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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, April 30, 2012

अन्ना हजारे का मनोविज्ञान ——- एक ‘खारिज’ बूढ़े की तकलीफ !

अन्ना हजारे का मनोविज्ञान ——- एक 'खारिज' बूढ़े की तकलीफ !


अन्ना हजारे का मनोविज्ञान ——- एक 'खारिज' बूढ़े की तकलीफ !

अन्ना हजारे का मनोविज्ञान ——- एक 'खारिज' बूढ़े की तकलीफ !

By  | April 30, 2012 at 4:36 pm | No comments | बहस

चंचल


रणजीत कपूर मेरे बहुत अच्छे दोस्त हैं, इनके पूरे कुनबे में कला है. अन्नूकपूर (अन्ताक्षरी वाला), सीमा, सब के सब थियेटर से जुड़े रहे. एक दिन रंजित ने बताया कि हमारा प्ले है आ जाना. प्ले था 'रुका हुआ फैसला' मै विस्तार में नहीं जाउंगा बस इतना ही कि एक 'ह्त्या का का मामला है, जूरी बैठी है,अलग अलग उम्र, अलग अलग पेशे के लोग बैठे हैं…. (इस नाटक में मेरे सारे दोस्त एक साथ दिखेंगे -एम. के. रैना, अन्नू कपूर, पंकज कपूर, बज्जू भाई ………) अन्नू कपूर ने एक बूढ़े का रोल किया है …दर्शक दीर्घा में सन्नाटा छा जाता है, जब पंकज कपूर अपना फैसला सुनाता है ..एक 'खारिज' बूढ़े की तकलीफ.
खारिज बूढ़े की तकलीफ 'मनोविज्ञान का विषय है. अन्ना हजारे इसी मनोविज्ञान से तंग थे कि एन मौके पर 'संघी घराना' इलाज के लिए मैदान में आ गया. निहायत ही सलीके से, 'गांधी को आगे कर दो' क्यों कि गांधी पर कोई दाग नहीं है, देश दुनिया का बड़ा हिस्सा गांधी पर बोलने से हिचकेगा और उन्हें एक गांधी (?) मिल गया. दूसरा मनोविज्ञान- इस मुल्क में 'छाप तिलक' बहुत मायने रखता है, इसके दर्जनों उदाहरण सामने हैं, बाबा राम देव, निर्मल बाबा, आशाराम, रविशंकर ….. सब के सब कर्मो से बाबा नहीं है लेकिन 'छाप तिलक' … ने इन्हें 'बाबा' बना दिया. उसी तरह अन्ना भी एक बाबा मिल गए, खादी का कुर्ता, धोती और टोपी ,… 'डिब्बा' में मुह डाले गलाफाडू पत्रकारिता (?) ने गांधी … गांधी चीखना शुरू कर दिया (काटजू साहब कत्तई सही कहते है ….) इन गलाफाडू को नहीं मालूम कि यह महाराष्ट्र का सामान्य लिबास है. गाँव का किसान हल जोतते समय भी इसी लिबास में रहता है. वरना अन्ना कितने बड़े गान्धीवादी हैं सबको पता है. जो शराबी को सरे आम पेड़ से लटका कर मारने की बात करे,या शरद पव्वर प्रकरण पर यह कहे कि बस एक ही थप्पड़ मारा …रही बात तिरंगा की तो ..अब यह तिरंगा संघियों की मजबूरी भी है, इस राष्ट्र ध्वज को हटाया भी नहीं जा सकता …भगवा धज की दुहाई देनेवाले आडवानी बहैसित 'घर मंत्री' के इसको कई बार फहरा चुके हैं. आप मेहरबानी कर के इतना जान लें कि अन्ना का चेहरा नकली है अन्ना का कर्म संघ के बिलकुल नजदीक है और अन्ना संघ का एक चेहरा है जो उसके बुढापे की 'ख्व्वाइश को' भर रहा है.
अब आइये भ्रष्टाचार पर ……यह स्थापित सत्य है कि कोई भी निजाम होगा उसमे भ्रष्टाचार होगा, कितने फीसदी है ? यह जेरे बहस होता है और आज जो भ्रष्टाचार बहस के केन्द में आया इसकी वजह है कि भ्रष्टाचार हद से ज्यादा बढ़ गया है. इसे रोकना है, यह सब की इच्छा है. इसका तरीका क्या हो ..जनतंत्र में दो बड़ी ताकतें होती है जो इसका फैसला करती हैं. एक संसद और दूसरी 'सड़क' संसद राज्य शाकि है तो सड़क जनशक्ति है …. मित्र गफलत में मत रहिएगा – राज्य शक्ति और जन शक्ति के दबाव और तनाव पर ही जनतंत्र ज़िंदा रहता है. अगर राज्य शक्ति मजबूत हुई और उसने जनशक्ति को तबाह कर दिया तो 'तानाशाही' का रास्ता खुलता है, और अगर जन शक्ति ने राज्यशक्ति को क्षीण कर दिया तो 'अराजकता' की स्थिति बनाती है और यह दोनों ही स्थितियां मुल्क के लिए और कौम के लिए एतिहासिक भूल बनाती हैं .. बोल्शेविक क्रान्ति(?)अराजकता का का एक चमकदार……. नमूना?
एक छोटा सा सवाल है -'सोवियत यूनियन में जारशाही से लोग ज्यादा ऊबे हुए थे या उन्हें साम्यवाद से मोहब्बत थी और जनता साम्यवाद के लिए तैयार थी …? इसमें पहली स्थापना ज्यादा सही कि वहाँ की जनता जार शाही के कत्तई खिलाफ थी लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि वह साम्यवाद के स्वागत में खड़ी थी. उस अराजकता में साम्यवाद ने जगह बनाई और मौके का फायदा उठाते हुए एक तानाशाही थोप दी. ( जान बूझ कर थोपने की बात कर रहा हूँ, वरना जिस तरह के मानवाधिकारों का हनन वहाँ हुआ है, शायद ही कहीं और हुआ हो) वही साम्यवाद एक दिन बिखर गया. एक स्थापित सत्य है कि किसी भी बदलाव में जब तक 'बदलाव के बाद की स्थिति 'स्पष्ट नहीं होगी उसका हश्र इसी तरह होगा जो सोवियत युनियन में हुआ. इसके कई और उदाहण हैं. मसलन पाकिस्तान को ही देखिये. अराजकता (दृष्टिहीन भावुकता) का नायाब नमूना है. पाकिस्तान बनते समय किसी को भी नहीं मालूम था कि, जब पाकिस्तान बनेगा तो 'वह कैसा होगा' ? नतीजा सबके सामने है.
आज इस देश में भी अराजकता की स्थिति तैयार की जा रही है. एक ऐसे मुद्दे पर जिसके बारे सब एक साथ है. सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों. संसद और सड़क दोनों. वह है भ्रष्टाचार. एक बात तय है कि भ्रष्टाचार महज क़ानून से कम नहीं किया जा सकता .जब तक कि आमजन के दिल में इसके समाप्ति का जज्बा न पैदा हो. यह काम अन्ना की तरफ शुरू होना चाहिए था लेकिन उस तरफ से कोई पहल नहीं हुई. एक बार भी अन्ना की तरफ से यह अपील नहीं की गयी कि -आज से हम न तो देंगे, न लेंगे'… इस सड़क की शुरुआत को संसद भी उठा लेती और एक राष्ट्रीय सहमति बनती. लेकिन यहाँ मकसद ही दूसरा है .'भ्रष्टाचार हटे या न हटे, लेकिन हम स्थापित हो जाएं'…जनता को यह मनोविज्ञान समझना होगा.
इस एक मुद्दे पर संसद और सड़क जिस तरह से एक हुई, यह शुभ संकेत बन जाता. सारी दुनिया आपको फिर नमन करती लेकिन टकराव अगर मुख्य मकसद है तो क्या किया जाय?

चंचल, लेखक वरिष्ठ पत्रकार, चित्रकार व समाजवादी कार्यकर्ता हैं। उनकी फेसबुक वाॅल से साभार संपादित अंश।

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