Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, February 29, 2012

खतरे में है ढोल वादन की परम्परा लेखक : प्रेम पंचोली :: अंक: 04 || 01 अक्टूबर से 14 अक्टूबर 2011:: वर्ष :: 35 :October 16, 2011 पर प्रकाशित

https://mail.google.com/mail/?shva=1&rld=1#compose

खतरे में है ढोल वादन की परम्परा

dhol-damau-of-uttarakhand'18 ताली नौबत' के आखिरी ढोलवादक मोलूदास के श्रीनगर के बेस अस्पताल में भर्ती होने के बाद एक बार नये सिरे से ढोलवादन की होती विधा को लेकर चिन्ता पैदा हुई है। दैनिक 'हिन्दुस्तान' में यह समाचार प्रमुखता से छपने के बाद कि मोलूदास का स्वास्थ्य चिन्ताजनक है और उनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब है, अनेक हाथ मोलूदास की मदद के लिये उठे जरूर हैं, लेकिन सिर्फ इतने से यह पारम्परिक कला पुनर्जीवित होगी, ऐसा मानने का कोई ठोस आधार नहीं है।

उत्तराखण्ड में ढोल व ढोली के बिना कोई भी कार्य अधूरा माना जाता है। एक अनुमान के मुताबिक राज्य के प्रत्येक गाँव में दो से लेकर चार परिवार ढोलियों के हैं। इसके अलावा 50 गाँव ढोलियों के ही हैं। इस तरह के गाँवों के नाम भी झुमराड़ा, औज्याणा, बज्याणा आदि हैं। झुमर्या, औजी, बाजगी आदि नामों से ढोल बजाने वालों की पहचान है। अनुमानतः उत्तराखंड में लगभग एक लाख परिवार ढोली समाज के हैं। प्रत्येक माह की संक्रान्ति की जो पूजा घरों व 'देव स्थलों' मैं होती है वह ढोल की थाप पर ही आरम्भ होती है। मंदिरों में पण्डित जी जितने करतब पूजा-अर्चना के करते हैं, उतने ही प्रकार के ताल मंदिर से कुछ गज दूर बैठा 'ढोली'  अपने ढोल पर देता है। तीज-त्यौहारों में भी यह ढोल लोगों को गाँव की चौपाल पर एकत्रित होने का आमंत्रण देता है। शादी-विवाह मैं ढोली बारात के स्वागत से लेकर विदाई तक अपने ढोल के साथ पग-पग पर अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं।

अभी भी कुछ स्थानों पर हिन्दू वर्ष के शुभागमन, यानी कि चैत के पूरे माह में ढोली परिवार के लोग गाँव-गाँव, देहरी-देहरी जाकर स्तुति गीत (चैती गीत) गाते हैं। 'सुण दस भाइयों की सेवा जी, हो ऋतु सेवा बोल्या जी', अर्थात् दोनों हाथों की दस उँगलियों व हथेलियों को एक साथ मिलाकर सुस्वागतम की अवस्था में वर्ष का प्रादुर्भाव हो। इसके बाद आगे वे गाते हैं कि 'फूली गै फूलूँ की फुलवाड़ी, कख रैई होली ध्यांणी बेटी ब्वारी,' अर्थात् जिस तरह से फूलों की वाटिकाएँ खिलखिलाती हुई सभी प्राणियों को बरबस रिझाती और खुशहाली का संदेश देती हैं, उसी तरह जगत जननी महिलाओं के जीवन में भी हर वर्ष खुशहाली बनी रहे तथा समाज में समरसता बनी रहे। दुःख की घड़ी में भी गमगीन माहौल को भुलाने और भविष्य में अच्छा समय आये, ऐसा संदेश ढोली अपने ढोल से प्रवाहित करते हैं। धार्मिक कर्मकाण्ड से इतर भी ढोली अपनी भूमिका निभाते हैं। जनान्दोलनों, जुलूसों में वे सबसे आगे हैं। सेवानिवृत आई.ए.एस. चन्द्र सिंह बताते हैं कि जिलाधिकारी चमोली रहते हुए उन्हें कई बार आन्दोलनकारियों से मिलने जाना पड़ता था। उस दौरान सभी गाँवो से आन्दोलनकारियों की टोलियाँ ढोल, नगाड़ों, रणसिंगा तथा भेरी के साथ ही जलूसों में आती थीं। जितने अधिक ढोल होते, उतना ही आन्दोलन में उत्साह बनता था। सांस्कृतिक-राजनैतिक समारोहों में स्वागत, अगवानी के लिये उनकी जरूरत रहती है तो मेलों एवं नुमाइश में भी।

dancing-with-devtas-drums-power-possession-in-music-andrewहँसने की ताल, रोने की ताल, लड़ने की ताल, उत्तेजना की ताल, जोड़ने की ताल, नाचने की ताल, खेलने की ताल, आमन्त्रण की ताल, रुकने की ताल, बधाई संदेश की ताल, झकझोरने की ताल, देव अवतार की ताल पूजने व विसर्जन की ताल, सन्देश पहुँचाने की ताल….. इस ढोल मैं हजारों ताल समाये हैं। उत्तरकाशी जनपद के दूरस्थ गाँव कण्डाऊँ के बचन दास, जो ढोल सागर के मर्मज्ञ हैं, कहते हैं कि ढोल सागर में पैदा होने से लेकर मृत्यु तक के लिये अलग-अलग 'श्लोक' हैं। ढोल सागर एक महाग्रन्थ है। इस ढोल का इतिहास पाँच हजार साल पुराना बताया जाता है। पहले ढोल विद्या मौखिक थी। 1932 में पहली बार भवानी दत्त पर्वतीय ने 'ढोल सागर' पुस्तिका प्रकाशित की। 60 के दशक में लिखी गई मोहनलाल बाबुलकर की 'नद नंदिनी' पुस्तक अभी भी अप्रकाशित है। 70 के दशक में केशव अनुरागी और अनूप चंदोला ने 'ढोल सागर' पर किताब लिखी। इन्हीं दिनो प्रो. विजय कृष्ण ने ढोल विधा पर शोध किया। 90 के दशक में आस्ट्रेलिया के न्यू इंग्लैण्ड विवि के प्रो.एन. रुवी ओल्टर ने 'डांसिंग विद देवतास' पुस्तक लिखी। है। हेमवतीनन्दन बहुगुणा गढ़वाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय, श्रीनगर मैं 'ढोल संरक्षण' के लिये एक केन्द्र स्थापित हुआ था और उस दिशा में कुछ कार्य भी हुआ। परन्तु वर्तमान मैं यह केन्द्र ढोल को भुला कर 'नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा' की तर्ज पर कार्य करने लग गया है। भुवन चन्द्र खण्डूरी के मुख्यमंत्रित्व काल में गैरसैंण में एक ढोल प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना की गयी थी, उसका अब मखौल बन चुका है।

जब से बैण्ड-बाजों ने गाँवों में दस्तक दी है, तब से ढोल व ढोली का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है। ढोलियों को लेकर उपेक्षा का भाव भी पैदा हुआ है। टिहरी के ढोलवादक सोहन लाल, उत्तरकाशी के सोहन दास, फूलदास, पिनाठिया दास व चमन दास, चमोली के दिवानी राम, पिथौरागढ़ के भुवनराम देहरादून जौनसार के सीन्नाराम जैसे सभी ढोल वादक कहते हैं कि उन्हे प्रदर्शन के पश्चात न तो एक तयशुदा मजदूरी मिलती है और न ही कोई मान-सम्मान है। वे पूछते हैं कि राज्य आन्दोलन में उन्होंने भी पुलिस की बर्बरता झेली, उनके ढोल तक पुलिसवालो ने फोड़ दिये, फिर भी उन्हें आन्दोलनकारियों की श्रेणी मे क्यों नहीं रखा गया ? कुल मिलाकर ढोल और ढोलियों पर पुस्तकें तो लिखी गयीं, शोध भी हुए परन्तु ढोली-बाजगी बिरादरी की आजीविका का क्या होगा कि यह कला आगे भी जीवन्त रहे इस पर आज तक कोई सोच सामने नहीं आया है।

Share

संबंधित लेख....

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...