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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, July 15, 2013

उत्तराखंड: कहानी जो कही नहीं गयी

उत्तराखंड: कहानी जो कही नहीं गयी

रवि चोपड़ा

uttarakhand-disaster-2013-3उत्तराखंड की सामूहिक स्मृति में यह अब तक की सबसे भीषण आपदा है. भारी बारिश के साथ आई बाढ़ ने पहाड़ी इलाकों, गांवों, कस्बों, हजारों लोगों, पशुओं, खेतों, सिंचाई गूलों, पेयजल लाईनों, बांधों, सड़कों, पुलों और उस सब को बहा डाला जो इसके रास्ते में आया।

एक सप्ताह बाद भी मीडिया का ध्यान उत्तराखंड के सबसे ऊपरी हिस्से में स्थित नदियों के पास के इलाकों से हजारों तीर्थ यात्रिओं और पर्यटकों को रेस्क्यू करने के प्रयासों पर लगा हुआ है। लेकिन यह तबाही चार धाम यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ से आगे जाकर समूचे प्रदेश में व्याप्त है। कई छोटी नदियों के तटीय इलाकों में भी बाढ़ की भयावहता देखी गयी है लेकिन मीडिया का ध्यान अभी इस नुकसान की तरफ नहीं जा सका है।

आधिकारिक सूत्रों और स्वयंसेवी संस्थाओं की आँखों देखी से तबाही की जो तस्वीर सामने आ रही है, उसके अनुसार करीब २०० गाँवों में नुकसान हुआ है और हर दिन नए गाँवों के प्रभावित होने की कहानी सामने आ रही है। जिन ग्रामीणों के घर, जमीन और जानवर बाढ़ की भेंट चढ़ गए, वे दैनिक आजीविका जुटाने में खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं।

खंडित कवरेज

तीर्थ यात्रियों-पर्यटकों पर केन्द्रित राष्ट्रीय मीडिया ने चार धाम इलाके समेत इस पूरी त्रासदी की खंडित तस्वीर पेश की है। मीडिया उन हजारों लोगों के संकट को नहीं देख सका है, जहाँ लगभग सभी पुरुष आजीविका के लिए यात्रा सीजन के इंतजामों में लगे रहते हैं। यात्रा से ही इन घाटियों में साल भर की आजीविका का बड़ा हिस्सा जुट पाता है। ये लोग गौरीकुंड से केदारनाथ के बीच के 14 किलोमीटर मार्ग में स्थित ढाबों को चलाने में मदद करते हैं. यहाँ रेनकोट, छाता, जार, छड़ी, पानी, शीतल पेय, पानी की बोतलें, घर में बने पकवान और अन्य वस्तुओं की सप्लाई वे करते हैं। वे अपनी पीठ पर बच्चों, बूढों और पर्यटकों को यात्रा करवाते हैं। वे मार्ग पर खच्चरों और घोड़ों से भी यात्रियों की मदद करते हैं.

केदारनाथ गए मन्दाकिनी घाटी में गांवों में भय और आशंका का वातावरण है। यहाँ के लड़के और पुरुष वापस नहीं लौटे हैं और तबाही में उनके मारे जाने का डर है। गुप्तकाशी के करीब के एक गाँव से 78 लोग लापता हैं।

इस आपदा में मारे गए लोगों के परिजनों और धार्मिक पर्यटन से आजीविका अर्जित करने वाले परिवारों की त्रासदी ये है कि इस बार यात्रा अब पूरे साल के लिए यात्रा बंद हो चुकी है और अगले साल के लिए भी इन इलाकों में सड़क और पुल निर्माण मुमकिन नहीं दिखता। इस तरह चार धाम घाटी में कई हजार परिवार सीधे गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं। अब इन नए बेरोजगारों के लिए रोजगार का विकल्प क्या होगा ? ज्यादा संभावना यही है कि इन गाँवों से पुरुषों का पलायन होगा।

त्रासदी ने न सिर्फ हजारों लोगों की आजीविका पर प्रहार किया है, बल्कि यह उत्तराखंड के सबसे कमाऊ रोजगार, धार्मिक पर्यटन के लिए भी खतरनाक झटका है। मीडिया की रपटें केवल तीर्थ यात्रियों पर ही केन्द्रित है। इस आपदा के दृश्य और उसके बाद की स्थितियां जनता की याददाश्त में बनी रहेंगी, जो आने वाले दिनों में पर्यटन शुरू करने को लेकर बाधाएँ ही लाएगा। समझा जा सकता है कि राज्य सरकार की विफलता और राजनीतिज्ञों व प्रशासनिक अधिकारियों की नाकामी का असर राज्य के खजाने पर भी पड़ेगा।

जुलाई में शुरू होने जा रहा कांवड़ मेला, जिसमें केवल दो सप्ताह में लाखों की संख्या में कांवडि़ये हरिद्वार से ऊपर गंगा तटों पर जमा होंगे और वापसी में अपने साथ गंगाजल ले जायेंगे। राज्य सरकार पर सितम्बर तक 12 साल में एक बार होने वाले नंदा देवी राजजात (यात्रा) का दवाब भी रहेगा। ऐसे में उत्तराखंड के पर्यटन उद्योग पर विस्तार से बहस करने के समय नहीं रहेगा। लेकिन यह साफ है कि इसमें बुनियादी बदलावों की साफ जरूरत है। राज्य सरकार की नाकामी उजागर होने के बाद उत्तराखंड में दोबारा पर्यटन की संभावनाओं पर खुली बहस जरूरी लगती है।

यह 'विचित्र' घटना नहीं

उत्तराखंड में बाढ़ के प्रभावों ने पर्यटन पर ढेरों प्रश्नचिन्ह लगा दिए हैं और इस बात पर बात हो रही है कि हिमालय में किस तरह का विकास होना चाहिए। इस बहस में जाने से पहले, इस बाढ़ में आये पानी के स्वभाव को समझना जरूरी है। पहले ही कई तरह की आवाजें आ रही हैं कि यह अचानक हुआ और 'विचित्र' है। 1999 में उड़ीसा में आया सुपर साईक्लोन, 2005 में मुंबई में हुई मूसलाधार बारिश और अब उत्तराखंड की भारी बारिश, तीन साफ संकेतक हैं। मात्र 15 साल के अंतराल में. इन सभी में भारी तबाही और विस्थापन हुआ है। इनको मुश्किल से ही 'विचित्र' घटना कहा जा सकेगा।

इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने कई रपटों के माध्यम से बार-बार चेताया है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम में अत्यधिक उतार-चढ़ाव देखने को मिलेंगे। हम पहले से ही ग्लोबल वार्मिंग की संवेदन रेखा पर पहुँच चुके हैं। हमें अपनी विकास योजनाओं के निर्माण में इस स्थिति को ध्यान में रखने की जरूरत है। खासकर हिमालयी इलाकों में जहाँ पहाड़ हत्यारे बनते जा रहे हैं।

90 के दशक में जब एक अलग राज्य के निर्माण की माँग गति पकड़ रही थी, उत्तराखंड के लोगों ने कांफ्रेंस, बैठकों और कार्यशालाओं के माध्यम से इस भौगौलिक इलाके के विशेष चरित्र को उजागर किया था। चिपको आन्दोलन कर चुकी महिलाओं को नए राज्य से अपेक्षा थी कि नया राज्य हरित विकास का रास्ता अख्तियार करेगा। नंगे हो चुके ढलानों में फिर से पौधे रोपे जायेंगे। उनके अपने गाँवों के जंगलों में जलावनी लकड़ी और चारा-पत्ती की इफरात होगी। उन्हें लगता था कि जंगलों पर सामूहिक अधिकार से पुरुषों को वन-उत्पाद आधारित रोजगार मिल सकेगा और उन्हें अपना गाँव छोड़कर रोजगार के लिए सुदूर मैदानों की ओर पलायन नहीं करना पड़ेगा। पौधारोपण और जलागम विकास से उनके सूखे झरने फिर से जलप्लावित होंगे और सूखी नदियों में भी प्रचुर मात्रा में पानी बह रहा होगा और इस सबसे उन्हें शराब के लती और हिंसक हो चुके पतियों के अत्याचार से मुक्ति मिल सकेगी।

सालों-साल नगरों, कस्बों और गाँवों में उन्होंने अपने पर्वतीय राज्य की मांग के लिए प्रदर्शन किये। इनके विकास के सपने में राज्य में मानवीय, सामजिक और प्राकृतिक पूँजी का सपना था। चिपको आन्दोलन के विश्वव्यापी प्रभाव से प्रेरित इन महिलाओं ने सोचा था कि वे जन-आधारित विकास का एक और उदाहरण सामने लाएँगी.

लेकिन 13 साल की राज्य की यात्रा में राज्य को नेतृत्व देने वालों लोगों ने विकास के परम्परागत मॉडल का गला घोट दिया और उसी चिरपरिचित पैसे के पीछे भागने वाली एकांगी व्यवस्था को तवज्जो दी। उन्होंने अपने निर्णयों में हमेशा राज्य के पर्वतीय चरित्र की अवहेलना की। संवेदनशील जगहों पर नाजुक इको-सिस्टम को भूल गए। विकास के नाम पर सड़कें खोदने पर जोर दिया। बाँध, सुरंगें, पुल और असुरक्षित भवन बना डाले। इस सारी प्रक्रिया में, अनावृत पहाड़ वृक्षविहीन हो गए। सड़कों में कम लागत पर ध्यान दिया, न कि सुरक्षा को बढ़ावा देने पर और इससे मनुष्य का ही जीवन खतरे में आ गया. पहाड़ों में सुरंगों के निर्माण ने कमजोर ढलानों को और कमजोर बना दिया। झरनों को सुखा दिया। गलत मानकों पर स्वीकृत की गयी विद्युत परियोजनाओं ने नदियों और उनके ईको-सिस्टम को नष्ट करने का काम किया। होटल और प्रोपर्टी-व्यवसायियों ने नदियों के तट अतिक्रमित कर लिए।

हाँ, धन पैदा हुआ लेकिन उसका लाभ बहुत कम लोगों को मिला। वह खासकर दक्षिणी-तराई के नगरों, कस्बों और घाटियों में उत्पादन आधारित निवेश तक केन्द्रित रहा। पहाड़ के गाँवों में कृषि उत्पादन सिकुड़ने लगा। महिलाओं को अब भी तीखी ढलानों से चारा, जलावनी लकड़ी और पानी के लिए जूझना पड़ रहा है। यहाँ पूरे के पूरे परिवार कभी भी मौका मिलने पर मैदानों में उतर जाने के लिए तैयार बैठे हैं।

इस बाढ़ से खतरे की घंटी साफ-साफ सुनाई पड़ी है। संवेदनशील हिमालय पर बिना-सोचे समझे किये गए विकास ने आपदा के सिवा कुछ हाथ नहीं लगेगा। इको-सेंसिटिव विकास के मायने हैं धीमी वित्तीय प्रगति लेकिन टिकाऊ और सबके लिए समान विकास।

http://www.nainitalsamachar.in/uttarakhand-story-which-is-not-known/

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