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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, October 10, 2012

Fwd: [New post] पत्रकारिता का नीतिशास्त्र



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From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/10/10
Subject: [New post] पत्रकारिता का नीतिशास्त्र
To: palashbiswaskl@gmail.com


भूपेन सिंह posted: "गुवाहाटी में एक लड़की को सरेआम अपमानित किया जाता है। उसके कपड़े फाड़े जाते हैं और उस पर अश्लील टि�¤"

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पत्रकारिता का नीतिशास्त्र

by भूपेन सिंह

MediaEthicsगुवाहाटी में एक लड़की को सरेआम अपमानित किया जाता है। उसके कपड़े फाड़े जाते हैं और उस पर अश्लील टिप्पणियां की जाती हैं। पास खड़ी भीड़ तमाशा देखती रहती है। मीडिया में कवरेज मिलने के बाद यह घटना राष्ट्रीय चर्चा का विषय बनती है। लड़की को अपमानित करने वाले हैवानों की आलोचना होने लगी। टीवी चैनलों में लड़कियों की सामाजिक स्थिति और उनके साथ होने वाले भेदभाव का विश्लेषण भी शुरू हुआ। असम जैसे अपेक्षाकृत खुले समाज में इस तरह की घटनाओं के सामने आने की वजह तलाशने की कोशिश की गई। लेकिन इस घटना के पीछे की असली वजह को सामने लाने पर मुख्यधारा के मीडिया में चुप्पी छाई रही। जो तथ्य सामने आते हैं उससे पता चलता है कि लड़की को अपमानित करने की घटना के पीछे सबसे ज्यादा जिम्मेदार कॉरपोरेट मीडिया ही है। ऐसी हालत में असली वजह पर चर्चा करवाना मुनाफे पर टिके मीडिया के लिए संभव नहीं था।

पीडि़त लड़की उस रात अपनी दोस्त के जन्म दिन समारोह में शामिल होने गुवाहटी-शिलांग रोड के एक पब में गई थी। वो अपनी दोस्त के साथ जैसे ही वहां से बाहर निकली कुछ सड़कछाप मजनुओं ने उन पर फब्तियां कसनी शुरू कर दीं। लड़की ने ऐसे ही एक बदमाश के मुंह में चांटा रसीद कर दिया। वह किसी तरह बदमाशों से ख़ुद को बचाने में कामयाब हो गई लेकिन दूसरी लड़की उनके चंगुल में फंस गई। असम में चलने वाले टीवी चैनल न्यूज लाइव का रिपोर्टर गौरव ज्योति नियोग भी उन्ही गुंडों के आसपास कहीं था। छानबीन के बाद इस बात से पर्दा हट चुका है कि गौरव ज्यादातर बदमाशों को अच्छी तरह जानता था और उनके आपसी संबंध भी थे। गौरव ने इस घटना को रोकने के बजाय इसे भड़काने का ही काम किया। पहले वह अपने मोबाइल कैमरा से घटना को शूट करता रहा। बाद में उसने पास में ही स्थित अपने ऑफिस में फोन कर वीडियो कैमरा मंगा लिया। रिकॉर्ड की गई वीडियो फूटेज की जांच करने से पता चलता है कि बदमाश कैमरे की तरफ मुंह कर मजा लेते हुए लड़की के कपड़े फाड़ रहे थे। इस बीच दृश्यों के बीच लगातार एक आवाज गूंजती रहती है-लड़की का चेहरा दिखाओ। उसे वेश्या कहने की आवाज भी सुनाई देती है। भीड़ को भड़काने वाली कई आवाजें उन दृश्यों में हैं। मोबाइल फोन और वीडियो कैमरा से रिकॉर्ड दृश्यों से पता चलता है वो आवाज न्यूज लाइव के रिपोर्टर गौरव की है। तथ्य यह भी है कि कैमरे के सबसे पास खड़े इंसान की आवाज ही सबसे ज्यादा स्पष्ट सुनाई देती है और गौरव ही पहले मोबाइल से शूट कर रहा था और बाद में कैमरापर्सन को निर्देश दे रहा था।

असम के आरटीआइ कार्यकर्ता अखिल गोगोई ने सबूत इकट्ठा कर आरोप लगाया है कि गौरव सनसनीखेज ख़बर बनाने के लिए लगातार भीड़ को भड़का रहा था। पुलिस ने भी अपनी प्रारंभिक जांच के बाद उस पर भारतीय दंड संहिता की 294, 509 और 34 जैसी धाराएं लगाई हैं। इन धाराओं को महिलाओं के साथ अश्लील हरकत करने और उनके सम्मान को ठेस पहंचाने के खिलाफ लगाया जाता है। पुलिस ने अंतत: न्यूज लाइव के रिपोर्टर गौरव नियोग को गिरफ्तार किया और चैनल के मुख्य संपादक अतनु भुईयां को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन अखिल गोगोई का कहना है कि सिर्फ पत्रकार ही नहीं पूरा न्यूज लाइव चैनल इस तरह की सनसनीखेज़ खबरों को गढऩे के लिए जिम्मेदार है इसलिए उस पर भी कार्रवाई होनी चाहिए।

राज्य की कांग्रेस सरकार इस घटना पर लगातार लीपापोती करती रही है। मुख्यमंत्री तरुण गोगोई बयान देते रहे कि किसी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा लेकिन इस घटना के लिए उकसाने और उसके प्रसारण के लिए जिम्मेदार समाचार चैनल पर कार्रवाई की कोई कोशिश नही की गई। वजह साफ़ है, न्यूज लाइव चैनल को राज्य के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री हिमंता विस्वास शर्मा की पत्नी रिंकी भुइयां शर्मा चलाती हैं। हिमंता पर आरोप लगता रहा है कि वे राज्य के भ्रष्टतम मंत्रियों में से एक हैं। आरटीआइ कार्यकर्ता अखिल गोगोई पहले भी उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के कई आरोप लगा चुके हैं। हिमंता ने अपनी साफ-सुथरी छवि बनाने और राजनीतिक प्रचार पाने के लिए 2008 में न्यूज लाइव चैनल की शुरुआत की थी। यह बात और है कि चैनल उनकी पत्नी के नाम पर चलता है। तब से लगातार इस चैनल में कांग्रेस और हिमंता के पक्ष में प्रचार चलता रहा। कांग्रेस सरकार अपने इस मंत्री को लगातार बचाती रही। जब अखिल गोगोई लगातार भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाते रहे तो 2010 में उन्हें माओवादी करार देकर उत्पीडि़त करने की कोशिश भी की गई। तब देशभर के कई आंदोलनकारियों और बुद्धिजीवियों ने असम सरकार की इस हरकत की आलोचना की थी।

न्यूज लाइव चैनल राज्य में सनसनीखेज पत्रकारिता का जीता—जागता नमूना बन चुका है। इससे पहले भी चैनल लगातार महिलाओं की नैतिकता का ठेका लेकर (मॉरल पुलिसिंग करते हुए) उनके खिलाफ तरह-तरह की खबरें प्रसारित कर रहा था। चैनल ने इस तरह का माहौल बना के रखा था कि जैसे, रात में लड़कियों का घर से बाहर निकलना, क्लब या पब में जाना या सिगरेट-शराब पीना अक्षम्य अपराध है और सिर्फ पुरुषों को ही इन बातों की इजाजत है। चैनल कई बार पब और क्लबों में चलने वाली पार्टियों को दिखाकर वहां महिलाओं की उपस्थिति की आलोचना करता रहा है। इस चैनल के संपादक अतनु भुईयां ने कुछ समय पहले अहोम जनजाति की महिलाओं पर अपमानजनक टिप्पणी की थी। जिसके बाद काफ़ी हंगामा मचा था। इससे पहले भी यह शख्स पत्रकारिता की आड़ में तमाम गैरकानूनी काम करता रहा है। 1998 में एक अखबार में झूठी खबर छापने की वजह से जेल की हवा भी खा चुका है। इस तरह देखा जाय तो राज्य की कांग्रेस सरकार के मंत्री को अपने चैनल के संचालन के लिए इस तरह के भ्रष्ट पत्रकार से बेहतर और कोई नहीं मिला। फिलहाल, अतनु भुइयां को चैनल से बाहर रखना राज्य के कांग्रेसी मंत्री की मजबूरी बन गया है। यह मामला कुछ ऐसा ही है जैसे सहारा के मुखिया सुब्रतो राय ने राडिया टेप केस में फंसे होने पर अपने संपादक उपेंद्र राय को विदेश भेज दिया था और जैसे ही मामला शांत पड़ा उसे फिर से संपादक बना दिया। हो सकता है कि आने वाले दिनों में अतनु भुइयां फिर संपादक की कुर्सी पर नजर आए।

असम की इस घटना से पता चलता है कि कॉरपोरेट मीडिया, खास तौर पर टीवी चैनल अपनी रेटिंग बढ़ाने के लिए किस हद तक जा सकते हैं। ऐसा नहीं कि इस तरह की घटना पहली बार सामने आ रही हो इससे पहले भी 2007 में दिल्ली की एक स्कूल शिक्षिका उमा खुराना को छात्राओं को वेश्यावृत्ति के लिए उकसाने वाली दलाल बताकर प्रकाश सिंह नाम के रिपोर्टर ने 'लाइव इंडिया' चैनल में एक फर्जी खबर चलाई थी। जिसके बाद शिक्षिका का जीना मुश्किल हो गया। नौकरी चली गई और वे सलाखों के पीछे पहुंच गई, उत्तेजित भीड़ ने उन्हें सरेआम अपमानित किया। बाद में पता चला कि शिक्षिका पूरी तरह निर्दोष थीं और उनके खिलाफ रिपोर्टर ने फर्जी खबर प्लांट की थी। तब चैनल का संपादक वही सुधीर चौधरी हुआ करता था जो आजकल जी न्यूज का संपादक है। तब, हो-हल्ला मचने के बाद कुछ दिनों के लिए सरकार ने चैनल का प्रसारण भी रोक दिया था। लेकिन हैरत की बात यह है कि इस अपराध को अंजाम देने वाला प्रकाश सिंह आजकल एक कांग्रेसी नेता के जन संपर्क का काम संभालता है और सुधीर चौधरी फिर से संघी और कॉरपोरेट चैनल के संपादक की कुर्सी पर विराजमान है।

इसी तरह पटियाला में रेहड़ी लगाने वाले गोपाल कृष्ण कश्यप को पत्रकारों ने इतना भड़काया कि उसने अपनी मांगों को लेकर बस स्टेंड के सामने खुलेआम आत्मदाह कर दिया। करीब बीस टीवी चैनलों के पत्रकार उसकी रिकॉर्डिंग कर रहे थे लेकिन किसी ने भी उसे बचाने की कोशिश नहीं की। और भी कई घटनाएं है जिनसे पता चलता है कि पत्रकार और मीडिया घराने मिलकर किस तरह फर्जी खबरों को पैदा करते हैं। हाल ही में कर्नाटक के मैंगलोर में चल रही एक बर्थडे पार्टी में पहुंचकर हिंदू जागरण वेदिके के गुंडों ने जिस तरह लड़के-लड़कियों के साथ बदतमीजी की, उसके पीछे भी स्थानीय चैनल के पत्रकार नवीन सूरिंजे के हाथ होने के आरोप लग रहे हैं। पुलिस ने उसके खिलाफ भी मुकदमा दर्ज कर दिया है। उस पार्टी में वेदिके के गुंडे बड़ी संख्या में शराब पीकर आए थे और उन्होंने लड़कियों के कपड़े फाड़ डाले और लड़कों की पिटाई की। पुलिस का आरोप है कि नवीन ने अपने चैनल की रेटिंग बढ़ाने के लिए इस हमले को प्रायोजित करवाया था। रेटिंग बढ़ाकर मुनाफा कमाने वाली ऐसी सनसनीखेज पत्रकारिता यह नहीं सोचती कि असम की पीडि़त लड़की, उमा खुराना, गोपाल कृष्ण कश्यप और मैंगलोर हादसे के शिकार हुए लड़के-लड़कियों पर उनकी करतूत का क्या असर पड़ता है।

इन घटनाओं के लिए सिर्फ कॉरपोरेट मीडिया के किरदारों को जिम्मेदार ठहराकर पल्ला झाड़ लेना ही काफ़ी नहीं। ऐसा क्यों है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर धंधेबाज मीडिया को इस तरह के अपराध करने की खुली छूट मिली हुई है? नव उदारवादी आर्थिक नीतियां लागू कर सामाजिक सरोकारों को बाजार के हवाले करने वाली सरकारें भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं, जो जानबूझकर ऐसी घटनाओं से आंखें मूंदे रहना चाहती हैं। नहीं तो मुनाफाखोर निजी मीडिया की अराजकता पर लगाम लगाने का कोई न कोई उपाय अब तक तलाश लिया गया होता। बहुत हो-हल्ला मचा तो हमारी सरकार दो-चार वादे करने के अलावा और कोई कदम नहीं उठाती है। असम की घटना रेटिंग बढ़ाने के लिए सनसनीखेज खबरों को पैदा करने के लिए तो जानी ही जाएगी, इससे यह बात भी सामने आती है कि अब मीडिया को चलाने वाले कोरे धंधेबाज नहीं हैं बल्कि वे सत्ता में रहने वाले नेता भी हैं। देश के कई हिस्सों में समाचार मीडिया की ताकत को पहचानकर कई नेताओं और पार्टियों ने प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर अपने अखबार और टीवी चैनल शुरू कर दिए हैं। चिंता में डालने वाली बात यह है कि नेताओं या पार्टियों की तरफ से चलाया जा रहा मीडिया सिर्फ मुनाफा कमाने की इच्छा से निकल रहे मीडिया से ज़्यादा ख़तरनाक है। ऐसा मीडिया मुनाफा कमाने के साथ राजनीतिक जोड़-तोड़ भी ज्यादा बेहूदा तरीके से कर रहे हैं। मीडिया का इस्तेमाल राजनीति चमकाने के लिए करने वाले नेताओं में आंध्रप्रदेश के जगनमोहन रेड्डी (साक्षी टीवी), पंजाब के सुखवीर सिंह बादल (पीटीसी न्यूज़), महाराष्ट्र के विजय दर्डा (आइबीएन-लोकमत, लोकमत समाचार), हरियाणा के विनोद शर्मा (इंडिया न्यूज़, आज समाज), दिल्ली से राजीव शुक्ला (न्यूज़ 24), चंदन मित्रा (पायनियर) तमिलनाडु से एस रामदौस (मक्काल टीवी), कलानिधि मारन (सन टीवी), जयललिता (जया टीवी) के नाम प्रमुख हैं। भारत सरकार के पास इस तरह की अराजक स्थिति से निपटने की न तो कोई इच्छा है और न ही कोई योजना। इस सरकारी उदासीनता का सबसे बड़ा खामियाजा सिर्फ पत्रकारिता की नैतिकता को ही भुगतना पड़ेगा।

उपरोक्त घटनाओं का विश्लेषण करते हुए इस बात को ध्यान रखना जरूरी है कि एक पेशे के तौर पर पत्रकारिता का उदय आधुनिक युग की देन है। वक्त के साथ ही इसने अपने लिए एक नीतिशास्त्र विकसित किया है, जिनका पालन करने के लिए कुछ कानूनी बाध्यताओं का होना भी जरूरी है। लेकिन हमारे यहां मीडिया के नियमन की बात को गलत ठहराने के लिए कॉरपोरेट मीडिया घराने अपना पूरा ज़ोर लगा देते हैं।

इतिहास में भी पत्रकारीय नैतिकता के उल्लंघन के कई उदारहण मिलते हैं। 1973 में आनंदमार्गियों के आंदोलन के दौरान बाबा दिनेशानंद ने दिल्ली के पुराना किला में आत्मदाह कर लिया था। उसने पहले ही इसकी सूचना बीबीसी संवाददाता को दी थी। लेकिन उस संवाददाता ने आत्मदाह को रोकने की कोई कोशिश नहीं की। तब भी यह घटना पत्रकारिता में नैतिकता के लिहाज से काफी चर्चाओं में रही। इस घटना के पीछे बीबीसी संवाददाता के नाम कमाने की लालसा को देखा जा सकता है। इस भूमिका को सही ठहराने वाला पेशेवर पत्रकारिता का तर्क पूंजीवादी विचार प्रणाली से निकलकर बाहर आया है। जहां पेशेवर होने के नाम पर इंसानी सरोकारों को भुला दिया जाता है।

kevin-carter-photoपत्रकारिता की दुनिया में पेशे और नैतिकता का सबसे बड़ा द्वंद्व दक्षिण अफ्रीकी फोटो पत्रकार केविन कार्टर का है। कार्टर 1993 में कवरेज के लिए भुखमरी से जूझ रहे सूडान गए थे। वहां उन्होंने एक बच्ची के ऊपर चील के झपटने की फोटो को कैमरे में कैद कर लिया। जिसे अकाल की भयावहता को दुनिया के सामने लाने के लिए याद किया जाता है। उन्हें इस फोटो के लिए पुलित्जर पुरस्कार भी मिला। लेकिन उनकी आलोचना भी कम नहीं हुई। लोगों ने कहा कि अगर वह चाहते तो फोटो खींचने के बजाय चील से बच्ची को बचा सकते थे। इस अपराधबोध ने उन्हें जीने नहीं दिया। वह इतने परेशान हुए कि एक साल बाद 1994 में उन्होंने आत्महत्या कर ली। यह बात सही है कि हर कोई कार्टर जैसा संवेदनशील नहीं हो सकता। हमारे धंधेबाज और बेशर्म पत्रकारों से इस तरह की आत्मस्वीकृति की अपेक्षा करना बेकार है। सिर्फ बड़ा सामाजिक दबाव और ठोस कानून ही उन्हें सही रास्ते पर आने को मजबूर कर सकता है।

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