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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, January 2, 2016

उमराव सालोदिया का उमराव खान हो जाना

उमराव सालोदिया का उमराव खान हो जाना



उमराव सालोदिया के लिए चित्र परिणाम
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राजस्थान के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी उमराव सालोदिया ने मुख्य सचिव नहीं बनाये जाने से नाराज हो कर स्वेच्छिक सेवा निवृति लेने तथा हिन्दुधर्म छोड़कर इस्लाम अपनाने की घोषणा कर सनसनी पैदा कर दी है ।
राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार से अब न उगलते बन रहा है और न ही निगलते। यह सही बात है कि वरीयता क्रम में वे मुख्य सचिव बनने के लिए बिलकुल पात्र थे और यह भी सम्भव था कि वे राज्य के पहले दलित मुख्य सचिव बन जाते मगर भाजपा सरकार ने वर्तमान मुख्य सचिव सी एस राजन को तीन माह का सेवा विस्तार दे कर सालोदिया को वंचित कर दिया ।
सेवा एवम् धर्म छोड़ने की घोषणा करते हुए सालोदिया ने यह भी कहा कि उन्हें सेवाकाल के दौरान सामान्य वर्ग के एक व्यक्ति ने बहुत परेशान किया ,जिसकी प्राथमिकी दर्ज कराये जाने के बावजूद उस व्यक्ति के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गयी।सालोदिया ने यह भी कहा कि वे समानता की चाह में इस्लाम कबूल कर रहे है । हालाँकि उन्होंने यह भी बताया कि उनकी इस्लाम में रूचि लंबे समय से है और उन्होंने इस्लाम को भली भांति पढ़ समझ कर ही धर्मान्तरण का फैसला किया है।
उमराव सालोदिया अब उमराव खान बन चुके है।उनके धर्म परिवर्तन करने पर मिश्रीत प्रतिक्रियाएं आई है ।राज्य के गृह मंत्री गुलाब चन्द कटारिया ने इसे व्यक्तिगत निर्णय बताते हुए कहा कि अगर उनके साथ अन्याय हुआ है और उन्हें लगता है कि उन्हें वंचित किया गया है तो उसका विरोध उचित फोरम पर किया जा सकता था। चिकित्सा एवम् स्वास्थ्य मंत्री राजेंद्र सिंह राठौड़ ने इसे सेवा नियमों का स्पष्ट उल्लंघन करार देते हुए कहा कि वे पद पर रहते हुए इस तरह प्रेस वार्ता कैसे कर सकते है ।उन्हें दूसरे मान्य तरीके अपनाने चाहिए ।
यह तो निर्विवाद तथ्य है कि उन्हें मुख्य सचिव बनाया जाना चाहिये।यह उनका हक़ है जिसे सरकार ने जानबूझ कर छीना है मगर उनके इस तरीके और इस्लाम कबूल करने को लेकर दलित बहुजन आंदोलन ने भी कई सवाल खड़े करके उन्हें इस लड़ाई में अकेला छोड़ दिया है।
दरअसल विगत कुछ दिनों से दलित समुदाय के युवा सोशल मीडिया के ज़रिये उमराव सालोदिया को मुख्य सचिव बनाने की पुरजोर मांग कर रहे थे।इन उत्साही अम्बेडकर अनुयायियों को उमराव सालोदिया के इस आकस्मिक और एकाकी निर्णय ने निराश कर दिया है।अब तक उनके पक्ष में खड़े लोग ही अब पूंछ रहे है कि उमराव सालोदिया उमराव गौतम क्यों नहीं हुए ? जिस अम्बेडकर की वजह से वे इतने बड़े पद तक पंहुचे उनका मार्ग क्यों नहीं लिया खान साहब ने ?
दलित बहुजन आंदोलन को इस्लाम से ना तो परहेज़ है और ना ही कोई दिक्कत ,परेशानी उमराव सालोदिया के तरीके और निर्णय से है। बिना संघर्ष किये ही उनके नौकरी छोड़ने के निर्णय को पलायन माना जा रहा है तथा बुद्ध धर्म नहीं अपनाने की कड़ी आलोचना हो रही है।
दलित युवा सोशल मीडिया पर बहस छेड़े हुए है कि अब वे दलितों की समानता के मिशन के लिए काम करेंगे अथवा दीन की तब्लीग के लिए जमाती बन जाएंगे। यह भी प्रश्न उठाया जा रहा है कि अगर उनके साथ नौकरशाही में रहते हुए लंबे अरसे से अन्याय व भेदभाव हो रहा था तो वे इतने समय तक खामोश क्या सिर्फ मुख्य सचिव बनने की झूठी आशा में थे ? यहाँ तक पूंछा जा रहा है कि क्या अगर उन्हें चीफ सेकेट्री बना दिया जाता तो उनकी नज़र में हिन्दू धर्म समानता का धर्म हो जाता ? अब लोग यह भी जानना चाह रहे है कि क्या उन्होंने बौद्ध धर्म को पढ़ा है ? सालोदिया कौनसे मुसलमान कहाये जायेंगे शैख ,सैय्यद ,काजी या पठान अथवा पसमांदा मुसलमान ? उन्होंने स्वेच्छिक सेवा निवृति की अर्जी ही दी है या नौकरी और पेंशन आदि परिलाभ भी त्याग दिए है ? अगर नहीं तो फिर वे भ्रम निर्मित कर रहे है कि उन्होंने त्याग किया है।सच्चाई यह है कि उन्होंने कुछ भी त्याग नहीं किया है।सारी ज़िन्दगी आरक्षण का लाभ लिया ।अम्बेडकर की कमाई खायी और अंतिम समय में उन्हें धोखा दे गए।
जो उमराव सालोदिया को जानते है उनके मुताबिक वे कभी भी आंबेडकर की मुहिम में शामिल नहीं रहे है और ना ही उन्हें मुक्तिकामी कबीर, फुले, अम्बेडकर की विचारशरणी से कोई मतलब रहा है।यह भी कहा जा रहा है कि उन्हें समाज हित में एक सामूहिक फैसला ले कर नज़ीर स्थापित करनी चाहिए थी ।उन्हें अपने साथ हुए भेदभाव और वंचना के प्रश्न को समाज जागृति का हथियार बनाना चाहिए था मगर वे इससे चूक गए और इसे केवल निजी हित का सवाल बना डाला है।संभवतः उमराव सालोदिया से यह चूक इसलिए हुयी है क्योंकि उनका जुड़ाव समुदाय से लगभग नहीं के बराबर रहा है । वे पूरे सेवाकाल में उन्हीं लोगों के होने में लगे रहे जिनको अब गलियां दे रहे है । उनके जैसे अधिकांश बड़े दलित अधिकारी यही करते रहते है।
यह बात कुछ हद तक सही भी है कि जो अधिकारी और राजनेता समाज से कट कर जीते है फिर उन्हें अपनी लड़ाई अक्सर अकेले ही लड़नी होती है और फिर वे सालोदिया की तरह अदूरदर्शी निर्णय ले कर अपनी तथा अपने वर्ग की किरकिरी करा बैठते है।
बेहतर होता कि उमराव सालोदिया इस लड़ाई को थोडा पहले शुरू करते और अंत तक लड़ते ,मगर उन्होंने योद्धा बनने के बजाय भगौड़ा बनना स्वीकार किया है ,जिसका दलित बहुजन आंदोलन ने स्वागत करने से साफ इंकार कर दिया है।वैसे भी अब दलित किसी धर्म में मुक्ति नहीं देखते,क्योंकि उन्हें मुक्ति संघर्ष में दिखाई देती है पलायन में नहीं ।
- भंवर मेघवंशी
( लेखक स्वतन्त्र पत्रकार है ,उनसे Bhanwar meghwanshi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है )


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