर पर अपने को हिन्दू, मुस्लिम, सिख, बौद्ध, जैन आदि क्यों लिखवाएं? हम यह दावा क्यों न करें कि हम सभी का एक ही धर्म है -- मानव धर्म? इसी तरह, छोटा किसान, बड़ा किसान क्या होता है?  सभी  बस किसान हैं। यहां तक कि खेत मजूर भी किसान हैं, क्योंकि किसानी का वास्तविक काम तो वही करते हैं।  

    हम  सभी हिंदुस्तानी हैं, यह सच है। लेकिन सच यह भी है कि हमारा हिंदुस्तान विभिन्न  धर्मों, जातियों, वर्गों, पेशों, राज्यों आदि में बंटा हुआ है। इस हकीकत को समझे बिना और उसके पूरे यथार्थ में सामने लाए बिना न हिन्दुस्तान को समझा जा सकता है न हिन्दुस्तानियों को। इसलिए जनगणना के वक्त  अपने को सिर्फ हिंदुस्तानी बताने का आग्रह वास्तव में हिन्दुस्तान के बहुस्तरीय यथार्थ को ढकने की कोशिश है। इस कोशिश के पीछे कोई सत प्रयोजन नहीं हो सकता। खासकर तब जब यह मांग उस तबके की ओर से आ रही हो जो  जाति तोड़ने का कोई अभियान न चला रहा हो। हिन्दुस्तान को बेहतर ढंग से समझने के बाद ही हम सच्चे हिंदुस्तानी बन सकते हैं, उसके बगैर नहीं।               

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Palash Biswas
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