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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Sunday, May 20, 2012

माओवाद बहाना है, जल, जंगल हथियाना है

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माओवाद बहाना है, जल, जंगल हथियाना है

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माओवाद बहाना है, जल, जंगल हथियाना है
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नयी आर्थिक नीतियों के लागू होते जाने के साथ कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का अर्थ किस तरह बदलता गया, झारखंड इसका मिसाल बन गया है। एक स्थानीय आदिवासी नेता के शब्दों में कहें तो सरकार अब टाटा और मित्तल को सबसे गरीब और भूमिहीन मानकर मुफ्त में जमीन देने लगी है जबकि आदिवासी अब सरकार की नजर में जमीनदार हो गये हैं जिनसे हर कीमत पर उनकी जमीन का मालिकाना हक छीन कर इन नवभूमिहीनों में बांटना उसकी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी हो गयी है।

समझा जा सकता है कि उदारीकरण के साथ राज्य की भूमिका खत्म नहीं हुयी है जैसा कि अक्सर कहा जाता है। बल्कि सिर्फ उसके पोजीशन में शिफ्टिंग हुयी है। यानी राज्य अब भी कल्याणकारी भूमिका में है, अमीरों के पक्ष में हिंसक होने की हद तक।

मसलन, गढवा जिले के बलिगढ और होमिया गांव जहां दलित और आदिवासी, जिनमें कई लुप्त होती जातियों के लोग भी रहते हैं, को बिना गांवों वालों की जानकारी के सरकारी अफसरों और स्थानिय सामंती तत्वों ने मिलीभगत से लगभग 453 एकड जमीन जिंदल और एस्सार कम्पनी को बेच दिया है। जबकि सरकार ग्रामिणों से भूकर भी लेती रही है। सबसे अहम कि इसमें भूदान की जमीन भी है जिसे कानूनन न तो बेचा जा सकता है ना खरीदा जा सकता है सरकार और कॉर्पोरेट गठजोड से छले गये लोगों में कईयों को तो यह भी नहीं पता कि उनकी जमीन किनको बेची गयी है, वो कहां के हैं और उनकी जमीन पर वो उनकी तरह ही खेती करेंगे या उद्योग लगाएंगे।  

ऐसी ही स्थिति झारखंड के लोकनायक नीलाम्बर और पीताम्बर बंधुओं के पुश्तैनी गांव गढवा जिले के सनया का है। जो कुटकू मंडल बांध परियोजना के डूब क्षेत्र के 45 गांवों में से एक है। प्रभावित ग्रामीणों के मुआवजे का मानदंड दशकों पुराने सर्वे के आधार पर निर्धारित किया गया है, जबकि इस दौरान आबादी कई गुणा बढ गयी है। सबसे दुखद कि सनया उन नीलाम्बर-पीताम्बर बंधुओं का गांव है जिन्होंने अंग्रेजों से भूमि अधिकार के लिये लडते हुए अपनी जान कुर्बान कर दी थी। जिनके नाम पर एक विश्वविद्यालय समेत दजर्नों सरकारी परियोजनाएं चल रही हैं। जबकि नीलाम्बर-पीताम्बर के वंशज 75 वर्षीय हरीश्चंद के पास पहनने के लिये कपडे भी नहीं हैं तो इसी परिवार के एक युवक को यह पता भी नहीं है कि उनके वंशजों के नाम से कोई स्कूल (यूनिवसिर्टी) बन रही है।

नीलाम्बर-पीताम्बर जैसे आदिवासी अस्मिता के प्रतीकों का इस्तेमाल प्रदेश सरकारें अपने कॉर्पोरेट हितों के लेहाज से बहुत रणनीतिक रीके से करती आ रही हैं। इसके पीछे मुख्य मकसद एक तरफ तो बाहरी दुनिया के बीच अपने को आदिवासी हितों की संरक्षक साबित करना होता है तो वहीं दूसरी आंतरिक तौर पर आदिवासीयों के बीच ऐसे बिचैलिये नेताओं की खेप पैदा करना होता है जो इस अस्मिता के नाम पर आदिवासियों से वोट तो ले आएं लेकिन उनके बीच इन लोकनायकों के राजनीतिक दशर्न को कोई ठोस आकार न लेने दें। ठीक वैसे ही जैसे गांधी और लोहिया के नाम पर होता आया है इसीलिये जहां एक ओर पूरे झारखंड में बिरसा मुंडा की मूर्तियां तो खूब देखी जा सकती हैं, जिनके नाम पर वोट भी पाया जाता है लेकिन उस चेतना की राजनीतिक आभिव्यक्ति चुनाववादी राजनीति में कहीं नहीं दिखती। इसीलिये गढवा, पलामू और लातेहार जहां माओवादियों की मजबूत उपस्थिति है वहां नीलाम्बर-पीताम्बर की आदमकद मूर्तियां चारों तरफ दिख जाती हैं जिस पर माल्यापर्ण का एक भी मौका अफसरशाह और राजनेता नहीं चूकते। लेकिन यदि कोई सत्ताविरोधी लेखक नीलाम्बर-पीताम्बर की राजनीतिक जीवनी लिखने की हिमाकत करता है तो उस के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया जाता है।

दरअसल, यदि एक वाक्य में कहा जाए तो आज झारखण्डी आदिवासी समाज अपने इतिहास और उसके बोध से उत्पन्न हुए मूल्यों की रक्षा की लडाई लड रहा है। जिसके केंद्र में उनका जल-जंगल- जमीन है। मसलन, आज वहां सबसे बडा सवाल तो 1908 में बने सीएनटी ऐक्ट की रक्षा का है। जिसे अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लम्बे संघर्ष के बाद उन्होंने प्राप्त किया था। जिसके तहत आदिवासियों की जमीन केवल आदिवासी ही खरीद सकते हैं और वह भी इस शर्त के साथ कि खरीदार भी उसी थाना क्षेत्र का निवासी हो। लेकिन आज विकास के नाम पर काॅर्पोरेट परस्त सरकार और विपक्षी राजनीतिक दल एक आम सहमति से इस कानून में संशोधन पर उतारू हैं। जबकि उच्च न्यायालय तक ने पिछले दिनों इस कानून का सख्ती से पालन करने का आदेश दिया है। ऐसी स्थिति में जब अदालत के निर्देशों तक को काॅर्पोरेट हित में धता बताया जा रहा हो, यदि बिरसा मुंडा और तिलका मांझी के विद्रोहगाथा को गाने-गुनगुनाने
वाला आदिवासी समाज अपने इतिहास की तरफ मुडता है तो इसे राष्ट्द्रोह कहेंगे या अपने संवैधानिक आदर्शों से भटक गए राष्ट् को फिर से पटरी पर लाने के ऐतिहासिक जिम्मेदारी का निर्वहन?

दरअसल, अपने प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए चल रहे आदिवासी संघर्षों जिसमें एक वैकल्पिक विकास के माॅडल समेत अस्पष्ट ही सही एक समतामूलक राष्ट् का खाका भी है,( सरकार के पास तो अब यह कहने के लिये भी नहीं है) जिसे अब शासकवर्ग माओवाद के नाम से प्रचारित करना रणनीतिक तौर पर अपने पक्ष में समझता है, को उसके ऐतिहासिक और नीतिगत संदर्भों से काट कर सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या के बतौर प्रचारित करने का टे्ड भी प्राकृतिक संसाधनों की कॉर्पोरेट लूट के साथ ही शुरू हुआ है। जिसका मुख्य एजेण्डा यदि लातेहार के जंगलों में मिले एक 20 वर्षीय माओवादी कमांडर के शब्दों में कहें तो 'माओवाद तो बहाना है-जल, जंगल, जमीन निशाना है'। क्या आज कोई भी मानसिक रूप से स्वस्थ और जागरूक व्यक्ति माओवादी तौर-तरीकों से असहमति रखते हुये भी, इस नारे की हकीकत से इंकार कर सकता है? क्या वास्तव में सरकारे माओवाद के बहाने से जल जंगल हथियाकर कारपोरेट घरानों को देने की कोशिश में नहीं हैं? क्या दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों को सबसे ज्यादा घरेलू नौकर और वैश्याएं देने वाले इस प्रदेश में देशी-विदेशी कम्पनियों से प्राकृतिक संसाधनों को हस्तांतरित करने के 104 करारनामों के साथ ही 70 हजार सीआरपीएफ के जवानों की तैनाती और देश की जनभावनाओं की अभिव्यक्ति के सबसे बडे लोकतांत्रिक मंच पर पहुंचने के लिये अप्रवासी भारतीयों और प्रदेश से बाहर के धन्नासेठों के लिये चारागाह बन चुके झारखण्ड की हकीकत को यह नारा बयां नहीं करता?

(माओवाद प्रभावित झारखण्ड के गढवा, पलामू और लातेहार से लौटकर)

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