Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Sunday, April 22, 2012

उत्तराखण्ड का सपना फिर ध्वस्त हुआ लेखक : कैलाश चन्द्र पपनै :: अंक: 15 || 15 मार्च से 31 मार्च 2012:: वर्ष :: 35 :April 13, 2012 पर प्रकाशित

उत्तराखण्ड का सपना फिर ध्वस्त हुआ

उत्तराखण्ड का सपना फिर ध्वस्त हुआ

लगातार तीसरा चुनाव था यह जबकि मुख्यधारा की राजनीति अलग पहाड़ी राज्य की अवधारणा को ध्वस्त कर गई। लक्षण पहले से ही दिखाई दे रहे थे। उत्तराखंड की अस्मिता, लोगों के दिलों में बसी हुई विकास की आकांक्षा और देवभूमि जैसे नाम को सार्थक करने की सदिच्छा कहीं पृष्ठभूमि में छिप गई थी और कुर्सी पाने की होड़ में वैकल्पिक राजनीति की जमीन खोजने के नारे भी गुम हो गए थे। मतदाता ने इन सभी महत्वाकांक्षी नेताओं को उनकी औकात बता दी है। मतदाता का जनादेश भले ही सरकार बनाने के मामले में उतना स्पष्ट नहीं रहा, जैसा कि मूल राज्य उत्तर प्रदेश में उभर कर आया। फिर भी यह तो स्पष्ट है कि उत्तराखंड नाम को भुनाने की ओछी कोशिश करने वाले दलों को मतदाताओं ने जमीन दिखा दी है।

इस चुनाव में उत्तराखंड क्रांति दल-पी. के 44 उम्मीदवारों में से 41 की, उत्तराखंड रक्षा मोर्चा के 42 उम्मीदवारों में से 40 की और उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के सभी 14 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के प्रमुख नेता पी.सी. तिवारी द्वाराहाट निर्वाचन क्षेत्र से 10 उम्मीदवारों के बीच छठे स्थान पर रहे। वे कुल 1066 मत प्राप्त कर अपनी जमानत भी गँवा बैठे। इस निर्वाचन क्षेत्र में पिछले विधायक उत्तराखंड क्रांति दल-पी. के पुष्पेश त्रिपाठी कांग्रेस के मदन सिंह के खिलाफ 11472 मत प्राप्त कर 3326 मतों के अंतर से सीट गँवा बैठे। उत्तराखंड क्रांति दल के कोटे से मंत्री पद का सुख भोग चुके दिवाकर भट्ठ इस बार भाजपा के टिकट पर देवप्रयाग से चुनाव मैदान में थे। वे निर्दलीय मंत्री प्रसाद नैथानी के हाथों 1541 मतों के अंतर से पराजित हुए। भाजपा के ही टिकट पर नरेन्द्र नगर से चुनाव लड़ रहे उनके सहयोगी ओम गोपाल रावत भी कांग्रेस के सुबोध उनियाल के हाथों 401 मतों के अंतर से हारे। उत्तराखंड रक्षा मोर्चा के प्रमुख सेवानिवृत्त ले. जनरल तेजपाल सिंह रावत लैन्सडौन निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा के दिलीप सिंह रावत से 5438 मतों के भारी अंतर से हार गए। उनके 9886 मतों की तुलना में कांगे्रस की ज्योति रौतेला 8849 मत प्राप्त कर तीसरे स्थान पर रहीं। उनके अलावा यमकेश्वर निर्वाचन क्षेत्र में 8541 मतों के साथ तीसरे स्थान पर रही रेणु बिष्ट ही अपनी जमानत बचाने में सफल हो सकीं। रक्षा मोर्चे के बाकी योद्धाओं का जिक्र करना भी बेकार है।

कुल मिला कर स्थिति यह रही कि भाजपा के 33.13 प्रतिशत, कांग्रेस के 33.79 प्रतिशत, बहुजन समाज पार्टी के 12.19 प्रतिशत और 262 निर्दलीय उम्मीदवारों को मिले 12.34 प्रतिशत मतों की तुलना में उत्तराखंड क्रांति दल-पी. 1.93 प्रतिशत और उत्तराखंड रक्षा मोर्चा 1.90 प्रतिशत और उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी 0.147 प्रतिशत मत ही प्राप्त कर सकीं। उत्तराखंड के नाम पर राजनीति करने वाले इन दलों की तुलना में निर्दलीय विधायक तीन सीटों पर सफल रहे, जबकि उत्तराखंड क्रांति दल-पी. को एकमात्र सीट यमुनोत्री से मिली जहां उनके उम्मीदवार प्रीतम सिंह पँवार को कांग्रेस के केदार सिंह रावत पर 2596 मतों की जीत हासिल हुई। इसके अलावा निर्दलीय उम्मीदवार 11 स्थानों पर अपनी जमानत बचाने में भी सफल रहे।

इस प्रकार के चुनावी आँकड़ों का यह अर्थ लगाना गलत नहीं होगा कि सपनों के उत्तराखंड की राजनीति करने वाले नेताओं की अपेक्षा निर्दलीय उम्मीदवार जनता का विश्वास अर्जित करने में अधिक सक्षम हैं। प्रश्न नेताओं की विश्वसनीयता का है। उत्तराखंड के नाम पर राजनीति करने वाले स्थानीय व क्षेत्रीय नेताओं की विश्वसनीयता मुख्य राजनीतिक दलों व निर्दलीय मगर सक्रिय रहने वाले नेताओं की तुलना में बहुत कम है। ऐसा क्यों है ? व्यापक जन भागीदारी के आंदोलन के बल पर अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद आंदोलन के नेताओं की वैचारिक ऊर्जा और संगठन क्षमता का बुरी तरह से क्षरण हुआ है। इस बार के चुनाव परिणाम इस तथ्य को फिर उजागर करने वाले सिद्ध हुए हैं। बेहतर हो कि उत्तराखंड में राम राज्य के प्रति वचनबद्धता रखने वाले लोग आत्मनिरीक्षण करें और सत्ता की राजनीति की तरफ नहीं, मुद्दों की राजनीति पर ध्यान केन्द्रित करें। वैसे भी सत्ता मिलने और न मिलने के बीच रेखा बहुत क्षीण होती है। इस बात को हरीश रावत और उनके सहयोगी भी बहुत अच्छी तरह से समझने लगे होंगे। सत्ता के लिए उखाड़-पछाड़ की कांग्रेस-भाजपा की राजनीति के नाटक का भी अभी पटाक्षेप होना बाकी है। क्षेत्रीय दलों और क्षेत्रीय विकास की आकांक्षा रखने वालों को अभी लम्बा सफर तय करना है या फिर यह स्वीकार कर लेना है कि उनके विचार अप्रासंगिक हैं और उत्तराखंड देश के कई अन्य राज्यों के समान ही दो दलों द्वारा सत्ता की अदला-बदली वाला सामान्य राज्य है। इसके साथ ही यह भी भूल जाना होगा कि क्षेत्र विशेष की अपनी खास जरूरतों को पूरा करने के लिए गठित इस राज्य को लीक से हट कर चलाने की बात भी निरर्थक हो चली है। यह जमीनी हकीकत है परन्तु नेता बयानबाजी से बाज नहीं आएँगे।

संबंधित लेख....

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...