साबित करो कि जिन्दा हो ?
अब ये सरकार की तरफ से फाईनल हो गया है की सोलह जुलाई तक जो उत्तराखंडी अपने जिन्दा होने का प्रमाण देहरादून तक नहीं पहुँचा पाएगा उसे मृतक मान लिया जाएगा । सरकार को मानसून जोर पकड़ने से पहले आपदा राहत की थैली का हिसाब करना है ।
देश तो अब गुजरात और अयोध्या पर नज़र लगाये बैठा है, केदारघाटी और बाकी तबाह हुए इलाके से देश का क्या लेना देना । जिनके मरे हैं वो जाकर माथा पीटते रहें, वहाँ बचाव अभियान पूरा हो चुका है । घोषणा हो चुकी है की हर किसी को निकाल लिया गया है, जो निकले वो अपने घर चले गए। जिनका घर ही वहीं है, उनको अपने जिन्दा रहने का सबूत देना है ।
काश इन हुक्मरानों के घर का भी कोई फँसा होता तो तारीख निकालने में इतनी हड़बड़ी न होती । कुछ नहीं तो इतनी आश रहती की क्या पता वो भी झटके में गुजरात चला गया हो, वहाँ गिनती होगी तो किसी तरह वापस आ जाएगा । पर आपदा की थैली फटी है, राहत को ठिकाने लगाना है इस वास्ते सरकार को फटाफट तारीख तय करनी पड़ी की भईया फलां डेट तक बता देना की तुम जिन्दा हो नहीं तो तुम्हारी जान की कीमत हम निकाल लेंगे । फिर अगर उस सख्श के नाम पर नेताजी मुआवजा खा गए तो वो कागज में मर ही गया, जिंदगी बीत जायेगी लेकिन जो कागज पर मर गया उसके जिन्दा होने का सबूत नहीं बन पाएगा। अगर खेत भी बचे होंगे तो पटवारी से लेकर देहरादून तक दौड़ता रहेगा की मेरा है पर वहाँ कागज दिखला दिया जायेगा की बेटा जिनको केदारनाथ ने नहीं मारा उनको तो अब सरकार मार चुकी है और तुम्हारा नाम उसी मृतकों की लिस्ट में है, फिर कैसे खेत के कागज खोजने चले आये । पर मरे अपनी बला से, सरकार के पास उसके नाम से हज़ार करोड़ की थैली पहुँची है ।
मौसम विभाग ने अबकी पहले ही बता दिया था की जुलाई में भारी बारिश होगी, जिसके चलते सरकार के जो नुमाईंदे पहाड़ में थे वो राजधानी भाग आये हैं । सबके बीवी बच्चे हैं, और घर देहरादून में है इसलिए चेतावनी की इज्ज़त करते हुए उनको अपनों के वास्ते देहरादून आना जरुरी था । ऐसे में पहाड़ पर जो कहीं दूर दराज के इलाकों में फँसा होगा, किसी दूर गाँव के परिचित के यहाँ बीमारी की हालत में बिस्तर पर पड़ा होगा, वो कैसे अपने जिन्दा होने का सुबूत तय की गयी तारीख तक देने जाए । एक भयानक त्रासदी की पीड़ा से उबरते हुए उसे खुद भी अपने जिन्दा होने पर भरोसा करने में अभी समय लगेगा। विकसित मुल्कों में ऐसे पीड़ितों के लिए विशेष चिकित्सा की व्यवस्था होती है, जहाँ उनको जिन्दा होने का यकीन कराया जाता है । स्वयंसेवक मनोचिकित्सक उसे त्रासदी की पीड़ा से उबरने में सहायता करते हैं पर यहाँ तो इतनी हड़बड़ी है की ये फाईल निबटा दी जाय नहीं तो बजट लैप्स कर जाएगा। मानसिक रूप से पीड़ित को उबारने की जगह उसके दिल को और डुबाने की तैयारी हो रही है । हाँ अभी तक ये गनीमत है की बहुगुणा की गणित को दूसरे राज्यों में नहीं अपनाया गया है क्योंकि अभी लापता तो तमाम जगहों के लोग हैं । उत्तरप्रदेश में तो बाकायदा मृतक संघ भी है जिसके सदस्यों को उनके ही भाई बंधुओं ने कागज़ पर मार दिया है । ये बिचारे अपने जिन्दा होने के सबूत के लिए अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं, कईयों ने तो चुनाव भी लड़ा, लम्बा धरना प्रदर्शन भी करते रहते हैं पर कागज़ पर जो मर गया उसका जिन्दा होना मुश्किल है । कुछ लोग तो अपने जिन्दा होने के सबूत के लिए आत्महत्या कर लेने की भी धमकी देते हैं पर डर जाते हैं की अगर सचमुच यमराज के ही कागज़ में नाम आगया तो फिर क्या होगा ।
जो जिन्दा बचे हैं और उनका हिसाब है सरकार के पास और उनको भी मारने की पूरी तैयारी हो चुकी है । राहत के नाम पर पहाड़ तक पहुंचे विज्ञापन के डब्बे खुल रहे हैं तो उनमे और केदार घाटी की दुर्गन्ध में समानता मिल रही है । मुस्कुराते चेहरों वालों पैकेटों से अजीब सी सड़ांध बाहर आ रही है, सरकार की मज़बूरी है की ये पैकेट बंटवाने भी जरुरी हैं क्योंकि आलाकमान ने भेजा है । ये वही राहत है जो दिल्ली में एक शो का आयोजन करके भेजी गयी थी, बीच रस्ते में ट्रकों का तेल ख़तम हो गया था । वैसे भी बारिश में कोई पहाड़ चढ़ता नहीं, पानी भी नीचे भागता है और नीचे भाग गया बेटा बरसात बीत जाने के बाद घर आने की बात करता है । बरसात में पहाड़ की गाड़ियाँ भी मिलतीं क्योंकि बारिश अक्सर सड़कों का सत्यानाश कर देती है । सभी के घर देहरादून में होते नहीं हैं, सामान्य समय में भी जोरदार बारिश हो तो रस्ते बाधित हो जाते हैं ऐसे में जब पूरी लिंक रोड गायब हो गयी हो और हाई वे ठीक होने में कम से कम डेढ़ साल लगने की बात हो रही हो तब राजधानी तक अपनी बात पहुँचाने कोई कैसे आये ।
जिनके पास हेलीकाप्टर की सुविधा है उनका तो कोई अपना है नहीं । इस समय आलम ये है की देश भर से आने जाने की सुविधा पूरी है पर कोई पहाड़ के अपने गाँव तक जाना चाहे तो वो एवरेस्ट की चढ़ाई जैसा ही है । एवरेस्ट पर भी शेरपा सब मिल कर चढ़ा देते हैं पर यहाँ तो ऐसा कोई भी नहीं है । गाँव को दुनिया से जोड़ने वाला पुल कब का बह चुका है और चीड़ के लट्ठे डाल कर या लोहे के तारों पर गडारी लगा कर दुनिया से जुडने का एडवेंचर कर सकने की ताकत अभी भीतर तक दरक चुके गाँव वालों में नहीं है । न ही दिल्ली कमाने गए बेटे से गाँव में सिसकती माँ कह सकती है की तुम्हारे पिता जी का पता नहीं, तुम आओ और इन हालातों में उनकी तलाश करो । बेटे के बाजुओं में भी अब शायद उतना दम नहीं होगा जो कभी खेल-खेल में उफनती नदी में कूद जाता था और जब तक माँ पानी का एक घड़ा घर तक पहुंचा कर आती थी तब तक वो भी किनारे बैठ कर माँ का इंतज़ार करता मिलता था ।
ऐसे में जीवित होने का सबूत देने के दिन तय करने का काम वही कर सकते हैं जिन्हें मालूम नहीं की पहाड़ होते क्या हैं । पहाड़ होते क्या हैं और क्या हैं उनकी मुश्किलें, इस सवाल का हल न तो किसी विकास पुरुष को मिला न ही किसी जनरल को फिर जिसके पहाड़ी होने पर ही सवाल उठ रहे हों उनसे ऐसी ही उम्मीद कैसे की जा सकती है कि उनके फैसलों में पहाड़ भी शामिल हों ? हाँ, इन सारे फैसलों में शामिल हैं पहाड़ के वो लोग जो गैरसैण की बात नहीं करना चाहते, पहाड़ के विकास का मतलब तराई और मैदानों में ऊँची इमारतों का जंगल तैयार करने से लगाते हैं ।
पहाड़ से नीचे अपने ही मैदान में आया आदमी दूसरी ही दुनिया देखता है, जहाँ से उसके पहाड़ का कोई नाता ही नहीं है, बोली और थाली भी उसकी अपनी नहीं मिलती । वो फिर से अपने पहाड़ पर ही भाग जाना चाहता है, वो उन लोगों में शामिल ही नहीं हो सकता जो उसके ही बल पर राजधानी में बैठे हैं और कह रहे हैं की खुद के जिन्दा होने का सबूत हमारी दुनिया में लाकर रख दो नहीं तो जैसे पहाड़ वैसे ही तुम, दरकते रहेंगे पहाड़ और मरते रहोगे तुम । ये बिचारा तो देर सबेर साबित कर ही देगा की जिन्दा है क्योंकि उसकी जीवट उसे मरने नहीं देगी पर तमाम उन लोगों को भी जरुरत है कि सबूत रख दें की उनके अन्दर भी जान है, जो ले रहे हैं अनोखे फैसले ।
साभार : http://www.gapagap.com/blog/prove-that-you-are-living/689/
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