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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, June 5, 2014

अभिव्‍यक्ति के बाज़ार में एक मौन संपादकीय

अभिव्‍यक्ति के बाज़ार में एक मौन संपादकीय

बीती 16 मई को जब लोकसभा चुनाव के नतीज़े सामने आए थे, तो बहुत लोग बहुत कुछ बोलने को बेताब थे और बहुत से दूसरे लोग कुछ भी कहने से बच रहे थे। कई और लोग थे जो कुछ कहना तो चाह रहे थे लेकिन वे चुप थे। आज एक पखवाड़ा बीत जाने के बाद अखबारों, पत्रिकाओं, टीवी चैनलों और वेबसाइटों पर लाखों शब्‍द 16 मई के सदमे को पहचानने-परखने में खर्च किए जा चुके हैं। दर्जनों संपादकीय लिखे जा चुके हैं। दर्जनों लिखे जाने के इंतज़ार में होंगे। अभिव्‍यक्ति के इतने सघन स्‍पेस में हालांकि बस एक संपादकीय अब तक ऐसा दिखा है जो खुद संपादक का लिखा हुआ नहीं है। 

जून 2014 के समकालीन तीसरी दुनिया का संपादकीय कोई विश्‍लेषण नहीं, कोई ज्ञान नहीं, कोई उपदेश नहीं है। वह महज़ सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना की एक कविता है। आज के दौर में जब पत्रकारिता अपने नए-नए आयामों में खुद को प्रकट कर रही है, एक कविता का संपादकीय बन जाना अद्भुत, सुखद और हैरतनाक है। इसके कई मायने हो सकते हैं। बहरहाल, सारे अर्थ अपनी जगह, फि़लहाल यह कविता यानी समकालीन तीसरी दुनिया का ताज़ा संपादकीय पढ़ें।  


 ''उस समय तुम कुछ नहीं कर सकोगे'' 

सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना 





अब लकड़बग्घा
बिल्कुल तुम्हारे घर के 
करीब आ गया है
यह जो हल्की सी आहट
खुनकती हंसी में लिपटी
तुम सुन रहे हो
वह उसकी लपलपाती जीभ
और खूंखार नुकीले दांतों की 
रगड़ से पैदा हो रही है।
इसे कुछ और समझने की
भूल मत कर बैठना,
जरा सी गलत गफलत से
यह तुम्हारे बच्चे को उठाकर भाग जाएगा
जिसे तुम अपने खून पसीने से
पोस रहे हो।
लोकतंत्र अभी पालने में है
और लकड़बग्घे अंधेरे जंगलों 
और बर्फीली घाटियों से
गर्म खून की तलाश में 
निकल आए हैं।
उन लोगों से सावधान रहो
जो कहते हैं
कि अंधेरी रातों में
अब फरिश्ते जंगल से निकलकर
इस बस्ती में दुआएं बरसाते
घूमते हैं
और तुमहारे सपनों के पैरों में चुपचाप
अदृश्य घुंघरू बांधकर चले आते हैं
पालने में संगीत खिलखिलाता
और हाथ-पैर उछालता है
और झोंपड़ी की रोशनी तेज हो जाती है।

इन लोगों से सावधान रहो।
ये लकड़बग्घे से
मिले हुए झूठे लोग हैं
ये चाहते हैं
कि तुम
शोर न मचाओ
और न लाठी और लालटेन लेकर
इस आहट
और खुनकती हंसी
का राज समझ
बाहर निकल आओ
और अपनी झोंपड़ियों के पीछे
झाड़ियों में उनको दुबका देख
उनका काम-तमाम कर दो।

इन लोगों से सावधान रहो
हो सकता है ये खुद
तुम्हारे दरवाजों के सामने 
आकर खड़े हो जाएं
और तुम्हें झोंपड़ी से बाहर
न निकलने दें,
कहें-देखो, दैवी आशीष बरस
रहा है
सारी बस्ती अमृतकुंड में नहा रही है
भीतर रहो, भीतर, खामोश-
प्रार्थना करते
यह प्रभामय क्षण है!

इनकी बात तुम मत मानना
यह तुम्हारी जबान
बंद करना चाहते हैं
और लाठी तथा लालटेन लेकर
तुम्हें बाहर नहीं निकलने देना चाहते।
ये ताकत और रोशनी से 
डरते हैं
क्योंकि इन्हें अपने चेहरे
पहचाने जाने का डर है।
ये दिव्य आलोक के बहाने
तुम्हारी आजादी छीनना चाहते हैं।
और पालने में पड़े
तुम्हारे शिशु के कल्याण के नाम पर
उसे अंधेरे जंगल में
ले जाकर चीथ खाना चाहते हैं।
उन्हें नवजात का खून लजीज लगता है।
लोकतंत्र अभी पालने में है।

तुम्हें सावधान रहना है।
यह वह क्षण है
जब चारों ओर अंधेरों में
लकड़बग्घे घात में हैं
और उनके सरपरस्त
तुम्हारी भाषा बोलते
तुम्हारी पोशाक में
तुम्हारे घरों के सामने घूम रहे हैं
तुम्हारी शांति और सुरक्षा के पहरेदार बने।
यदि तुम हांक लगाने
लाठी उठाने
और लालटेन लेकर बाहर निकलने का
अपना हक छोड़ दोगे
तो तुम्हारी अगली पीढ़ी
इन लकड़बग्घों के हवाले हो जाएगी
और तुम्हारी बस्ती में
सपनों की कोई किलकारी नहीं होगी
कहीं एक भी फूल नहीं होगा।
पुराने नंगे दरख्तों के बीच
वहशी हवाओं की सांय-सांय ही
शेष रहेगी
जो मनहूस गिद्धों के
पंख फड़फड़ाने से ही टूटेगी।
उस समय तुम कुछ नहीं कर सकोगे
तुम्हारी जबान बोलना भूल जाएगी
लाठी दीमकों के हवाले हो जाएगी
और लालटेन बुझ चुकी होगी।
इसलिए बेहद जरूरी है
कि तुम किसी बहकावे में न आओ
पालने की ओर देखो-
आओ आओ आओ
इसे दिशाओं में गूंज जाने दो
लोगों को लाठियां लेकर
बाहर आ जाने दो
और लालटेन उठाकर
इन अंधेरों में बढ़ने दो
हो सके तो
सबसे पहले उन पर वार करो
जो तुम्हारी जबान बंद करने
और तुम्हारी आजादी छीनने के
चालाक तरीके अपना रहे हैं
उसके बाद लकड़बग्घों से निपटो।

अब लकड़बग्घा
बिल्कुल तुम्हारे घर के करीब
आ गया है।

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