| Thursday, 14 March 2013 10:58 |
रुचिरा गुप्ता पूरी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए हमें घर पर, सड़कों पर, कार्यस्थल पर सुरक्षा की आवश्यकता है- परिवार के सदस्यों और वर्दी वाले लोगों से भी। हम पुरुषों की हिंसा के सभी रूपों के लिए जिम्मेदारी तय करने की मांग कर रहे हैं ताकि महिलाएं और लड़कियां हर तरह के डर से मुक्त होकर जी सकें। और अगर हमारा आंदोलन सफल रहता है तो कानूनी, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन पुरुषों को भी आजाद कर देगा। सुरक्षित और समान कार्य का मतलब यह भी होगा कि अब सिर्फ पुरुष परिवार का खर्च नहीं उठाएंगे, न इस काम में लगा दिए जाएंगे और न सत्ता और जिम्मेदारी का तनाव झेलेंगे। महिलाएं जब आधा आर्थिक बोझ उठाएंगी और 'पुरुषों वाले काम' उन्हें भी मिल जाएंगे तो मुमकिन है पुरुष ज्यादा आजाद महसूस करें और लंबे समय तक जीएं। हम जो दुनिया बनाएंगे उसमें स्त्रियों और पुरुषों, दोनों के लिए अच्छे काम आसानी से हासिल करना संभव होगा। और ये महिलाएं जो दूभर काम, जैसे घर के काम, करती रही हैं, उनके लिए अच्छी तनख्वाह की व्यवस्था हो सकेगी। आसान पहुंच से कुशल मजदूरी बढ़ेगी और इस तरह मजदूरों की कमी का डर खत्म होगा और अच्छी मजदूरी के कारण कोई मजबूर लोगों को ऐसे काम में नहीं लगाएगा। ज्यादा वेतन से ऐसे कामों के मशीनीकरण को प्रोत्साहन मिलेगा, जबकि ये काम अभी सस्ते मजदूरों के कारण चल रहे हैं। सत्ता की साझेदारी और राजनीति में स्त्रियों का प्रतिनिधित्व बहुत मूल्यवान होगा। उदाहरण के लिए, उपभोक्ता संरक्षण और बाल अधिकार पर ज्यादा विधायी ध्यान दिया जा सकता है। महिलाएं और लड़कियां जिन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थितियों में रहती हैं उन्हें विकास के उपायों, मसलन महिलाओं के बीच गरीबी कम करने पर खासतौर से केंद्रित योजनाओं, टिकाऊ विकास और सामाजिक कार्यक्रमों के लिए बजट के बढ़े हुए आबंटन से सुधारा जा सकता है। यौन हिंसा के आदी पुरुषों के पुनर्वास के लिए भी योजनाएं शुरू की जा सकती हैं। वैसे भी बलात्कार सेक्स नहीं है। यह प्रभुत्व या प्रभावी होने का मामला ज्यादा है। और अक्सर इसे लोग घरों में ही सीखते हैं। लड़के जब अपनी मां को घरेलू हिंसा के दौरान पीड़ित होते देखते हैं। मेरे खयाल से इस घरेलू हिंसा का नया नाम मूल हिंसा रखा जाना चाहिए। क्योंकि यह लड़कों को हर तरह की हिंसा करने और उसे स्वीकार करने के लिए तैयार करती है। आखिरकार कई बार लड़के घर में होने वाली संगठित हिंसा में भाग भी लेते हैं। अगर हमारे सांसद इस अंतर-संबंध को समझ पाते तो शायद वैवाहिक बलात्कार को एक नई रोशनी में देखते। और सेक्स और बराबरी पर हमारे बयान चांद से आने वाले बुलेटिन जैसे नहीं लगते। सच तो यह है कि हमारा आंदोलन भारतीय विवाह संस्था को नष्ट करने का प्रयास नहीं है। अगर बुरी तरह यौन झुकाव रखने वाले कानून नष्ट कर दिए जाएं या संशोधित कर दिए जाएं, रोजगार में भेदभाव प्रतिबंधित हो, अभिभावक एक-दूसरे की और बच्चों की वित्तीय जिम्मेदारी साझा करें और यौन संबंध बराबर के वयस्कों की सहभागिता हो जाए (कुछ काफी बड़ी मान्यताएं हैं) तो शायद विवाह ठीक से चलता रहेगा। वैसे भी, पुरुष और महिलाएं शारीरिक तौर पर एक दूसरे के पूरक हैं। समाज पुरुषों को शोषक बनने और महिलाओं को दूसरों पर आश्रित होने से रोक दे, तो मुमकिन है वे भावनाओं से भी एक दूसरे के ज्यादा पूरक हो जाएं। सच तो यह है कि परिवार के अंदर मौजूद गैर-बराबरी, हिंसा और दमन से ज्यादा तलाक हो रहे हैं। अभिभावकों को फंसाया जा रहा है और बच्चे और युवा घर से भाग रहे हैं। सोलह दिसंबर की घटना वाली बस पर जो अवयस्क अपराधी था वह यह सब झेल चुका है। स्त्रियां सिर्फ संकट की ओर इशारा करने की कोशिश कर रही हैं और चाहती हैं कि जहां कुछ नहीं है वहां व्यावहारिक विकल्प तैयार हों। दूसरे शब्दों में, इस आंदोलन का सबसे मूलभूत लक्ष्य समानतावाद है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/40760-2013-03-14-05-28-35 |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Thursday, March 14, 2013
समानता का सपना
समानता का सपना
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