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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Friday, April 6, 2012

तुम मुझे फीस दो मैं तुम्हें बेरोजगारी दूंगा!

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Written by सुप्रिया श्रीवास्‍तव Category: [LINK=/index.php/creation]बिजनेस-उद्योग-श्रम-तकनीक-वेब-मोबाइल-मीडिया[/LINK] Published on 05 April 2012 [LINK=/index.php/component/mailto/?tmpl=component&template=youmagazine&link=86b0d4e2cc8da586a6a37b04b7a4cdc711b6203d][IMG]/templates/youmagazine/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK] [LINK=/index.php/creation/1070-2012-04-05-12-48-48?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/youmagazine/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK]
सुभाषचंद्र बोस जी कह गये है- तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा, और उन्होंने ऐसा कर भी दिखाया। मगर पत्रकारिता के संस्थानों ने तो इनका नारा ही बदल कर रख दिया। लाखों की फीस लेकर बेरोजगारी बांटने वाले इन संस्थानों का नारा है- तुम मुझे फीस दो मैं तुम्हें बेरोजगारी दूंगा। पत्रकारिता के क्षेत्र में भविष्य तलाशने वालों की आज कोई कमी नहीं है। इससे जुड़ा ग्लैमर युवा पीढ़ी को आसानी से अपनी ओर खींच लेता है। जिसका फायदा नामी-गिरामी पत्रकारिता के संस्थान उठाते है। अपनी ओर आकर्षित कर लेने वाले रंग-बिरंगी डिजाइन और लुभावनी टैग लाइन के साथ लगभग हर अखबार में इन संस्थानों के विज्ञापन छाये रहते हैं।

वास्तविकता में सौ प्रतिशत नौकरी का वादा देने वाले इन संस्थानों के छात्र डिप्लोमा लेने के बाद कहां काम करेंगे इससे इनका कोई वास्ता नहीं होता। उन्हें मतलब होता है तो बस फीस में मिलने वाली मोटी रकम का। जिसका परिणाम यह होता है कि उनके सहारे बैठे छात्रों के हिस्से आता है तो बस लंबा संघर्ष और नाउम्मीदी। एक कड़वी सच्चाई और है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ यानी पत्रकारिता आज के समय में एक ऐसा क्षेत्र बन चुका है जहां नौकरी इस बात से नहीं मिलती कि सामने वाले का काम कैसा है, या वह कितना मेहनती है जबकि इस बात से मिलती है कि उसकी पहुंच कितनी बड़ी है। बड़े पद पर आसीन यदि किसी व्यक्ति ने उसकी सिफारिश की है तो नौकरी पक्की वरना अखबार या चैनल के दरवाजे में घुसना भी नामुमकिन सा होता है। यहां लगभग सभी एक दूसरे के चाचा-भतीजे या मामा भांजे होते हैं।

यह शायद पहला क्षेत्र होगा जिसमें किसी भी अच्छे अखबार या न्यूज चैनल में निकलने वाली रिक्तियों का ब्यौरा कभी भी सार्वजनिक नहीं होता। यहां तक कि नौकरी देने वाली किसी प्रतिष्ठित कंपनी के पास भी इसकी जानकारी नहीं होती। दूसरे, यहां डिग्री या डिप्लोमा से ज्यादा यह मायने रखता है कि आपकी सिफारिश करने वाला व्यक्ति कितना बड़ा है। बाद में यदि अपनी मेहनत से कोई नाम कमा लेता है तो यही पत्रकारिता के संस्थान अपने ऑफिस में उनकी एक बड़ी सी तस्वीर सजा लेते हैं, जिससे नये छात्रों को आकर्षित कर गुमराह किया जा सके और उनसे फिर वही वादा किया जा सके- तुम मुझे फीस दो मैं तुम्हें बेरोजगारी दूंगा।

[B]लेखिका सुप्रिया श्रीवास्तव पत्रकारिता से जुड़ी हुई हैं. [/B]

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