Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Friday, April 6, 2012

कांस में झारखंडी फिल्मकार की ‘द अनटोल्ड टेल’

http://mohallalive.com/2012/04/06/the-untold-tale-in-cannes/

 आमुखसिनेमा

कांस में झारखंडी फिल्मकार की 'द अनटोल्ड टेल'

6 APRIL 2012 ONE COMMENT

♦ अश्विनी कुमार पंकज

र्ष 2007 में विश्वव्यापी ख्याति बटोरनेवाली फिल्म 'फ्रोजेन' के निर्माता-निर्देशक शिवाजी चंद्रभूषण की दूसरी फीचर फिल्म 'वन मोर' अभी पूरी नहीं हुई है। लेकिन उनकी तीसरी फिल्म 'द अनटोल्ड टेल' अभी से ही पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बन गयी है। इस फिल्म की स्क्रिप्ट का चयन प्रतिष्ठित कांस अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव 2012 के लिए हुआ है। 'द अनटोल्ड टेल' दुनिया भर के 14 देशों से चुने गए उन 15 फिल्मी पटकथाओं में से एक है, जिसका प्रदर्शन 18 से 25 मई के दौरान फ्रांस के पेरिस में आयोजित कांस अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में किया जाएगा। विश्व के सबसे प्रतिष्ठित सिनेमा समारोह में सात वर्ष बाद शामिल होनेवाली यह भारतीय फिल्म है।

हम सबके लिए यह गर्व की बात है कि शिवाजी चंद्रभूषण जैसे प्रतिभाशाली युवा फिल्ममेकर अपनी फिल्म 'द अनटोल्ड टेल' के साथ कांस में भारत का प्रतिनिधित्व करेंगे, वहीं यह अफसोसनाक है कि भारतीय मीडिया इस उपलब्धि को अभी तक अनदेखा किये हुए है। अंगरेजी मीडिया में छिटपुट खबरें आयी भी लेकिन हिंदी मीडिया ने तो एक सिरे से ही इस खबर को खारिज कर दिया है। जैसे शिवाजी की पहली फिल्म 'फ्रोजेन' को अनुसना कर दिया था, जिसने दो दर्जन से अधिक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भागीदारी की थी और राष्ट्रीय फिल्म अवार्ड जीतने के साथ लगभग 20 इंटरनेशनल सम्मान हासिल किये थे। भारतीय सिनेमा के जब सौ वर्ष पूरे होने वाले हैं, एक 40 वर्षीय आदिवासी सिनेकार की यह उपेक्षा कई सवाल खड़े करती है।

झारखंडियों के लिए तो यह और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि शिवाजी चंद्रभूषण देवगम मूलतः चाईबासा के रहनेवाले हैं और वे 'हो' आदिवासी समुदाय से आते हैं। उनके पिता चंद्रभूषण देवगम जाने-माने मानवाधिकारकर्मी और अधिवक्ता हैं और जोहार एवं बिरसा सिविल सोसायटी के साथ झारखंडी जनता के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं। आश्चर्य की बात यह भी है कि वर्ल्ड सिनेमा में झारखंड और भारत को अपनी सिनेमाई कृतियों से नयी पहचान दिलाने और गौरवान्वित करने वाले इस अद्भुत झारखंडी फिल्मकार को झारखंड सरकार भी नहीं जानती।

'द अनटोल्ड टेल' एक युवा कलाकार एडेलीन की कहानी है, जो अपने खोये हुए पिता को ढूंढने भारत आती है। आधी सदी से भी ज्यादा लंबे कालखंड में फैली हुई फिल्म की कहानी तीन पीढ़ियों की जीवनयात्रा पर दर्शकों को ले जाती है। पचास के दशक में बार्सिलोना, फ्रांस से फिल्म शुरू होती है और राजस्थान, भारत में आकर समाप्त होती है। एक युवा कलाकार के माध्यम से यह दो संस्कृतियों और दो देशों की सिनेमाई यात्रा है, जिसे शिवाजी ने त्रिपर्णा बैनर्जी के साथ मिल कर लिखा है। नंदिता दत्ता को दिये अपने एक इंटरव्यू में शिवाजी कहते हैं, 'आप इस फिल्म को 'गोईंग बैक टू द रूट्स' कह सकते हैं। फिल्म का आइडिया कोई चार साल पहले आया, जब मुझे 'फ्रोजेन' के इंटरनेशनल स्क्रीनिंग के सिलसिले में स्पेन जाने का अवसर मिला था। स्पेन में जब मैं जिप्सी समुदाय से मिला, तो लगा कि इनका कोई न कोई रिश्ता भारत से जरूर है। खान-पान, रहन-सहन, संगीत-नृत्य और उनकी भाषा में एक समानता थी, जिसने मुझे आकर्षित किया। करीब चार वर्षो के शोध के बाद फिल्म की स्क्रिप्ट तैयार हुई और हमारे लिए सकून की बात है कि कांस समारोह में यह शामिल हो रही है।'

कांस फिल्म समारोह को सबसे प्रतिष्ठित सिनेमा का उत्सव माना जाता है, जिसमें शामिल होने और अवार्ड जीतने की ख्वाहिश हर फिल्ममेकर की होती है। दुनिया भर में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाला भारतीय फिल्म उद्योग पिछले दो दशकों से कांस समारोह से बाहर है। 1946 में आयोजित पहले समारोह में चेतन आनंद की 'नीचा नगर' ने शानदार एंट्री करते हुए गोल्डन पिक्स अवार्ड जीता था। इसके तीन दशक बाद सत्यजीत रे की 'पाथेर पांचाली' (1956) को कांस का प्रतिष्ठित 'द बेस्ट ह्यूमन डॉक्यूमेंट' का अवार्ड मिला। 80 से 90 के बीच ख्वाजा अहमद अब्बास की 'परदेसी', एमएस सथ्यू की 'गरम हवा', मृणाल सेन की 'एक दिन प्रतिदिन' और श्याम बेनेगल की 'निशांत' जैसी फिल्मों ने कांस के विभिन्न प्रतियोगी वर्गों में भारत की ओर से नामांकित हुई, पर 1988 में गोल्डन कैमरा अवार्ड जीतने में कामयाब रही मीरा नायर की 'सलाम बांबे'। 1999 में यही अवार्ड मुरली नायर की मलयालम फीचर फिल्म 'मारना सिम्हासनम' को भी मिला। इस वर्ष कमल हासन की 'विश्वरूपम' कांस की प्रतियोगिता वर्ग में पहुंचने की जी-तोड़ कोशिश में लगी है। ऐसे में शिवाजी चंद्रभूषण की फिल्म का कांस समारोह में दिखाया जाना क्या महत्व रखता है, इस पर शायद और कुछ कहने की जरूरत नहीं है।

(अश्विनी कुमार पंकज। वरिष्‍ठ पत्रकार। झारखंड के विभिन्‍न जनांदोलनों से जुड़ाव। रांची से निकलने वाली संताली पत्रिका जोहार सहिया के संपादक। इंटरनेट पत्रिका अखड़ा की टीम के सदस्‍य। वे रंगमंच पर केंद्रितरंगवार्ता नाम की एक पत्रिका का संपादन भी कर रहे हैं। इन दिनों आलोचना की एक पुस्‍तक आदिवासी सौंदर्यशास्‍त्र लिख रहे हैं। उनसे akpankaj@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...