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Memories of Another day

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Sunday, April 1, 2012

चीन का रक्तचरित : हमारी गुलामी की बेड़ियों को तोड़ दो!

चीन का रक्तचरित : हमारी गुलामी की बेड़ियों को तोड़ दो!



आमुखनज़रियासंघर्ष

चीन का रक्तचरित : हमारी गुलामी की बेड़ियों को तोड़ दो!

1 APRIL 2012 6 COMMENTS

♦ नीरज कुमार

दिल्ली की सड़क पर एक शख्स शोलों में जल रहा था। आग की लपटें उसके बदन को चीरती हुई धधक रही थी। वो चीखते-चिल्लाते हुए दौड़ रहा था। और लोग टकटकी लगाये देख रहे थे। ऐसी भयावह तस्वीर मैंने कभी नहीं देखी लेकिन जब सामने आया तो रोंगटे खड़े हो गये। हाथों में चीन के खिलाफ गुस्से से भरी तख्तियां और तिब्बती झंडा लिए लोग ड्रैगन के खिलाफ विरोध कर रहे थे…. चीन के साम्राज्यवाद और तानाशाह के खिलाफ आवाज उठा रहे थे तभी एक तिब्बती युवक ने अपने शरीर को आग के हवाले कर दिया। आजादी की खातिर खुदकुशी करने की कोशिश की। चीन के राष्ट्रपति हू जिन ताओ की भारत यात्रा के विरोध में आग लगा ली। आखिरकार उस तिब्बती युवक की अस्पताल में मौत हो गयी। वो तिब्बत की आजादी की खातिर शहीद हो गया।

चीनी सरकार के प्रमुख का भारत दौरा जब-जब होता है, ये चिंगारी और भड़कने लगती है। विरोध के स्वर और तेज हो जाते हैं। गुलामी का जख्म और हरा हो जाता है। आजादी की आवाज और बुलंद हो जाती है। इस बार भी हजारों तिब्बती शरणार्थी अपनी आवाज को दुनिया के बंद कानों तक पहुंचाना चाहते थे। कान में तेल डाले सो रहे मुल्कों को बताना चाहते थे कि कैसे चीन ने तिब्बत को तिब्बतियों के लिए "ग्वांतेनामो वे" बना दिया है।

आग के शोलों के हवाले करने की ये कोशिश पहली बार नहीं हुई। चीन के दमनचक्र के खिलाफ पिछले कई बरसों से तिब्बती आत्मदाह कर रहे हैं। अब तक करीब दो दर्जन तिब्बतियों ने खुद को आग के हवाले कर दिया। अपनी आजादी के लिए तिब्बत और तिब्बत के बाहर भगवान बुद्ध को माननेवाले तिब्बती आत्मदाह पर उतारू हो आये हैं। लेकिन आत्मदाह की इन चिंगारियों को बुझानेवाला कोई नहीं। इस दुनिया में कोई नहीं जो तिब्बतियों पर हो रहे चीन के जुल्मोसितम पर मुंह खोले। अमेरिका की भी घिग्घी बध जाती है। जब बात चीन की आती है तो वो यूरोपीय देश बैकफुट पर आ जाते हैं। हां, ये जरूर है कि कमजोर देश के खिलाफ कार्रवाई करनी हो तो अमेरिका और यूरोपीय देश आगे आ जाते हैं। ड्रोन हमले शुरू कर देते हैं। तानाशाह और आतंकवाद को खत्म करने के नाम पर हजारों बेगुनाहों का कत्ल करते हैं। लेकिन सामने दुश्मन ताकतवर हो, तो अमेरिका को नानी याद आ जाती है।

ऐसे में भारत की तो बात ही छोड़ दीजिए। भारत की ढुलमुल नीतियों की वजह से ही चीन बाघ बनकर हमेशा गुर्राता रहा। आंखें दिखाता रहा। जब हम अपने मुद्दों को ठीक तरीके से नहीं रख सके तो भला तिब्बितयों के मुद्दे को क्या उठाते और इस बार भी यही हुआ। चीनी राष्ट्रपति हू जिन ताओ के भारत दौरे पर ब्रिक्स के किसी भी मुल्क ने तिब्बती मसले पर चूं-चपर तक नहीं की। आर्थिक मंदी से मुक्ति दिलाने की बात ब्राजील, रूस, दक्षिण अफ्रीका के साथ भारत भी करता रहा। जिस कम्‍युनिस्‍ट सरकार ने तिब्बत को आत्मदाह करने पर मजबूर कर दिया है वो दुनिया की खुशहाली के बारे में क्‍या सोचेगा। चीन सिर्फ अपने फायदे की सोचता है। उसकी भारत के प्रति भी विदेश नीति चालाकी भरी है। लेकिन भारत हमेशा कड़े कदम उठाने में हिचकिचाया है।

जब हमारे प्रधानमंत्री अरुणाचल प्रदेश जाते हैं तो चीन ऐतराज जताता है। जब हम तिब्बतियों के धर्मगुरु दलाई लामा का स्वागत करते हैं, तो चीन हमें घुड़की देता है। वो अलग बात है कि मीडिया में जब ये बातें लीक हो जाती हैं, तो भारत सरकार डैमेज कंट्रोल करने के लिए चीन को जवाब देता है। लेकिन वो भी दीनहीन बनकर।

1954 में डॉ भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि यदि भारत ने तिब्बत को मान्यता प्रदान की होती, जैसा कि उसने 1949 में चीनी गणराज्य को प्रदान की थी तो आज भारत-चीन सीमा विवाद न होकर तिब्बत-चीन सीमा विवाद होता। चीन को ल्हासा पर अधिकार देकर प्रधानमंत्री ने चीनी लोगों को अपनी सेनाएं भारत की सीमा पर ले आने में पूरी सहायता पहुंचाई है।

डॉ भीमराव अंबेडकर की आशंका यूं ही नहीं थी। हमारी चीन के प्रति विदेश नीति शुरू से ही ढुलमुल रही है। हमने आंखें मूंदकर अपने पड़ोस में चीन के दमनचक्र को देखा। हमने तिब्बितयों पर हो रहे अत्याचार पर चुप्पी साध ली। शुतुरमुर्ग की तरह बने रहे कि मसला चीन और तिब्बत का है तो हमें क्या लेना। लेकिन बात इतनी सी नहीं है।

तिब्बत में चीन का दमनचक्र 1950 से ही जारी है। चीन की कम्‍युनिस्‍ट सेना तिब्बतियों को तब से रौंद रही है। तिब्बितियों को गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी है। इसी से आजाद होने के लिए 1959 में तिब्बतियों के धर्मगुरु दलाई लामा तिब्बत से भारत भाग आये। उनके साथ करीब अस्सी हजार तिब्बती भारत आये। लेकिन जो लोग तिब्बत में रह गये, उनकी आवाज को दबाने के लिए चीन ने हर तरीके का हथकंडा अपनाया। यूएन का सदस्य होने के बावजूद चीन ने यूएन चार्टर की धज्जियां उड़ायीं। चीन दुनिया को अब भी बता रहा है कि उसकी तानाशाही चलती रहेगी, जिसे जो चाहे करना हो कर ले।

14वें दलाई लामा के मुताबिक चीनी सत्ता में हजारों तिब्बतियों को मार डाला गया। हजारों बौद्ध भिक्षुओं को शक के आधार पर जेलों में डालकर थर्ड डिग्री टॉर्चर किया गया। बौद्ध मठों को निशाना बनाया गया। तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री लोबसांग सांगेय का आरोप है कि तिब्बत में अघोषित मार्शल लॉ लागू है। बौद्ध भिक्षुओं और नन को दलाई लामा की निंदा करने और देशभक्ति शिक्षा लेने के लिए बाध्य किया जा रहा है। विदेशी मीडिया को तिब्बत क्षेत्र में एंट्री पर रोक लगा दी गयी है। जब चीन में बाहरी मुल्कों की मीडिया को आजादी नहीं तो भला तिब्बत में कैसे मिल पाएगी। जिस मुल्क में अपने ही छात्रों पर टैंक चढ़वा दिये जाते हैं, उस मुल्क से मानवाधिकार की क्या उम्मीद की जा सकती है। 1989 में चीन में जब छात्रों ने लोकतंत्र की आवाज उठायी तो उन्हें कुचल दिया गया। चीन की कम्‍युनिस्‍ट सरकार यातना देने पर उतर आयी।

तिब्बत को बर्बाद करने के लिए चीन की कम्‍युनिस्‍ट सरकार के पास पूरा ब्लू प्रिंट है। दुनिया के सबसे ऊंचे रेलमार्ग का निर्माण करके चीन ने न सिर्फ तिब्बत पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली बल्कि वहां के खनिजों का भी भरपूर दोहन कर रहा है। तिब्बत जैसे शांतिप्रिय देश आज चीन के सैन्यीकरण का अहम अड्डा बन गया है। चीन बड़ी चालाकी के साथ एक तरफ जहां तिब्बतियों के खिलाफ दमनचक्र चला रहा है, वहीं तिब्बत को एटामिक अस्त्रों के रेडियोधर्मी कचरा फेंकने का कूड़ा दान भी बना डाला है, जिसकी वजह से उन तमाम नदियों का पानी दूषित हो रहा है, जिनका उदगम स्थल तिब्बत है। सिंधू, ब्रह्मपुत्र जैसी नदियां भारत और बांग्लादेश जैसे घनी आबादी वाले देश से भी बहती है। सबसे चिंता की बात ये है कि चीन को विदेशी करेंसी देकर अमेरिका और यूरोप के अनेक देशों ने एटामिक रेडियो कचरे फेंकने की छूट हासिल कर ली है।

चीन का दावा रहा है कि तिब्बत उसका हिस्सा रहा है। लेकिन इतिहास ऐसा नहीं कहता। 1911-12 में चीनियों ने थोड़े समय के लिए तिब्बत पर अधिकार जरूर जमा लिया था लेकिन तिब्बतियों ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। मशहूर इतिहासकार एच ई रिचर्डसन भी मानते है कि तिब्बतियों को चीनी नहीं कहा जा सकता। चीनी दो हजार बरसों से भी ज्यादा समय से तिब्बतियों को एक अलग नस्ल के रूप में देखते रहे हैं। फिर क्यों चीन की कम्‍युनिस्‍ट सरकार एक मुल्क की पहचान को ध्वस्त करने में जुटी है, तिब्बतियों के अस्तित्व को मिटाने पर तुली है?

(नीरज कुमार कुमार। युवा टीवी पत्रकार। भारतीय जनसंचार संस्‍थान से डिप्‍लोमा। लंबे अरसे से न्‍यूज 24 की संपादकीय टीम का हिस्‍सा। उनसे niraj.kumar@bagnetwork.in पर संपर्क किया जा सकता है।)


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