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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, July 15, 2013

जाति के आधार पर राजनीतिक मोबिलाइजेशन और जाति के विनाश का बुनियादी सवाल

जाति के आधार पर राजनीतिक मोबिलाइजेशन और जाति के विनाश का बुनियादी सवाल


शेष नारायण सिंह

Shesh ji,Shesh Narain Singh, शेष नारायण सिंह

शेष नारायण सिंह, लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। वह इतिहास के वैज्ञानिक विश्लेषण के एक्सपर्ट हैं। नये पत्रकार उन्हें पढ़ते हुये बहुत कुछ सीख सकते हैं।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच का एक फैसला आया है जिसमें जातियों की राजनीतिक सभाएं करने पर रोक लगा दी गयी है। जाति के आधार पर पहचान और उससे चुनावी फायदों की राजनीति करने वालों को इस फैसले से झटका लगना शुरू ही हुआ था कि सर्वोच्च न्यायालय का एक फैसला आ गया कि जिसमें लिखा है कि वे नेता चुनाव नहीं लड़ सकते जिनको कानूनी तौर पर गिरफ्तार किया गया हो। इसके एक दिन पहले एक फैसला आया था कि जिस नेता को किसी भी कोर्ट से दो साल या उस से ज़्यादा की सज़ा हो जाये वह भी चुनाव नहीं लड़ सकता। इन फैसलों को नेता बिरादरी स्वीकार नहीं करेगी। इन फैसलों की मंशा  को नाकाम करने के लिये अगर ज़रूरी हुआ तो वे लोग संसद के अधिकार का प्रयोग करके नियम क़ानून भी बना सकते हैं। ज़ाहिर है कि अपनी राजनीतिक सुविधा को अमली जामा पहनाने के लिये राजनीतिक समुदाय के लोग न्यायिक हस्तक्षेप के खिलाफ माहौल बनायेंगे। आशंका है कि उसी माहौलगीरी में कहीं इलाहाबाद उच्च न्यायालय का जाति आधारित चुनावी रैलियों के बारे में आया महत्वपूर्ण फैसला भी बेअसर न हो जाये। फैसला आने के बाद शासक वर्गों की सभी राजनीतिक पार्टियाँ  जाति की राजनीति से बाहर निकलने के लिये तैयार नज़र नहीं आ रहीं हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि आगे क्या होता है।

उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने पिछले दिनों लखनऊ में ब्राह्मणों की एक चुनावी सभा की थी। उस सभा में आये ब्राह्मणों को देख कर उन राजनीतिक पार्टियों के सामने मुसीबत का पहाड खड़ा नज़र आने लगा था जो आगामी चुनावों में उत्तर प्रदेश के ब्राहमणों को अपने साथ लेने की फ़िराक में हैं। ठीक इसी वक़्त उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका आ गयी और माननीय अदालत ने जाति के आधार पर राजनीतिक मोबिलाइजेशन के खिलाफ हुक्म सुना दिया। अगर यह हुक्म असर दिखाता है तो यह भारतीय समाज के लिये बहुत ही उपयोगी होगा। राजनीतिक बिरादरी को जाति के आधार पर लोगों को लामबन्द करके वोट लेने की रिवायत से बाज़ आना चाहिए क्योंकि उत्तर प्रदेश में सक्रिय तीन बड़ी पार्टियों के आदर्श महापुरुषों ने जाति आधारित राजनीति का विरोध किया है। कांग्रेसियों के आराध्य महात्मा गांधी, समाजवादी पार्टी के महापुरुष डॉ. राम मनोहर लोहियाऔर बहुजन समाज पार्टी के नेताओं के देवता डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने जाति के विनाश को अपनी राजनीति का बुनियादी आधार बनाया है। महात्मा गांधी ने जाति आधारित छुआछूत के खिलाफ आज़ादी की लड़ाई के साथ साथ आन्दोलन चलाया और उसे आज़ादी की लड़ाई का इथास बताया। डॉ राम मनोहर लोहिया की किताब जाति प्रथा में उनके भाषणों, पत्रों और कुछ लेखों का संकलन है। उन्होंने जाति के विनाश की बातें बार बार कहीं थीं। उन्होंने कहा कि," जातियों ने हिन्दुस्तान को भयंकर नुक्सान पंहुचाया है"  एक जगह पर लिखा है कि, "हिन्दुस्तान बार बार विदेशी फौजों के सामने घुटने क्यों टेक देता है। इतिहास साक्षी है कि जिस काल में जाति के बंधन ढीले थे, उसने लगभग हमेशा उसी काल में घुटने नहीं टेके हैं।"

डॉ लोहिया कहते हैं कि जाति का बंधन ऐसा था कि जब भारत पर हमला होता था तो 90 प्रतिशत लोग युद्ध से बाहर रहते थे और युद्ध का काम केवल 10 प्रतिशत लोगों के जिम्मे होता था। ऐसा जाति प्रथा के कारण होता था क्योंकि युद्ध का काम केवल क्षत्रियों के नाम लिख दिया गया था। उन्होंने सवाल उठाया है कि जब 90 प्रतिशत लोगों को राष्ट्र की रक्षा के काम से बाहर रखा जायेगा तो राष्ट्र की रक्षा किस तरह से होगी। डॉ लोहिया के पूरे लेखन में जाति प्रथा को खत्म करने की बात बार बार की गयी है। उन्होंने कहा है कि जब तक जातियों में शादी व्याह के सम्बन्ध नहीं बनते  तब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं किया जा सकता। और जब तक जाति का विनाश नहीं होगा तब तक सामाजिक एकता की स्थापना असंभव है।

पिछली सदी के सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के जानकारों में डा. बी आर अंबेडकर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना थाउनको विश्वास था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है। अपनी किताबThe Annihilation of caste में डा. अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो अंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन आज कई पार्टियाँ डॉ अम्बेडकर के दर्शन शास्त्र को आधार बनाकर राजनीतिक लक्ष्य हासिल कर रही  हैं। उत्तर प्रदेश की नेता मायावती और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिये अंबेडकर का सहारा लिया और आज बहुजन समाज पार्टी एक राजनीतिक ताक़त है। इस बात की पड़ताल करना दिलचस्प होगा कि अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाली पार्टी और उसकी सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिया क्या कदम उठाए हैं।

मायावती की पिछले पचीस वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिये कोई काम नहीं किया है। बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर हैं।दलित जाति को अपने हर साँचे में फिट रखने के लिये तो उन्होंने छोड़ ही दिया है अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बाँधे रखने के लिये बड़े पैमाने पर अभियान चला रही हैं। हर जाति की भाईचारा कमेटियाँ बना दी गयी हैं और उन कमेटियों को मायावती की पार्टी का कोई बड़ा नेता संभाल रहा है। डाक्टर साहब ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियाँ नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती साँचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।

डॉ बी आर अम्बेडकर ने जाति के विनाश के मुद्दे पर कभी कोई समझौता नहीं किया। उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब The Annihilation of caste  के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला। लाहौर के जात पात तोड़क मंडल की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिये न्यौता मिला। जब डाक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राह्मणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ता, काफी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुये। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। अंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है। इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन है। और इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डा. अंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते हैं और उसको बनाए रखने के लिये एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिये डाक्टर अंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंतर्जातीय विवाह का था, लेकिन उसके लिये राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही है, लोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे है, यह अलग बात है।

इस पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिये अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिये होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए। अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी। ब्राहमणों के आधियत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिन अंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी।

अब जाति को एक मामूली ही सही, लेकिन सार्थक धक्का देने वाला जो फैसला इलाहबाद उच्च न्यायालय ने  किया है, उसके आधार पर समाज के जागरूक लोगों को सक्रिय हो जाना चाहिए। जाति के विनाश के सबसे बड़े समर्थकों , डॉ राममनोहर लोहिया और डॉ बी आर अम्बेडकर के अनुयायियों से यह उम्मीद करना ठीक नहीं होगा क्योंकि उनकी सत्ता की बुनियाद ही जाति की पहचान के आधार पर बनी हुई है।इन पार्टियों में  उन महान चिंतकों की बुनियादी विचारधारा को नजर अंदाज किया जा रहा है। समाजशास्त्री मानते हैं कि जाति प्रथा भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक  विकास में सबसें बड़ा रोड़ा है, और उनके विनाश के लिये अंबेडकर द्वारा सुझाया गया तरीका ही सबसे उपयोगी है लेकिन जाति के आधार पर सत्ता हासिल करने वालों से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वे जाति के शिकंजे को कमज़ोर पड़ने देंगे।


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