24 जुलाई 2015
इस्लामवादी आतंकवाद: परदे के पीछे की राजनीति
-राम पुनियानी
इस्लाम के नाम पर
पिछले कई सालों में विश्व ने इस्लाम के नाम पर हिंसा और आतंकवाद की असंख्य अमानवीय घटनाएं झेली हैं। इनमें से कई तो इतनी क्रूरतापूर्ण और पागलपन से भरी थीं कि उन्हें न तो भुलाया जा सकता है और ना ही माफ किया जा सकता है। इनमें शामिल हैं ओसामा-बिन-लादेन द्वारा औचित्यपूर्ण ठहराए गए 9/11 के हमले में 3,000 निर्दोष व्यक्तियों की मृत्यु, पेशावर में स्कूली बच्चों पर हमला, बोकोहरम द्वारा स्कूली छात्राओं का अपहरण, चार्ली हेब्दो पर हमला व आईसिस द्वारा की गई घिनौनी हत्याएं। ये सभी घोर निंदा की पात्र हैं और सारे सभ्य समाज को शर्म से सिर झुकाने पर मजबूर करती हैं।
9/11 के बाद से एक नया शब्द समूह गढ़ा गया-''इस्लामिक आतंकवाद''। यह इस्लाम को सीधे आतंकवाद से जोड़ता है। यह सही है कि इस्लामवादी आतंक एक लंबे समय से जारी है और कैंसर की तरह पूरी दुनिया में फैल रहा है। इस्लाम के नाम पर लगातार हो रही हिंसक व आतंकी घटनाओं के चलते ऐसा प्रतीत होता है कि इनका संबंध इस्लाम से है। यही बात अमरीकी मीडिया लंबे समय से प्रचारित करता आ रहा है और धीरे-धीरे अन्य देशों के मीडिया ने भी यही राग अलापना शुरू कर दिया है। एक बड़ा साधारण-सा प्रश्न यह है कि अगर इन घटनाओं का संबंध इस्लाम से है, तो ये मुख्यतः तेल उत्पादक देशों में ही क्यों हो रही हैं?
समाज के व्याप्त भ्रम को और बढ़ाते हुए, कई लेखकों ने यह तर्क दिया है कि इस्लाम में सुधार से यह समस्या हल हो जायेगी। कुछ का कहना है कि इस्लाम को अतिवादी प्रवृत्तियों से मुक्ति दिलाने के लिए ''धार्मिक क्रांति'' की आवश्यकता है। यह कहा जा रहा है कि इस्लाम पर उन कट्टरपंथी तत्वों का वर्चस्व स्थापित हो गया है जो हिंसा और आतंक में विश्वास रखते हैं। इसलिए इस्लाम में सुधार से हिंसा समाप्त हो जाएगी। सवाल यह है कि कट्टरपंथियों के पीछे वह कौनसी ताकत है, जिसके भरोसे वे इस्लाम की एक शांतिपूर्ण धर्म के रूप में व्याख्या को खारिज कर रहे हैं। क्या वह ताकत इस्लाम है? या इस्लाम का मुखौटा पहने कोई और राजनीति? यह मानने में किसी को कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि इन दिनों दुनियाभर में इस्लाम के नाम पर जिस तरह की हिंसा हो रही है, वह मानवता के इतिहास का एक कलंकपूर्ण अध्याय है और इसकी न केवल निंदा की जानी चाहिए वरन् इसे जड़ से उखाड़ने के प्रयास भी होने चाहिए।
इस्लामवादी आतंकी, मानवता के शत्रु बने हुए हैं। परंतु आवश्यकता इस बात की है कि हम इस पूरे मुद्दे को गहराई से समझने की कोशिश करें और केवल ऊपरी तौर पर जो नजर आ रहा है, उसके आधार पर अपनी राय न बनायें। हम यह समझने का प्रयास करें कि इसके पीछे कौनसी शक्तियां हैं। हमें इस बात पर भी विचार करने की आवश्यकता है कि क्या केवल सैंद्धान्तिक सुधार से ''तेल की राजनीति'' से मुकाबला किया जा सकेगा-उस राजनीति से, जिसे चोरीछुपे कुछ निहित स्वार्थ समर्थन दे रहें हैं क्योंकि वे किसी भी तरह अपने लक्ष्यों को हासिल करना चाहते हैं। जरूरत इस बात की है कि हम उस राजनीति को पहचानें और बेनकाब करें, जिसने इस्लाम के नाम पर इस तरह की हिंसक प्रवत्तियों को जन्म दिया है।
मौलाना वहीदुद्दीन खान, असगर अली इंजीनियर और अन्यों ने उस दौर में इस्लाम का मानवतावादी चेहरा दुनिया के सामने रखा जब आतंकवाद, दुनिया के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में फैल रहा था और अत्यंत क्रूरतापूर्ण व कुत्सित आतंकी कार्यवाहियां अंजाम दी जा रही थीं। इस्लाम की मानवतावादी व्याख्याएं आखिर मुख्यधारा में क्यों नहीं आ पा रही हैं? क्या कारण है कि कट्टरपंथी तत्व, इस्लाम के अपने संस्करण का इस्तेमाल, हिंसा और अमानवीय कार्य करने के लिए कर रहे हैं और इस्लाम के उदारवादी-मानवतावादी संस्करण हाशिए पर खिसका दिए गए हैं? ऐसा नहीं है कि कुरान की अलग-अलग व्याख्याएं नहीं की जा रही हैं, ऐसा भी नहीं है कि तर्कवादी आंदोलन हैं ही नहीं। परंतु दुनिया के तेल के भंडारों पर कब्जा करने की राजनीति ने आतंकवादियों का उत्पादन करने वाली फैक्ट्रियां स्थापित कर दी हैं और उदारवादियों व मानवतावादियों की आवाज़ पूरी तरह से दबा दी गई है। आर्थिक-राजनैतिक कारकों के चलते, इस्लाम का मानवतावादी संस्करण कमजोर पड़ गया है।
वर्चस्वशाली राजनैतिक ताकतें, धर्म की उस व्याख्या को चुनती और बढ़ावा देती हैं जो उनके राजनैतिक-आर्थिक एजेंडे के अनुरूप होती हैं। कुरान की आयतों को संदर्भ से हटाकर उद्धृत किया जाता है और हम इस्लाम के मुखौटे के पीछे छुपे राजनीतिक उद्देश्यों को देख नहीं पाते। कुछ मुसलमान चाहें जो कहें परंतु सच यह है कि आतंकवाद और हिंसा, इस्लाम की समस्या नहीं है। समस्या है सत्ता और धन पाने के लिए इस्लाम का उपयोग किया जाना। हमें कट्टरवाद-आतंकवाद, जिसे इस्लाम के नाम पर औचित्यपूर्ण ठहराया जा रहा है, के उदय और उसके मजबूत होते जाने के पीछे के कारणों को समझना होगा। क्या कारण है कि जहां ''काफिरों को मार डाला जाना चाहिए'' की चर्चा चारों ओर है वहीं ''सभी मनुष्य एक दूसरे के भाई हैं'' और ''इस्लाम का अर्थ शांति है'' जैसी इस्लाम की शिक्षाओं को कोई महत्व ही नहीं मिल रहा है।
आतंकवाद की जड़ें पश्चिम एशिया के तेल भंडारों पर कब्जा करने की राजनीति में हैं। अमरीका ने अलकायदा को समर्थन और बढ़ावा दिया। पाकिस्तान में ऐसे मदरसे स्थापित हुए, जिनमें इस्लाम के वहाबी संस्करण का इस्तेमाल ''जिहादियों'' की फौज तैयार करने के लिए किया गया ताकि अफगानिस्तान पर काबिज़ रूसी सेना से मुकाबला किया जा सके। अमरीका ने अलकायदा को 800 करोड़ डॉलर और 7,000 टन हथियार उपलब्ध करवाए, जिनमें स्टिंगर मिसाइलें शामिल थीं। व्हाईट हाउस में हुई एक प्रेस कान्फ्रेंस में अलकायदा के जन्मदाताओं को अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन ने अमरीका के संस्थापकों के समकक्ष बताया। ईरान में प्रजातांत्रिक ढंग से निर्वाचित मोसाडेग सरकार को 1953 में उखाड़ फेंका गया। उसके साथ ही वह घटनाक्रम शुरू हुआ, जिसके चलते इस्लाम की हिंसक व्याख्याओं का बोलबाला बढ़ता गया और उसके उदारवादी-मानवतावादी चेहरे को भुला दिया गया। मौलाना रूमी ने ''शांति और प्रेम को इस्लाम के सूफी संस्करण का केंद्रीय तत्व निरूपित किया था।'' फिर क्या हुआ कि आज वहाबी संस्करण दुनिया पर छाया हुआ है। इस्लाम का सलाफी संस्करण लगभग दो सदियों पहले अस्तित्व में आया था परंतु क्या कारण है कि उसे मदरसों में इस्तेमाल के लिए केवल कुछ दशकों पहले चुना गया। अकारण हिंसा और लोगों की जान लेने में लिप्त तत्वों ने जानते बूझते इस्लाम के इस संस्करण का इस्तेमाल किया ताकि उनके राजनीतिक लक्ष्य हासिल हो सकें।
इतिहास गवाह है कि धर्मों का इस्तेमाल हमेशा से सत्ता हासिल करने के लिए होता आया है। राजा और बादशाह क्रूसेड, जिहाद और धर्मयुद्ध के नाम पर अपने स्वार्थ सिद्ध करते आए हैं। भारत में अंग्रेजों के राज के दौरान अस्त होते जमींदारों व राजाओं (दोनों हिंदू व मुस्लिम) के वर्ग ने मिलकर सन 1888 में यूनाइटेड इंडिया पेट्रिआर्टिक एसोसिएशन का गठन किया और इसी संस्था से मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा उपजे। सांप्रदायिक शक्तियों ने घृणा फैलाई जिससे सांप्रदायिक हिंसा भड़की। यूनाइटेड इंडिया पेट्रिआर्टिक एसोसिएशन के संस्थापक थे ढाका के नवाब और काशी के राजा। फिर हम मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा जैसे सांप्रदायिक संगठनों के उभार के लिए हिंदू धर्म व इस्लाम को दोषी ठहरायें या उस राजनीति को, जिसके चलते अपने हितों की रक्षा के लिए इन राजाओं-जमींदारों ने इस्लाम व हिंदू धर्म का इस्तेमाल किया। इस समय हम दक्षिण एशिया में म्यान्मार और श्रीलंका में बौद्ध धर्म के नाम पर गठित हिंसक गुटों की कारगुजारियां देख रहे हैं।
अगर हम थोड़ा भी ध्यान से देखें तो हमें यह समझ में आएगा कि इस्लामवादी आतंकवाद मुख्यतः तेल उत्पादक क्षेत्र में उभरा है उन देशों-जैसे इंडोनेशिया-में नहीं जहां मुसलमानों की बड़ी आबादी है। आतंकवाद के बीज, तेल की भूखी महाशक्तियों ने बोये हैं न कि किसी धार्मिक नेता ने। मौलाना वहाबी की व्याख्या, जो सऊदी अरब के रेगिस्तानों में कहीं दबी पड़ी थी, को खोद निकाला गया और उसका इस्तेमाल वर्तमान माहौल बनाने के लिए किया गया। अगर हम आतंकवाद के पीछे की राजनीति को नहीं समझेंगे तो यह बहुत बड़ी भूल होगी। राजनीतिक ताकतें और निहित स्वार्थी तत्व, धर्म के उस संस्करण को चुनते हैं जो उनके हितों के अनुरूप हो। कुछ लोग लड़कियों के लिए स्कूल खोल रहे हैं और उनका कहना है कि वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि कुरान ज्ञान को बहुत महत्व देती है। दूसरी ओर, उसी कुरान और इस्लाम के नाम पर कुछ लोग स्कूल जाने वाली लड़कियों को गोली मार रहे हैं। आतंकवादी समूह तो धर्म के अपने संस्करण पर भी बहस नहीं करना चाहते और ना कर सकते हैं। उन्हें तो बस उन चंद जुमलों से मतलब है जो उनके दिमागों में ठूंस दिए गए हैं और जिनने उन्हें बंदूक और बम हाथ में लिए जानवर बना दिया है।
हिंदू धर्म के नाम पर गांधीजी ने अहिंसा को अपना प्रमुख आदर्श बनाया। उसी हिंदू धर्म के नाम पर गोडसे ने गांधीजी के सीने में गोलियां उतार दीं। इस सब में धर्म कहां है? वर्तमान में जो इस्लामवादी आतंकी दुनिया के लिए एक मुसीबत बने हुए हैं, उन्हें अमरीका द्वारा स्थापित मदरसों में प्रशिक्षण मिला है। ऐसी भी खबरें हैं कि आईसिस आतंकियों के पीछे भी अमरीका हो सकता है। साम्राज्यवादी काल में भी राजनीति पर अलग-अलग धर्मों के लेबिल लगे होते थे। साम्राज्यवादी ताकतें हमेशा सामंतों को जिंदा रखती थीं। अब चूंकि तेल उत्पादक क्षेत्रों के मुख्य रहवासी मुसलमान हैं इसलिए इस्लाम का उपयोग राजनैतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए किया जा रहा है। यह विडंबना है कि मुसलमान अपनी ही संपदा-काले सोने-के शिकार बन रहे हैं। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
संपादक महोदय,
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- एल. एस. हरदेनिया
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