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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, August 13, 2012

राम पुनियानी साम्प्रदायिक हिंसा के लिए शासकीय तंत्र की जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए

साम्प्रदायिक हिंसा के लिए शासकीय तंत्र की जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए

साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक कानून

 

राम पुनियानी

 

असम में हाल में हुई हिंसा ने हमारे देश को जकड़ चुके साम्प्रदायिक दंगे के भयावह रोग की ओर पुनः ध्यान आकर्षित किया है। हाल में उत्तरप्रदेश (बरेली, प्रतापगढ़, कोसीकलां), व राजस्थान (गोपालगढ़) से भी साम्प्रदायिक हिंसा की खबरें आईं हैं। अधिकांश मामलों में सरकार, पुलिस और स्थानीय प्रशासन द्वारा समय पर समुचित व प्रभावी कार्यवाही न करने के कारण हिंसा भड़कती है। साम्प्रदायिक हिंसा के लिए सरकारी तंत्र को जिम्मेदार ठहराने की परंपरा हमारे देश में नहीं है व इस कारण सरकारी अधिकारी या तो हिंसा के प्रति अपनी आंख मूंद लेते हैं या फिर उसे प्रोत्साहित करते हैं। नतीजतन, मासूमों की जानें जाती हैं और दोषियों का कुछ नहीं बिगड़ता।

साम्प्रदायिक हिंसा के पीछे कई स्तरों पर काम करने वाले अलग-अलग कारक होते हैं। परंतु इसकी जड़ में होता है "दूसरे" के प्रति दुर्भाव, जिसे अनवरत प्रचार द्वारा सामूहिक सामाजिक सोच का हिस्सा बना दिया जाता है। अल्पसंख्यक वर्ग इस तरह के दुष्प्रचार का सबसे बड़ा शिकार बनता है। अल्पसंख्यकों के बारे में तरह-तरह की गलत धारणाएं फैलाईं जाती हैं। ये लोग पाकिस्तान के प्रति वफादार हैं, गोमांस खाते हैं, घुसपैठिए हैं, दबाव व लोभ-लालच से धर्म परिवर्तन करवाते हैं आदि इनमें से कुछ प्रचलित मान्यताएं हैं। ये सभी मान्यताएं या तो सफेद झूठ या अर्धसत्य पर आधारित हैं परंतु बार-बार दुहराये जाने से लोग इन्हें सच मानने लगे हैं। अपने संकीर्ण लक्ष्य को पाने के लिए जनमानस को प्रभावित करने के तरीके की चर्चा करते हुए नियोम चोमोस्की लिखते हैं कि किस प्रकार अमरीका ने अन्य देशों पर हमला करने के लिए अपने देश की जनता की "सहमति का उत्पादन" किया। अमरीकी सरकार यह काम मीडिया के जरिए करती है। भारत में साम्प्रदायिक ताकतें, इसके लिए मुंहजुबानी प्रचार की तकनीक का इस्तेमाल करती हैं। इनके अलावा, मीडिया और स्कूली पाठ्यपुस्तकों का भी उपयोग अल्पसंख्यकों के बारे में पूर्वाग्रह फैलाने के लिए किया जाता है। अल्पसंख्यकों के संबंध में नकारात्मक धारणाओं के जड़ पकड़ लेने के बाद उन्हें घृणा में परिवर्तित होने में देर नहीं लगती। इस घृणा को हिंसा की आग में बदलने के लिए कोई छोटी-सी चिंगारी भी काफी होती है। यह चिंगारी कोई छोटी-मोटी सड़क दुर्घटना से लेकर राजनैतिक शक्तियों द्वारा अपनी जमीन मजबूत करने के लिए किया जाने वाला साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तक कुछ भी हो  सकता है।

इस प्रकार, भारत में साम्प्रदायिक दंगें एक जटिल प्रक्रिया का नतीजा हैं। उसके मूल में है "दूसरे" के प्रति घृणा का भाव। साम्प्रदायिक ताकतें इस घृणा को हिंसा में बदल देती हैं। राज्यतंत्र या तो मुंह फेर लेता है या अप्रत्यक्ष रूप से दंगाईयों की मदद करता है। हिंसा का दौर समाप्त होने के बाद, राज्यतंत्र पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए कोई प्रयास नहीं करता। इससे अल्पसंख्यक अपने-अपने मोहल्लों में सिमटने लगते हैं और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण में वृद्धि होती है। विभिन्न समुदायों के बीच मेलजोल और संवाद कम होता जाता है और अल्पसंख्यकों के बारे में दुष्प्रचार करना और आसान हो जाता है। दंगों की जांच करने वाले अनेक आयोगों ने इस घटनाक्रम की पुष्टि की है।

इसी परिपेक्ष्य में सन् 2004 में सत्ता में आने के बाद, यूपीए सरकार ने साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक कानून बनाने का वायदा किया था। इस कानून का उद्देश्य था दंगों के लिए जिम्मेदार विभिन्न शक्तियों और कारकों को नियंत्रित करना। इनमें शामिल हैं साम्प्रदायिक संगठन, राजनैतिक नेतृत्व और राज्यतंत्र। इस कानून के जरिए दंगा फैलाने वाले व्यक्तियों को सजा दिलवाना व पीड़ित समूहों को-चाहे वे किसी भी धर्म के हों-न्याय मिले व उनका उचित पुनर्वास हो, यह सुनिश्चित करना था। नया कानून बनाने के पीछे एक मंशा यह भी थी कि पीड़ितों के पुनर्वास का कार्य राज्य अपने कर्तव्य के रूप में करे न कि दया या सहानुभूति के कारण।

यूपीए-1 ने इस कानून का मसौदा तैयार किया। परंतु यह मसौदा ऐसा था जिससे रोग का इलाज होना तो दूर, रोग की गंभीरता बढ़ने का अंदेशा था। इस मसौदे को सभी संबंधितों द्वारा सिरे से खारिज कर दिए जाने से उन वर्गों के हौसले और बढ़े जो साम्प्रदायिक हिंसा से लाभान्वित होते हैं। उन्होंने और खुलकर अपना कुत्सित खेल खेलना शुरू कर दिया। यूपीए द्वारा इस मसौदे पर सामाजिक संगठनों के साथ दो वृहद विमर्ष आयोजित किए गए और दोनों में यह आम राय बनी कि एक नया मसौदा तैयार किया जाना  चाहिए।

यूपीए-2 सरकार ने बिल का नया मसौदा तैयार करने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) को दे दी। एनएसी द्वारा इस काम के लिए गठित समूह ने साम्प्रदायिक सौहार्द और हिंसा पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए काम कर रहे संगठनों के अलावा दंगा पीड़ितों के विभिन्न समूहों से भी विचार-विमर्श किया। तत्पश्चात
"प्रिवेंशन ऑफ कम्यूनल एण्ड टारगेटिड वायलेंस (एक्सिस टू जस्टिस एण्ड रेपेरेशंस) बिल 2011" का मसौदा तैयार किया गया। शुरूआत में एनएसी समूह ने यह सिफारिश की थी कि साम्प्रदायिक हिंसा से ग्रस्त क्षेत्र को अशांत क्षेत्र घोषित किया जाए परंतु बाद में व्यापक आलोचना के कारण इस सिफारिश को वापिस ले लिया गया।

मसौदे में "लक्षित समूहों" को अल्पसंख्यकों के रूप में परिभाषित किया गया और बिल के प्रावधानों को समुचित ढंग से लागू करने और हिंसा पर त्वरित नियंत्रण पाने के लिए एक राष्ट्रीय अधिकरण की स्थापना का प्रस्ताव किया गया। हिंसा पीड़ितों को न्याय दिलाने व उनका पुनर्वास सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी भी राष्ट्रीय अधिकरण को सौंपी गई।

एनएसी द्वारा प्रस्तुत इस मसौदे की भाजपा ने कटु निंदा की। यह वही पार्टी है जिसके अनेक नेताओं के हाथ निर्दोषों के खून से रंगे हुए हैं। कुछ अन्य पार्टियों ने भी मसौदे को एकपक्षीय और अल्पसंख्यकों के प्रति अत्यंत झुका हुआ बताया। यह भी कहा गया कि राष्ट्रीय अधिकरण बनाए जाने से देश की संघीय शासन व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। पीड़ितों को मुआवजा देने के प्रावधान की भी निंदा की गई और यह कहा गया कि इससे प्रभावितों के अधिकारों में कटौती होगी।

इसके बाद यूपीए-2 सरकार ने मसौदे पर विभिन्न वर्गों की प्रतिक्रिया जानने के लिए इसे राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में रखा। वहां भी लगभग सभी राजनैतिक दलों ने मसौदे की निंदा की और केवल उन कुछ सदस्यों ने इसका समर्थन किया जो साम्प्रदायिक सद्भाव के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। कुल मिलाकर, सरकार के हाथ-पैर फूल गए और उसने इस मसौदे को ठंडे बस्ते में डाल दिया।

अंततः इस मसौदे का क्या हश्र होगा, यह कहना मुश्किल है। असम, उत्तरप्रदेश व राजस्थान की हालिया साम्प्रदायिक हिंसा के बाद, कई प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ताओं ने शीर्ष शासकीय पदों पर बैठे व्यक्तियों से मुलाकात कर यह अनुरोध किया कि एक नया मसौदा तैयार कर ऐसा कानून बनाया जाए जिससे लगातार हो रही हिंसा की जड़ों पर प्रहार किया जा सके। सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि हिंसा के लिए शासकीय तंत्र की जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए और इस मुद्दे पर कोई समझौता नहीं हो सकता। साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण कायम करने के लिए किसको क्या करना होगा यह पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए ताकि राजनैतिक नेतृत्व और अधिकारियों का एक-दूसरे को दोषी ठहराने का सिलसिला बंद हो सके। दंगा पीड़ित महिलाओं और बच्चों के संबंध में विशेष प्रावधान किए जाने चाहिए। पीड़ितों और गवाहों की सुरक्षा के इंतजामात होने चाहिए और हिंसा के शिकार व्यक्तियों के मुआवजे और पुनर्वसन की व्यवस्था होनी चाहिए। अधिकांश मौकों पर हिंसा की शुरुआत, नफरत फैलाने वाले भाषणों से होती है। इस तरह की सार्वजनिक बयानबाजी व भाषणबाजी करने वालों को सजा दिलवाए जाने की व्यवस्था भी की जानी चाहिए।

अब समय आ गया है कि यूपीए-2 सरकार साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए समुचित उपाय करने के अपने वायदे को निभाए। तय प्रक्रिया को अपनाते हुए साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक कानून को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। मसौदे को संसदीय समिति को सौंपा जाना चाहिए ताकि वह उसका अध्ययन कर उसमें आवश्यक संशोधन प्रस्तावित कर सके। इसके बाद, विधेयक को संसद में प्रस्तुत कर पारित करवाया जाना चाहिए। यह निःसंदेह एक दुष्कर कार्य है परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि साम्प्रदायिक हिंसा, मानवता पर कलंक है और इसे रोकने के लिए कानूनी तंत्र विकसित किए जाने की महती आवश्यकता है। हमारा देश पिछले पचास सालों से भी अधिक समय से साम्प्रदायिक हिंसा से जूझ रहा है। अगर हम अब भी नहीं चेते तो शायद बहुत देर हो जाएगी।

(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण: अमरीश हरदेनिया) 

(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

राम पुनियानी

राम पुनियानी(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

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