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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, April 23, 2012

अथाह दर्द के साथ जी रहे हैं बिहार के पत्रकार

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[LARGE][LINK=/index.php/creation/1205-2012-04-22-12-16-33]अथाह दर्द के साथ जी रहे हैं बिहार के पत्रकार   [/LINK] [/LARGE]
Written by संतोष सिंह तोमर   Category: [LINK=/index.php/creation]बिजनेस-उद्योग-श्रम-तकनीक-वेब-मोबाइल-मीडिया[/LINK] Published on 22 April 2012 [LINK=/index.php/component/mailto/?tmpl=component&template=youmagazine&link=34bfaf5e10838135888ea1e406055c3ca1a29cf8][IMG]/templates/youmagazine/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK] [LINK=/index.php/creation/1205-2012-04-22-12-16-33?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/youmagazine/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK]
पटना : दुर्भाग्य है उस बिहार का जो हमेशा अपनी मेहनत और इमानदारी के बल पर भारत ही नहीं पूरे विश्‍व में अपना अलग पहचान बनाया है। वह बिहार आज भी स्थानीय व्यवस्था से लड़ रहा है। सरकार तो बनाते हैं खेत-खलिहान वाले लेकिन माल खाने वाले वही लोग होते हैं, जो बिहारियत को गाली समझते हैं और बिहार के 70 प्रतिशत आबादी को गुलाम। कभी कांग्रेसी राज्य से उब कर लोगों ने लालू को सत्ता थमाई थी लेकिन वे और उनके परिवार के लोग जनता के पीठ को गद्दी और बिहार को अपना जागीर समझने लगे, लेकिन जब सिकंदर जैसे बादशाह को इसी धरती पर चारों खाने चित्त होना पड़ा और उसे सड़कों की खाक छाननी पड़ी तो लालू की क्या विसात। जनता ने उनकी भी बड़ी बेरहमी से रूखसत कर दी और छोटे भाई नीतीश को गद्दी सौंप दी, लेकिन नीतीश कुमार ने भी 'माल महाराज का मिर्जा खेलें होली' की कहावत को चरितार्थ कर दिया।

अभी बिहार से कई छोटी-बड़ी पत्र-पत्रिकाएं निकल रही है। सभी आर्थिक तंगी के कारण या तो बंद हो गईं या बंद होने के कगार पर खड़ी हैं। उसमें काम करने वाले हजारों पत्रकारों को दो वक्त की रोटी नसीब नही होती, वे और बढ़ती मंहगाई के बोझ तले दबते चले जा रहे हैं। यह तो रही छोटी पत्र-पत्रिकाओं के पत्रकारों की बात। अब जरा उन बड़े अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों की बात करें, जिसमें बिहार सरकार के करोड़ों रुपये के विज्ञापन छपते हैं लेकिन उसमें काम करने वाले क्षेत्रीय पत्रकारों को एक पैसा नहीं मिलता है। बिहार सरकार के विज्ञापन विभाग में काम करने वालों का कहना है कि नीतीश कुमार और सुशील कुमार मोदी ने बड़ी चतुराई से बड़े अखबारों को फायदा पहुंचाने के लिए विज्ञापन को सेंट्रलाइज कर दिया है, जिसके कारण पहले जिलों से मिलने वाले विज्ञापन अब जिला संवाददाता को नहीं मिलता है। अब पटना से सीधे बड़े अखबारों को विज्ञापन मिल जाता है।

सब को पता है कि अखबारों में काम करने वाले जिला एवं प्रखंड स्तर के संवाददाता को आज भी अखबार वाले पैसा नहीं देते। उन लोगों का एकमात्र जीने का सहारा स्थानीय विज्ञापन था, वह भी बिहार सरकार ने उससे छीन लिया। नीतीश को सत्ता में लाने वाले बड़े अखबार या बडे़ पत्रकार ही नहीं थे बल्कि छोटी पत्र-पत्रिकाएं व क्षेत्रीय पत्रकार भी थे, जिन्होंने अपनी लेखनी से शासन के करतूतों से लोगों को अवगत कराते रहे। विगत दिनों प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की टीम राज्य में मीडिया व पत्रकारों पर कथित सरकारी दबाव की जांच करने आयी लेकिन जिस चीज की जांच होनी चाहिए वह अब भी पूरी नहीं हुई है। छोटी पत्र-पत्रिकाएं एवं जिला तथा प्रखंड संवाददाताओं के हक को पटना में बैठे लोग हड़प कर जा रहे हैं, उसकी जांच कब होगी और दोषियों को कैसी सजा मिलेगी, ताकि देश की स्वतंत्रता की लड़ाई हो या समाज को दिशा देने की बात हो हर वक्त अपनी जान को दांव पर लगाने वाले पत्रकारों और उनके परिवारों को उचित न्याय मिले। ऐसे लोगों को भी सजा मिले जो पत्रकारों से बिना वेतन काम करवाते है। बिहार के लोगों के बीच आम धारण बन गयी है कि नीतीश कुमार बड़े अखबारों को सरकारी विज्ञापनों के जरिये अपना पिछलग्गू बना रही है।

इन अखबारों के कुछ संस्करणों को तो बिना निबंधन ही करोड़ों का विज्ञापन दिया गया है। ऐसे में सवाल उठना स्वभाविक है कि आखिर क्यों सरकार ऐसी कृपा सिर्फ बड़े मीडिया समूहों के साथ दिखा रही है। बगैर छोटे अखबारों और मीडिया समूहों को फलने-फूलने का मौका दिये स्वतंत्र पत्रकारिता जीवित नहीं रह सकती। राज्य सरकार ने पूरे देश के अन्य राज्यों के विज्ञापन नियमावली की अनेदखी कर अपनी विशेष विज्ञापन नियमावली बनायी है, ताकि लघु एवं मध्यम समूहों के पत्र-पत्रिकाओं को विज्ञापन मिले ही न। देश के सभी राज्य स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं, क्षेत्रीय अखबारों को राष्ट्रीय अखबारों या पत्रिकाओं से ज्यादा तवज्जो देते हैं, लेकिन बिहार सरकार इसके उलट विचार रखती है। राज्य में अखबारों एवं कस्‍बाई पत्रकारों की आमदनी का एक मात्र जरिया सरकारी विज्ञापन था, वह पूरी तरह उससे छीन ली गयी है।

राज्य में छोटे व मध्यम समूहों के पत्र-पत्रिकाओं के साथ भेदभाव कर सरकार निष्पक्ष पत्रकारिता की खुलेआम हत्या कर रही है। नीतीश कुमार पर बदनामी के दाग लगते चले जा रहे हैं। कलमकार दूसरों की आवाज तो जरूर बने हुए हैं लेकिन अपने हक बात आती है तो अक्सर खामोशी की चादर ओढ़ लेते हैं। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह बिहार की धरती है, यहां कुछ भी असंभव नही हो सकता, जिस दिन कलम घिस्सुओं को अपने उपर हो रहे जुल्म का इल्म हो जायेगा तो इसके आग में जलने से शायद नीतीश कुमार भी न बच पाएं।

[B]लेखक संतोष सिंह तोमर इकोनॉमरी इंडिया के बिहार में ब्‍यूरोचीफ हैं.[/B]

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