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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Friday, March 8, 2013

इस व्यवस्था को टूटना ही है: अरुंधति राय




हमारे इस दौर में अरुंधति राय एक ऐसी विरल लेखिका हैं जो सरकारी दमन, अन्याय और कॉरपोरेट घरानों की लूट के खिलाफ पूरी निडरता और मुखरता के साथ लगातार अपनी कलम चलाती रहती हैं। वह समाज के सबसे वंचित, शोषित और हाशिए पर खड़े लोगों के साथ पूरे दमखम के साथ खड़ी रहती हैं। प्रस्तुत है पूंजीवाद, मार्क्सवाद, भारतीय वामपंथ, भारतीय राजनीति और समाज से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर उनसे  नरेन सिंह राव की बातचीत। समयांतर के फरवरी, 2013 के विशेषांक में प्रकाशित और इसके संपादक की अनुमति से हाशिया पर साभार.


आज के दौर में आप बराबरी पर आधारित समाज के विचार को कैसे देखती हैं?

मेरे ख्याल में बहुत कम लोग इसके बारे में सोचते हैं। 1968-69 में जब पहला नक्सलवादी आंदोलन शुरू हुआ था या बराबरी पर आधारित समाज के बारे में जो पूरी सोच थी, लोग कहते थे कि भूमि खेतिहर को मिलनी चाहिए यानी जिनके पास जमीन है उनसे छीनकर जिनके पास नहीं है उनको दे दो। वह पूरी सोच अब बंद हो गई है। अब केवल यह है कि जिसके पास थोड़ा बहुत बचा है उसे मत छीन लीजिए। इससे क्या हुआ है कि अल्ट्रा लेफ्ट, जिसे नक्सलवादी या माओवादी कहते हैं, वे भी इससे पीछे हट गए हैं। वे लोग उन लोगों के लिए लड़ रहे हैं जिनसे राज्य ने उनकी जमीन छीन ली है। दरअसल, ये वे लोग हैं जिनके पास जमीन है। लेकिन जिनके पास कुछ भी नहीं है, जो शहरी गरीब हैं तथा दलित हैं और जो पूरी तरह से हाशिए पर खड़े मजदूर हैं, उनके बीच में अभी कौन-सा राजनीतिक आंदोलन चल रहा है? कोई भी नहीं चल रहा। जो रेडिकल मूवमेंट हैं वो ये वाले हैं जो गांववाले बोलते हैं - हमारी जमीन मत लो। जिनके पास जमीन नहीं है, जो अस्थायी मजदूर हैं या जो शहरी गरीब हैं, वे राजनीतिक विमर्श से बिल्कुल बाहर हैं। बराबरी पर आधारित समाज के मामले में हम सत्तर के दशक से बहुत पीछे जा चुके हैं, आगे नहीं। नवउदारवाद की पूरी भाषा, जिसे ट्रिकल डाउन कहते हैं (जो कुछ बचा खुचा है वह उनको ले लेने दो), उसको (भाषा) ही देख लीजिए। बराबरी पर आधारित समाज के विचार की जो भाषा है वह मुक्कमल है। अगर आप कम्युनिस्ट नहीं हैं और पूंजीवादी हैं, तो अभी जो हो रहा है वह पूंजीवादी लोग भी नहीं करते हैं। जहां प्रतिस्पर्धा के लिए एक-सा मैदान होता है, वह है ही नहीं अब। जो धंधे वाले (व्यापारी) लोग हैं उनको कॉरपोरेट ने किनारे लगा दिया है। छोटे व्यापारियों को मॉल्स ने किनारे कर दिया है। यह पूंजीवाद नहीं है। यह पता नहीं क्या है? यह कुछ और ही चीज (ऑर्गनिज्म) है।

लेखिका और एक्टिविस्ट के बतौर आप मार्क्सवाद को किस तरह देखती हैं?

पहली बात यह कि मैं अपने आप को लेखिका ही समझती हूं, न कि एक्टिविस्ट। ऐसा इसलिए कि इन दोनों से खास तरह की सीमाएं निर्धारित होती हैं। एक वक्त था जब लेखक हर बात पर अपनी राय रखते थे और समझते थे कि यही उनका फर्ज है। आजकल लिटरेरी फेस्टिवल में जाना उनका 'फर्ज' बन गया है। एक्टिविस्टों को लेकर वे समझते हैं कि उनका काम कुछ हटकर है, जिसमें गहराई नहीं है। काम का ऐसा बंटवारा मुझे पसंद नहीं है।

मैं मार्क्सवाद को एक विचारधारा के रूप में देखती हूं। एक अद्भुत विचारधारा जिसके मूल में समानता निहित है, न सिर्फ सैद्धांतिक तौर पर बल्कि प्रशासकीय तौर पर भी। अगर भारतीय परिप्रेक्ष्य में जीवन की जटिलताओं को मार्क्सवाद के नजरिए से देखा जाए तो कई सारी समस्याएं देखने को मिलती हैं। लेकिन मार्क्सवादी नजरिए से जाति से नहीं निपटा गया है। आमतौर पर वे (कम्युनिस्ट) कहते हैं कि जाति ही वर्ग है, लेकिन वास्तव में जाति हमेशा वर्ग नहीं है।

जाति वर्ग हो सकती है, क्योंकि मेरी राय में कई सारे रेडिकल दलित बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवाद का आलोचनात्मक चिंतन प्रस्तुत किया है, जो आंबेडकर की डांगे के साथ बहस के समय से ही शुरू हो चुका था। लेकिन मेरी राय में आज भी रेडिकल लेफ्ट ने इस मुद्दे को सुलझाने का रास्ता नहीं खोजा है। क्यों ऐसा है कि रेडिकल लेफ्ट, माओवाद और पूरा का पूरा नक्सलवादी आंदोलन (जिसके लिए मेरे मन में बहुत इज्जत है), सिर्फ जंगलों और आदिवासी इलाकों में ही सबसे मजबूत है, जहां लोगों के पास जमीनें हैं? उनकी रणनीति और कल्पनाशीलता शहरों तक क्यों नहीं पहुंच पाई है? इन सीमाओं के कारण दलित एक बार फिर से कट गए हैं। जब मैं दलितों की बात कर रही हूं तो इसका यह मतलब नहीं है कि वहां सब कुछ साफ है। जो लोग अपने को दलित कह रहे हैं उनके अंदर भी बहुत भेदभाव है। तब इन मुद्दों से रू-ब-रू होने में, हमारी भाषा में- किस तरह का पैनापन होगा जिससे कि ये अस्मिताओं के संघर्ष में तब्दील होकर न रह जाए। हम कितने खुश थे जब वर्ल्ड सोशल फोरम में लाखों लोगों ने हिस्सा लिया था। लेकिन हकीकत यह भी है कि करोड़ों लोग कुंभ मेले में भी जाते हैं। अगर सिर्फ जन सैलाब को देखा जाए तो इस हिसाब से यह सबसे बड़ा आंदोलन है! या फिर बाबरी मस्जिद विध्वंस को भी सबसे बड़ा आंदोलन कहा जा सकता है! बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद आरएसएस, विहिप और शिवसेना जैसी दक्षिणपंथी ताकतों और आमजन के भीतर फासीवादी प्रवृत्ति पर हमने कभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया। ये सिर्फ सरकार, आरएसएस और बीजेपी की बात नहीं है। हर रोज, हर जगह, हर गली-नुक्कड़ में, मीडिया में यही विमर्श चल रहा है। ऐसा क्यों है कि धर्म, जाति और अस्मिता के सवाल पर लोगों की चेतना को द्रुत गति से लामबंद किया जा सकता है (ऐसा गुर्जर आंदोलन में हमने देखा), लेकिन मुंबई में रहने वाले शहरी गरीब कभी लामबंद नहीं होते। वहां सब कुछ या तो बिहारी बनाम मराठी होता है या फिर यूपी बनाम ठाकरे। भारत एक ऐसा समाज या राष्ट्र है जो लगातार कॉरपोरेट पूंजीवाद की ओर बढ़ रहा है, लेकिन प्रतिरोध के स्वर को धर्म, जाति, भाषा और अस्मिताओं के आधार पर आसानी से बांट दिया जा सकता है। जब तक हम साझा प्रतिरोध के विचार से रू-ब-रू नहीं होंगे, स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। मैं यह नहीं कह रही कि सब लोगों को हाथ पकड़े रहना होगा, क्योंकि ढेर सारे आंदोलन एक साथ नहीं आ सकते। लेकिन कुछ मुद्दों पर उनमें समानता होगी। भारत में जो सबसे एकजुट ताकत है, उसके बारे में मेरा मानना है कि वो उच्च हिंदू जाति का मध्यवर्ग है। ये लोग किसी भी वामपंथ या वामपंथी, (जिसकी विचारधारा ही एकता पर आधारित है) से कहीं ज्यादा एकजुट हैं।

जो लोग हाशिए पर हैं उनका राजनीति से लगातार मोहभंग होता जा रहा है। इसके मद्देनजर भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद के भविष्य को लेकर आपकी क्या राय है?

देखिए, मैं इतनी आसानी से नहीं मान सकती कि उन लोगों का मोहभंग हो गया है। हम चाहते हैं कि उनका मोहभंग हो जाए! लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। अभी भी वे बहुत बड़ी संख्या में वोट देने आते हैं। हम लोग कहते रहते हैं कि ये सभी एक ही हैं, ये पार्टी या वो पार्टी। लेकिन लोगों में अभी भी एक उत्साह है, यह मानना ही पड़ेगा। किसलिए है, उनकी उम्मीदें क्या हैं? उनकी उम्मीदें शायद ये नहीं हैं कि जिंदगी बदल जाएगी या देश बदल जाएगा या पूंजीवाद खत्म हो जाएगा। उनका सपना है कि यहां नल लग जाएगा, हॉस्पिटल खुल जाएगा आदि। हालांकि चुनावी प्रक्रिया से तो मैं उम्मीद नहीं रखती हूं, लेकिन जनता गहरी उम्मीद रखती है। वे वोट डालने आते हैं, हमको मानना ही पड़ेगा। इतनी बड़ी राजनीतिक ताकत (पॉलिटिकल फोर्स) को यूं ही खारिज नहीं कर सकते। आजकल की बहसें देखिए - भ्रष्टाचार के खिलाफ या आम आदमी पार्टी को लेकर है। मैं उनसे पूछती रहती हूं कि जो जगनमोहन रेड्डी भ्रष्टाचार के मामले में जेल में बंद है वह अगर कोई रैली करेगा तो उसको सुनने के लिए लोग गाड़ी से उतरकर पंद्रह किलोमीटर पैदल चलकर आते हैं। लोग अच्छे लोगों के लिए वोट नहीं देते हैं। वे वोट क्यों दे रहे हैं, किसको दे रहे हैं- सभी भ्रष्टाचार के बारे में अच्छी तरह जानते हैं। हम लोग वही सोचते हैं जो हम लोगों को सोचते हुए देखना चाहते हैं या जो हमें अच्छा लगता है! यह बहुत दूर की कल्पना है कि लोगों का मोहभंग हो गया है। बहुत अधिक भ्रष्टाचार के बावजूद लोग इस चुनावी प्रक्रिया में पूरी तरह शरीक होते हैं। लोग इसको अच्छी तरह से देख भी सकते हैं, फिर भी वे इसमें भागीदारी करते हैं। ऐसा इसलिए नहीं है कि ये लोग बेवकूफ हैं। ऐसा बहुत सारे जटिल कारणों की वजह से है। मैं मानती हूं कि हमें निश्चित तौर पर अपने आपको बेवकूफ बनाना छोड़ देना चाहिए, क्योंकि हम कुछ चीजें जानते हैं, इन चीजों की लोगों के वोट डालने में या नहीं डालने में कोई भूमिका नहीं है। जो मैं सोचती हूं वह यह है कि हमारे सामने कोई खूबसूरत-सा विकल्प खड़ा नहीं होने वाला है। चलो इसको वोट देते हैं, वह व्यवस्था को बदलेगा। ऐसा नहीं होने वाला है। व्यवस्था इतनी जमी हुई है- कॉरपोरेट, राजनीतिक दल, मीडिया जैसे रिलायंस के पास 27 टेलीविजन चैनल हैं, किसी और के पास अखबार हैं। मुझे लगता है कि इससे क्या होगा? इससे यह होगा कि बहुत ज्यादा लंपटीकरण और अपराधीकरण बढ़ेगा। जैसे अभी जो छत्तीसगढ़ और झारखंड में चल रहा है। वहां राजनीति, विचारधाराओं, बहसों और संरचनाओं में एकरूपता दिखती है। लेकिन जैसे आप सबको शहर की ओर भगाएंगे, उनका आप अपराधीकरण करेंगे, जैसे इस बलात्कार की घटना के बाद मनमोहन सिंह ने साफ-साफ कहा कि हमें इन नए प्रवासियों से, जो शहरों में आते हैं, सावधान रहना पड़ेगा। पहले आप उन्हें शहरों की तरफ धकेलते हैं और फिर उनका अपराधीकरण करते हैं। इन स्थितियों में फिर आपके लोग ज्यादा पुलिस, सुरक्षा और ज्यादा कड़े कानून की बात करते हैं। एक बार अपराधीकरण होने के बाद फिर उनको अपराधियों की तरह व्यवहार करना ही पड़ता है। उनके पास कोई कानून और काम नहीं है। आप एक ऐसी व्यवस्था कायम करना चाहते हैं जहां लोगों के व्यापक हिस्से का अस्तित्व नहीं होना चाहिए। यह गलत है। अब ऐसे में वामपंथ क्या करने वाला है, क्योंकि जिसे हम अल्ट्रा लेफ्ट कहते हैं वो जंगलों में फंसा हुआ है, आदिवासी आर्मी के साथ। बुद्धिजीवी लोगों के लिए यह कहना बिल्कुल जायज और आसान है कि वे पेरिस कम्यून जैसा सपना देख रहे हैं। उनमें से बहुत सारे लोग तो जानते ही नहीं है कि जगदलपुर, भोपाल अस्तित्व में हैं। लेकिन नक्सली लड़ रहे हैं। उन्हें पता है कि वे किसके लिए लड़ रहे हैं। यह हो सकता है पार्टियां, आप और मैं विचाराधारत्मक रूप से उनसे सहमत न हों। लेकिन जंगल के बाहर वामपंथ क्या कर रहा है? जब मार्क्स  सर्वहारा के बारे में बात करते हैं, तो उनका सर्वहारा से मतलब मजदूर वर्ग है। ज्यादातर जगहों पर मजदूरों की संख्या को कम करने की पूरी कोशिश की जा रही है। वहां पर रोबोट्स और उच्च तकनीक इस्तेमाल की जा रही है। अब श्रमिकों की तादाद वह नहीं बची है जो हुआ करती थी - क्लासिक सेंस में। तो, इस नए दौर में बहुत ही विशेषाधिकर प्राप्त श्रम शक्ति (वर्कफोर्स) है, उदाहरण के लिए मारुति में काम करने वाले श्रमिकों को ले सकते हैं। लेकिन, उनके साथ क्या हुआ - वहां वाम क्या कर रहा है? वाम के पास उनको कहने के लिए कुछ नहीं है। नक्सल क्षेत्रों के बाहर ऐसा कोई लेफ्ट नहीं है जो इन चीजों के साथ लड़ रहा है। मैं नहीं जानती कि आप उनका राजनीतिकरण कैसे करेंगे। बहुत बड़ी संख्या में शहरी गरीब हैं जिन्हें कोई विधिवत काम नहीं मिला है, जो श्रमिक (वर्कर्स) नहीं हैं। उन्हें सांप्रदायिक तत्त्वों के द्वारा कभी भी बरगलाया और भड़काया जा सकता है। उन्हें कभी भी एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है।

क्या आपको लगता है कि भारत फासीवाद की तरफ बढ़ रहा है? 

मुझे लगता है कि यह सवाल आपने पांच साल पहले पूछा होता तो मैं कहती कि बढ़ रहा है। अब मैं यह नहीं कहूंगी कि यह बढ़ रहा है। उसके सामने यह पूरा कॉरपोरेट और मध्य वर्गीय अभिजात्य है। उनका नरेंद्र मोदी की तरफ जो यह रुझान (शिफ्ट) है, यह एक फासीवाद से दूसरे फासीवाद की तरफ जाना (शिफ्ट) है। वहां एक तरफ अनिल अंबानी और दूसरी तरफ मुकेश अंबानी बैठकर यह कहते हैं कि यह (मोदी) राजाओं का राजा है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह बदल गया है। जबकि, हकीकत यह है कि वह एक तरह के फासिस्ट से दूसरी तरह का फासिस्ट बन गया है। मुझे लगता है कि आजकल यह हो गया है कि बहुत बड़ी संख्या में मध्य वर्ग को पैदा किया गया है। उनके मन में, उनके सपनों में एक पुच्छलतारे का मार्ग (ट्रेजेक्टरी) बनाया गया है, जिससे वे उधर से इधर आएं और अब बिल्कुल ठहर गए हैं। जहां आगे कोई रास्ता नहीं है। और अब यह गुस्सा अलग-अलग तरह से फूटता हुआ दिखाई दे रहा है। लेकिन मैं इससे बहुत आहत होती हूं।

हाल के दिनों में हुए आंदोलनों का क्या भविष्य है? जैसे अण्णा हजारे ... 

अण्णा हजारे तो दफ्तर बंद करके चले गए। जब ये लोग बिना कोई काम किए हुए टेलीविजन चैनलों के स्टूडियो में अपने मूवमेंट का निर्माण करते हैं तो उनका क्या भविष्य हो सकता है? जब टेलीविजन चैनल चाहेंगे तो उन्हें आगे बढ़ाएंगे! जब उन्हें कोई खतरा नजर आएगा तो इन आंदोलनों को बंद कर देंगे। उसमें क्या है? मसलन आम आदमी पार्टी को देखिए! जिसने एक बार रिलायंस का जिक्र किया और टांय-टांय फिस्स। जब मीडिया उनका (कॉरपोरेट) है तो आखिर आप वहां कैसे हो सकते हैं? मतलब थोड़ा तो आगे सोचना चाहिए ना! ऐसे तो होगा नहीं। यह जो बचपना है, यह कैसे चलेगा? मतलब, ये इतना हो-हल्ला मचा के रखते हैं कि अगर कोई इनके खिलाफ बोलेगा तो सिद्ध करेंगे कि वह या भ्रष्टाचार के समर्थन में है या फिर बलात्कार के समर्थन में है। क्या इनके पास जरा-सी भी समझ नहीं है राजनीतिक इतिहास की? इसमें कुछ लोग अच्छा काम करते हैं। वे कोशिश करते हैं इसको आगे अंजाम देने की। लेकिन मेरे ख्याल में जहां पर विरोध प्रदर्शन हो रहा है वह हमें बहुत उत्तेजित करता है, लेकिन लोग उस नजरिए से चीजों को नहीं देख रहे। वे नहीं समझते कि हर विरोध प्रदर्शन यकीनन प्रगतिशील और क्रांतिकारी नहीं हो सकता। हर जन आंदोलन महान नहीं होता। जैसे मैं अक्सर कहती हूं कि इस देश में सबसे बड़ा आंदोलन बाबरी मस्जिद का विध्वंस है, जिसको वीएचपी और बजरंग दल ने चलाया। जैसे जब लड़की का बलात्कार हुआ था, उस हफ्ते दो-तीन दिन आगे-पीछे नरेंद्र मोदी चौथी बार चुनाव जीता। अब उन्हीं टीवी चैनलों में वही लोग, जो बलात्कार के खिलाफ इतना चिल्ला रहे थे, उस आदमी (मोदी) जिसके राज में महिलाओं के शरीर को चीरकर उनकी बच्चेदानी को निकाल दिया गया, जिनका बलात्कार करके जिंदा जला दिया गया, अब (टीवी चैनल) कह रहे हैं कि इन पुरानी बातों को भूल जाओ। आप अतीत में क्यों जा रहे हैं। यह किस तरह की राजनीति है मैं नहीं समझ पाती हूं। मुझे यह समझने में बहुत दिक्कत होती है। ये बहुत ही पेचीदा, बौद्धिक और भावुक पहेली है। क्योंकि, आप तब विरोध नहीं कर सकते, जब संस्थानिक तरीके से महिला का बलात्कार होता है। नारीवाद की राजनीति बहुत ही जटिल है। जब यथास्थितिवाद के लिए बलात्कार को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है - चाहे वह कश्मीर हो, चाहे मणिपुर हो, चाहे नगालैंड हो या ऊंची जाति का एक आदमी दलित महिला के साथ बलात्कार कर रहा हो या हरियाणा में ऑनर किलिंग हो। इन सभी मामलों में एक ही तरह की प्रतिक्रिया आती है। ... जो बच्चियां बड़ी हो रही हैं... जवान होती लड़कियों को सड़कों पर घूमते हुए देखना कितना खूबसूरत और मनमोहक होता है। और जो हुआ वह कितना भयानक है। हम कैसे कह सकते हैं लोग बलात्कार के मामले को लेकर परेशान थे, जबकि वे सिर्फ 'इस बलात्कार' के मामले को लेकर परेशान थे। यह ठीक है, लेकिन यह खास तरह की राजनीति है! यह बहुत ही कठिन पहेली है। लेकिन इसके बारे में सोचना बहुत जरूरी है और मैं सोचती हूं कि आप लोगों से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि जो चीजें उन्हें परेशान नहीं करती हैं वह उन्हें झकझोर दे। लेकिन इस वजह से बहुत बड़ी राजनीति को आप वैसे ही नहीं छोड़ सकते हैं। आप यह समझना चाहते हैं कि वह क्या है?

क्या आप मानती हैं कि नव उदारवादी नीतियां भारतीय राज्य के मूल चरित्र को उजागर करती हैं? 

देखिए, भारतीय राज्य का नहीं, बल्कि समाज का। ये नवउदारवादी नीतियां सामंती और जाति आधारित समाज के बिल्कुल मनमाफिक है लेकिन यकीनी तौर पर यह किसी गांव में फंसे दलित के लिए ठीक चीज नहीं है। यह सभी असमानताओं को मजबूत करती है, क्योंकि यह निश्चित तौर पर ताकतवर को और ताकतवर बनाती है। यही तो कॉरपोरेट पूंजीवाद है। हो सकता है कि यह शास्त्रीय पूंजीवाद की तरह न हो, क्योंकि शास्त्रीय पूंजीवाद नियमों पर चलता हो और वहां 'चेक एंड बैलेंस' का सिस्टम होता हो। लेकिन हमारे यहां इसमें ऐसा कुछ नहीं होता। यकीकन इससे ताकतवर लगातार ताकतवर बनता जाता है। और यही लोग तो बनिया हैं। यह सबसे अहम बात है जिसके बारे में कभी कोई बात नहीं करता - भारतीय बनियों की राजनीति। इन्होंने पूरे देश में क्या कर दिया है? रिलायंस एक बनिया है। वे बनिया जाति के तौर पर दृश्य से पूरी तरह बाहर रहते हैं, लेकिन वे बहुत ही अहम भूमिका अदा करते हैं। यह इन्हें बहुत मजबूत बनाता है। यही कारण है कि रिटेल में एफडीआई के मामले में भाजपा सबसे ज्यादा गुस्से में आई क्योंकि 'उनके छोटे बनिये' दांव पर लग गए हैं क्योंकि वो जाति (बनिया) उनका (भाजपा) आधार है।

दूसरी तरफ आप ग्रामीणों, आदिवासियों और दलितों के साथ कुछ भी कर दीजिए किसी के उपर कोई फर्क नहीं पड़ता।

भारतीय वामपंथ का दायरा बहुत ही सीमित दिखाई देता है। आप इसका क्या कारण मानती हैं और इसके लिए किसे जिम्मेदार मानती हैं?

मुझे लगता है कि इसमें जाति एक बहुत बड़ा कारण है। अगर आप सीपीएम को देखें तो उसमें ऊपर बैठे लोग सारे ब्राह्मण हैं। केरल में भी सारे नायर और ब्राह्मण हैं। उन्होंने कभी यह समझने की कोशिश नहीं की कि मार्क्स वादी विचार का बेहतरीन इस्तेमाल कैसे करें, जहां पर लोगों के साथ व्यवस्थागत तरीके से भेदभाव किया जाता है। अक्सर जब आप ऊंची जाति से आते हैं तो समस्याओं को नहीं देख पाते हैं। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि आप खराब आदमी हैं। बस बात यह है कि आप इसे देख ही नहीं पाते। मैं एक बार कांचा इल्लैया से बात कर रही थी, जो एक समय में पीपुल्स वार ग्रुप से जुड़े थे। वह अकेले ऐसे आदमी थे जो अपने समुदाय में पढ़े-लिखे थे। उनके भाई ने बहुत कोशिश की कि वह उनको पढ़ा-लिखा देंखे। जबकि उनकी पार्टी चाहती थी कि वह भूमिगत हो जाएं। यह उस तरह से नहीं है कि किसी ब्राह्मण को भूमिगत हो जाने के लिए कह दें, क्योंकि उनके (ब्राह्मण) परिवार में बाकी लोग पढ़-लिख सकते हैं। इस मामले को आपको बिल्कुल ही अलग तरीके से समझना पड़ेगा।

मेरी समझ से दूसरा कारण यह है कि आप इस मुगालते में रहें कि चुनाव लड़कर राज कर सकते हैं। और फिर आप एक ही समय में राजा भी बने रहें और क्रांतिकारी भी बने रहें! यह कैसे हो सकता है। यह तो एक तरह का फरेब है!

भारत में माओवादी आंदोलन की संभावनाओं और चुनौतियों को आप कैसे देखती हैं?

माओवादी आंदोलन के लिए वहां पर बहुत अवसर हैं जहां पर वे बहुत मजबूत हैं। लेकिन अब यहां पर बहुत बड़ा हमला होने वाला है। आर्मी, एयरफोर्स सभी पूरी तैयारी में लगे हैं। शायद यह हमला 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद होगा और ये माओवादी आंदोलन के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। लेकिन दूसरी तरफ माओवादियों ने अभी सीआरपीएफ के जवान के साथ जो किया (मृत जवान के पेट में बम डाल दिया था) वह बहुत ही वाहियात काम है। हम लोग उनका इन कारणों की वजह से समर्थन नहीं करते। मुझे नहीं मालूम है कि इस तरह का काम कैसे होता है? मुझे लगता है कि या तो उनके कमांड सिस्टम (नेतृत्व) में प्रोब्लम आ गई है या उनके साथ लंपट (लुम्पैन) लोग शामिल हो गए हैं। मैं इसके बारे में ज्यादा नहीं जानती, खास तौर से झारखंड के बारे में। लेकिन इस हमले में अगर उनका अनुशासन टूटता है तो उनके लिए बहुत ही मुश्किल आ जाएगी, क्योंकि एक समय ऐसा था जब उनके साथ बहुत ज्यादा बौद्धिक और नैतिक समर्थन था, जो अब भी है। अगर आप ऐसे काम करते रहेंगे तो आपका यह समर्थन बंद हो जाएगा। उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे जंगल से बाहर कैसे काम करेंगे। अगर जंगल से बाहर नहीं जा सकते तो हम सोचेंगे कि ये सिर्फ एक क्षेत्रीय प्रतिरोध है, चाहे जिसका भी हम समर्थन करें। बात यह है कि जंगल से बाहर इतनी बड़ी जो गरीबी पैदा की गई (मैनुफैक्चर्ड पॉवर्टी) है, उसको आप राजनीतिक कैसे बनाएंगे। क्योंकि लोगों के पास समय नहीं है, जगह नहीं है और ये जंगल से बाहर कैसे काम करेंगे, यह बहुत बड़ा प्रश्न है।

क्या यह हो सकता है कि वे हिंसा छोड़कर चुनावी राजनीति में आएं? 

हिंसा क्या होती है? अगर छत्तीसगढ़ के किसी गांव में एक हजार सीआरपीएफ के जवान आकर गांव को जलाते हैं, औरतों को मारते हैं और बलात्कार करते हैं, तो ऐसे हालात में आप क्या करेंगे? भूख हड़ताल पर तो नहीं बैठ सकते। मैं हमेशा से यही कहती आई हूं कि जिसे बुद्धिजीवी, अकादमिक लोग, पत्रकार और सिद्धांतकार आदि एक विचारधारात्मक तर्क कहते हैं,वह मुझे टैक्टिकल लगता है। यह सब कुछ लैंडस्केप (भौगोलिक स्थिति)पर निर्भर करता है। आप छत्तीसगढ़ में बिल्कुल वैसे नहीं लड़ सकते जैसे आप मुंबई या दिल्ली में लड़ते हैं और मुंबई-दिल्ली में बिल्कुल वैसे नहीं लड़ सकते जैसे आप छत्तीसगढ़ में लड़ते हैं। इसमें कोई द्वंद्व नहीं है। आप सड़कों पर गांधीवादी बन सकते हैं और जंगलों में माओवादी बनकर काम सकते हैं। गांधीवादी होने के लिए तो आपके आसपास टेलीविजन कैमरा और रिपोर्टर होना जरूरी है, अगर ऐसा नहीं है तो ये सब बेकार है। प्रतिरोध की विविधता बहुत जरूरी है। यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि हर काम करना माओवादियों की ही जिम्मेदारी नहीं है। दूसरी तरह के लोग दूसरी चीजें कर सकते हैं। जैसे लोग मुझे कहते हैं कि वहां बांध बन रहा है, यहां ये हो रहा है... मैं उनसे कहती हूं कि यार तुम भी तो कुछ करो। मैंने तो कभी नहीं कहा कि मैं तुम्हारी लीडर हूं। मैं वह कर रही हूं जो मैं कर सकती हूं। और आप वह करें जो आप कर सकते हैं।

मैग्लोमेनिएकल एप्रोच नहीं होनी चाहिए कि हर काम एक ही पार्टी या एक ही इंसान या एक बड़ा लीडर करेगा। बाकी लोग कुछ क्यों नहीं करते? एक ही पर क्यों निर्भर रहना चाहते हैं? माओवादी लोग गलतियां कर रहे हैं, लेकिन बहुत बहादुरी से लड़ रहे हैं और हम लोग सिर्फ बैठकर कहते हैं कि ये लोग ऐसे हैं, वैसे हैं। अरे यार, आप भी तो कुछ करो। अगर वाकई कुछ करना चाहते हो तो।

हमारे लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, फिल्मकारों, रंग निर्देशकों के काम क्या भारतीय सच्चाई को अभिव्यक्त करते हैं? 

मैं पूछती हूं कि इंडियन रियलिटी (भारतीय यथार्थ) होती क्या है। मैं हमेशा से सोचती आई हूं कि बॉलीवुड के इतिहास में सबसे बड़ी थीम क्या है? सबसे बड़ी थीम तो प्यार है। लड़का लड़की से मिलता है और वे भाग जाते हैं... लेकिन हमारे समाज में तो यह बिल्कुल नहीं होता। सिर्फ दहेज, जाति, ये-वो और सिर्फ गणित ही गणित (कैल्कुलेशन) है। तो जो चीज समाज में है नहीं उसे हम फिल्म में जाकर देखते हैं। कहने की बात ये है कि हमारा पूरा समाज जाति के आसपास घूमने वाला छोटे दिमाग (स्मॉल माइंडिड) का जोड़तोड़ करने वाला है। हम बस लोगों को सिनेमाई पर्दे पर नाचते-गाते देखकर खुश हो जाते हैं। हमारे साहित्य का यथार्थ से कुछ लेना-देना नहीं है। इस मामले में यह बिल्कुल निरर्थक है। हालांकि, इसमें कुछ अपवाद जरूर हो सकते हैं। आजकल साहित्य और सिनेमा में जो हो रहा है उसे मैं 'क्लास पोर्नोग्राफी' कहूंगी। जिसमें लोग गरीबी की तरफ देखते हैं और कहते हैं कि ये लोग तो ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं, गाली देते हैं, गैंग वॉर करते हैं। मतलब, अपने आप को बाहर रखकर ये चीजों को ऐसे देखते हैं जैसे उनका इनसे कुछ लेना-देना नहीं हो। यह ऐसा ही है जैसे गरीबों का ग्लेडिएटर संघर्ष देखना और फिर यह कहना कि ये कितने हिंसक होते हैं ! यह एक तरह की एंथ्रोपोलॉजी (नृशास्त्र) है, जहां पर आप युद्ध को बाहर से एक तमाशे की तरह देखते हैं और मजा लेते हैं। फिर एक और तरह से चीजों को महत्त्वहीन (ट्रिवीयलाइज) बनाते हैं। ये इतना 'ट्रिवियल' होता है कि आपके कान पर जूं भी नहीं रेंगती।

विश्व स्तर पर पूंजीवाद ने कमजोर समुदायों को और भी हाशिए पर तरफ धकेल दिया है। इन हालात में किस तरह के राजनातिक विकल्प उभर सकते हैं?

देखिए, मुझे लगता है कि इसका कोई भी सभ्य विकल्प नहीं है। केवल यह बात नहीं है कि सत्ता के पास सिर्फ पुलिस, सेना और मीडिया ही है, बल्कि कोर्ट भी उन्हीं के हैं। अब इनके आपस में भी 'जन आंदोलन' होने लगे हैं। और उनका अपना एक शील्ड यूनीवर्स (सुरक्षित खोलवाला संसार) है। इस सबको किसी सभ्य तरीके से बिल्कुल भेदा नहीं जा सकता। कोई सभ्य तरीके से आकर बोले कि मैं बहुत अच्छा हूं मुझे वोट दे दो, तो ऐसा हो नहीं सकता। दरअसल उनका अपना एक तर्क है। यही तर्क खतरनाक हिंसा और निराशा पैदा कर देगा। और ये गुस्सा इतना ज्यादा होगा कि ये लोग बच नहीं पाएंगे। अपने इस विशेषाधिकार के खोल में ये ज्यादा दिन सुरक्षित नहीं रह पाएंगे। अब अच्छा बनने में कोई समझदारी नहीं है। इस संदर्भ में मैं अब सभ्य नहीं हूं। मैं हैंडलूम साड़ी पहनकर यह नहीं कहूंगी कि मैं भी गरीब हूं! मैं बिल्कुल नहीं हूं। मैं भी इसी पक्षपाती व्यवस्था का हिस्सा हूं। मैं वह करती हूं जो मैं कर सकती हूं, लेकिन मैं यह नहीं मानती कि बदलाव एक बहुत ही खूबसूरत और शांत ढंग से आने वाला है। जो कुछ चल रहा है उसकी अनदेखी कर अब ये लोग अपने लिए ही एक खतरनाक स्थिति पैदा करने वाले हैं। मैं नहीं मानती कि हम इस बदलाव के बारे में कोई भविष्यवाणी कर सकते कि यह कैसे होने वाला है या कहां से आने वाला है। यह तय है कि यह बदलाव बहुत ही खतरनाक होगा। इस व्यवस्था को टूटना ही है, जिसने बहुत बड़े पैमाने पर अन्याय, फासीवाद, हिंसा, पूर्वाग्रहों और सेक्सिज्म (यौनवाद) को संरचनात्मक तौर पर पैदा किया है।

जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां संसदीय राजनीति में हैं उनके बारे में आप क्या सोचती हैं? खास तौर पर अगर सीपीआई (भाकपा), सीपीएम (माकपा) और सीपीआई-एमएल (भाकपा-माले)जैसी कम्युनिस्ट पार्टियों के संदर्भ में बात करें। 

देखिए, जब पार्टियां बहुत छोटी होती हैं, जैसे कि सीपीआई (एमएल) और सीपीआई, तो आपके पास इंटिग्रिटी होती है। आप अच्छी पॉजिशंस और हाई मॉरल ग्राउंड (उच्च नैतिक आधार) ले सकते हैं। क्योंकि आप इतने छोटे होते हैं कि इससे आपको कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अगर आप सीपीएम जैसी बड़ी पार्टी हैं तो स्थिति दूसरी होती है। अगर हम केरल और बंगाल के संदर्भ में सीपीएम की बात करें तो दोनों जगह इसके अलग-अलग इतिहास रहे हैं। बंगाल में सीपीएम बिल्कुल दक्षिणपंथ की तरह हो गई थी। वे हिंसा करने में, गलियों के नुक्कड़ों को कब्जाने में, सिगरेट वालों के खोमचे को कब्जाने में बिल्कुल दक्षिणपंथ जैसे थे। यह बहुत अच्छा हुआ कि जनता ने उनकी सत्ता को उखाड़ फेंका। हालांकि मैं निश्चिंत हूं कि ममता बनर्जी की सत्ता का दौर जल्दी खत्म हो जाएगा। दूसरी तरफ केरल में स्थिति अलग थी, क्योंकि वे सत्ता से हटते रहे हैं जो कि एक अच्छी चीज है। वे वहां पर कुछ अच्छी चीजें भी कर पाए। लेकिन इसका श्रेय पार्टी को बिल्कुल नहीं दिया जा सकता, बल्कि यह इसलिए था क्योंकि वहां पर सत्ता का संतुलन बना रहा। अगर आप देखें तो उनकी हिंसा अक्षम्य है। दूसरी तरफ जिस तरह मलियाली समाज आप्रवासी मजदूरों का शोषण कर रहा है वह बहुत शर्मनाक है। ऐसे में आप बताएं, सीपीएम अपने आप को कम्युनिस्ट पार्टी कैसे कह सकती है? जिस पार्टी ने ट्रेड यूनियनों को बर्बाद कर दिया और पश्चिम बंगाल में नव उदारवाद के साथ कदमताल मिलाते रहे। वे अक्सर यह तर्क देते हैं कि अगर हम सत्ता में नहीं रहेंगे तो सांप्रदायिक लोग सत्ता हथिया लेंगे। लेकिन आप मुझे यह बताएं कि क्या सीपीएम के लोग हिम्मत जुटाकर गुजरात गए? जहां खुलेआम इतनी मारकाट चल रही थी वे दुबक कर बैठे रहे। जब नंदीग्राम में लोगों को बेघर कर उजाड़ दिया गया तो वे महाराष्ट्र में आदिवासियों के साथ जाकर बैठ गए। मतलब जनता इतनी भी बेवकूफ नहीं है कि इतनी छोटी बातों को भी न समझ पाए। यह वाकई बहुत दयनीय है कि वाम (लेफ्ट) ने खुद को इतना नीचे गिरा दिया है। यहां तक कि ये संसदीय राजनीति में भी खुद को नहीं बचा पाए और जिन मुद्दों पर वामपंथी स्टैंड लेने चाहिए थे, ये वो तक नहीं ले पाए। इस सबके लिए ये खुद ही जिम्मेदार हैं और इनके साथ यही होना चाहिए था। इतने सालों में ये लोग कभी पार्टी को ऊंची जातियों के वर्चस्व से मुक्त नहीं करा पाए। और आज भी आप देखें कि पोलित ब्यूरो में यही लोग भरे पड़े हैं।

अगर लेफ्ट ने जाति के मुद्दे को सुलझाया होता, ईमानदारी से काम किया होता, इनके पास दलित नेता और बुद्धिजीवी होते और अगर ये पूंजीवाद की जगह लेफ्ट की भाषा बोलते तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इस देश में लेफ्ट आज कितना मजबूत होता? ये लोग अपनी जातीय पहचान को कभी नहीं छोड़ पाए। और इनकी निजी जिंदगी के बारे में ही तो मेरा उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स है।

वर्तमान हालात में कम्युनिस्ट पार्टियों का क्या भविष्य है? 

देखिए, मैं सीपीआई-एमएल, आइसा से कभी-कभी सहमत होती हूं। ये लोग शहरी गरीबों के बीच काम करते हैं। बिहार में ये जाति के सवाल के हल करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ये सफल नहीं हो रहे हैं क्योंकि जैसा कि मैंने कहा कि इनकी ताकत बहुत ही सीमित है और ये हाशिए पर हैं। लेकिन बहुत सारी चीजें जो ये कहते हैं, उनका मैं सम्मान करती हूं। मैं बिल्कुल नहीं समझ पाती कि ये कैसे इतने हाशिये पर (मार्जिनलाइज्ड) रह गए और खुद को अप्रासंगिक बनाकर छोड़ दिया। मुझे माओवादियों और लिबरेशन के बीच विचारधारात्मक युद्धों को देखकर बहुत दुख होता है। इन लोगों ने टैक्टिक्स को विचारधारा के साथ जोड़कर भ्रम पैदा कर रखा है। सीपीआई (एमएल) के लोग जंगल के बाहर रहकर काम करते हैं और यह जरूरी नहीं कि वे हथियारों के साथ ही काम करें। लेकिन सीपीआई (एमएल) की राजनीति छत्तीसगढ़ में काम नहीं कर सकती। फिर आप देखिए कि अपने हाथों से इन्होंने खुद को हाशिए पर धकेल दिया है। ये छत्तीसगढ़ में माओवादियों के साथ गठजोड़ कर सकते थे। लेकिन ये राज्य से नफरत करने के बजाय एक दूसरे से ज्यादा नफरत करते हैं और अपना समय गंवाते हैं। जो कि कम्युनिस्टों की एक बड़ी खासियत है!

और सीपीएम किस तरफ बढ़ रही है...

सीपीएम बाकी संसदीय पार्टियों की तरह ही है। जिसे देखकर यह बिल्कुल नहीं लगता कि ये किसी भी तरीके से कम्युनिस्ट पार्टी है।

(नरेन सिंह राव मीडिया अध्यापन से जुड़े हैं और सिनेमा तथा साहित्य में दखल रखते हैं।)

समयांतर में प्रकाशित

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