| Friday, 27 April 2012 11:09 |
नरेश गोस्वामी गांधी को लेकर आम धारणा है कि वे विज्ञान और तकनीक के विरोधी थे। इसलिए मान लिया जाता है कि वे मशीन और उद्योगों के खिलाफ थे। यह धारणा लोकमानस में शायद इसलिए दृढ़ होती गई है कि आजादी के बाद एक स्वतंत्र देश के रूप में भारत ने विकास का जो रास्ता चुना उसमें विज्ञान और तकनीक के एक खास रूप को तरजीह दी गई। विज्ञान और तकनीक का यह ढांचा बड़ी मशीनों और बड़े उद्योगों के इस्तेमाल पर आधारित था। उसकी श्रेष्ठता को विभिन्न मंचों और तरीकों से प्रचारित किया गया, जिसके चलते यह बात ही कहीं बिसर गई कि गांधी भी मशीनों की बात कर रहे थे। फर्क बस यह था कि गांधी की मशीनें कुछ अलग तरह की थीं। वे ऐसी मशीनों के पक्षधर थे, जिन्हें गांव के लोग खुद बना और बरत सकें। उनकी चिंता यह भी थी कि ये मशीनें ऐसी न हों कि उनका दूसरों के शोषण में इस्तेमाल किया जाने लगे। गांधी की बुनियादी चिंता यह थी कि विकास की भारतीय योजना में गांवों का स्थान क्या होगा। नेहरू को लिखे एक पत्र में उन्होंने यह भी साफ कर दिया था कि अगर विकास की योजना का केंद्र बिंदु गांव रहता है तो उन्हें रेलवे और टेलीग्राफ जैसी तकनीक से कोई उज्र नहीं है। इसलिए इस बात को शायद बार-बार दोहराना होगा कि गांधी का आधुनिक विज्ञान और तकनीक से कोई बैर नहीं था। यह कोई ऐसी चिढ़ नहीं थी, जो गांधी के मन-मस्तिष्क में अचेत रूप से बैठ गई थी। गांधी ऐसे विकास के दुष्परिणामों को बहुत बारीकी से देख रहे थे। उन्होंने 'यंग इंडिया' के 7 अक्तूूबर, 1926 के अंक में लिखा था कि अगर भारत भी अमेरिका और इंग्लैंड की तरह बनना चाहता है तो उसे दुनिया के अन्य देशों की खोज करनी पड़ेगी। जाहिर है कि गांधी इस बात को बखूबी समझते थे कि विराट स्तर पर होने वाला विकास दूसरे देशों का शोषण किए बिना मुमकिन नहीं है। क्या यही बात आज के भारत में लागू नहीं होती, जहां विकास के समर्थकों और योजनाकारों को देश के आदिवासी क्षेत्रों की संपदा देश के विकास के लिए अनिवार्य लगने लगी है! गांधी की गांव को आत्मनिर्भर बनाने की पक्षधरता के पीछे एक गहरी समझ है, जो पूंजीवाद, विज्ञान और तकनीक की संपूरक और अनिवार्य पारस्परिकता से पैदा हुई है। वे पूंजीवाद के बुनियादी तर्क को उतनी ही सफाई से समझते थे, जितना हेलेना नोरबर्ग-होज जैसे परवर्ती राजनीतिक चिंतकों ने समझा है कि स्थानीय जरूरतों का दायरा छोड़ते ही पूंजी शोषणकारी हो जाती है। इस तरह स्थानीय और वृहत के बीच सिर्फ पैमाने का फर्क नहीं है। वृहत केवल स्थानीय स्तर पर होने वाली उत्पादन की समस्त प्रकियाओं का समुच्चय मात्र नहीं है। उन दोनों के बीच एक गुणात्मक अंतर है। वृहत में यह बात लाजमी तौर पर शामिल है कि संसाधनों और तकनीक पर वास्तविक कामगार का नहीं, बल्कि पूंजी के स्वामी और उसके प्रबंधकों का नियंत्रण हो जाता है। पूंजीवाद और आधुनिक तकनीक से उपजी सभ्यता के इस छलावे को लोहिया भी इतने ही सटीक ढंग से पकड़ते हैं। जैसा कि किशन पटनायक अपने एक लेख में कहते हैं, 'लोहिया कभी-कभी आधुनिक सभ्यता की उपलब्धियों से प्रभावित होते थे, लेकिन उनका विश्वास अपनी जगह कायम रहता था कि यह सभ्यता समानता और समता का वादा तो करेगी, पर उसे कभी प्रदान नहीं करेगी।' लेकिन, ब्रिटिश अधीनता के दौर में भी भारत के राजनीतिक नेतृत्व की एक धारा, जो सत्ता के ऊपर से शांत दिखने वाले संघर्ष में अंतत: समाज के सामूहिक हित से भारी साबित हुई, देश के विकास के लिए बड़ी पूंजी और बड़ी मशीनों का रास्ता अपनाना चाहती थी। इसलिए इसे विडंबना की तरह नहीं, बल्कि इस सोच की निरंतरता की तरह देखा जाना चाहिए कि आजादी के बाद जब इस नेतृत्व को अपने देश, समाज का भविष्य तय करने का अवसर मिला तो उसने अमेरिका बनना ही स्वीकार किया। इसमें अगर कोई विडंबना है तो केवल यही कि जब जाहिरा तौर पर देश को संप्रभु और गणतंत्र बनाने के संकल्प को संविधान में कलमबंद किया जा रहा था तो हमारा राजनीतिक नेतृत्व मन और चेतना के स्तर पर वही बनना चाह रहा था, जो अमेरिका और इंग्लैंड हमसे बहुत पहले बन चुके थे। विकास की वह रूढ़ वैचारिक प्रस्थापना, जिससे हेलेना पिछले तीन दशकों से लगातार बहसतलब रही हैं, अब लद्दाख को भी अपने प्रभाव में ले चुकी है। अपनी नियमित यात्राओं के दौरान हेलेना ने महसूस किया है कि अब विश्व के अन्य समाजों की तरह लद्दाख के लोगों को भी लगने लगा है कि विकास कोई और अवस्था है और वे जैसा जीवन जीते रहे हैं, वह नाकाफी है। इस सांस्कृतिक बदलाव को हेलेना इस उदाहरण से समझाती हैं कि अब वहां की युवतियां अपनी त्वचा को यूरोपीय रंगत देने के लिए गोरेपन की क्रीम का इस्तेमाल करने लगी हैं। यानी उन्हें अचानक लगने लगा है कि उनकी त्वचा उतनी गोरी नहीं है। क्या लद्दाख का यह विपर्यय बाकी दुनिया का भी सच नहीं बन गया है! |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Friday, April 27, 2012
स्थानीय बनाम वैश्विक विकास का पैमाना
स्थानीय बनाम वैश्विक विकास का पैमाना
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