| आनन्द पटवर्धन की जय भीम कामरेड |
| (04:19:55 AM) 01, Apr, 2012, Sunday |
स्टीवेंस विश्वास गांधी, आंबेडकर और मार्क्स। भारत में विचारधारा की बात करने वाले लोग इस त्रिकोण में बुरी तरह उलझे हुए हैं। कुछ लोग अब जय भीम कामरेड के बहाने मौजूदा परिप्रेक्ष्य और संदर्भ को फिर इसी उलझाव में डालने की कोशिश कर रहे हैं, जो सरासर गलत है। समाज प्रतिबध्द फिल्मकार आनन्द पटवर्धन ने विचारधारा के हकीकत की जमीन पर गैर प्रासंगिक होते जाने के संकट को ही जय भीम कामरेड में एक्सपोज किया है। 3 घंटे 20 मिनट की इस लंबी फिल्म में महाराष्ट्र में दलित एक्टिविम को दिखाया गया है। इस डाक्यूमेंट्री फिल्म ने साउथ एशिया की बेस्ट फिल्म का खिताब जीता है। पिछले हफ्ते कठमांडू में चार दिनों तक चले कार्यम में उनकी फिल्म को रामबहादुर ट्राफी दी गई। पटवर्धन की इस फिल्म ने 35 अन्य फिल्मों को पीछे छोड़ते हुए यह खिताब जीता। पुरस्कार स्वरूप उन्हें 2 हजार अमेरिकी डालर मिला है। इस फिल्म में भारतीय समाज में वर्ण के आधार पर बंटे जाति के बारे में उसकी सच्चाई के बारे में दिखाने की कोशिश की गई है। ऐक्टिविस्ट फिल्मकार के रूप में मशहूर आनंद पटवर्धन एक बहुचर्चित नाम है। राम के नाम, पिता-पुत्र और धर्मयुध्द,अमन और जंग, उन मितरां दी याद, बंबई हमारा शहर, उनकी कुछ चर्चित फिल्में हैं। आनंद ने राम के नाम फिल्म उस समय बनाई थी, जब बाबरी ध्वंस नहीं हुआ था, लेकिन उसके षडयंत्र चल रहे थे। जब उनसे पूछा जाता है कि आपने इस फिल्म में मुस्लिम कट्टरपन को क्यों नहीं दिखाया, तब उन्होंने जवाब दिया कि मैं कम से कम भारत में तो इसे बैलेंस नहीं कर सकता क्योंकि यहां हिंदू कट्टरपन यादा है। यदि मैं यह फिल्म पाकिस्तान में बनाता तब जरूर ऐसा करता क्योंकि वहां मुस्लिम कट्टरपन यादा है। वामपंथ और दलित आंदोलनों के बीच संवाद के परिप्रेक्ष्य में प्रश्नों का जवाब इस फिल्म ने कबीर कला मंच के गानों और नारों के माध्यम से दिया है। फिल्म का दूसरा पहलू है गांधी और आंबेडकर के बीच संवाद का। गांधी की भूमिका पर पूना पैक्ट के बाद से लगातार सवाल उठते रहे हैं। इस कल्पित संवाद से उन सवालों के जवाब नहीं मिल सकते, जाहिर है। भारत में लाल झंडा उठाने वाले लोग बहुत ही विरले होंगे, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था को भारतीय समाज की मूल समस्या माना हो या फिर कभी अंबेडकर को पढ़ा हो। जय भीम कॉमरेड चौंकाने वाला आंकड़ा पेश करती है। इस फिल्म के मुताबिक रोजाना दो दलितों के साथ दुष्कर्म की घटना होती है तो तीन की हत्या होती है। फिल्म को बनाने का कारण आनंद पटवर्ध्दन का एक दोस्त था जिसने 97 की उस घटना के बाद खुद को फांसी लगा ली थी। पटवर्धन के मुताबिक फिल्म में घटना के बाद की सारी परिस्थितियों के बारे में दिखाया गया है। आत्महत्या करते समय विलास ने अपने सिर पर लाल झंडा नहीं बल्कि नीला रिबन लपेट लिया। विचारधारा का यह सांकेतिक स्थानापन्न लगभग सन्देश और सीख की तरह प्रेषित होता है। सन्देश उनके लिए जो गरीबी की करुण कहानी जीते हैं और सीख उनके लिए जो सर्वहारा के हितैषी तो हैं लेकिन भारतीय सर्वहारा की सामाजिक.सांस्कृतिक अवस्थितियों के बजाय वर्ग.संघर्ष के आर्थिक आधारों पर ही टिके रहे। फिल्म का नायक कामरेड परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों को लेकर चिंतित रहता था, कई बार उसके लिए भी उसे गाना पड़ता था। उसके साथी कामरेडों को यह सही नहीं लगा। उसे पार्टी से निकाल दिया गया। विचारधारा के प्रति समर्पित लोगों के लिए प्रतिबध्दता की कमी का आरोप सजा ए मौत जैसा ही लगता है। जातीय अस्मिता क्या इतनी प्रभावकारी है कि साम्यवादी प्रतिबध्दता भी उसे समाप्त नहीं कर पाई या फिर साम्यवादी प्रतिबध्दता को वर्ग के अलावा शोषण की किसी और सामाजिक संरचना की समझ ही नहीं बन पाती है। फिल्म की शुरूआत 11 जुलाई, 1997 के उस दिन से होती है जब अम्बेडकर की प्रतिमा को अपवित्र किए जाने की घटना के विरोध में 10 दलित इकट्ठे होते हैं और मुम्बई पुलिस उन्हें मार गिराती है। इस हत्याकांड के छह दिन बाद अपने समुदाय के लोगों के दर्द व दुख से आहत दलित गायक, कवि व कार्यकर्ता विलास घोगरे आत्महत्या कर लेते हैं। इसके बाद फिल्म दलितों की अपनी भावप्रवण कविताओं व संगीत के जरिए अनूठे लोकतांत्रिक तरीके से विरोध करने की शैली की विरासत को उजागर करती है। फिल्म घोगरे व अन्य गायकों और कवियों की कहानी पेश करती है। फिल्म में एक दलित नेता कहता है, हमारे पास हर घर में एक गायक, एक कवि है। यहां देश के सबसे निचले तबके के शोषितों व अफ्रीकी मूल के अमेरिकीयों के बीच समानता प्रतीत होती है। दोनों की संगीत व काव्य की मजबूत परम्परा रही है, जो उन्हें राहत व मजबूती देती है और उन्हें अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार करती है। यही वजह है कि महाराष्ट्र सरकार ने एक मजबूत दलित संगीत समूह ; फिल्म में इसे प्रमुखता से दिखाया गया है, कबीर कला मंच (केकेएम)को नक्सली समूह बताकर उसे प्रतिबंधित कर दिया है। जय भीम उस विडंबना को भी दिखाती है कि कैसे एक दलित नेता डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भारतीय संविधान लिखा और फिर भी उनका ही समुदाय लगातार पीछे है। पटवर्धन ने कहा कि फिल्म की दृष्टि आलोचनात्मक है। इसमें दलित आंदोलन की भी आलोचनात्मक समीक्षा है लेकिन इसमें इस समुदाय के उन युवाओं की आलोचना नहीं है जिन पर भूमिगत होने के लिए दबाव बनाया जाता है। कुछ फिल्म समारोहों में प्रदर्शन के बाद सोमवार को मुम्बई के बायकुला में बीआईटी चॉल में 800 से यादा लोगों के सामने इसका प्रदर्शन हुआ। सभी ने मंत्रमुग्ध होकर 200 मिनट अवधि की इस फिल्म को बिना ब्रेक के देखा। पटवर्धन को इस फिल्म को बनाने में 14 साल लगे। आनंद की यह शायद पहली फिल्म है, जिसमें वह राजनीति के अलावा सांस्कृतिक व सामाजिक कथाओं को भी लेकर आए हैं। 16 जनवरी, 1997 को ट्रेड यूनियन नेता दत्ता सामंत की हत्या होती है। एक जुलाई 1997 को मुंबई की रमाबाई कॉलोनी में अंबेडकर की प्रतिमा के अपमान का विरोध दर्ज करा रहे दलितों का पुलिसिया दमन होता है। दसियों प्रदर्शनकारी मारे जाते हैं। इसके बाद विलास घोगरे आत्महत्या करते हुए एक तरह का प्रतिकार दर्ज करते हैं। इसी विडंबना ने आनंद को इस फिल्म के लिए उकसाया। जो कवि मार्क्सवाद का अनुयायी बनकर जीवन का करुण गीत गाता रहा, अंत में खुद भी एक करुण कहानी बन गया। इस विडंबना का खास पहलू यह है कि खुदकुशी करते समय विलास ने सिर पर लाल झंडा नहीं नीला रिबन लपेट लिया था। आनंद का कहना है, मैं लगभग 30 सालों से फिल्में बना रहा हूं। मैंने जयप्रकाश आंदोलन से लगाकर इमरजेंसी, सांप्रदायिकता, गरीबी, परमाणु ऊर्जा की होड़ आदि विषयों पर फिल्में बनाई हैं। मैंने दोनों पार्टियों के समय में फिल्में बनाई हैं और दोनों का रवैया एक जैसा रहा है। दोनों ही ऐसी फिल्मों को दिखाने में आनाकानी करती हैं। जबकि मैं वही मांगता हूं, जो संविधान में है। संविधान में जो अधिकार मिले हैं उसके विपरीत कुछ नहीं करता फिर भी हमारी फिल्मों को लोगों तक पहुंचने में इतनी मशक्कत करनी पड़ती है। आनंद मानते हैं कि मुख्यधारा के सिनेमा के लिए यादा पैसे की जरूरत होती है। अच्छी तकनीक चाहिए होती है, कोई बिजनेस मैन भी चाहिए जो पैसा दे सके। हमारी अपनी सीमाएं हैं, अपनी लिमिटेशंस हैं और दूसरी बात यह भी है कि यदि मैं फिक्शन फिल्में बनाता होता तो शायद कोई मेरी फिल्मों पर विश्वास भी नहीं करता। जबकि डाक्यूमेंट्री में मैं साफ.-साफ दिखाता हूं कि क्या हो रहा है। नेताओं के वक्तव्य उसमें होते हैं, कोई भी सुन सकता है। मैं वही दिखाता हूं, जो सच है। उसमें बाहर से कुछ भी नहीं डालता। यदि मैं भी फिक्शन फिल्में बनाऊंगा तो फिर डाक्यूमेंट्री कौन बनाएगा। |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Thursday, April 5, 2012
आनन्द पटवर्धन की जय भीम कामरेड (04:19:55 AM) 01, Apr, 2012, Sunday
http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/7177/9/193
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