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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Tuesday, July 16, 2013

ढिमरी ब्लाक के बीज

ढिमरी ब्लाक के बीज


पलाश विश्वास


हरेला का यह तिनड़ा क्यों हुआ ढिमरी ब्लाक


बहुत अनोखी आदत रही है पिता की।हाईस्कूल पास करने के बाद उन्होंने मुझे देवघर बुलाया,जहां सत्संग अधिवेशन में भाषण करने वाले थे तरुण कांति घोष। उनके मित्र और बांगला के किंवदंती पत्रकार।हालंकि पिताजी भी उस अवसर पर बोले। लेकिन उसके बाद वे कोलकाता  दिखाने ले चले मुझे और ले गये सीधे केवड़ा तला महाश्मसान। समाधि थी वहां माइकेल मधुसूदन दत्त की,जिन्होंने राम को कलनायक बनाकर रचा मेघनाद वध काव्य- ब्राह्मणवादविरोधी बहुजन आंदोलन से काफी पहले तब जब मुंडा और संथाल विद्रोह का समय रहा होगा या चल रहा होगा किसानों का नील विद्रोह।जिसके नेता थे हरिचांद ठाकुर भी।बांग्ला में फिर वैसा कोई दूसरा काव्यविद्रोह नहीं हुआ ईश्वर के खिलाफ,जिसने सौंदर्यशास्त्र झटके से बदल दिया और छंद अलंकार मुक्त हो गयी कविता हमेशा के लिए। जयदेव ने संस्कृत में ईश्वर के नायकत्व का अवसान किया और रक्त मांस के मानुष से सिरजा गीतगोविंदम। उनसे एक कदम आगे हुए माइकेल ,और मेघनाथवध काव्य हमने हालांकि पढ़ लिया था लेकिन यह सब तब अहसास करने का मानस अभी बना नहीं था। पिता भी कुछ नहीं बोले सिर्फ इसके सिवाय कि देखो,माइकेल को देखो।


फिर वे केवड़ातला महाश्मशान के उस कोने में ले चले मुझे यह दिखाने कि कहां वे बैठे थे आमरण अनशन पर,विभाजनपीड़ितों की शरणार्थी पहचान मिटाकर उन्हें आजाद देश का आजाद  नागरिक बनाने के लिए।तब शरणार्थी आंदोलन पर वर्चस्व उन्हींके कामरेडों का था और रातोंरात वहां से उठाकर उन्हें फेंक दिया गया था बंगाल से बाहर ओड़ीशा में। वहां भी वे नहीं बदले तो उन्हें उनके साथियों समेत भेज दिया गया नैनीताल की तराई में जिम कार्बेट के आदमखोर बोघों के जंगल में।वहां से कोई भगा नहीं पाया उन्हें। वहां 1958 में ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के वे नेता थे। किसानों ने लालकुआं और पंतनगर के बीच जंगल में बसा लिया था मरीचझांपी जैसा कोई उपनिवेश और उसमें किसान थे सभी जातियों और धर्मों के,शरणार्थी भी। तब सेना और पीएसी के संयुक्त अभियान में आग लगी थी उन चालीस गांवों में और गिर्फ्तार हुए थे किसान हजारों की तादाद में।तब वह कारमेडों का आंदोलन था।जिसे फिर कामरेडों ने कहा कि वह उनका आंदोलन नही था।

कामरेडों ने सरेआम कह दिया कि ढिमरी ब्लाक आंदोलन उनका हरगिज था नहीं ।तेलंगना के आत्मसमर्पण के बाद हुआ यह वाकया और पिता जेल भेजे गये। पुलिस हिरासत में उनके तोड़े गये हाथ तब गवाह थे समाजवादी भी, जो अदालत में मुकर गये वाकये से, हालांकि सत्य बोलने की साख में वह युधिष्ठिर के समकक्ष थे। हमने बसंतीपुर के पड़ोसी गांव के बाबा गणेशासिंह को कभी नहीं देखा। वे जेल में ही मर गये। पर उनके खेत में जब हो रहा था उनका अंतिम संस्कार,तब जमीन आसमान एक करते लाल सलाम लाल सलाम के नारे आज भी गूंजते हैं मेरे कानों में। उनके बाकी साथियों में सबको हमने देखा करीब से।बचपन में और बचपन के बाद भी ।पूरे दस साल उनके खिलाफ जारी था मुकदमा।जो संविद जमान में वापस हुआ आखिरकार तब जब ढिमरी ब्लाक का नामोनिशान मिटा दियागयाजैसे वह हुआ ही नहीं। कभी नहीं हुआ।


मैं तब कक्षा दो का छात्र था प्राइमरी स्कूल हरिदासपुर में और पीतांबर पंतजी मेरे गुरुजी थे। उनके सबक ठीक से शुरु हुए भी न थे कि पिता मुझे ले गये नैनीताल की सैर कराने कि ढिमरी ब्लाक मुकदमे की सुनवाई होनी थी कचहरी में। वे सभी जमानत पर थे।हरीश ढोंढियाल वकील थे और श्रीमती ढोंढियाल तब विद्यालय निरीक्षक थीं। तल्लीताल के जिस दुमंजिले मकान में तब हम ठहरे थे,डीएसबी में रहते रहते वह मलबे में बदलने लगा था और अब तल्लीताल में वह मकान कहीं नहीं है। सुनवाई के दौरान मैं अदालत में हाजिर था क्योंकि पिता के सिवाय कोई दूसरा गया नहीं था हमारे साथ।सुनवाई के बाद जज ने उन्हें शायद सात साल की सजा सुनायी,अब ठीक से याद नहीं है। तुरंत ही जमानत भी हो गयी। मुझे कुछ भी मालूम नहीं चला था तब। मै तो घूमने गया था।


अदालती कार्यवाही के बाद जैसे कुछ न हुआ हो, पिता मुझे राजभवन के रास्ते सीधे ले गये डीएसबी कालेज, दर्शनीयस्थल दिखा रहे थे वे मुझे।तब क्या मालूम कि वे मुझे नत्थी कर रहे थे हिमालय से हमेशा के लिए डीएसबी के जरिये।हालांकि नीचे उतरकर वे नैनीदेवी के मंदिर भी ले गये थे मुझे।दिखाया था झील में पुस्तकालय, जिसके ठीक ऊपर रहते थे कामरेड हरीश ढोंढियाल। हाईस्कूल पास करके केवढ़ातला महाश्मशान में मधुसूदन दर्शन के बाद पिता ने मेरा दाखिला कराया डीएसबी परिसर में जीआईसी में।


मुझे उन्होंने तब हरीशचंद्र सती,जो हमारे क्लास टीचर थे और क्रैगलेंड हास्टल के वार्डन जेसी पंत के हवाले छोड़ गये।पर नैनीताल में मेरे स्थानीय अभिभावक बना गये वे ढिमरी ब्लाक आंदोलन के अपने साथी कामरेड हरीश ढौंढियाल को। तब अजनबी सा वह नैनीताल मेराघर बन गया न जाने कब से नहीं मालूम लेकिन पिता ने चाहे अनचाहे मेरे भीतर बो दिये ढिमरी ब्लाक के ही बीज तमाम,जो मौसम बेमौसम अंकुरित होते रहते हैं। लेकिन विद्रोह फिरभी नहीं होता। शायद इसलिए कि पिता हर मायने में थे विशुद्ध किसान।देश भर में दौड़ते रहने के बावजूद उनके पांव हमेशा जमे होते थे अपने खेत की कीचड़ में। खेतों की मेढ़ और राजधानी में राजपथ और जनपथ के बीच कभी कोई अंतर नहीं समझा उन्होंने। बीज डालने के बाद फसल सींचने से लेकर खलिहान पहरेदारी तक खेत की हर कार्वाई में वे हमेशा रहते थे मुश्तैद। बीज अंकुरित होने से ही कहीं कोई ढिमरी ब्लाक नहीं होता कहीं यकीनन।ढिमरी ब्लाक के लिए तो ढिमरी ब्लाक चाहिए यकीनन।


इसीतरह इंटर की परीक्षा देते ने देते पिता ने मुझे बुलाया लिया दिल्ली और चांदनी चौक मेके धर्मसाला में हमें करना था उनका इंतजार। वे भारत की यात्रा पर थे। लौटकर रपट दाखिल करनेवाले थे इंदिरा गांधी को और उनके अनुभवों को रपट की शक्ल देना था मुझे। लौटते ही काम हुआ शुरु।शुरु हुआ दिल्ली दर्शन भी। कोलकाता  में केवड़ातला महाश्मशान तक खत्म थी वह महायात्रा। लेकिन दिल्ली में राजघाट से लेकर हर श्मशान तक ले गये वे मुझे। मेरे पिता दिखाते रहे हर मकबरा भी। जामा मसजिद और शीशगंज गुरद्वारे में हमने मथत्था टेका और तब फिर शुरु हुआ दिल्ली दर्शन पैदल ही पैदल।


फिर वे ले गये मुझे जमुनाकिनारे की बस्तियों में। जहां उन्हें कोई नहीं जानता था। सारे लोग अपने धंधे में व्यस्त थे रोज की तरह। बेपरवाह पिता फिरभी बोले, ये मेरे लोग हैं। मेरे स्वजन।इन्हें कभी नहीं भूलना। इनकी हर लड़ाई में साथ देना। फिर वे एक एक जन को पकड़कर पूछने लगे उनके देश गांव के हाल। उनके साथ यात्रा का यही तमाशा था हर कहीं।कभी वे आकर्षित याकत्रा से नहीं घूमते ते देश।सीमाएं भी थीं उनके लिए उनके ही खेत की कोई मेढ़ जैसी। वे राजधानियों में चलते हुए अपने खेत से बाहर नहीं होते ते कहीं और जमीन पर होते थे उनके पांव हमेशा। सत्ता में भी चौपाल दिखती थी उन्हें।


पिता की मौत के बाद असम में ब्रह्मपुत्र उत्सव में शामिल होने का मौका लगा तो गया कवि अनिल सरकार के साथ। उन्ही के साथ हम भी अतिथि थे असम सरकार के। वे त्रिपुरा के मंत्री थे और प्रतिनिधि भी। मालेगांव अभयारण्य का उद्घाटन करना था उन्हें। हम चल पड़े और पुलिस रास्ता दिखा रही थी हमें। अभयारण्य के पास ही पुलिस रास्ता भटक गयी और हम सीधे पहुंच गये शरणार्थी कालोनियों में, जहां साठ के दंगों के दौरान गये थे पिताजी। फिर तमाम दंगापीड़ित जिलों में अमन चैन के लिए काम करने के बाद जब घर लौचटे तो भेज दिया अपने डाक्टर भाई को। पीढ़ियां बदल गयी थीं। लेकिन हर गांव में उन्हें याद करने वाले लोग मौजूद थे।वे ऐसे थे।कुछ भी नहीं थी उनकी हैसियत लेकिन इस देश में कहीं भी जाता हूं, उनकी पहचान से पहचानते हैं मुझे लोग आज भी। उनसे जो उम्मीदे थीं लोगों को। एकदम वहीं उम्मीदें हैं लोगों की मुझसे भी आज भी। त्रासदी तो यह है कि मेरी हैसियत तो उनकी हैसियत जितनी भी नहीं है। उनके पांव अपने खेतों में थे और मैं एकदम हवा में।उड़ान भरता हूं और हवा में लटक जाती हूं त्रिशंकु।


कल ही कोलकाता के प्रसीजडेंसी कालेज में विश्वविख्यात अर्थशास्त्री डा. अमर्त्यसेन आये थे भाषण करने छात्रों के बीच और छात्रों ने उनसे पूछा खाद्य सुरक्षा के बारे में सवाल। उन्होंने कहा कि अध्यादेश उन्होंने नहीं पढ़ा।योजना की आवश्यकता है जरुर । पर विधेयक संसद में पेश किये बिना अध्यादेश जारी करने की पद्धति गलत है।फिर उन्होंने शिक्षा पर खर्च घटाने पर चिंता जतायी। कुपोषण और सामाजिक योजना में दिये जाने वाले भोजन की गुणवत्ता पर चिंता जतायी। चिंता जतायी ईंधन सब्सिडी पर भी।


अर्थशास्त्री इसी तरह अवधारणाओं और सिद्धांतों में बोलते हैं। परिभाषाओं और परिकल्पनाओं के दायरे में कैद कर देते हैं हमारी सोच।जैसे हमारे कामरेड उद्धरणों, नीतियों,रणनीतियों को विस्तार से बताते रहते हैं, अमल करें या नहीं भी करें।तरकीब एक ही है।खुले बाजार के नियम भी जिंगलों के मधुर कर्णप्रिय संवादमाध्यम से मस्तिस्कस्थ और आचरणस्थ करते रहे हैं हम पिछले दो दशक से। इस अवधि में विकास और घाटे,गरीबी और विकास के आंकड़ों के सिवाय हमने कही भी कुढ नहीं देखा जमीन और अंतरिक्ष के दरम्यान। बाकी जो देखा वह या तो भूकंप है या फिर बाढ़, सुनामी है



या फिर जलप्रलय। आपदाओं का सिलसिला अबाध पूंजी प्रवाह की निरंतरता और कालेधन के वर्चस्व की तरह शाश्वत नश्ली भेदभाव सर्वत्र और हाशिये पर वे ही निनानब्वे फीसद,जिन्हें पिता अपने लोग कहते थे। लेकिन मेरे भीतर हर मौके पर अंकुरित होते रहे ढिमरी ब्लाक के बीज। जो अंततः तराई या पहाढ़ का कोई अरण्य नहीं बन पाया कभी भी। पिता हमें कभी ले नहीं गये बंगाली भद्रजनों के प्रवास,जैसे चित्तरंजन पार्क । हम तो जाते रहे। फिर भी कोई धारावी हमें गेरे रहा हमेशा और मेरे बीतर धू धू जलता रहा मरीचझांपी कोई,जहां ढिमरी ब्लाक के उजाड़े गये सभी चालीस गांवों में लगायी आग एक साथ जलती रही और बाघों के चारा बना दिये गये पिता के अपने स्वजन। उनके लिए न्याय की लड़ाई में भी ढिमरी ब्लाक का बीज कोई काम नहीं आया। हम विरासत संघर्ष की शायद पूरी ईमानदारी से,कमसे कम पिता जितनी प्रतिबद्धता से हरगिज हरगिज जी नहीं सकें।


पिता ने पहाड़ और तराई को एकाकार समझा हमेशा।हमेशा कहते ते कि इस हिमालय के बिना हमारा कोई वजूद नहीं। वे कोई पर्यावरण आंदोलनकारी न थे। किसान थे विशुद्ध। पर हिमालय से टकराते मानसून और हिमालय से निकलती नदियों से मैदान के रिश्ते को जीते थे अपनी तरह। क्योंकि किसी नदी किनारे बीता था उनका जीवन और वे अपनी उस मधुमती से जोड़ते थे हिमालयको जेसै मेरी दादी अपने तराई के घर में जब तक जीती रहीं, प्रवाहित होती रहीं मधुमती की तरह।वह मदुमती हमिमालय की हर नदी है अब।


पिता कहते थे कि हिमालय से हमारा दर्द का रिश्ता है। दिल का रिश्ता हो,तो टूट सकता है कभी भी,जुढ़ भी सकता है। पर दर्द का रिश्ता न टूटता है और न जुड़ता है।उनके लिए ढिमरी ब्लाक की लड़ाई खत्म हुई नहीं कभी और आमृत्यु वे जीते रहे ढिमरी ब्लाक अपने लोगों के जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता की लड़ाई उनकी हिमालय से शुरु हुई थी और वह लड़ाई बहती रही हिमालय के कोने कोने से निकलती छोटी बड़ी तमाम नदियों  और घाटियों में विस्थापन की शिकार आबादियों की तरह देशभर।देशबाहर।


मेरे वे अपने लोग,यदि मेरे पिता के वे अपने लोग मेरे भी अपने हैं,हिमालय के लावारिश गांवों से लेकर तमाम आदिवासी गांवों,बंजारा समुदायों, देशभर में छितराये शरणार्थियों,अपनी जमीन से बेदखल विस्थापितों, परमाणु संयंत्रों की रेडियोएक्टिव सुनामी और भोपाल गैस दुर्घटना के शिकार लोगों, इस उपमहादेश में धर्मांध सांप्रदायिकता के बलि हुए लोगों के परिजनों,बांधों के डूब में शामिल उपत्यकाओं, सिख नरसंहार में मारे गये लोगों के परिजनों, गुजरात के हिंदूराष्ट्र के दोयम नागरिकों, सेज में

उग्र हिंदुत्व के मुकाबले में नरम हिंदुत्व, विकल्प सिर्फ दो है।धर्मोन्मादी इस देश में किस किस स्वजन के असमय बलिदान पर रोते रहेंगे हम और बांझ जमीन पर लगाते रहेंगे गुहार लोकतंत्र,धर्मनिरपेक्षता,समता,भाईचारा और सामाजिक न्याय,गरीबी हटाओ


समर्पित आबादियों में इतनी बुरी तरह छितरा दिये गये हैं, कि पिता की दी हुई दृष्टि से मैं कोई दूसरा दृश्य देख ही नहीं सकता।यात्रा पथ पर सिर्फ देखता हूं बंधी हुई नदियां अनगिनत रोती कलपती,घाटियों के सीने में मैं कोजता रहता भूस्खलन और भूकंप के दाग, झीलों में देखता रहता निर्माण विनिर्माण के अलभयारण्यों मैं देखता रिसार्ट के जंगल। रेलपथ के किनारे किनारे मेरे साथ चलती शरणार्थी बस्तियां, जिनकी कोई पहचान नहीं और न ही कोई नागरिकता। मुंबई में मैं वाणिज्य या सपनों के पीछे भागने के बजाय देखता धारावी अंतरिक्ष तक को व्यापे हुए। रामेश्वरम, कन्याकुमारी से लेकर मणिपुर, नगालैंड, नेपाल और बांग्लादेश ,यहां तक कि पाकिस्तान में भी मुझे घेर लेते पिता के वे अपने लोग। वे अपने लोग जो अपना जीवन जीने को भी स्वतंत्र नहीं हैं।

कोलकाता की सूसलाधार बारिश में मैं देखता धंसता हुआ हिमालय।हिमालय में मरते खपते हर चेहरे पर मैं देखता अपने स्वजनों का चेहरा चस्पां,कटे फटे वे चेहरे लावारिश।


नेलसन मंडेला की रंगभेदविरोधी लड़ाई हो या खास अमेरिका में अश्वेतों की लड़ाई, अरब वसंत हो या इराक अफगानिस्तान का युद्ध,या शहबाग आंदोलन हिमालय के जख्म हमें वहां भी चस्पां नजर आते और वहां भी दिख जाता मुझे कोई ढिमरी ब्लाक या फिर कोई मरीचझांपी या तेलंगना। मेरे लिए दंडकारण्य, हिमालय, पूर्वोत्तर ,नेपाल ,बांग्लादेश, धारावी या कोई शरणार्थी उपनिवेश इतने एकाकार है कि यह देश मुझे युद्ध विध्वस्त इराक या अफगानिस्तान नजर आता। नजर आता खंडित कोई सोवियत देश जैसा।


खुले बाजार में मेरे पिता के अपनों की खाद्य सुरक्षा के बारे में अमर्त्य सेन के प्रवचन से मुझे आश्वस्ति नही मिलने वाली राजीव जयंती पर जैसे श्रीलंका में जाफना के पतन के बाद भी तमिलों की समस्या रह गयी अनसुलझी। आत्महत्या करते किसानों के बेदखल खेत,तबाह कृषि के मध्य खाद्य सुरक्षा बैहतरीन बाजारु इंतजाम है और हमारे लोगों के लिए कुछ भी बाकी नहीं बचा ढिमरी ब्लाक,मरीचझांपी और तेलंगना के सिवाय। बंगाल में इन दिनों हर किसी को माओवादी कह देने का शासकीय रिवाज है, जाहिर है कि वैदिकी मंत्रोच्चारम के वर्चस्वमध्ये इस सूची में मैं नक्सलबाड़ी या लालगढ़, या सिंगुर या नंदीग्राम को शामिल नहीं कर रहा अपनी खाल बचाने के मकसद से।भय है भीतर।


जीआईसी में ताराचंद्र त्रिपाठी भी कुछ कम नहीं थे मेरे पिता से। वे बार बार पूछते थे कि पढ़ लिखकर क्या करोगे। अंग्रेजी सीखने पर जोर देते थे जबकि वे हिंदी पढ़ाते थे।कहते थे कि जिन लोगों के बीच के हों तुम,आखिर उनकी लड़ाई लड़नी है तो अंग्रेजी भी सीखो तुम। और उनका वह अमोघ वाक्य, हिंदी भी तुम्हारी मातृभाषा है। मेरे पिता और मेरे गुरु, दोनों मेरे इस हाल के जिम्मेवार कि आज जब पांवों तले खिसक रही है जमीन और सर पर कहीं


नहीं आसमान का नामोनिशान,तब भी उनके बताये अपने लोगों के सिवाय मेरा अपना कोई वजूद ही नहीं है अब। जाहिर है कि मैं अमर्त्य सेन की तरह कभी हो ही नहीं सकता था और न अपने कामरेडों की तरह और न बहुजन राजनीति की दुकान चलाने वालों की तरह।सत्ता समीकरण के अंक और सुविधा के हिसाब से बाहर की दुनिया मेरे लिए रच दी गयी मेरे अनजाने में। पिता के दर्द के रिश्ते को निभाने के लिए अभिशप्त मैं। कुछ हो या न हो, ढिमरा ब्लाक का बीज अंकुरित होता रहेगा मेरे भीतर हमेशा हमेशा।


सामाजिक योजना के पुष्टगुण का नमूना अभी सुर्खियों पर छाया है  यह लिखते लिखते

कि बिहार के छपरा जिले में  मिडडे मिल खाकर मर गये नौ बच्चे।अड़तीस बीमार हैं।एक रुपये तीन रुपये के चावल कभी खाते नहीं योजनाकार और राशन का सड़ा हुआ अनाज उनके घरों तक पहुंचता होगा,ऐसा दावा कर भी नहीं सकता कोई।खेतों को तबाह करके वोटबैंक के गेमचैंजर से कैसी होगी खाद्यसुरक्षा,छपरा बन गया है मिसाल। केल यह निराला जारी टुजी स्पेक्ट्रम घोटाला के बाद भी सौ फीसद एफडीआई टेलीकाम में।


अभी अभी फेस बुक पर राजीवदाज्यू का संदेश आया है और इसे देखने से पहले टीवी पर मैं देख आया उखीमठ के तबाह गांव। पांच हजार से ज्यादा लोग अब भी लापता हैं पहाड़ों में जलप्रलयके बाद से। न जाने कितने लापता होते रहेंगे साल दर साल ,हादसा दर हादसा

हरेला का तिनड़ा फिर भी बोयेंगे हम इस उम्मीद से दर्द का रिश्ता कुछ तो बांधे हिमालय

हमारे स्वजन बाकी बरसात,बाकी सर्दी और बाकी जिंदगी बितायेंगे आपदा इंतजार में।

फिरभी हम न पिता की तरह हुए, न उनके साथियों की तरह।ढिमरी ब्लाक का बीज

यूंही अंकुरित होता रहेगा।अब कोई ढिमरी ब्लाक कहीं नहीं होगा। हरेला की बधाई।


Rajiv Lochan Sah
हरेले की बधाई!
पर्यावरण के इस पर्व पर यह आशा करनी चाहिए कि हाल के विनाश से सबक लेकर हर कोई प्रकृति से प्यार करेगा, छेड़छाड़ नहीं....साधारण व्यक्ति अपना आशियाना प्रकृति का सम्मान करते हुए बनायेगा तो सरकारें योजनायें.


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