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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, July 8, 2013

मिस्र की दूसरी क्रांति

मिस्र की दूसरी क्रांति

Monday, 08 July 2013 10:14

अख़लाक अहमद उस्मानी 
जनसत्ता 8 जुलाई, 2013: इसका बहना और सूरज की तरफ मुस्कुराना/ इसका बदन में खून की तरह बहना/ जैसे फेफड़ों में श्वांस की तरह चलना/ बड़े खेतों से बागात तक/ इसके पानी की रवानी सूखे हलक तक/ फूलों से लेकर दरख्तों तक/ इसके पानी में मछली की शक्ल में भोजन/ इसके सैलाब में प्यासी धरती की दुआ/ यह अपनी रचना की वादी से गुजरने वाली/ पिरामिडों और मंदिरों को छूकर बहने वाली/ जन्नत सी जमीं पर किसी ताज के मानिन्द/ यह जो कहती है मेरे जल से जीवन ले लो/ यह जो कहती है मेरे अमर जल को बहने दो/ यह जो कहती है मेरी मौज में ठाठे भरता जीवन।
अरबी के ख्यात कवि उमर इब्राहीम ने मिस्र की ऐतिहासिक नील नदी पर इस कविता में देश के गौरव, जीवन और मिजाज को चंद पंक्तियों में समेट दिया। उमर इब्राहीम की नज्म को हर मिस्रवासी समझता होगा, बस पूर्व राष्ट्रपति मुहम्मद मुर्सी ईसा अलअय्यात ही नहीं समझ पाए। एक साल तीन दिन में उसी अवाम ने उन्हें चलता कर दिया जिसने उन्हें गद््दी सौंपी थी। हुस्नी मुबारक से परेशान मिस्र के लोगों की समस्याएं भ्रष्टाचार और रोजगार तक सिमटी थीं, लेकिन आमतौर पर धार्मिक, लेकिन धर्मनिरपेक्ष मिस्र का अवाम यह बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि देश के सहअस्तित्व को तोड़ा जाए। भारत के सूफीवाद के बेहद करीब मिस्र की जन-विचारधारा के उलट मुर्सी कितने दिन और चल पाते? मिस्र को मुर्सी अपनी शर्तों पर चलाने लगे थे। खाद्यान्न, दवाइयां, रोजगार और समता के अवसर प्रदान करने और भ्रष्टाचार मिटाने के बजाय मुर्सी कट्टर वहाबी उर्फ सलफी एजेंडे पर चलने लगे। उन्होंने हुस्नी मुबारक के भ्रष्टाचार के राज में और इजाफा ही किया। भारत के बाद मिस्र ही अकेला ऐसा देश है जहां इस्लाम के विभिन्न 'थॉट आॅव स्कूल' को विचार रखने का बराबर अवसर मिलता है। शियाओं के खिलाफ आग उगल कर मुर्सी शायद यह सोचने लगे थे कि रोटी के सवाल को उन्माद से हल कर लेंगे, लेकिन नील नदी का पानी लाल तो हो सकता है, अपनी सहअस्तित्व की फितरत को नहीं बदल सकता।
मुर्सी के जाने के साथ ही अल कायदा के शीर्ष नेता ऐमन अलजवाहिरी का छोटा भाई मुहम्मद अलजवाहिरी मिस्र की सेना और मुर्सी के विरोधियों पर हमले की योजना बना चुका है। मिस्र से अरबी समाचार की वेबसाइट वीटोगेट डॉट कॉम ने खबर दी है कि मुहम्मद अलजवाहिरी मिस्र के सिनाई रेगिस्तान और पहाड़ों में डेरा डाले हुए है। मुर्सी के जाने के बाद सबसे दुखी अमेरिका, इजराइल, सऊदी अरब, कतर और अल कायदा हैं। यही वह गठजोड़ भी है जो किसी भी देश को इस्लामी या तालिबानी या जेहादी या वहाबी या सलफी आतंकवाद के बाद उसे विवादित क्षेत्र में बदलने के लिए काफी है। पहले ये इस्लामी शरिया राज लाने के लिए अपने ही भाई-बहनों का खून बहाते हैं, फिर योजना के तहत इतने कमजोर हो जाते हैं कि वहां न्याय और लोकतंत्र का राज स्थापित करने के लिए अमेरिका और नाटो पहुंच जाते हैं। मारने वाले फिर खुद मरते हैं और वहां की पूरी सभ्यता अमेरिकी नवउपनिवेश में बदल जाती है। 
वीटो डॉट कॉम के मुताबिक मुर्सी को बेदखल करने वाले मिस्र के अवाम और सेना से बदला लेने के लिए अल कायदा हमले करेगा। मुर्सी के चाहने वाले उनके सत्ता में बने रहने तक ही शालीन होने का ढोंग कर सकते थे। बिल्ली के भाग्य से टूटे छींके में मुर्सी के हाथ सत्ता लग तो गई, लेकिन वे इतनी जल्दबाजी में थे कि यही भूल गए कि किन प्राथमिकताओं के आधार पर उन्हें शासन मिला था। उन्होंने रोजगार और भ्रष्टाचार के मुद्दे को दरकिनार कर कथित इस्लामी एजेंडा लागू करने में भरपूर दिलचस्पी दिखाई और जनता ने उन्हें चलता करने में। भारत की फितरत की तरह मिस्र के लोग कभी-कभार उन्माद में आ तो सकते हैं, पर वह उनका स्थायी भाव नहीं हो सकता। 
मुर्सी मुसलिम ब्रदरहुड पार्टी के नेता हैं। अंग्रेजी में 'मुसलिम ब्रदरहुड' के नाम से गैर-अरबी लोग इसके मिजाज से वाकिफ नहीं हो पाते। मुसलिम ब्रदरहुड का अरबी में नाम है 'जमातुल इख्वानुल मुसलमीन'। 'इख्वान' भाई को कहते हैं। हसन अलबन्ना मुसलिम ब्रदरहुड के संस्थापक थे। अलहसाफिया सूफी परंपरा के होने के साथ-साथ अलबन्ना इस्लाम के चार प्रमुख व्याख्याकारों में से एक इमाम अहमद इब्न हम्बल अलशाबानी की व्याख्या को मानने वाले थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान फिलस्तीनियों के साथ ब्रिटेन की नाइंसाफी के खिलाफ मुसलिम ब्रदरहुड ने संघर्ष किया। आज मुसलिम ब्रदरहुड मिस्र से निकल कर इंडोनेशिया तक और मॉरिटानिया के बदहवास कर देने वाले सहारा रेगिस्तान से लेकर ओमान के दिलकश साहिलों तक इक्कीस देशों में फैल चुका है। 
अलबन्ना के मुसलिम ब्रदरहुड पर आज वैसे ही वहाबी उर्फ सलफी सोच का कब्जा हो चुका है जिस प्रकार पूरी दुनिया में कई मदरसों और मस्जिदों पर वहाबी फिक्र और कार्यकर्ताओं ने इस्लामी तबलीग का नाम लिया और सऊदी अरब का एजेंडा थोप दिया। भारत के भी कई ख्यात सूफी मदरसे, मस्जिदें, खानकाहें और यहां तक कि दरगाह प्रबंधन समितियां भी इस साजिश का शिकार हो चुकी हैं। भारत में आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी नाकारा सरकारी नियंत्रण वाली वक्फ कमेटियों ने भी इस योजना में भरपूर मदद की। 
अरब के कई राजशाही परिवारों से वहाबी वैचारिक समानता होने के बावजूद मुसलिम ब्रदरहुड की राजनीतिक गतिविधियों से डर लगता है। मूल रूप से सऊदी अरब के पैसे से पलने वाले मुसलिम ब्रदरहुड को जहां अपने मूल नाम के साथ जगह नहीं मिलती वहां यह नाम बदल लेता है। यमन में 'यमन सुधार मंडल' के नाम से चल रही मुसलिम ब्रदरहुड की शाखा के लिए राष्ट्रपति अली अब्दुल्लाह सालेह ने कहा था कि इस संगठन के अल कायदा से संबंध हैं। ओमान के सुल्तान काबूस ने मुसलिम ब्रदरहुड को जाहिलों के समर्थन से चलने वाला संगठन बताया। सबसे मजेदार बात यह है कि सऊदी अरब में स्वतंत्र राजनीतिक गतिविधियां चलाने की सजा मौत या आजीवन कारावास होती है, वहां भी मुसलिम ब्रदरहुड का दफ्तर मजे से चलता है। 

निश्चित ही भारतीय खुफिया एजेंसियां जानती होंगी कि भारत में मुसलिम ब्रदरहुड किन-किन नामों से और किनकी मदद से मौजूद है। भारत इस्लामी राष्ट्र नहीं है, लेकिन दुनिया की दूसरी सबसे ज्यादा मुसलिम आबादी वाला देश है। भारत का पिछड़ा मुसलमान सऊदी अरब की वहाबी योजना को एक चारे की तरह लगता है। धार्मिक, गरीब, पिछड़ा और अपनी सरकारों से रुष्ट भी।
मुहम्मद मुर्सी के राष्ट्रपति बनने के साथ ही तत्कालीन अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने काहिरा की यात्रा की। मुर्सी ने पिछले साल 11 जुलाई को पहला विदेश दौरा सऊदी अरब का किया और सऊद राजपरिवार के प्रति अपनी वफादारी की दुहाई दी। कतर अमेरिकी और इजराइली हितों के लिए खुल कर काम करने वाला देश है। मुर्सी के सत्ता में आने के बाद कैबिनेट में अनुकूल लोगों को मंत्री बनाने पर कतर ने बीस लाख अमेरिकी डॉलर की पेशकश की थी। कतर ने यह भी घोषणा की कि वह मिस्र में दस अरब अमेरिकी डॉलर ढांचागत सुधार में निवेश करेगा। बीते साल बाईस नवंबर को मुर्सी ने नए संविधान को पार्टी घोषणापत्र में बदलने की नाकाम कोशिश की। मुर्सी ने संविधान सभा के काम में न्यायिक दखल रोकने की डिक्री पास कर दी। लाखों लोग इसके विरोध में फिर राजधानी काहिरा में जमा हुए और मुर्सी को झुकना पड़ा। 
मुर्सी चाहते थे कि ऐसा संविधान बने जो मुसलिम ब्रदरहुड की नीतियों के अनुकूल हो। बेरोजगारी और खाद्यान्न के संकट को तो मुर्सी ने दूर नहीं किया बल्कि देश को चालीस प्रतिशत तक राजस्व देने वाले पर्यटन उद्योग को भी डुबो दिया। शायद मुर्सी मानते होंगे कि फिरऔन के पिरामिडों को दिखा कर बेचना हमारा काम नहीं है। वे अफगानिस्तान के बामियान में प्रतिमाएं तोड़ने वाले तालिबानियों को आदर्श मान बैठे। पर्यटन को लेकर उनके दकियानूसी रवैये ने देश को और गर्त में धकेल दिया। 
सीरिया से कूटनीतिक संबंध खत्म करने में मुर्सी ने बहुत जल्दबाजी दिखाई। किसी जमाने में सीरिया के तत्कालीन राष्ट्रपति हाफिज अल असद ने सीरिया के झंडे में दो सितारे इसलिए रखे थे जिससे वे यह संदेश दे सकें कि एक सितारा सीरिया का और दूसरा उसके दोस्त मिस्र का। मुर्सी ने काहिरा में सीरियाई दूतावास पर ताला जड़वा दिया और सीरिया के राजदूत को बेइज्जत कर देश से निकाला। अमेरिका से ज्यादा इजराइल को खुश करने की मुर्सी की यह अदा भी मिस्रवासियों को पसंद नहीं आई।
अरब-इजराइल जंग में कभी सीरिया और मिस्र मिल कर लड़े थे, लेकिन बदले हालात और अमेरिका-सऊदी अरब-इजराइल की तिकड़ी से तैयार उग्र वहाबियत ने मिस्र को भी एक साल के लिए जकड़ लिया था। मुर्सी ने सीरिया के बागियों के समर्थन वाली रैली में पंद्रह जून को हिस्सा लिया और कथित बागियों की रक्षा के लिए 'नो फ्लाइ जोन' की मांग की। मुर्सी भूल गए कि मिस्र की सेना धर्मनिरपेक्ष है। सलफी आतंक को बढ़ावा देने वाली रैली में सीरिया के विरुद्धआग उगलने वाले मुर्सी के खिलाफ जून में जब प्रदर्शन बढ़ने लगे तो उसी सेना ने प्रदर्शनकारियों को नहीं रोका। सीरिया के विरुद्ध आग उगलने वाले यह वही मुर्सी हैं जिन्होंने पिछले साल अक्तूबर में इजराइल के तत्कालीन राष्ट्रपति शेमोन पेरेज को 'महान और अच्छा दोस्त' बताते हुए दोस्ती का हाथ बढ़ाया था। 
जब से मुर्सी की कुर्सी गई है, इजराइल सकते में है। बराक ओबामा ने चुनी हुई सरकार के यों चले जाने पर दुख जताया है। आम मिसरी उनके दुख को समझ सकता है। रिपब्लिकन सांसद मकेन ने मांग की है कि अमेरिका को मिस्र की सेना को दी जाने वाली मदद बंद कर देनी चाहिए। क्या इसलिए कि मुर्सी को जाते हुए सेना ने रोका नहीं?
अदली मंसूर कार्यवाहक राष्ट्रपति चुने गए हैं। वे उसी न्यायालय के न्यायाधीश हैं जिसे मुर्सी दरकिनार करने चले थे। मुसलिम ब्रदरहुड के आलीशान दफ्तर को काहिरा के लोगों ने धूल में मिला दिया। मुसलिम ब्रदरहुड के टूटते दफ्तर को सेना चुपचाप देखती रही। मिस्र क्या चाहता है यह मुहम्मद मुर्सी को समझ में आ गया होगा। तीस जून की ऐतिहासिक रैली में आतिशबाजी करती काहिरा की जनता को विश्वास दिलाने के लिए मिसरी वायुसेना ने राष्ट्रीय ध्वज के साथ उड़ानें भरीं और लाखों नम आंखों ने 'शुकरन शुकरन' के नारे लगाए। 
यह वही मिस्र का अवाम है जिसकी हुस्नी मुबारक के खिलाफ क्रांति को अमेरिका, यूरोप और सऊदीपरस्त अरबी मीडिया ने 'अरब वसंत' कहा था। तब जनता के गुस्से की चाबी से काहिरा की सत्ता का दरवाजा मुहम्मद मुर्सी के लिए खुल गया था। उसी मुर्सी के खिलाफ वही जनता फिर खड़ी हुई तो अमेरिकी, यूरोपीय और सऊदीपरस्त अरब मीडिया ने इसे 'अरब वसंत' नहीं कहा। वसंत के फूल जब मतलब के मुताबिक न खिलें तो कौन उसे बहार कहेगा? मुर्सी के हाथ लगी बटेर उड़ गई। उम्मीद है काहिरा अबके बरस जब फिर वसंत के फूल खिलाएगा तो जोश में होश कायम रखेगा।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/48522-2013-07-08-04-45-19

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