शिक्षा के व्यवसायीकरण के विरोध में 8 सितंबर को राष्ट्रीय सम्मेलन
स्थान: कांस्टीट्यूशन क्लब, दिल्ली
गत् एक दशक से शिक्षा सबसे ज्यादा सुरक्षित एवं कमाने वाला व्यापार हो गया है। शिक्षा से ही कोई देश आगे जाता है और इसके अभाव में पतन भी होता है। भले ही भारत आर्थिक तरक्की कर रहा हो लेकिन इसका फल सबको मिले और वृद्धि लगातार बनी रहे, उसके लिए शिक्षा सबसे ज्यादा जरूरी है। गरीबी हटाने के तमाम उपाय सरकार करती रहती है लेकिन यह मिटने वाली दिखती नहीं, जब तक कि देश शिक्षित नहीं हो जाता। जिस दिन इस देश में समान शिक्षा हो जाएगी, उसी दिन भारत दुनिया का नेता बन जाएगा। वर्तमान शिक्षा का जोर नौकरी लेने के लिए है न कि सही ज्ञान के फैलाव के लिए। जो भी शिक्षा सरकार के द्वारा उपलब्ध है, उसका व्यवसायीकरण तेजी से होता जा रहा है। गुणवत्ता वाली शिक्षा अमीरों तक सीमित होती जा रही है।
दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा चार वर्ष का स्नातक कार्यक्रम लागू कर दिया गया है, यह कहते हुए कि यह रोजगार परक है, क्योंकि ऐसा अमेरिका में भी है। जो कुछ अमेरिका में हो रहा है, क्या हमारे यहां भी हो?जब भी सवाल खड़े किए जाते हैं तो जवाब यही रहता है कि ऐसा अमेरिका में हो रहा है। अमेरिका एवं यूरोप में उच्च शिक्षा प्राप्त करने में रूचि बहुत कम लोगों की होती है, लेकिन हमारे समाज की सच्चाई कुछ और है। वहां पर चाहे उच्च शिक्षित व्यक्ति की आय हो, सामाजिक प्रतिष्ठा या हैसियत, कम शिक्षित व्यक्ति को खास प्रभावित नहीं करती । हमारे यहां उच्च शिक्षा का संबंध उच्च आय, प्रतिष्ठा, ज्ञान, अवसर आदि बहुत सारी बातों से जुड़ा हुआ है। दिल्ली विश्वविद्यालय की शिक्षा नीति 10$2$4 की है और इसका छुपा हुआ एजेंडा है कि पीछे के दरवाजे से निजीकरण की प्रक्रिया को तेज करना और उच्च शिक्षा को इतना महंगा बना देना कि अनुसूचित जाति, जन जाति, पिछड़े, ग्रामीण एवं गरीब वहां तक पहुंचने की हिम्मत ही न कर सकें। प्रथम वर्ष में अंग्रेजी, गणित एवं विज्ञान पढ़ना अनिवार्य कर दिया गया है, जिससे सर्वाधिक प्रभाव इन्हीं वर्गों पर पड़ेगा। 1986 में संसद की सहमति से 10$2$3 की शिक्षा नीति बनी थी जिसे दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति ने उलट दिया। चूंकि इन्होंने अमीरों के लिए एवं निजीकरण बढ़ाने के लिए किया, इसलिए अनुशासनात्मक कार्यवाही करने की बात तो दूर, बल्कि पुरजोर समर्थन मानव संसाधन मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय ने दिया।
दुर्भाग्य है कि इस देश में शिक्षा को लेकर राजनैतिक लोग गंभीर नहीं हैं। जिस दिन शिक्षा जैसे मुद्दे पर चुनाव होगें, उस दिन भारत की दशा और दिशा बदलने लगेगी। ज्वाइंट ऐक्शन फ्रंट फॉर डेमोक्रेटिक एजुकेशन (एससी/एसटी/ओबीसी/लेफ्ट) का निर्माण दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा लागू किए गए चार वर्षीय पाठ्यक्रम को रोकने के लिए हुआ था लेकिन धीरे-धीरे महसूस किया गया कि यह बड़ा षडयंत्र है, लड़ना आसान नहीं है, इसलिए आंदोलन का दायरा देश स्तर तक बढ़ाना पड़ेगा। दिल्ली विश्वविद्यालय में लगभग 4500 शिक्षकों के पद खाली हैं, जिसे मुख्य रूप से दलितों व पिछड़ों से ही भरा जाना है। इन मुद्दों पर हम संघर्श कर रहे हैं, लेकिन अब तय किया गया है कि देश स्तर पर आंदोलन चलाया जाए। इसीलिए आगामी 8 सितंबर, 2013 (रविवार) को स्पीकर हॉल, कांस्टीट्यूशन क्लब, नई दिल्ली में 9 घंटे का सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है, जिसमें शिक्षक, बुद्धिजीवी एवं सामाजिक कार्यकर्त्ता पूरे देश से आमंत्रित किए जा रहे हैं। मुख्य मांग है कि समान शिक्षा हो, अर्थात् जो शिक्षा उद्योगपतियों, मंत्रियों व नौकरशाहों के बच्चों को मिल रही है, वही 4 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को दी जानी चाहिए। पहले प्राइमरी षिक्षा का निजीकरण तेज हुआ था, अब उच्च षिक्षा का भी हो रहा है, इस पर तुरंत रोक लगनी चाहिए। यह मांग सर्वथा उचित है और जो लोग यह कहते थक नहीं रहे हैं कि चार वर्ष का स्नातक कार्यक्रम अमेरिका में भी है तो वे यह भी जान लें कि वहां पर सरकारी एवं निजी क्षेत्र में शिक्षा के स्तर में कोई अंतर नहीं है, बल्कि सरकारी स्कूल बेहतर शिक्षा देते हैं। पूरा दिन बहस करने के बाद जो निष्कर्ष निकलेगा उस पर राष्ट्रीय आंदोलन चलाया जाएगा। 2014 के लोक सभा चुनावों के आते-आते यह मुद्दा इतना ताक़तवर बन जाए कि सभी दल इस पर चुनाव लड़ें। शुरुआत में निम्न संगठनांे से यह गठित हुआ है, लेकिन आगे चलकर और सैकड़ों हजारों संगठनों को समाहित किया जाएगा। जिन संगठनों से इसकी शुरूआत हुई है वे हैं - इंदिरा अठावले, विनोद कुमार (अनुसूचित जाति, जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ), डॉ0 हैनी बाबू (ए.एस.जे.), विजया वेंकटरमन, डॉ0 शास्वती मजूमदार एवं आभा देव (डी.टी.एफ.), प्रेम सिंह (एस.टी.ए.), डॉ0 एस.के. सागर (एफ.ओ.सी.यू.एस.), डॉ0 केदार कुमार मंडल (ए.एफ.एस.जे.), डॉ0 नंदिनी दत्ता (सी.टी.एफ.), डॉ0 हंसराज सुमन (एफ.ए.एस.जे.), पाल दिवाकर (एन.सी.डी.एच.आर.) पी. अब्दुल नजर (सी.एफ.आई), हर्शवर्धन दवने, दिनेष अहिरवार, (एन.एस.ओ.एस.वाई.एफ.) विनय भूषण (ए.आई.बी.एस.एफ.), अनूप पटेल (एस.यू.आई.), लेनिन विनोबर (एस.एस.जे.), डॉ0 कौशल पवार, प्रो0 हेमलता महेश्वर, डॉ0 सुकुमार, जी.एन. साईंबाबा, आदि।
जिन-जिन साथियों को इस संबंध मंे सूचना मिले, वे फौरन शिक्षा से संबंधित लोगों से संपर्क करके सम्मेलन में आने के लिए प्रेरित करें। साथ ही साथ उनके बारे मंें अग्रिम सूचना भी दें। अगर पूछा जाए कि देश में वे प्रमुख कारण कौन हैं तो वह है शिक्षा का व्यवसायीकरण। अभी तक तो गनीमत है और आम लोग भी शिक्षा प्राप्त कर पा रहे हैं लेकिन निजीकरण के बाद यह असंभव हो जाएगा। अशिक्षित समाज अपने मान-सम्मान एवं प्रगति के बारे में सोच भी नहीं पाता। इसलिए देश के सभी प्रगतिशील लोग दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक एक होकर के इस सम्मेलन को सफल बनाने के लिए भाग लें।
संयोजक
डॉ0 उदित राज, रा0 अध्यक्ष, अजा/जजा परिसंघ
स्थान: कांस्टीट्यूशन क्लब, दिल्ली
गत् एक दशक से शिक्षा सबसे ज्यादा सुरक्षित एवं कमाने वाला व्यापार हो गया है। शिक्षा से ही कोई देश आगे जाता है और इसके अभाव में पतन भी होता है। भले ही भारत आर्थिक तरक्की कर रहा हो लेकिन इसका फल सबको मिले और वृद्धि लगातार बनी रहे, उसके लिए शिक्षा सबसे ज्यादा जरूरी है। गरीबी हटाने के तमाम उपाय सरकार करती रहती है लेकिन यह मिटने वाली दिखती नहीं, जब तक कि देश शिक्षित नहीं हो जाता। जिस दिन इस देश में समान शिक्षा हो जाएगी, उसी दिन भारत दुनिया का नेता बन जाएगा। वर्तमान शिक्षा का जोर नौकरी लेने के लिए है न कि सही ज्ञान के फैलाव के लिए। जो भी शिक्षा सरकार के द्वारा उपलब्ध है, उसका व्यवसायीकरण तेजी से होता जा रहा है। गुणवत्ता वाली शिक्षा अमीरों तक सीमित होती जा रही है।
दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा चार वर्ष का स्नातक कार्यक्रम लागू कर दिया गया है, यह कहते हुए कि यह रोजगार परक है, क्योंकि ऐसा अमेरिका में भी है। जो कुछ अमेरिका में हो रहा है, क्या हमारे यहां भी हो?जब भी सवाल खड़े किए जाते हैं तो जवाब यही रहता है कि ऐसा अमेरिका में हो रहा है। अमेरिका एवं यूरोप में उच्च शिक्षा प्राप्त करने में रूचि बहुत कम लोगों की होती है, लेकिन हमारे समाज की सच्चाई कुछ और है। वहां पर चाहे उच्च शिक्षित व्यक्ति की आय हो, सामाजिक प्रतिष्ठा या हैसियत, कम शिक्षित व्यक्ति को खास प्रभावित नहीं करती । हमारे यहां उच्च शिक्षा का संबंध उच्च आय, प्रतिष्ठा, ज्ञान, अवसर आदि बहुत सारी बातों से जुड़ा हुआ है। दिल्ली विश्वविद्यालय की शिक्षा नीति 10$2$4 की है और इसका छुपा हुआ एजेंडा है कि पीछे के दरवाजे से निजीकरण की प्रक्रिया को तेज करना और उच्च शिक्षा को इतना महंगा बना देना कि अनुसूचित जाति, जन जाति, पिछड़े, ग्रामीण एवं गरीब वहां तक पहुंचने की हिम्मत ही न कर सकें। प्रथम वर्ष में अंग्रेजी, गणित एवं विज्ञान पढ़ना अनिवार्य कर दिया गया है, जिससे सर्वाधिक प्रभाव इन्हीं वर्गों पर पड़ेगा। 1986 में संसद की सहमति से 10$2$3 की शिक्षा नीति बनी थी जिसे दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति ने उलट दिया। चूंकि इन्होंने अमीरों के लिए एवं निजीकरण बढ़ाने के लिए किया, इसलिए अनुशासनात्मक कार्यवाही करने की बात तो दूर, बल्कि पुरजोर समर्थन मानव संसाधन मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय ने दिया।
दुर्भाग्य है कि इस देश में शिक्षा को लेकर राजनैतिक लोग गंभीर नहीं हैं। जिस दिन शिक्षा जैसे मुद्दे पर चुनाव होगें, उस दिन भारत की दशा और दिशा बदलने लगेगी। ज्वाइंट ऐक्शन फ्रंट फॉर डेमोक्रेटिक एजुकेशन (एससी/एसटी/ओबीसी/लेफ्ट) का निर्माण दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा लागू किए गए चार वर्षीय पाठ्यक्रम को रोकने के लिए हुआ था लेकिन धीरे-धीरे महसूस किया गया कि यह बड़ा षडयंत्र है, लड़ना आसान नहीं है, इसलिए आंदोलन का दायरा देश स्तर तक बढ़ाना पड़ेगा। दिल्ली विश्वविद्यालय में लगभग 4500 शिक्षकों के पद खाली हैं, जिसे मुख्य रूप से दलितों व पिछड़ों से ही भरा जाना है। इन मुद्दों पर हम संघर्श कर रहे हैं, लेकिन अब तय किया गया है कि देश स्तर पर आंदोलन चलाया जाए। इसीलिए आगामी 8 सितंबर, 2013 (रविवार) को स्पीकर हॉल, कांस्टीट्यूशन क्लब, नई दिल्ली में 9 घंटे का सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है, जिसमें शिक्षक, बुद्धिजीवी एवं सामाजिक कार्यकर्त्ता पूरे देश से आमंत्रित किए जा रहे हैं। मुख्य मांग है कि समान शिक्षा हो, अर्थात् जो शिक्षा उद्योगपतियों, मंत्रियों व नौकरशाहों के बच्चों को मिल रही है, वही 4 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को दी जानी चाहिए। पहले प्राइमरी षिक्षा का निजीकरण तेज हुआ था, अब उच्च षिक्षा का भी हो रहा है, इस पर तुरंत रोक लगनी चाहिए। यह मांग सर्वथा उचित है और जो लोग यह कहते थक नहीं रहे हैं कि चार वर्ष का स्नातक कार्यक्रम अमेरिका में भी है तो वे यह भी जान लें कि वहां पर सरकारी एवं निजी क्षेत्र में शिक्षा के स्तर में कोई अंतर नहीं है, बल्कि सरकारी स्कूल बेहतर शिक्षा देते हैं। पूरा दिन बहस करने के बाद जो निष्कर्ष निकलेगा उस पर राष्ट्रीय आंदोलन चलाया जाएगा। 2014 के लोक सभा चुनावों के आते-आते यह मुद्दा इतना ताक़तवर बन जाए कि सभी दल इस पर चुनाव लड़ें। शुरुआत में निम्न संगठनांे से यह गठित हुआ है, लेकिन आगे चलकर और सैकड़ों हजारों संगठनों को समाहित किया जाएगा। जिन संगठनों से इसकी शुरूआत हुई है वे हैं - इंदिरा अठावले, विनोद कुमार (अनुसूचित जाति, जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ), डॉ0 हैनी बाबू (ए.एस.जे.), विजया वेंकटरमन, डॉ0 शास्वती मजूमदार एवं आभा देव (डी.टी.एफ.), प्रेम सिंह (एस.टी.ए.), डॉ0 एस.के. सागर (एफ.ओ.सी.यू.एस.), डॉ0 केदार कुमार मंडल (ए.एफ.एस.जे.), डॉ0 नंदिनी दत्ता (सी.टी.एफ.), डॉ0 हंसराज सुमन (एफ.ए.एस.जे.), पाल दिवाकर (एन.सी.डी.एच.आर.) पी. अब्दुल नजर (सी.एफ.आई), हर्शवर्धन दवने, दिनेष अहिरवार, (एन.एस.ओ.एस.वाई.एफ.) विनय भूषण (ए.आई.बी.एस.एफ.), अनूप पटेल (एस.यू.आई.), लेनिन विनोबर (एस.एस.जे.), डॉ0 कौशल पवार, प्रो0 हेमलता महेश्वर, डॉ0 सुकुमार, जी.एन. साईंबाबा, आदि।
जिन-जिन साथियों को इस संबंध मंे सूचना मिले, वे फौरन शिक्षा से संबंधित लोगों से संपर्क करके सम्मेलन में आने के लिए प्रेरित करें। साथ ही साथ उनके बारे मंें अग्रिम सूचना भी दें। अगर पूछा जाए कि देश में वे प्रमुख कारण कौन हैं तो वह है शिक्षा का व्यवसायीकरण। अभी तक तो गनीमत है और आम लोग भी शिक्षा प्राप्त कर पा रहे हैं लेकिन निजीकरण के बाद यह असंभव हो जाएगा। अशिक्षित समाज अपने मान-सम्मान एवं प्रगति के बारे में सोच भी नहीं पाता। इसलिए देश के सभी प्रगतिशील लोग दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक एक होकर के इस सम्मेलन को सफल बनाने के लिए भाग लें।
संयोजक
डॉ0 उदित राज, रा0 अध्यक्ष, अजा/जजा परिसंघ
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