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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Tuesday, July 27, 2010

किसानों की आत्महत्याः एक 12 साल लंबी दारूण कथा

किसानों की आत्महत्याः एक 12 साल लंबी दारूण कथा

Posted by Reyaz-ul-haque on 2/11/2010 04:50:00 AM

कुछ लोगों के लिए किसानी मुनाफे का धंधा हो सकती है, लेकिन देश की बहुसंख्यक आबादी के लिए यह घाटे का सौदा बना दी गई है. न सिर्फ घाटे का सौदा, बल्कि मौत का सौदा भी. और यह सिर्फ इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि खेती से महज कुछ लोगों का मुनाफा सुनिश्चित रहे. यही वजह है कि खेतिहरों के कर्जे की माफी का फायदा भी आम खेतिहरों को नहीं मिला बल्कि बड़े किसानों को मिला. हाशिया पर तभी इसकी आशंका जतायी गयी थी. किसानों की हालिया आत्महत्याओं और इस पूरे सिलसिले पर पी साइनाथ की रिपोर्ट. इसका अनुवाद किया है हमारे साथी मनीष शांडिल्य ने. मूल लेख यहां पढ़ें.

2006-08 के बीच महाराष्ट्र में 12,493 किसानों ने आत्महत्या की. किसानों की आत्महत्या का यह आंकड़ा 1997-1999 के दौरान दर्ज किये गये आंकड़ों से 85 प्रतिशत अधिक है. 1997-1999 के दौरान 6,745 किसानों ने आत्महत्या की थी. किसी भी राज्य में तीन वर्षों के किसी भी अंतराल में इतनी बड़े पैमाने पर आत्महत्याएं नहीं की गयी थीं.
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार 2008 के ऋण माफी वाला साल देश में 16,196 किसानों की आत्महत्याओं का गवाह बना. 2007 की तुलना में ऋण माफी वाले साल आत्महत्याओं के आंकड़े में सिर्फ 436 की ही गिरावट दर्ज हुई. किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों पर गहराई से काम करने वाले अर्थशास्त्री प्रोफेसर के. नागराज कहते हैं, ''इन आंकड़ों को लेकर कहीं से भी आश्वस्त होने की कोई गुंजाइश नहीं है और न ही इन आंकड़ों पर खुद अपनी पीठ ही थपथपाई जा सकती है.'' 1990 के दशक के उत्तरार्ध में जो सिलसिला शुरू हुआ था और 2002 के बाद जो और बदतर हो गया, उसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं आया था. निराशाजनक सच्चाई यह है कि तेजी से घटती कृषक आबादी के भीतर किसान काफी बड़ी संखया में अब भी आत्महत्याएं कर रहे हैं.
अभी हाल के 1991 और 2001 की जनगणना के बीच लगभग 80 लाख किसानों ने खेती छोड़ दी. लगभग एक साल बाद 2011 की जनगणना हमें यह बतायेगी कि बीते दशक में और कितने किसानों ने खेती छोड़ी. इस आंकड़े के 80 लाख से कम रहने की संभावना नहीं है. आने वाले जनगणना के आंकड़े पिछले आंकड़ों को भी शायद बौना साबित कर सकते हैं क्योंकि 2001 के बाद खेती से पलायन संभवतः तेज ही हुआ है. राज्यवार कृषि आत्महत्या अनुपात - प्रति 10 लाख किसानों पर आत्महत्या करने वाले किसानों की संखया - अब भी 2001 के पुराने आंकड़े पर ही आंकी जाती हैं. इस कारण 2011 की जनगणना किसानों की अधिक प्रामाणिक गिनती के साथ संभवतः वर्तमान परिस्थितियों की और भयावह तस्वीर ही प्रस्तुत करे.
भारत में कुल आत्महत्या के एक हिस्से के रूप में किसानों की आत्महत्याओं पर ध्यान केंद्रित करना गुमराह करता है. कुछ इस तरह, ''अहा! यह प्रतिशत तो नीचे आ रहा है.'' यह बकवास है. पहली बात तो यह कि एक बढ़ती हुई आबादी में आत्महत्या की कुल संख्या (सभी समूहों में, सिर्फ किसानों में ही नहीं) बढ़ रही है. लेकिन किसानों की घटती आबादी के बावजूद उनकी आत्महत्याएं बढ़ रही है. दूसरा यह कि, एक अखिल भारतीय तस्वीर इस संकट की भयावहता को छुपा लेता है. तबाही 5 बड़े राज्यों (महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) में केंद्रित है. 2003-08 के दौरान जितने किसानों ने आत्महत्या की थी, उनमें से दो तिहाई किसान इन्हीं 05 बड़े राज्यों से थे. इन 05 बड़े राज्यों में किसानों की आत्महत्याओं का प्रतिशत बढ़ गया है. इससे भी बदतर स्थिति यह है कि इन राज्यों में कुल अखिल भारतीय आत्महत्या (सभी श्रेणियों) का प्रतिशत भी बढ़ा है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे गरीब राज्य बीते कुछ वर्षों में इस संकट से बहुत बुरी तरह से प्रभावित रहे हैं.
1997-2002 के बीच देश के 5 बड़े राज्यों में होने वाली 12 आत्महत्याओं में से लगभग 1 आत्महत्या किसानों की होती थी. यह अनुपात 2003-08 की अवधि के बीच बढ़ा और इन राज्यों में होने वाली 10 आत्महत्याओं में से लगभग एक हिस्सा किसानों की आबादी का हो गया.
एनसीआरबी के पास अब 12 साल के दौरान किये गये किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा है. वास्तव में, किसानों से संबंधित आंकड़े 1995 के बाद से एक स्वतंत्र आंकड़े के रूप में दर्ज किये जाने लगे, लेकिन कुछ राज्य पहले दो वर्षों में यह आंकड़ा जुटाने में विफल रहे. इसलिए 1997 एक अधिक विश्वसनीय आधार वर्ष है क्योंकि इसी साल से सभी राज्य किसानों की आत्महत्या से संबंधित आंकड़े उपलब्ध करा रहे हैं. एनसीआरबी ने पिछले सभी वर्षों के ''भारत में आकस्मिक मृत्यु और आत्महत्याएं'' के रपटों को अपनी वेबसाइट पर रखकर ऐसे आंकड़ों का आसानी से उपयोग सुनिश्चित कर दिया है.
1997 से 2008 के बीच की 12 साल की अवधि हमें किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों की तुलना करने का मौका देती है. हम यह पता लगा सकते हैं कि 1997-2002 के पहले 6 वर्षों के मुकाबले अगले 6 वर्षों 2003-2008 की अवधि में किस तेजी से किसानों की आत्महत्या दर में वृद्धि हुई. 12 साल का यह पूरा समय ही किसानों के लिए काफी बुरा गुजरा, लेकिन बाद के छह साल निश्चित ही ज्यादा बुरे थे.
किसी एक साल की आत्महत्या में गिरावट या वृद्धि के अध्ययन की 'प्रवृत्ति' भ्रामक है. वर्ष 1997-2008 के बीच के 3 या 6 साल के अंतराल का अध्ययन करना ज्यादा बेहतर है. उदाहरण के लिए, 2005में महाराष्ट्र के किसानों की आत्महत्या की संख्या में गिरावट देखी गयी थी, लेकिन अगला ही साल इस मामले में सबसे भयावह साबित हुई. 2006 के बाद से राज्य में कई पहल हुए हैं. मनमोहन सिंह की विदर्भ यात्रा उस साल क्षेत्र के छह संकट ग्रस्त जिलों के लिए 3,750 करोड़ रुपए का ''प्रधानमंत्री राहत पैकेज'' भी अपने साथ लायी थी. यह पैकेज तत्कालीन मुखयमंत्री विलासराव देशमुख के 1,075 करोड़ रुपए के ''मुखयमंत्री राहत पैकेज'' की घोषणा के बाद मिला था. इसके बाद महाराष्ट्र को किसानों को दिये गये 70,000 करोड़ रुपये के केन्द्रीय कर्ज माफी में अपने हिस्से के करीब 9,000 करोड़ मिले. इस कर्ज माफी का लाभ जिन किसानों को नहीं मिल सकता था, उनको राहत देने के लिए राज्य सरकार ने इस केन्द्रीय कर्ज माफी में 6,200 करोड़ रुपए जोड़े. पांच एकड़ से अधिक जमीन पर मालिकाना होने के कारण जिन गरीब किसानों को कर्ज माफी की परिधि से बाहर रखा गया था, उनके साथ एकमुश्त बंदोबस्ती (ओटीएस) करने के लिए राज्य सरकार ने कर्ज माफी की राशि में अतिरिक्त 500 करोड़ रुपए जोड़े.
कुल मिलाकर, 2006, 2007 और 2008 में महाराष्ट्र में इस कृषि संकट का सामना करने के लिए 20,000 करोड़ रुपये से अधिक की राशि उपलब्ध कराई गयी. (और इसमें चीनी मिल मालकों द्वारा उदारतापूर्वक किये गये विशाल दान को शामिल नहीं किया गया है.) फिर भी, खेती संबंधी आंकड़ों की गणना शुरू होने के बाद से ये तीन साल किसी भी समय में किसी भी राज्य के लिए सबसे ज्यादा बुरे साबित हुए. 2006-08 में, महाराष्ट्र में 12, 493 किसानों ने आत्महत्या की. यह पिछले 2002-2005 के सबसे खराब वर्षां से लगभग 600 अधिक था और 1997-1999 की तीन वर्ष की अवधि के दौरान दर्ज किये गये 6,745 आत्महत्याओं से 85 प्रतिशत ज्यादा था. संयोग से, सबसे ज्यादा बुरे इन छह वर्षां में एक ही सरकार सत्ता में थी. इसके अलावा, आत्महत्याओं की संखया एक सिकुड़ते कृषि आबादी में बढ़ रही है. 2001 तक महाराष्ट्र की 42 प्रतिशत जनसंख्या पहले से ही शहरी आबादी में तब्दील हो चुकी थी. इसका कृषक आधार निश्चित रूप से नहीं बढ़ा है.
तो क्या कर्ज माफी बेकार था? कर्ज माफी का विचार एक बुरी सोच नहीं थी. और यह एक सही हस्तक्षेप था. लेकिन इस संबंध में उठाये गये विशेष कदम गलत दिशा में और गुमराह करने वाले थे. लेकिन तर्क यह भी दिया जा सकता है कि कर्ज माफी कम से कम कुछ किसानों के लिए तो राहत लाया, नहीं तो 2008 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संखया भयावह रूप से बढ़ सकती थी. कर्ज माफी किसानों के लिए एक स्वागत योग्य कदम था, लेकिन इसकी संरचना त्रुटिपूर्ण थी. इस एक बिंदु को प्रमुखता से इस पत्रिका में उठाया गया (ओह, क्या एक प्यारी छूट, 10 मार्च, 2008). यह कर्ज माफी सिर्फ बैंक ऋण से ही संबंधित थी और इसमें साहूकार से लिये गये कर्जों की अनदेखी की गयी थी. इस कारण केवल उन्हीं किसानों को ही लाभ हुआ जिनकी संस्थागत ऋण तक पहुंच थी. आंध्र प्रदेश में बंटाई पर खेती करने वाले और विदर्भ एवं दूसरी जगहों में गरीब किसानों को मुखय रूप से साहूकारों से ही कर्ज मिलता है. ऐसे में वास्तव में, केरल के किसानों, जहां हर किसान का अपना एक बैंक खाता है, को अधिक लाभ होने की संभावना थी. (केरल एक राज्य था जहां साहूकारों से मिलने वाले कर्ज के मुद्दे को संबोधित किया जाना था.)
2008 की कर्ज माफी की परिधि से पांच एकड़ से अधिक जमीन रखने वाले किसानों को बाहर रखा गया, इसमें सिंचित और असिंचित भूमि के बीच कोई फर्क नहीं किया गया था. इस फैसले ने आठ या 10 एकड़ की जोतवाली कम उपजाऊ और सूखी जमीन पर संघर्ष कर रहे किसानों को बर्बाद कर दिया. दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल के किसानों, जिनमें बड़ी संख्या 5 एकड़ की सीमा के नीचे आने वाले छोटे किसानों थी, को इस कर्ज माफी का कहीं ज्यादा लाभ मिला.
हरेक आत्महत्या के एक नहीं कई कारण हैं. लेकिन जब आपके सामने ऐसे करीब 2,00,000 कारण मौजूद हों, तो उनमें से कुछ अहम लेकिन समान कारणों को सूचीबद्ध करना बुद्धिमानी होगी. जैसा कि डा. नागराज बार-बार बताते हैं कि आत्महत्याएं ऐसे क्षेत्रों में केंद्रित दिखाई देती हैं, जहां कृषि का बड़े पैमाने पर व्यावसायीकरण हुआ है और जहां किसान कर्ज के बोझ तले बहुत अधिक दबे हैं. नकदी फसल उगाने वाले किसान खाद्य फसल उगाने वाले किसानों की तुलना में कहीं अधिक संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं. फिर भी संकट के मूल बुनियादी कारण अब तक अछूते ही हैं. जिनमें प्रमुख हैं : खेती को लूटने वाला कृषि के व्यावसायीकरण की प्रक्रिया, कृषि क्षेत्र में निवेश में भारी गिरावट, खेती में काम आने वाले सामानों के आसमान छूती कीमतों के समय में बैंक ऋण की वापसी, खेती की लागत में विस्फोटक वृद्धि और इसके साथ ही खेती से होने वाली आय में भारी कमी, इससे जुड़े सभी जोखिमों को जानते हुए भी खाद्य फसल से नकदी फसल की खेती की ओर लाखों किसानों का स्थानांतरण, कृषि के हर बड़े क्षेत्र, विशेष रूप से बीज, पर बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा, बढ़ता जल संकट और संसाधनों के निजीकरण की ओर उठाये गये कदम. इस संकट के सभी मूल कारणों को दूर किये बगैर सरकार सिर्फ एक कर्ज माफी के सहारे ही संकट को समाप्त करने की कोशिश कर रही थी.
2007 के अंतिम महीनों में द हिंदू (12-15 नवम्बर) ने डा. नागराज द्वारा किये गये एनसीआरबी के आंकड़ों के अध्ययन से उभरते नतीजों पर यह लेख प्रकाशित किया था कि 1997 और 2005 के बीच लगभग 1.5 लाख किसानों ने निराशा में अपना जीवन समाप्त कर लिया. इसके कुछ दिनों बाद ही केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने संसद में इन आत्महत्याओं (राज्य सभा-तारांकित प्रश्न संखया 238, 30 नवम्बर, 2007) की पुष्टि एनसीआरबी के आंकड़ों का ही हवाला देते हुए की थी. यह त्रासद है कि 27 महीने बाद, उसी अखबार की मुख्य खबर यह बनी कि यह संख्या लगभग 2 लाख पर पहुंच गयी है. यह संकट किसी भी मायने में दूर नहीं हुआ है. अपने शिकार का मजाक उड़ा रहा है, अपने आलोचकों पर ताने कस रहा है. और दिखावटी बदलावों से यह दूर भी नहीं होगा.

जनता को गुमराह करना शर्मनाक है : साईनाथ

Posted by Reyaz-ul-haque on 1/02/2010 04:05:00 PM

पी साईनाथ

आप सोचते होंगे कि अख़बारों में सिर्फ़ एक पेज 3 होता है? लेकिन महाराष्ट्र के अख़बार ऐसा नहीं मानते। हाल के चुनाव में उनके पास कई पेज 3 थे, जिन्हें वो लगातार कई दिनों तक छापते रहे। उन्होंने सप्लिमेंट के भीतर सप्लिमेंट छापे। इस तरह मुख्य अख़बार में भी आपको पेज 3 पढ़ने को मिले। फिर उन्होंने मेन सप्लिमेंट में अलग से पेज थ्री छापा। उसके बाद एक और सप्लिमेंट जिसके ऊपर रोमन में पेज थ्री लिखा था।

यह मतदान से ठीक पहले के दिनों में बहुत ज़्यादा हुआ क्योंकि व्यग्र उम्मीदवार "ख़बरों" को खरीदने के लिए हर क़ीमत चुकाने को तैयार थे। एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया कि "टेलीविजनों पर बुलेटिन्स की संख्या बढ़ गई और प्रिंट में पन्नों की संख्या।" मांगें पूरी करनी थीं। कई बार तो आखिरी पलों में अतिरिक्त पैकेज आए और उन्हें भी जगह देनी थी। उन्हें वापस लौटाने का कोई कारण नहीं था?

मराठी, हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू – राज्य के तमाम अख़बारों में चुनाव के दौरान आप ऐसी कई आश्चर्यजनक चीजें देखेंगे जिन्हें छापने से इनकार नहीं किया गया था। एक ही सामाग्री किसी अख़बार में "ख़बर" के तौर पर छपी तो किसी अख़बार में "विज्ञापन" के तौर पर। "लोगों को गुमराह करना शर्मनाक है" – यह शीर्षक है नागपुर (दक्षिण-पश्चिम) से निर्दयील उम्मीदवार उमाकांत (बबलू) देवताले की तरफ़ से खरीदी गई ख़बर की। यह ख़बर लोकमत (6 अक्टूबर) में प्रकाशित हुई थी। उसके आखिरी में सूक्ष्म तरीके से एडीवीटी (एडवर्टिजमेंट यानी विज्ञापन) लिखा हुआ था। द हितवाद (नागपुर से छपने वाले अंग्रेजी अख़बार) में उसी दिन यह "ख़बर" छपी और उसमें कहीं भी विज्ञापन दर्ज नहीं था। देवताले ने एक बात सही कही थी – "लोगों को गुमराह करना शर्मनाक है।"

मजेदार बात यह है कि चुनाव आचार संहिता (जिसके तहत पार्टी और सरकार का खर्च जांच के घेरे में आ जाता है) लागू होने से ठीक 24 घंटे पहले 30 अगस्त को एक विज्ञापन छपा। उसके बाद शब्द "विज्ञापन" ओझल हो गया और उसके साथ ही "रिस्पॉन्स फीचर" भी। उसके बाद सभी कुछ न्यूज़ में तब्दील हो गए।

उसके बाद विज्ञापनों की दूसरी खेप 18 सितंबर से ठीक पहले आई जब उन्होंने नामांकन भरना शुरू किया। नामांकन भरने के तुरंत बाद वो विज्ञापन भी बंद हो गए क्योंकि तब उम्मीदवारों के खर्चों पर नज़र रखी जाने लगी। इन हथकंडों ने सरकार, बड़े दलों और अमीर उम्मीदवारों को चुनावी खर्च में जोड़े बगैर बड़े पैमाने पर पैसा खर्च करने की सहूलियत दी। यही नहीं इन्होंने प्रचार का एक ऐसा तरीका भी खोच निकाला जो प्रचार खर्च में नहीं जुड़ा। उन्होंने थोक के भाव में एसएमएस और वॉयस मेल के जरिए मतदाताओं से वोट मांगे। इनके अलावा प्रचार के लिए खास वेबसाइट्स का निर्माण कराया। इन सब में पैसा काफी खर्च हुआ लेकिन खाते में नहीं जुड़ा।

30 अगस्त और 18 सितंबर के बाद न्यूज़ रिपोर्ट कई मायने में रोचक रहे। उन "ख़बरों" में कोई आलोचना और बुराई नहीं की जाती। सैकड़ों पन्ने उम्मीवारों की उपलब्धियों, प्रचार और तारीफ़ में भर दिए गए और मुद्दों की चर्चा तक नहीं हुई। जिनके पास पैसे नहीं थे उनका अख़बारों में जिक्र तक नहीं हुआ।

अगर आपने सही सौदा किया तो वही ख़बर प्रिंट, टेलीविजन और ऑनलाइन तीनों माध्यमों में उपलब्ध मिलेगी। यह पैकेज पत्रकारिता का विकसित रूप है और यह सभी माध्यमों में मौजूद है। इस तरह की ख़बरों की तरफ़ मुड़ने से चुनाव के दौरान कई बड़े अख़बारों की विज्ञापन आय घट गई – जबकि आम परिस्थितियों में ऐसा नहीं होता।

सबसे दुखद तो यह है कि कुछ बड़े पत्रकारों ने पेड न्यूज़ को अपनी बाइलाइन के साथ छपवाया। ऐसे पत्रकारों में कुछ चीफ़ रिपोर्टर और ब्यूरो चीफ़ रैंक के पत्रकार भी शामिल हैं। कुछ ने ऐसा स्वेच्छा से किया तो कुछ ने बताया कि "पत्रकारों के निजी भ्रष्टाचार के दौर में हमारे उसमें शामिल होने और उससे दूर रहने के विकल्प थे। लेकिन जब यह सब मालिकों की सहमति से एक संगठित उद्योग की शक्ल अख्तियार कर चुका है तो हमारे पास क्या विकल्प बचते हैं?"

1 अक्टूबर से 10 अक्टूबर 2009 के बीच महाराष्ट्र में छपने वाले कई अख़बारों को पढ़ना काफी मज़ेदार है। कई बार आप रहस्यम तरीके से "तय हुई चीजें" छपी हुई देखेंगे। मसलन दो कॉलम फोटो के साथ 125-150 शब्दों की स्टोरी। ये "तय हुई चीजें" काफी उत्सुकता जगाती हैं। ख़बर शायद ही कभी इन कठोर शर्तों के साथ छापी जाती हो, लेकिन विज्ञापन छापे जाते हैं। कुछ जगहों पर आपको एक ही पन्ने पर कई तरह के फॉन्ट और लेआउट देखने को मिलेंगे। ऐसा इसलिए कि लेआउट, फॉन्ट और प्रिंटआउट सब कुछ उम्मीदवार की तरफ़ से भेजा गया था।

कई बार व्यवस्थित तरीके से एक या दो पेज पर सिर्फ एक ही पार्टी से जुड़ी ख़बरें परोसी गईं। किसी और ख़बर को उन पन्नों पर छापने लायक नहीं समझा गया। 6 अक्टूबर को पुढारी अख़बार का तीसरा पन्ना कांग्रेस के लिए छापा गया। 10 अक्टूबर को सकाळ में तीसरे और चौथे पन्ने पर रणधुमली नाम का सप्लिमेंट छापा गया जिसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ एमएनएस से जुड़ी ख़बरें थीं। दूसरी बड़ी पार्टियों को कई दूसरे अख़बारों ने इसी तरह सम्मानित किया।

देशोन्नति में 11 अक्टूबर सिर्फ एनसीपी की ख़बर थी। 15 सितंबर को मुख्यमंत्री अशोक चाह्वाण पर विशेष छपा। हिंदी अख़बार नव भारत में 30 सितंबर से 13 अक्टूबर (इसके साथ ही चाह्वाण पर छपने वाले पूरे पन्नों की संख्या 89 हो गई) के बीच नव भारत में 12 पन्ने चाह्वाण को समर्पित किए गए। दूसरी तरफ, मतदान की तारीख़ जैसे-जैसे नजदीक आई पन्नों पर ख़बरों की भीड़ बढ़ती गई। कुछ पर तो 12 ख़बरें और 15 फोटो छपे।

चूंकि चुनावी दौर में उम्मीदवारों और उनकी पार्टियां ने ख़बरें वितरित कीं, इसलिए ज़्यादातर अख़बारों ने एक भी संशोधन नहीं किए। वरना ऐसा क्यों है कि अख़बारों ने बाइलाइन, स्टाइल और व्यवहार से समझौता किया और एक सी ख़बरें छापीं।

इससे कई परेशान करने वाले सवाल खड़े होते हैं।

उदाहरण के लिए, सकाळ आमतौर पर अपने रिपोर्टर की ख़बरों पर बटमिदार (रिपोर्टर) लिख कर क्रेडिट देता है। दूसरों की ख़बरों पर सकाळ वृतसेवा (न्यूज़ सर्विस) या फिर सकाळ न्यूज़ नेटवर्क लिखा होता है। लेकिन कांग्रेस की तरफ़ से भेजी गई सामाग्री पर "प्रतिनिधि" लिखा गया था। इसलिए आप पाएंगे कि सकाळ ने अपनी व्यावसायिक शर्तों को तोड़ते हुए "प्रतिनिधि" नाम से ख़बरें प्रकाशित कीं। ऐसी ही एक ख़बर – "राज्य की सत्ता कांग्रेस के ही हाथ में रहेगी" – 4 अक्टूबर को छापी गई। उसमें ऊपर "बटमिदार" लिखा हुआ था और नीचे "प्रतिनिधि"। यह ख़बर क्या थी? क्या यह एक विज्ञापन था?

जाने-माने पब्लिक रिलेशन फर्म्स, प्रोफेशनल डिजाइनर्स और विज्ञापन एजेंसियां अमीर उम्मीदवारों और पार्टियों का काम संभालते हैं। वो ख़बरों को तय शब्दों और लहजों में अख़बारों के लिए तैयार करते हैं। कई बार तो अलग-अलग अख़बारों के लिए ख़बरें ऐसे तैयार की जाती हैं कि वो एक्सक्लूसिव लगें।

कुछ चुनिंदा उम्मीदवारों ने, जिनमें से ज़्यादातर बिल्डर थे, काफी अधिक ख़बरों में रहे। इसके विपरीत छोटी पार्टियों और कम पैसे वाले उम्मीदवारों का राज्य के कई अख़बारों ने पूरी तरह बहिष्कार कर दिया। कुछ ने मुझे ख़त लिख कर अपना दर्द बयां किया है। ऐसे ही एक शख़्स हैं शकील अहमद। पेशे से वकील शकील अहमद ने बतौर निर्दलीय मुंबई के सायन-कोलीवाडा से चुनाव लड़ा। उन्होंने बताया कि जिन अख़बारों ने उनको सामाजिक कार्यकर्ता बताते हुए उनके बारे में ख़बरें छापी थीं, "उन्होंने ने भी बतौर उम्मीदवार उनके बारे में कुछ भी छापने के लिए पैसे मांगे। मैंने पैसे देने से मना कर दिया तो किसी ने मेरे बारे में कुछ नहीं छापा।" शकील अहमद चुनाव आयोग और प्रेस काउंसिल के सामने अपनी बात रखने को उत्सुक हैं।

पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने महाराष्ट्र के कई जिलों से हमारे पास 21 अख़बारों की 100 से अधिक प्रतियां भेजी हैं। इनमें से अधिक सर्कुलेशन वाले बड़े अख़बारों के साथ छोटे स्थानीय अख़बार भी शामिल हैं। उन सभी में ऐसी ख़बरों से पन्ने भरे हुए हैं। टेलीविजन चैनलों पर कहीं इन्हें ख़बरों के तौर पर तो कहीं विज्ञापन के तौर पर दिखाया गया। ऐसी ही एक ख़बर दो चैनलों पर किसी गैर की आवाज़ में प्रसारित की गई। और एक तीसरे चैनल के माइक से साथ विरोधी चैनलों पर ख़बरें नज़र आईं।

मतदान का दिन नज़दीक आने पर कुछ कम पैसे वाले उम्मीदवारों ने कुछ पत्रकारों से संपर्क साधा, ताकि वो भ्रष्टाचार की इस बाढ़ में डूब न जाएं। उन्हें प्रोफेशनल्स की ज़रूरत थी। उन्होंने उन पत्रकारों से अपने बारे में लिखने के लिए गिड़गिड़ा कर कहा और अपनी हैसियत के हिसाब से पैसों का प्रस्ताव रखा। आखिरी चंद दिनों में ऐसे कुछ छोटे आइटम अख़बारों के पन्नों पर नज़र आए। ये आइटम उन उम्मीदवारों की माली हालत बयां करते थे।

और यह वो चुनाव रहा, जिसके बारे में न्यूज़ मीडिया ने हमें बताया कि इस बार चुनाव मुद्दों के आधार पर नहीं लड़े गए।

अनुवाद : जनतंत्र डेस्क । हाशिया पर साभार । मूल यहाँ पढ़ें

यह शर्मनाक सौदा लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक है!

Posted by Reyaz-ul-haque on 12/09/2009 05:00:00 PM


हाल ही में संपन्न हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में पार्टियों और उम्मीदवारों के द्वारा अपने प्रचार के लिए मीडिया में धन का जम कर इस्तेमाल हुआ। अपने किसी भी चुनावी कवरेज के लिए एक उम्मीदवार को धन के इस संगठित खेल का हिस्सा होना पड़ा या कहें तो जबरन मजबूरी में इसका हिस्सा होना पड़ा। क्योंकि ऐसी धन संस्कृति का मीडिया में इस्तेमाल होने लगा है कि पैसा नहीं तो कवरेज भी नहीं। मीडियाई दुनिया में कवरेज पैकेज शब्द ने एक संस्कृति का रूप ले लिया है, जिसमें पार्टियों के साथ सांठ-गांठ, खरीद-बिक्री और उसके चुनावी कवरेज, इन सब के केंद्र में धन आ गया है। लोकतंत्र में अमीर निर्वाचित प्रतिनिधियों की बढ़ती संख्या, सारे नियमों-क़ानूनों को धत्ता बता कर मीडिया द्वारा कवरेज पैकेज संस्कृति का निर्माण। इन सारे पहलुओं की एक साफ तस्वीर देश के जाने-माने पत्रकार और मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित पी साईनाथ के इस संपादकीय लेख (जो 26 अक्टूबर 2009, सोमवार को द हिंदू में प्रकाशित हुआ था) में साफ तौर पर उभरती है।


सी राम पंडित को अपने साप्ताहिक स्तंभ को कुछ समय के लिए नहीं लिखना है। मतलब उन्हें रोका जा रहा है। डा पंडित (बदला हुआ नाम) लंबे समय से महाराष्ट्र के एक जाने-माने भारतीय भाषा वाले अख़बार में लिख रहे हैं। राज्य विधानसभा में जिस तारीख़ को उम्मीदवारों के द्वारा अपना नाम वापस करने की आखिरी तारीख थी, उसके बाद डा पंडित को कुछ समय के लिए अख़बार से किनारे कर दिया।

अख़बार के संपादक ने क्षमाभाव के लहजे से उन से कहा, पंडित जी आपका स्तंभ 13 अक्टूबर के बाद दुबारा प्रकाशित होगा, क्योंकि तब तक अख़बार का हर पन्ना बिक चुका है। संपादक जो खुद एक ईमानदार व्यक्ति है, दबे मन से सच्चाई को बयां कर रहे थे। महाराष्ट्र चुनाव में धन के इस नशोत्सव में मीडिया भी अपने को मालदार बनाने में लगा रहा और धनवान बनने से नहीं चूका।

धनवान बनने के इस खेल में पूरी मीडिया बिरादरी तो नहीं थी, पर कुछ तो इसमें अत्यधिक सक्रिय थे। इस अत्यधिक सक्रिय मालदार बनने वालों की टीम में छोटे मीडियाई संस्था तो शामिल थे ही, परंतु शक्तिशाली अख़बार और समाचार चैनल भी कहीं पीछे नहीं थे। बहुत सारे उम्मीदवारों ने इस लूट की शिकायत तो की, पर वो इसे एक बड़ा मुद्दा बनाने से इसलिए बचते रहे क्योंकि उन्हें मीडियाई ख़ौफ़ (मीडिया द्वारा उनके ख़‍िलाफ़ चलाये जाने वाले अभियान, कवरेज न देना) ने घेरे रखा था।

कुछ वरिष्ठ पत्रकार और संपादक प्रबंधन के ऐसे कारनामे से परेशान थे। जाहिर है, ये उनके लिए एक दमघोंटू वातावरण था, जहां हर दिन उनके पत्रकारीय मूल्यों की हत्या हो रही थी।

एक उम्मीदवार ने बहुत निराशा के साथ ये बात कही कि मीडिया इस चुनाव का सबसे बड़ा विजेता रहा।

एक दूसरे उम्मीदवार के अनुसार, इस एकमात्र वक्त (समय) में (जो भी इस पैकेजिंग के खेल में शामिल थे) मीडिया ने बड़ी तेजी से मंदी की भरपाई की। बड़ी बात यह है कि मीडिया ने इसे बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दिया। इस पूरे चुनावी समय में तकरीबन 10 करोड़ रुपये मीडिया की जेब में गये। इतनी बड़ी धनराशि सीधे विज्ञापन के रूप में नहीं आयी, बल्कि समाचार पैकेज के रूप में प्रचार करने के लिए इस बड़ी धनराशि का इस्तेमाल हुआ।

यह मीडियाई सौदा एक बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया। नो मनी, नो न्यूज (पैसा नहीं तो ख़बर भी नहीं)।

मीडिया की इस आवश्यक शर्त के कारण छोटी पार्टियां और स्वतंत्र एवं निर्दलीय उम्मीदवारों की आवाज़ें दब-सी गयीं, क्योंकि इनके पास पूंजी और संसाधन की कमी थी। इन कारनामों के कारण दर्शक और पाठक भ्रम में रहे और उन तक वो सही मुद्दे नहीं पहुंच पाये जो इन छोटी पार्टियों ने उठाये थे।

द हिंदू ने इन मामलों पर (अप्रैल 7, 2009) लोकसभा चुनाव के दौरान भी रिर्पोट प्रकाशित किया था। जहां चुनावी कवरेज पैकेज के लिए मीडिया ने कम से कम 15 से 20 लाख रुपये की बोली लगायी थी। ज़्यादा की कल्पना हम खुद कर सकते हैं। राज्य विधानसभा चुनाव में भी कुछ ऐसी ही तस्वीर सामने आयी।

कुछ संपादकों के अनुसार, ये सब कुछ नया नहीं है। कुछ भी हो, इस बार का पैमाना नया और आश्चर्यजनक भी रहा।

ऐसा घृणास्पद काम (पार्टी और मीडिया दोनों और से) बड़ा ही भयप्रद था।

पश्चिमी महाराष्ट्र के एक विद्रोही उम्मीदवार के अनुसार, उस क्षेत्र के एक संपादक ने एक करोड़ रुपये केवल लोकल मीडिया पर खर्च किया, और परिणाम यह कि उसने अपनी पार्टी के ही आधिकारिक उम्मीदवार को हरा दिया।

सौदे खूब हुए और भिन्न-भिन्न प्रकार के रहे। एक उम्मीदवार को प्रोफाइल के लिए अलग रेट, अपनी उपलब्धियों के लिए अलग रेट, साक्षात्कार के लिए अलग रेट, और अगर आप पर कोई मामला दर्ज है, तो उसके लिए अलग रेट चैनल को उपलब्ध कराना होता था। (इसका परिणाम यह होता कि चैनल आपके चुनावी कार्यक्रम का सीधा प्रसारण या आपके कार्यक्रम पर विशेष फोकस या एक टीम जो आपके साथ आपके चुनावी कार्यक्रम के दौरान एक घंटे रहती प्रत्येक दिन)। आपके विद्रोहियों के ख़‍िलाफ़ भी यह बिकाऊ मीडिया अपना काम करता। यह धन लेन-देन की संस्कृति आपके लिए इतनी विश्वसनीय बन जाती कि चैनल और अख़बार अपने दर्शक एवं पाठक को आपकी आपराधिक पृष्ठभूमि के बारे में ख़बर नहीं लगने देते।

महाराष्ट्र विधानसभा में जितने भी विधायक चयनित हुए हैं, उसमें 50 फ़ीसदी से ज़्यादा पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। इनमें से कुछ के बारे में फीचर टाइप समाचार भी अगर बनते, तो जब उनकी पृष्ठभूमि को खंगाला जाता तो उसमें ऐसे रिकॉर्ड ग़ायब रहते।

इस चुनावी महासंग्राम के प्रथम चरण के समापन पर विशेष परिशिष्ट का मूल्य बम विस्फोट के समान था। एक के अनुसार, राज्य के एक महत्वपूर्ण राजनेता ने राजनीति में अपने एक युग के पूरे होने के अवसर पर एक उत्सव का आयोजन करते हुए उसमें तकरीबन डेढ़ करोड़ खर्च किये। मीडिया में केवल इस निवेश पर जो खर्च हुआ, वो एक उम्मीदवार के रूप में जितना खर्च किया था, उसका 15 गुणा था। उसने इन तरीक़ों का इस्तेमाल कर चुनाव भी जीत लिया।

एक सामान्य कम पैकेज की दर कुछ इस प्रकार है : आपकी प्रोफाइल और आपकी पसंद के समाचार के लिए आपको कम से कम चार लाख या उससे ज़्यादा देना पड़ेगा और ये निर्भर करेगा कि आप किस पेज पर ये सब कुछ चाहते हैं। आपकी पसंद के समाचार अंश के लिए कुछ हतोत्साह की स्थिति थी, क्योंकि यहां समाचार क्रम के अनुसार पैसा देना पड़ता है (आपकी ख़बरों को थोड़ा बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता और अख़बार का एक लेखक आपकी ख़बर संबंधित सामग्री की ड्राफ्टिंग करता)। अख़बार के कुछ पन्नों में ऐसी ख़बरों की उपस्थिति बड़ी विचित्र रहती। मिसाल के तौर पर आप एक ही दिन के समाचार पत्र में एक ही दिन देखते अलग-अलग बात कहते हुए। क्योंकि ये सब कुछ एक छद्म विज्ञापन और प्रोपगैंडा होता था (जाहिर है ये सब कुछ पाठकों को भरमाने के लिए था)। ख़बर एक विशेष आकार दस सेंटीमीटर चार कॉलम का होता था। एक केसरिया (भगवा) गठबंधन समर्थक अख़बार अपने समाचारों में कांग्रेस और राकांपा की काफी प्रशंसा करता था। आप समझ सकते हैं कि अजीबो-गरीब चीज़ें बस इस पैकेज संस्कृति का कमाल थीं (और हां, मज़ेदार बात यह है कि अगर आप अपनी पसंद के चार समाचार छपवाते, तो पांचवा आपको मुफ्त में मिलता)।

कायदे और नियम से चलने वाले कुछ अपवाद भी मौजूद थे। कुछ संपादकों ने कड़े प्रयास किये इन सौदों से दूर रहने के और समाचारों का ऑडिट भी करवाया। इस विश्वास के साथ कि कुछ गड़बड़ तो नहीं हो रहा। और जो पत्रकार अपने को इस संकट के कारण परेशान महसूस कर रहे थे, उन्होंने अपने प्रधान संपर्कों (लोगों से) के साथ बैठकों को रद्द कर दिया। क्योंकि प्रायः पत्रकारों का, जिनका संबंध राजनेताओं से होता है, पैरवी के लिए या अपने फायदे के लिए उपयोग किये जाते हैं (यह एक कड़वा सच है कि पत्रकारों का राजनेताओं से निकटता का इस्तेमाल अमूमन अपने फ़ायदे के लिए किया जाता है)।

यह सूचना एक रिपोर्टर से प्राप्त हुई, जिसका अख़बार प्रत्येक शाखा के पास ई-मेल भेज कर प्रत्येक संस्करण पर अपने टारगेट को पूरा करने को कहता था। जो इन सौदों से इतर बेहतरीन अपवाद थे, वो ख़बरों के व्यापार, पैकेज की बाढ़ में दब गये। और जो बड़ी राशि अख़बारों द्वारा ली जा रही थी वो अपने कर्मचारियों को भी इस लूट में शामिल होने से नहीं रोक पाये। जो संस्करण अपने टारगेट को पूरा कर रहे थे, वो भी। इस पूरी प्रक्रिया के बचाव में मानक तर्क भी बना लिये गये।

एडवरटाइजिंग पैकेज उद्योग के लिए ब्रेड और बटर का काम करते हैं। क्या ग़लत है इसमें? पर्व के मौसम में भी हम पैकेज जारी करते हैं। दिवाली पैकेज और गणेश पूजा पैकेज। इस पूरी प्रक्रिया से, जिसमें झूठ, बनावटी समाचार और मनगढ़ंत बातें थीं – केंद्र के निर्वाचन भारतीय चुनावी लोकतंत्र को प्रभावित कर रहा था।

यह अनैतिक रूप से अनुचित है उन उम्मीदवारों के लिए, जिनके पास कम पैसे हैं या हैं ही नहीं। उन्हें भी ऐसे प्रयोग को मजबूरन अपनाना पड़ेगा मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए।

एक और जो बहुत ख़राब मीडिया संबंधी आयाम है, वो ये कि काफी सारे सेलिब्रटी मई में चुनाव प्रचार कर लोगों से वोट की अपील करने आये थे। इस समय काफी सारे सेलिब्रटियों को चुनाव अभियान प्रबंधकों के द्वारा किराये पर ले लिया जाता था भीड़ इकट्ठी करने के लिए। इनकी क़ीमतों का पता नहीं चल सका है। ये सब कुछ हाथों-हाथ हो रहा था उम्मीदवारों के धन में हुई भारी वृद्धि से।

इसमें ज़्यादातर वैसे उम्मीदवार थे, जिन्होंने पिछली बार सन 2004 की विधानसभा में बतौर विधायक इंट्री की थी और तब से अब तक उन्होंने काफी पैसा बना लिया था। मीडिया और पैसे की ताक़त जैसे एक गमले में दो पौधों की तरह, यह पूरी तरह से छोटे और कम खर्च वाली आवाज को दबा देते हैं। इसका मूल्य आम आदमी को भ्रमजाल में फंस कर चुकाना होता है। मत सोचिए, वे फिर भी इस चुनावी प्रक्रिया के हिस्सा ज़रूर हैं।

महाराष्ट्र चुनाव में आपके चुनाव जीतने की संभावना उस समय अधिक बढ़ जाती है, जब आप 100 मिलियन खर्च करते हैं। तब आपके चुनाव जीतने की संभावना 48 गुणा बढ़ जाती है, अगर आप केवल एक मिलियन खर्च करते हैं। और हां अगर सामने वाला आधा मिलयन खर्च करता है, तब आपकी संभावना इस तंत्र के द्वारा और प्रबल है।
कुल 288 विधायकों में महाराष्ट्र में जिन्होंने चुनाव जीता है, केवल 6 की संपत्ति पांच लाख के करीब है। इन अमीर निर्वाचित सदस्‍यों को इन (1-10 लाख) लखपतियों से बिल्कुल भी ख़तरा नहीं था। आपके चुनाव जीतने की संभावना इन से छह गुणा ज़्यादा है, नेशनल इलेक्शन वाच के अनुसार।

संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में करोड़पति विधायकों की संख्या (जिनकी संपत्ति एक करोड़ से ज़्यादा है) 70 प्रतिशत से ज़्यादा है। 2004 में ऐसे 108 करोड़पति निर्वाचित सदस्य थे। इस समय इनकी संख्या 184 है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दो-तिहाई निर्वाचित सदस्य करोड़पति हैं, जो संपन्न हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव में निर्वाचित तीन-चैथाई सदस्यों के बराबर हैं। ऐसी भौंचक करने वाली रिर्पोट न्यू (नेशनल इलेक्शन वॉच), जिसमें विभिन्न संगठनों के पूरे 1200 नागरिक समाज के लोग पूरे देश से हैं, के द्वारा सामने आयी है। लोकसभा चुनाव के दौरान भी ऐसी रिपोर्टें इन नागरिक समाज संगठनों के द्वारा आयी थी अप्रैल-मई में। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स ने एनजीओ के साथ मिल कर लागों को वोट के अधिकार के उपयोग के लिए आगे किया। महाराष्ट्र में प्रत्येक विधायक की औसत संपत्ति करीब-करीब 40 मिलियन है। यह उनके द्वारा स्वंय घोषित है, अगर सही मानें तो। औसत रूप से कांग्रेस और बीजेपी के विधायक अन्य विधायकों से ज़्यादा अमीर हैं। राकांपा और शिवसेना के विधायक भी ज़्यादा पीछे नहीं हैं। इनके विधायकों की औसत संपत्ति 30 मिलियन है।

इस जटिल चुनावी लोकतंत्र में हमेशा एक व्यापक मत प्रयोग का दौर चलता रहता है। हम चुनाव आयोग को उसके कार्य के लिए बधाई देते हैं। अधिकतर मामलों में, अधिकतर बार चुनाव आयोग के हस्तक्षेप और जागरूकता के कारण ही बूथ लूट, वोटों की हेराफेरी पर लगाम लगा। परंतु, चुनाव में धन प्रयोग पर मीडिया पैकेजिंग पर अभी आयोग की तरफ से कोई सख़्त क़दम नहीं उठाये गये हैं।

यह सौदा अधिक योजनाबद्ध तरीके से किया जा रहा है, जो मतों की हेराफेरी से ज़्यादा ख़तरनाक़ है। क्योंकि यहां सब कुछ अपरोक्ष तरीके से होता है। यह शर्मनाक सौदा न सिर्फ चुनाव के लिए, बल्कि संपूर्ण लोकतंत्र के लिए शर्मनाक भी है और ख़तरनाक भी।

(अनुवादक : रजनेश)

बुद्धि की मंदी है : मुद्दों का न होना

Posted by Reyaz-ul-haque on 5/11/2009 05:01:00 PM

पी साइनाथ

म-से-कम दो प्रमुख अखबारों ने अपने डेस्कों को सूचित किया कि 'मंदी' (recession) शब्द भारत के संदर्भ में प्रयुक्त नहीं होगा। मंदी कुछ ऐसी चीज है, जो अमेरिका में घटती है, यहां नहीं. यह शब्द संपादकीय शब्दकोश से निर्वासित पडा रहा. यदि एक अधिक विनाशकारी स्थिति का संकेत देना हो तो 'डाउनटर्न' (गिरावट) या 'स्लोडाउन' (ठहराव) काफी होंगे और इन्हें थोडे विवेक से इस्तेमाल किया जाना है. लेकिन मंदी को नहीं. यह मीडिया के दर्शकों के खुशहाली भरे, खरीदारीवाले मूड को खराब कर देगा, जो कि अर्थव्यवस्था को उंउं, उंउं, ठीक है, मंदी (recession) से बाहर निकालने के लिए बेहद जरूरी है.

'डोंट वॅरी-बी हैप्पी' के इस फरमान ने हास्यास्पद और त्रासदीपूर्ण दोनों स्थितियों को पैदा किया है। कई बार उन्हीं या दूसरे प्रकाशनों के इस नकार भरे नजरियेवाली सुर्खियां हमें बताती हैं कि 'बुरे दिन बीत गये और उबरने की शुरुआत हो रही है.' किस बात के बुरे दिन? मंदी के? और हम किस चीज से किसी तरह उबरने लगे हैं? अनेक प्रकाशन और चैनल इस प्रकार के बहाने बना कर अनेक पत्रकारों समेत अपने कर्मियों को थोक में निकाल बाहर कर रहे हैं.

वे गरीब आत्माएं (इनमें से अनेक ने बडे होम लोन इएमआइ पर करार किये, जब कि अर्थव्यवस्था अब से भी अधिक गिरावट पर थी) नौकरियां खो रही हैं, क्योंकि...जो भी हो, ठीक है। कल्पना कीजिए कि आप डेस्क पर कार्यरत उनमें से एक हैं, अपने पाठकों को आश्वस्त करने के लिए कि सब ठीक है, खबरों की काट-छांट कर रहे हैं. आप शाम में मंदी के भूत की झाड-फूंक करते हैं. अगली दोपहर के बाद आप खुद को उसका शिकार पाते हैं, जिसे आपने मिटा दिया था. मीडिया का पाखंड इसमें है कि वह उसके उलटा व्यवहार करता है, जिसे वह यथार्थ कह कर वह अपने पाठकों को बताता है,-जी, यह बिजनेस की रणनीति का हिस्सा है. लोगों को डराओगे तो वे कम खर्च करेंगे. जिसका मतलब होगा कम विज्ञापन, कम राजस्व, और भी बहुत कुछ कम.

इन दैनिकों में से एक में एक बार एक शीर्षक में 'आर' शब्द का जिक्र था, जिसमें कुछ इस तरह का मखौल किया गया था कि कैसी मंदी? एक खास क्षेत्र में अधिक कारें बिक रही थीं, ग्रामीण भारत चमक रहा है (यहां शब्द था, 'नयी-नयी मिली समृद्धि')। हमें उजले पक्ष की खबरों की जरूरत है-तब भी जब हम निचली सतह पर कुछ अलग करने की कोशिश कर रहे हैं. टेलीविजन चैनल हमेशा की तरह (संदिग्ध) विशेषज्ञों को सामने ला रहे हैं, जो बता रहे हैं कि चीजें उतनी बुरी नहीं हैं, जितनी वे बना दी गयी हैं (किनके द्वारा, हमें यह बिरले ही बताया जाता है). गिरती मुद्रास्फीति के लिए खुशनुमा सुर्खियां हैं. (हालांकि कुछ बाद में इसकी उत्पाद संख्या बनाने को लेकर सतर्क हो गये हैं). लेकिन इस पर बहुत कम ध्यान दिया गया है कि अनाज की कीमतें कितनी गंभीर समस्या हैं. भूख अब भी कितना बडा मुददा है. इसका एक संकेत तीन या दो रुपये और यहां तक कि एक रुपये किलो चावल देने का वादा करती राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों में है. (यह अजीब है कि एक आबादी जो कारें खरीदने के लिए तत्पर दिखती है, अनाज खरीदने के लिए नहीं). हालांकि आप जानते हैं कि इन घोषणापत्रों की असलियत क्या है.

इसलिए मीडिया अपने चुने हुए विश्वस्त विशेषज्ञों, प्रवक्ताओं और विश्लेषकों से बात करता है और एलान करता है : इस चुनाव में कोई मुददा नहीं है। निश्चित तौर पर मीडिया जिनके बारे में बात कर रहा है, वैसे बहुत नहीं हैं. और हां, यह राजनीतिक दलों के लिए एक राहत की तरह आता है, जो उन्हें सामने आ रही बडी समस्याओं को टालने में सक्षम बनाता है. यहां तक कि उभरते हुए मुद्दों को सामने लाने के अवसर, जो अनेक मतदाताओं के लिए एक बडी मदद होते-छोड दिये जा रहे हैं. इस तरह हमें आइपीएल बनाम चुनाव, वरुण गांधी, बुढिया, गुडिया और इस तरह की दूसरी बकवासों के ढेर पर छोड दिया गया है. जरनैल सिंह को (जिन्होंने बेयरफुट जर्नलिज्म-नंगे पांव पत्रकारिता को एक नया मतलब दिया है) इसका श्रेय जाता है कि उन्होंने वरुण गांधी जैसी बकवासों को परे कर दिया और 1984 के बाद से सभी चुनावों के लिए महत्वपूर्ण रहे एक मुद्दे पर वास्तव में ध्यान खींचा.

हम अमेरिका में हो रहे विकास के बारे में जो रिपोर्ट करते हैं, उसमें और यहां जिस यर्थाथ पर हम जोर देते हैं, उसमें एक अनोखा अंतर है, और वास्तव में अंतर महत्वपूर्ण हैं-लेकिन वे सामने कैसे आये इसे प्रस्तुत करना हम नहीं चाहते। वर्षों से, हम वैश्वीकरण के एक खास स्वरूप के मुनाफों की दलाली करते रहे हैं. इसमें हम विश्व अर्थव्यवस्था (पढें, अमेरिकी और यूरोपीय) से अधिक से अधिक एकाकार होते गये, सारी चीजें अच्छीं हासिल हुईं. लेकिन जब वहां चीजें बदतर होने लगीं, वे हमें प्रभावित नहीं करतीं. ओह नहीं, बिल्कुल नहीं.

यह अनेक तरीकों से यहां पार्टियों में जानेवालों और साधारण लोगों के बीच की दूरी की माप भी है। बादवाले लोगों के लिए किसी भी तरह बहुत उत्साहित नहीं होना है. उनमें से अनेक आपको विश्वास दिलायेंगे कि उनके पास मुद्दे हैं. लेकिन हम कैसे उन समस्याओं को उठा सकते हैं, जिनका अस्तित्व हम पहले ही खुले तौर स्वीकार चुके हैं? इसलिए भूल जाइए, कृषि संकट और पिछले एक दशक में एक लाख 82 हजार किसानों की आत्महत्याओं को. और बहरहाल, भुखमरी और बेरोजगारी मीडिया में मुद्दा कब रहे? अधिकतर प्रकाशनों ने ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत के निराशाजनक प्रदर्शन को नगण्य स्पेस दिया है. ये सारी समस्याएं वॉल स्ट्रीट में गिरावट के पहले घटी थीं (मीडिया के लिए जो खुद अप्रत्याशित तौर पर, बिना किसी चेतावनी के घट गया.)

पिछले डेढ साल से, इतनी भीषण चीजें कहीं नहीं हुईं। उद्योग जगत का संकट, निर्माण उद्योग में नकारात्मक विकास, इन सेक्टरों में कुछ नौकरियों का खत्म होना, इन सबका थोडा जिक्र हुआ. अधिकतर एक चलताऊ जिक्र. लेकिन चीजें असल में तब बुरी हुईं जब ऊपर का 10 प्रतिशत हिस्सा शिकार बना. उन्हें फिर से आश्वस्त किये जाने और कारें खरीदना जारी रखे जाने की जरूरत है. कुछ जगहों पर 'उन्हें शिकार मत बनाओ' का मतलब है विभ्रमों, सिद्धांत, यथार्थ और रिपोर्टिंग के बीच की रेखा को धुंधला करना है. इसका बेहद खतरनाक नतीजा हो सकता है.

आबादी के बडे हिस्से के लिए, जो अपने मोबाइल फोन पर शेयर बाजार की ताजा सूचनाएं नहीं पाता, चीजें उतनी बेहतर नहीं हैं। वर्ष 2006 मीडिया में एक बडे बूमवाले वर्ष के रूप में दर्ज है. लेकिन उस वर्ष के तथ्य हमें संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक में 132वें स्थान पर रखते हैं. तब से उस पहले से ही निराशाजनक स्थान से आयी और गिरावट ने हमें 128वें स्थान पर रखा है-भूटान से भी नीचे. कमवजन के और कुपोषित बच्चों के संदर्भ में भारत एक आपदाग्रस्त जोन है. सूचकांक में हमसे नीचे रहे देश भी इस मोरचे पर काफी बेहतर कर रहे हैं. हम इस ग्रह पर ऐसे बच्चों की सबसे अधिक संख्यावाले देश हैं. और मुद्दे हैं ही नहीं? प्रभावी राजनीतिक ताकतों की उन मुद्दों को टाल जाने की क्षमता का मतलब यह नहीं कि वे मौजूद नहीं हैं. यह बात कि हम अपने आसपास चल रही विशाल प्रक्रियाओं से जुडने में अक्षम हैं, हमें मीडिया के बारे में अधिक और मुद्दों के बारे में कम बताती है.

ऑर्डरों के रद्द हो जाने के कारण निर्यात आधारित सेक्टरों में उदासी है। यह गुजरात, महाराष्ट्र और हर जगह की सच्चाई है. यह सब होने के साथ ही, लाखों मजदूर-हर जगह के प्रवासी, उडीसा, झारखंड या बिहार अपने घरों को लौटने लगे हैं. वे किसके लिए लौट रहे हैं? उन जिलों के लिए, जहां काम का भारी अभाव है, जिस वजह से उन्होंने पहले उन्हें छोडा था. उस जर्जर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के पास, जो पहले की ही, घटी हुई, आबादी को खिला पाने में अक्षम है. नरेगा के पास, जो शुरू होने में ही अक्षम था और निश्चित तौर पर फंडिंग के अपने वर्तमान स्तर पर, इन अतिरिक्त लाखों लोगों का सामना नहीं कर सकता.

यह मंदी-या इसे आप जो चाहें कहें-के नये चरण के हमले और इन चुनावों में वोट देने के बीच फंसा हुआ समय है। इस माह और मई में हम वोट देने जा रहे हैं. प्रवासी मजदूरों और दूसरों की नौकरियों का जाना हर हफ्ते बढ रहा है. मानसून के आते-आते आपके पास एक थोडी बुरी स्थिति होगी. कुछ महीनों के बाद, अभूतपूर्व रूप से यह बुरी होगी. लेकिन चुनाव अभी हो रहे हैं. अगर ये आज से कुछ माह बात होते, तो कुछ राज्यों में बेहद निर्णायक नतीजे आते. और मुद्दे भी वरुण, बुढिया, गुडिया या अमर सिंह के अंतहीन कारनामे नहीं होते.

इसी बीच, अपने दर्शकों को मीडिया यह शायद नहीं बताये कि हम महान मंदी (ग्रेट डिप्रेशन) के बाद के सबसे बुरे, 80 वर्षों के बाद देखे गये सबसे गंभीर आर्थिक संकट का हिस्सा हैं. इसके बाद जो हो सकता है, उसके लिए पाठकों, श्रोताओं और दर्शकों को तैयार करने के लिए कुछ भी नहीं हो रहा है. अकेला ठहराव खबरों (और लकवाग्रस्त संपादकीय प्रतिभा) में है. बडी गिरावट मीडिया के प्रदर्शन में है. बाकी की दुनिया के लिए यह एक मंदी है, जिसमें हम और बदतरी की ओर बढ रहे हैं.

अनुवाद : रेयाज उल हक
मूल अंगरेजी सोमवार, 20 अप्रैल, 2009 को द हिंदू में प्रकाशित

भारतीय किसान का सपना यह है कि वो अमेरिकी गाय के रूप में पैदा ले

Posted by Reyaz-ul-haque on 6/22/2008 09:23:00 PM

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पी साईनाथ
अन्तिम किस्त सभी किस्तें यहाँ पढ़ें
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जब सरकार चुनावी वादों में ठगती है

विदर्भ में होनेवाली 'योग्य' आत्महत्याओं पर वापस लौटते हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है, जो महाराष्ट्र सरकार को प्रति क्ंिवटल कपास के लिए 2700 रूपये देने के चुनावी वादे को निभाने से रोकता हो। पर उन्होंने सत्ता में आने के बाद क्या किया? मैं किसी एक सरकार पर अंगुली नहीं उठा रहा हूँ, मैं यह साफ कर दूँ कि पूरे देश में कश्षि की स्थिति काफी बुरी है, सभी सरकारें दोषी हैं। हर सरकार ने वादा खिलाफी की है, कोई भी राज्य बचा नहीं है। लेकिन इस खास मामले में, उन्होंने 2700 रूपये देने का वादा किया था पर इसे घटाकर 500 रूपये कर दिया। उन्होंने तथाकथित 'अग्रिम बोनस' भुगतान के रूप में दी जाने वाली 500 रूपये की योजना भी वापस ले ली।

इस तरह, किसानों से 1200 करोड़ रूपये वापस ले लिये गये। किसानों से 1200 करोड़ वापस लेने के बाद मुख्यमंत्री 1075 करोड़ के पैकेज की घोषणा करते हैं। 1075 करोड़ का पैकेज उन लोगों को दिया जाता है, जिनसे आपने 1200 करोड़ रूपये वापस ले लिये हैं।

अमेरिका-यूरोपीय यूनियन की सब्सिडियों ने कपास की कीमत को धरातल पर ला दिया
ठीक इसी समय अमेरिका और यूरोपियन यूनियन ने अपने कपास उत्पादकों को सब्सिडियों में डुबो दिया था। अमेरिका के कपास उत्पादक छोटे किसान नहीं हैं, वे कॉरपोरेसन की शक्ल में हैं। महाराष्ट्र में कितने कपास उत्पादक हैं? दसियों लाख हैं। अमेरिका में कितने किसान उत्पादक हैं? उनकी संख्या 20000 है। जब हम अपने किसानों से 1200 रूपये वापस लेते हैं, तब अमेरिका अपने कॉरपोरेसन्‌स को कितना दे रहा होता है ? 39 खरब डॉलर के कृषि मूल्य पर अमेरिका अपने कपास उत्पादकों को 47 खबर डॉलर की सब्सिडी देता है। इस सब्सिडी ने निचले स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय कपास बाजार को तहस-नहस कर दिया है। न्यूयार्क एकसचेंज में 1994-95 में कपास का मूल्य 90 से 100 सेंट पर बना रहता था, पर सब्सिडी के कारण यह घट कर 40 सेंट तक आ गया और उस दिन से पूरे विश्व में कपास के मूल्य में जबरदस्त कमी आई और भारी हानि के कारण किसानों की आत्महत्याएँ शुरू हुईं।
बुर्किना फासो में हजारों कपास उपजानेवालों ने आत्महत्या की। बुर्किना फासो व माली के राष्ट्रपतियों के न्यूयार्क टाइम्स को एक लेख जुलाई 2003 में लिखा, 'आपकी कृषि सब्सिडियाँ हमारा गला घोंट रही हैं'। हम ऐसी सब्सिडियों के विरुद्ध कोई कदम उठाने की स्थिति में नहीं हैं। कपास पर हमारे यहाँ 10 प्रतिशत ड्यूटी लगती है, लेकिन अगर आप मुंबई के टेक्सटाइल मैग्नेट हैं तो आपको यह 10 प्रतिशत चुकाने की भी जरूरत नहीं है। आपकों कपड़ों के निर्यात के नाम पर यह छूट मिलती है। इत्तेफाक से, अगर मैं मुंबई का एक टेक्सटाइल मैग्नेट हूँ तो मुझे कपास तो लगभग मुफ्त में ही मिल सकता है क्योंकि भारत में कपास काफी कम मूल्य पर बेचने वाले अमेरिकी कॉरपोरेसन 6 महीने के लिए उधार भी देने को तैयार हैं। इन 6 महीनों में मैं कपास से सूती कपड़ा बनाने के पूरे चक्र को पूरा कर सकता हूँ।
इस तरह मैं वास्तव में आपसे एक ब्याज रहित कर्ज प्राप्त कर रहा हूँ जिसे मैं 6 महीने में वापस करता हूँ और तबतक मैं भारी मुनाफा कमा लेता हूँ। यह सारा खेल लाखों लोंगो की जान की कीमत पर खेला जा रहा है।
मीडिया की भूमिका
मेरे लिए सबसे दुखद बात श्रीमती अल्वा की टिप्पणी है। एक पत्रकार के रूप में मैं आपका पूरी तरह समर्थन करता हूँ। पिछले साल हुई सबसे पीड़ादायक बात यह थी कि विदर्भ में आत्महत्याओं की रिपोर्टिंग 6 से भी कम राष्ट्रीय स्तर के पत्रकार कर रहे थे। जबकि लैक्मे इंडिया फैशन वीक को कवर करने के लिए 512 मान्यता प्राप्त पत्रकार आपस में भिड़े हुए थे। इस फैशन वीक कार्यक्रम में मॉडल सूती कपड़ों का प्रदर्शन कर रहे थे, जबकि नागपुर से मात्र डेढ़ घंटे के हवाई-सफर की दूरी पर स्थित विदर्भ क्षेत्र में कपास उपजाने वाले स्त्री-पुरूष आत्महत्याएँ कर रहे थे। इस विरोधाभाष पर एक न्यूज स्टोरी तैयार की जानी चाहिए थी, लेकिन एक या दो स्थानीय पत्रकारों को छोड़ किसी ने ऐसा नहीं किया ।
हमने प्रति क्ंिवटल अग्रिम बोनस के रूप में दी जाने वाली 500 रूपये की योजना तब वापस ली जब अमेरिक व यूरोपीय यूनियन के देश अपनी सब्सिडियाँ बढ़ा रहे थे। मैं पिछले साल अमेरिका गया था और अमेरिकी खेतों का दौरा किया था, साथ ही साथ कॉरपोरेट तरीके से संचालित डेयरियों में भी गया था। प्रति गाय पर दी जाने वाली सब्सिडी हमारे यहाँ राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम के अंतर्गत दी जानेवाली मजदूरी के दोगुनी थी। प्रति गाय 3 डॉलर अर्थात लगभग 120 रूपये की सब्सिडी दी जाती है। यह आपके राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी कार्यक्रम के मजदूरी दर के दोगुनी है, जो कि 60 रूपये है। इस कारण मेरे दोस्त वर्धा के विजय जावांदिया ने यह बात बड़े ही खूबसूरत तरीक से एक टीवी साक्षात्कार में रखी। उनसे पूछा गया - जावांदिया साहब, एक भारतीय किसान का सपना क्या होता है? उन्होंने कहा कि भारतीय किसान का सपना यह है कि वो अमेरिकी गाय के रूप में पैदा ले क्योंकि उसे हमारे मुकाबले तीन गुना ज्यादा सहायता दी जा रही है। हमने किसानों को वैश्विक मूल्य में मची मार-काट के बीच फंसा दिया है और उनके पास जो भी सुरक्षा थी उसे हटा दिया है। हम अमेरिका-यूरोपीय यूनियन की सब्सिडियों का सामना करने की स्थिति में नहीं हैं।
बीज कंपनियों को ज्यादती करने की छूट दे दी गई है
हमने खेती को इस हद तक अनियमित कर दिया है कि अब बीजों की गुणवत्ता काफी कम हो गई है। इसे ऐसे समझें, जब आपने एक थैला बीज खरीदा तो थैले के पीछे यह लिखा हुआ मिलेगा कि 85 प्रतिशत अंकुरण की गारंटी। अब यह घट कर 60 प्रतिशत हो गया है। इसका मतलब यह है कि अगर कोई गाँव बीज की 10000 थैलियाँ खरीदता है तो वे लोग 10000 थैलियों की कीमत तो चुका रहे हैं लेकिन सिर्फ 6000 थैलियों ही वास्तव में पा रहे हैं। क्योंकि हमने कंपनियों के साथ समझौतापत्र पर हस्ताक्षर कर बीजों का स्तर घटा दिया है। जैसा कि मैंने पहले भी कहा था कि बीज उद्योग सॉटवेयर उद्योग से भी बड़ा है। कश्षि विश्वविद्यालयें विफल साबित हुई हैं। जैसा कि भारत सरकार खुद भी स्वीकार करती है कि एक्सटेंसन मशीनरी पूरी तरह रूग्ण स्थिति में है। जब अग्रिम बोनस योजना सरकार वापस ले रही थी, तब हमने सरकार से गुहार लगाई थी कि कृपया ऐसा न करें क्योंकि इससे आत्महत्याएँ दोगुनी हो जायेंगी। हम गलत थे। कुछ जगहों में यह तिगुनी हो गई। हमने प्रार्थना की थी- ऐसा न करें, ऐसा न करें, इसे वापस न लें, यह वास्तव में उन लोगों की जान लेगा जो काफी असुरक्षित स्थिति में हैं।
विदर्भ बनाम मुंबई
संयोग से महाराष्ट्र में 2005 के अंत में एक अनोखा सरकारी अध्यादेश लाया गया था। मैं नहीं जानता आपको इसके बारे में पता है कि नहीं। महाराष्ट्र में साधरणतः 14 से 15 घंटे तक बिजली क्रटती है, जबकि मुबंई के नामी इलाकों में 1 मिनट के लिए भी पावर कट नहीं होता। सुंदर लोगों को पावर कट के भरोसे कैसे छोड़ा जा सकता है। लेकिन सच्चाई यह है कि मंबई में 15 मिनट का पावर कट विदर्भ के सभी 11 जिलों को 2 घंटे तक बिजली दे सकता है। पर विदर्भ के बच्चों को परीक्षा के समय में भी राहत नहीं मिलती। इसी कारण 12वीं की परीक्षाओं में विदर्भ का प्रदर्शन हमेशा बुरा रहता है, फिर भी टॉपर विदर्भ से ही है। इस तरह अग्रिम बोनस योजना की वापसी के साथ एक नया सरकारी अध्यादेश भी आया। पर पावर कट में भी छूट दी जा रही है। क्या आप जानते हैं कि 2005 नये सरकारी अध्यादेश में क्या छूट दी गई है? पोस्टमॉर्टम केन्द्रों को पावर कट से छूट दी गई थी क्योंकि ढेर सारे शव यहां पोस्टमॉर्टम के लिए लाये जा रहे थे। उन्होंने पोस्टमॉर्टम केन्द्रों के साथ-साथ सुरक्षा बलों, पुलिस स्टेशनों, फायर ब्रिगेड आदि को भी पावर कट में छूट दी।

रूपांतरण - मनीष शांडिल्य

मैं अब किसानों से आंख मिलाने से बचता हूं : पी साइनाथ

Posted by Reyaz-ul-haque on 6/13/2008 03:57:00 PM

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पी साईनाथ
पांचवीं किस्त पहली चार किस्तें यहाँ पढ़ें
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घरों की दयनीय स्थिति
मैं इन प्रभावित घरों से प्राप्त तीन व्यक्तिगत घटनाएँ आपको बताना चाहूँगा. मेरे लिए यह सबसे ज्यादा पीड़ादायक है कि एक ही घर में दूसरी या तीसरी आत्महत्याएँ हो रही हैं. पिछले कुछ वर्षों में जिन 700 आत्महत्या का दंश झेल रहे परिवारों में मैं गया हूँ और उनको देखा है, मुझे सबसे ज्यादा कष्ट इस बात से पहुंचता है कि जब आप उस घर से जानेवाले होते हैं, जब आप उस घर की गृहिणी या बड़ी बेटी से आँख मिलाते हैं तो आपको यह पता चल जाता है कि वो भी अपनी जान देने के बारे में सोच रहे हैं, अब आप मुझसे यह न पूछें कि मैं यह कैसे समझ लेता हूँ. आप जानते हैं कि कलम और प्रेस की ताकत के गर्व के बावजूद, मैं उनकी आत्महत्याएँ रोकने के लिए कुछ भी नहीं कर सकता, क्योंकि आज हम एक समाज के रूप में ऐसे ही हैं. यह मेरे लिए सबसे ज्यादा पीड़ाकारी है, मैंने आंख मिलाने से बचने की कोशिशें शुरू कर दी हैं, क्योंकि मैं उस व्यक्ति की आँखों में नही झाँकना चाहता जो कि आत्महत्या करने जा रही हो. जब एक जवान विधवा आत्महत्या करती है तो वो संभवतः अपनी बेटी को भी मार डालती है, क्योंकि वह नहीं चाहती कि उसके बच्चे को वेश्यावृत्ति में धकेला जाये.

पिछले साल जब प्रधानमंत्री आये, वहाँ पूरी तरह से अव्यवस्था थी, क्योंकि हर व्यक्ति उनकी नजर में रहना चाहता था. यह इस कारण क्योंकि जो कुछ घट रहा था, उससे प्रधानमंत्री सही मायनों में चिंतित थे. उन्होंने एक ऐसी यात्रा की, जो वास्तव में पूर्व नियोजित नहीं थी. उनकी यात्रा के एक महीने पहले, मैं गोसावी पवार के घर में था. वह एक दूसरे तरह का पवार था, एक कम विशेष सुविधा प्राप्त पवार, एक आदिवासी पवार और आप उसे संभ्रांत पवारों के साथ जोड़ने की गलती न करें. गोसावी पवार एक बंजारा परिवार से था, जो कि काफी गरीब जाति है.
इत्तेफाक से, जब मैं उसके घर में बैठा हुआ था तब मैंने 6 करोड़ डॉलर या पाउंड के शाही खर्च पर भारत के सबसे अमीर व्यक्ति लक्ष्मी मित्तल के बेटी की शादी की खबर भी पढ़ी. इस राशि का आप जिस भी मुद्रा में हिसाब लगायें, यह काफी फूहड़ प्रतीत होती है. बेचारे गरीब मि मित्तल, उन्हें पेरिस में कोई वेडिंग हॉल नहीं मिल सका. इस मौसम में वहाँ कोई हॉल मिलना काफी मुश्किल है, इस कारण उन्होंने वेसैल्स के महल को ही भाड़े पर ले लिया और अपनी बेटी की शादी वहीं की. लेकिन गोसावी पवार के घर में, जो कि एक काफी गरीब परिवार है, शादी के लिए देश के काफी दूर-दूर के इलाकों से लोग आये थे और उन्होंने एक साथ तीन शादियॉं संपन्न कराने का फैसला लिया था, ताकि वे मिल-जुल कर उसका बोझ उठा सकें. देश के कई इलाकों व राज्यों से लोग वहाँ जमा हुए. उस परिवार का कर्त्ता-धर्त्ता गोसावी पवार, इन शादियों के लिए जरूरी साडियों कि लिए पैसों की व्यवस्था करने में असमर्थ रहा. महाजन, बैंक मैनेजर व अन्य लोगों के द्वारा अपमानित किये जाने के कारण गोसावी पवार ने आत्महत्या कर ली.
मैंने दो बातें महसूस कीं. एक ने मुझे बहुत ही ज्यादा उदास कर दिया और एक ने मुझे इस देश के गरीबों के लिए प्रेरित किया. एक जिस बात ने मुझे बहुत ही ज्यादा उदास कर दिया था, वह यह कि उस गरीब घर में एक ही दिन तीन शादियाँ भी हुईं और उसी घर से एक अर्थी भी उठी. यह दोंनो एक ही दिन एक साथ हुआ क्योंकि वे शादी रोकने की स्थिति में नहीं थे. ऐसा करना उस परिवार को दिवालिया कर सकता था, जो राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक और न जाने कहाँ-कहाँ से लौट कर वापस घर आया था. इस कारण उन्होंने शादी होने दी. दुल्हे और दुल्हनें रोईं. सबसे ज्यादा मार्मिक क्षण वह था, जब बारात निकली और उसकी मुलाकात हाइवे पर जनाजे से हुई. डा स्वामीनाथन जी याद करेंगे कि जब वे यवतमाल आये थे, उन्हें भी ऐसी ही परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ा था. एक तरफ अस्पताल में आत्महत्या करनेवालों को लाया जा रहा था और फिर भी राष्ट्रीय किसान आयोग (एनएफसी) की टीम सरकारी अधिकारियों के साथ विचार-विमर्श में ही मशगूल थी. इस तरह गोसावी पवार के जनाने के साथ बारात का आमना-सामना हुआ. तब अर्थी को काँधा दे रहे लोग मैदान की ओर भागे और छिप गये ताकि वो बारात के लिए अपशकुन न बनें.
लेकिन कुछ ऐसा भी हुआ जो काफी प्रेरणादायी था. इस पृथ्वी पर रहनेवाले कुछ सबसे गरीब लोगों ने इन शादियों को संभव बनाया. सबने 5 रूपये, एक पाव गेहूँ, आधा किलो चावल, केले, एक नारियल और जो भी उनसे बन पड़ता था, देकर सहायता की. उन्होंने विवाह संपन्न कराया. उनके पास ऐसा करने लायक साधन नहीं था. लेकिन उन्होंने समुदाय की ताकत से, जनता की ताकत से ये विवाह संपन्न कराया. मुझे उस क्षण काफी गौरव का अनुभव हुआ कि हमारे लोगों ने उस भलमानसता व स्वाभिमान का प्रदर्शन किया है जिसे आज कुलीन व संभ्रांत लोग पूरी तरह भुला चुके हैं.

अगली पोस्ट में अन्तिम किस्त

भारत : योग्य आत्महत्यायों का प्यारा-सा देश

Posted by Reyaz-ul-haque on 6/03/2008 08:21:00 PM

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पी साईनाथ
चौथी किस्त पहली तीन किस्तें यहाँ पढ़ें
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खेती से होनेवाली आय ध्वस्त हुई है आय की ओर देखें। खेती से होनेवाली आय का ध्वस्त होना इस संकट का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। कई क्षेत्रों में खेती से होनेवाली आय पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। जैसा कि मैंने पहले बताया भारत के खेतिहर घरों में राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति औसत मासिक खर्च 503 रुपये है। यह आँकड़ा गरीबी रेखा के नीचे रहनेवाले परिवारों के 425 रुपये या ग्रामीण भारत के आंकड़ों के काफी करीब हैं। 6 राज्य औसतन गरीबी रेखा के नीचे रहे हैं, जो कि 425 रुपये से कम हैं। 5 या 5 राज्य इस देश में इसी तरह जी रहे हैं। ऐसे कई घर हैं जो 225 रुपये प्रति व्यक्ति मासिक खर्च पर गुजर-बसर कर रहे हैं। यह आँकड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के हैं। 225 रुपये प्रति मासिक खर्च का मतलब है कि 8 रुपये प्रतिदिन। इतने में ही आपको भोजन, कपड़े, जूते, शिक्षा, स्वास्थ्य व परिवहन की व्यवस्था करनी है। इस तरह के जीवन में फिर क्या बच जाता है ? आप हमेशा कर्ज में रहेंगे। 55 प्रतिशत भोजन पर खर्च होंगे, 18 प्रतिशत जलावन, जूते और कपड़े पर खर्च होंगे। इन सभी क्षेत्रों में आप स्कूल और कॉलेज छोड़नेवालों की बड़ी संख्या पायेंगे। बीएससी डिग्रीधारी स्नातक किसी तरह जिंदगी चलाने के लिए अपने पुश्तैनी खेतों में खेतिहर मजदूर की तरह काम कर रहे हैं, जबकि हमारे कृषि विश्वविद्यालयों ने निजी कंपनियों आदि के लिए शोध करने का काम भर ले रखा है, वे अब हमारे किसानों के लिए अब कोई काम नहीं करते। ग्रामीण संकट पर उच्च वर्ग की राय तलछटी में पड़े इन हाने के इस संकट को हमारा उच्च या कुलीन वर्ग किस तरह देखता है ? मुझे अपने देश के एक अग्रणी आर्थिक अखबार को उद्धृत करने की अनुमति दें। इस अखबार की एक प्रतिनिधि थोड़ा निराश होकर लिखती हैं-' तलछटी में पड़े ये 40 करोड़ एक निराशा हैं'' क्यों ? वे ज्यादा खरीददारी नहीं करते। मैं नहीं जानता वे 8 रुपये प्रति व्यक्ति खर्च में क्या खरीद सकते हैं। वो कहती हैं कि वे ज्यादा नहीं खरीदते। लेकिन ऐसा लिखनेवाले की भी जिम्मेवारी है। वो यह इन शब्दों के साथ अपना लेख समाप्त करती हैं, 'इस बाजार का दोहन करना कठिन है'। विदर्भ का संकट विदर्भ के बारे में हम क्या कहेगें जहां से पिछले कुछ वर्षो में ढेर सारी आत्महत्याओं की रिर्पोर्टिंग की गई है ? जैसा कि श्रीमती अल्वा ने कहा, जो हम मीडिया के जरिये देख पाते है वह काफी छोटी संख्या है। स्थानीय दर्जनों पत्रकारों ने इस मुद्दे की जीवित रखा है । उन्हें इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए। विदर्भ में कितनी आत्महत्याएंॅ हुई हैं ? क्या उनमें कोई कमी आई ? मीडिया के एक वर्ग के अनुसाार, आत्महत्याएँ रूक गई हैं। वास्तव में सरकार ने समय-समय पर ऐसे कई आँकड़े प्रस्तुत किये हैं, जो काफी विरोधाभाषी हैं। सरकार ने शीर्षस्थ स्तर पर ऐसी किसी रिपोर्ट पर हस्ताक्षर नहीं किया है, जिसमें यह दिखाया गया हो कि आत्महत्याएँ घटी हैं। ऐसा क्यों है ? इस कारण कि ऐसा करने से सरकार गंभीर संकट में फँस जायेगी। उच्च न्यायालय के नागपुर बेंच ने यह आदेश दिया था कि राज्य सरकार को इस तरह के आँकड़ों की जानकारी एक बेवसाइट के माध्यम से अवश्य देनी चाहिए। न्यायालय ने यह फैसला एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान दिया। अगर आप सरकारी वेबसाईट देखते हैं तो आपको ऐसे किसी रिपोर्ट को पढ़ने की आवश्यकता नही है। वेबसाईट पर दिये गये आँकड़ें इतने झूठे हैं कि ऐसा लगता है कि वो आत्महत्याओं में कमी दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। मुझे अमरावती के आयुक्त की रिपोर्ट से वास्तविक संख्या बताने की इजाजत दें और देखें कि उन्हें किस तरह प्रस्तुत किया गया ।विदर्भ के इन जिलों में आत्महत्याओं की कुल संख्या, सिर्फ किसानों की आत्महत्याओं की नहीं, 1500 नहीं है । 2001 से, सबसे ज्यादा गंभीर वर्षो में, यह 2000 नहीं थी, यह 1300 नही थी और यह 1700 भी नहीं थी। पुलिस थानों ने इन 6 जिलों में 15980 आत्महत्याएँ दर्ज कीं। यह सभी आत्महत्याएँ किसानों की नहीं थी, यहीं पर वे इन आँकड़ों का मजाक बना देते हैं। वे इन 15980 आत्महत्याओं में से वे मात्र 578 या ऐसे ही किसी आँकड़े के पास पहुँचते हैं, जो किसानों की आत्महत्याओं से संबंधित हैं। उन्होंने ऐसा कैसे किया, वो हम आगे देख सकते हैं। संयोगवश यह सभी 6 जिले पूरी तरह ग्रामीण जिले हैं। लेकिन अंतिम आँकडंे यह दर्शाते हैं कि इन 15000 आत्महत्याओं में मात्र 20 प्रतिशत आत्महत्याएँ ही किसानों ने की थी। ऐसा वो पूरी तरह 100 प्रतिशत ग्रामीण जिलों के बारे में कहते हैं। यह एक रहस्य ही है कि वो आत्महत्याएँ करनेवाले कौन थे या हैं। ये कोई औद्यौगिक जिले नहीं थे, यदि मात्र 2939 व्यक्ति ही इनमें से किसान थे, जो कि 15980 में आँकड़े के 20 प्रतिशत से भी कम है, तो वो बाकी लोग कौन थे ? इससे तो ऐसा लगता है कि किसानों की स्थिति काफी अच्छी थी ! वास्तव में बहुत अच्छी थी ! बाकी सारे लोग आत्महत्या कर रहे थे। किसी भी राज्य में गरीबी का अब तक का सबसे बड़ा सर्वेक्षण मैं महाराष्ट्र सरकार को एक बात के लिए पूरा श्रेय देना चाहता हूँ। वो यह कि उसने राज्य में कृषक-घरों का सबसे बड़ा अध्ययन किया। यह एक ऐसा अध्ययन है जिसको पढ़ने के लिए हर व्यक्ति को थोड़ा वक्त निकालना चाहिए। यह अध्ययन आपके नसों में दौड़ते खून को बर्फ सा ठंडा कर देगा। इस सर्वेक्षण के लिए हम प्रधानमंत्री की यात्रा के शुक्रगुजार हैं, जिस कारण हर कोई इसमें लगा। उन्होंने राज्य के सभी 17.64 लाख घरों का सर्वेक्षण किया (लगभग 1 करोड़ लोगों का)। विदर्भ के उन सभी 6 जिलों में कृषि-घरों का सर्वेक्षण किया गया, जिनको सरकार कृषि-संकट के कारण प्रभावित मानती है (वैसे विदर्भ में कुल 11 जिले हैं ) । ये आँकड़े क्या दिखाते हैं ? इस सर्वेक्षण पर ही वो आंकड़े आधारित हैं, जो अमरावती के आयुक्त की रिपोर्ट में प्रस्तुत किये गये हैं (जो दस्तावेज मैंने आपको देने का वादा किया है)। प्रभावित 6 जिलों में से 5 जिले अमरावती के आयुक्त के कार्य-क्षेत्र में आते हैं। लेकिन उन्होंने अपनी रिपोर्ट में ६ वें जिले वर्धा के आँकड़ों को भी शामिल किया है । अमरावती के आयुक्त की रिपोर्ट कहती है कि : ' इन लगभग 20 लाख कृषक घरों (17.64 लाख) में से लगभग 75 प्रतिशत घर गरीबी में हैं। ' अगर आप एक परिवार में कुल 5 से 6 व्यक्ति भी मानें तो यह रिपोर्ट कहता है कि 4.31 लाख घर 'बहुत ही ज्यादा गरीब'' हैं। ऐसा सरकार कहती है। अगला वर्गीकरण 'औसत गरीबी' का है, मैं नही जानता इसका क्या अर्थ है। लेकिन यह रिपोर्ट स्वीकार करता है कि 75 प्रतिशत कृषक घरों में किसी न किसी प्रकार की गरीबी है। ' आश्चर्यजनक रूप से, तीन लाख से ज्यादा परिवारों को अपनी बेटियों के विवाह में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था, जो कि इन आत्महत्याओं का काफी बड़ा कारण है। ये तीन लाख से ज्यादा घर एक या एक से अधिक बेटियों की शादी नहीं कर पा रहे हैं। यह एक विस्फोटक स्थिति है। ' सरकार अपने ही अध्ययन में यह दिखाती है कि जिन घरों का उसने सर्वेक्षण किया, उनमें से 93 प्रतिशत घरों में कर्ज भी आत्महत्या का एक कारण था। ' पैकेज की घोषणा के बाद यह आशा की गई थी कि आतमहत्याओं में कमी होगी। पुलिस थानों के रिकार्ड दिखाते हैं कि 2005 के 2425 के मुकाबले 2006 में यह संख्या बढ़कर 2832 हो गई। 407 ज्यादा मामले दर्ज हुए, जो कि काफी बड़ी वश्द्धि है। ऐसा इस कारण क्योंकि इन 6 जिलों में प्रति जिले के आधार पर गणना करें तो हर जिले में 60 से ज्यादा आत्महत्याएँ और बढ़ गईं। और भी इसी तरह के ढ़ेर सारे आँकड़े हैं। तब वो किस तरह 'कमी' बताते हैं ? मैं तो सोचता हूँ कि इसके पीछे कोई चतुर राष्ट्रवादी भारतीय मस्तिष्क है। पहली श्रेणी में पुलिस थानों के रिकॉर्ड कहते हेैं कि पिछले साल 2832 आत्महत्याएँ हुइर्ं। रिपोर्ट का दूसरा कॉलम हमें इन 2832 आत्महत्याओं में किसानों की आत्महत्याओं का ऑकड़ा देता है और यह संख्या लगभग 800 घट जाती है । तीसरा कॉलम हमें किसानों के रिश्तेदारों की आत्महत्याओं से संबंधित ऑकड़ें देता है, जो कि किसान नहीं हैं। तब यह संख्या घटकर 1600 हो जाती है। और इस तरह किसानों की आत्महत्याओं को कृषक घरों में होने वाली आत्महत्याओं से अलग बताया जाता है। तब 'छानबीन हो रहे मामलों'' की बारी आती है। इसके अलावे एक अन्य टेबल में उन आत्महत्याओं की सूची है, जो 'गरीबी'' के कारण हुईं। हर कालम के साथ यह संख्या घटती जाती है। अंतिम कॉलम तो अपने आप में अदभुत है। ऐसा आपको इस पृथ्वी पर कहीं और देखने को नहीं मिलेगा। इसमें 'योग्य आत्महत्याओं'' का एक कॉलम है, योग्य वर या वधू की तरह। इसका मतलब उन आत्महत्याओं से है, जिन परिवारों को सरकार ने मुआवजे के योग्य पाया है। इस तरह 2823 से घटकर यह ऑकड़ा अंतिम कॉलम में घटकर 578 रह जाता है। यह 'योग्य' आत्महत्याओं की वही संख्या है, जिनको अधिकारी आत्महत्या के आँकड़े के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस महीने (अगस्त का महीना अभी समाप्त ही हुआ है) हमारे पास अब तक आत्महत्याओं के बारे में कोई सूचना नहीं है, क्योंकि अगर आप हमारे गणितज्ञों को आगे बढ़ने का मौका दें तो वे आत्महत्याओं की बिल्कुल एक नई ही परिभाषा गढ़ देंगे। लेकिन समग्र रूप से यह संख्या बढ़ती ही जा रही है। आप यह देख सकते है। इस साल जबकि कोई आत्महत्या नहीं हुई या आत्महत्याओं में काफी तीव्र कमी हुई है, महाराष्ट्र सरकार के अनुसार 700 से ज्यादा आत्महत्याएँ हो चुकी हैं। सरकार इन ऑकड़ों को स्वीकार क्यों नहीं करती ? यह इस कारण क्योंकि यह बेवसाइट न्यायालय के आदेश के अधीन चलाया जा रहा है और ऐसी स्थिति में अगर आपके ऑंकड़े विरोधाभाषी होंगे तो आप गंभीर संकट में पड़ सकते हैं। पर हम इन आँकड़ों के साथ हमेशा खेल सकते हैं।

जारी

विदर्भ में कृषि क्षेत्र में आत्महत्याएँ शून्य हैं ?

Posted by Reyaz-ul-haque on 5/30/2008 03:55:00 PM

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पी साईनाथ
तीसरी किस्त पहली दो किस्तें यहाँ पढ़ें
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िदर्भ में किसानों की आत्महत्याएँ अगस्त आते ही पूरी तरह रूक गईं, क्योंकि जुलाई में यह खबर आई कि प्रधानमंत्री उनसे मिलने आनेवाले हैं। इस तरह लोगों ने सोच-समझ कर आत्महत्या करना छोड़ दिया। अगस्त में विदर्भ में एक भी आत्महत्या नहीं हुई ! कम-से-कम सरकारी आँकड़े तो यही कहते हैं। उनको पता था कि प्रधनमंत्री आ रहे थे। सबों ने कहा, 'हम तब-तक आत्महत्या नहीं करेंगे जब तक वे रूके रहेंगे!'' यह एक ऐसा देश है, जो खुद को ठग रहा है। इससे आपको मदद नहीं मिलेगी। मैं किसी एक मुख्यमंत्री या एक पार्टी की सरकार की ओर इशारा करने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ। यह एक राष्ट्रीय संकट है। हम खुद के प्रति जितना ईमानदार होंगे, इस संकट से बाहर निकलने में उतनी ही बेहतर स्थिति में होंगे।
यह आँकड़े वास्तव में क्या इंगित करते हैं ? अगर हम राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़ों को विस्तार देकर देखें तो पायेंगे कि 1997-2005 के बीच करीब डेढ़ लाख आत्महत्याएँ हुईं। इन आँकड़ों में आठ श्रेणियों में आने वाले लोग शामिल नहीं हैं। जैसे कि इन आंकड़ों में महिलाएं शामिल नहीं है। ऐसा इस कारण क्योंकि इस देश में आप कुछ भी करें, कोई भी नियम बना लें, हमारी मशीनरी महिलाओं को किसान नहीं मानती क्योंकि उनके नाम पर जमीन नहीं है और न ही उन्हें सम्पत्ति का अधिकार है।
कई आत्महत्याओं को कृषि आत्महत्याओं के रूप में दर्ज नहीं किया जाता
2001-02 में आंध्रप्रदेश के अनंतपुर जिले में कृषि क्षेत्र में आत्महत्याएँ करने वालों में 45 प्रतिशत महिला किसान थे। अनंतपुर के ग्रामीण इलाकों को कई घरों की मुखिया महिलाएँ हैं। क्योंकि पुरुष पलायन कर चुके हैं। संख्या कहीं ज्यादा बड़ी है। राष्ट्रीय स्तर पर भी 19 प्रतिशत या लगभग हर पाचवें घर की मुखिया महिलाएँ हैं। लेकिन हम महिलाओं की गिनती किसान के रूप में नहीं करते। हम उनकी गिनती किसान की पत्नियों के रूप में करते हैं। इस कारण इसे आत्महत्या के रूप में गिना तो जाता है, पर किसानों की आत्महत्या के रूप में नहीं। निश्चय ही खेतिहर मजदूरों के आत्महत्याओं की गिनती कभी इस श्रेणी में नहीं की जायेगी ताकि किसानों की आत्महत्याओं के आँकड़ों को कम करके बताया जा सके।
इतना ही नहीं, अनगिनत परिवारों के सबसे बड़े लड़के की आत्महत्या को भी किसानों की आत्महत्याओं की सूची में शामिल नहीं किया गया, क्योंकि हमारे पारंपरिक समाज में अगर पिता जीवित है, तो जमीन उसी के नाम रहती है, चाहे वो 75-80 साल का बूढ़ा ही क्यों न हो। इस कारण सबसे बड़ा पुत्र 50-51 का हो सकता है, वो ही खेती करनेवाला है, सब तरह के दवाब वही झेल रहा है और अंत में वह टूट कर खुद को मार डालता है। पर तहसीलदार कहता है कि मरनेवाला इंसान किसान नहीं है, क्योंकि उसके नाम कोई जमीन नहीं है। इन्हीं आधारों पर पिछले महीने यवतमाल जिले में छह सदस्यीय 'स्वतंत्र' समिति द्वारा आत्महत्या के हर एक दावे को खारिज कर दिया गया। इस समिति में जिले के उच्च सरकारी पदाधिकारियों के साथ-साथ सरकार द्वारा चुने गये दो गैर-सरकारी व्यक्ति भी शामिल थे!
इसी तरह कई मामलों को इस आधार पर खारिज कर दिया जाता है कि मरने वाले के नाम पे कोई जमीन नहीं होती। मरनेवाला घर का सबसे बड़ा लड़का था, वह परिवार चला रहा था और तीन परिवारों की देखभाल कर रहा था। पर जमीन का कोई टुकड़ा उसके नाम नहीं था। हम उसे किसान कैसे मान सकते हैं? इस तरह की कसौटी रखी गई है। मैं इस तरह की और भी बातें रख सकता हूँ। अगर आप मरते हैं और यह पाया जाता कि आप कर्ज में थे, तो वो कर्ज किसी बैंक से लिया होना चाहिए। अगर आपने किसी सूदखोर महाजन से पैसे लिए हैं तो इसे स्वीकार नहीं किया जायेगा। यवतमाल की समिति इसे स्वीकार नहीं करेगी। वे पूछेंगे कि इस बात का सबूत क्या है ? आपके पास कोई कागज दिखाने के लिए नहीं होता। इस तरह हजारों लोगों की मौत को आत्महत्या की सूची में तो रखा गया पर किसानों की आत्महत्या की सूची में नहीं रखा गया।
गलत वर्गीकरण भी हुआ है। पलायन कर गये किसानों की गिनती इस सूची में नहीं की जाती। जबकि लोग अपना गाँव छोड़ते हैं और शहरों को खुद को मार डालते हैं। मैं तो इस बात का अनुमान भी नहीं लगाना चाहता कि वास्तविक आँकड़ा क्या हो सकता है। व्यवहारिक रूप से यह करना असंभव है। दूसरा यह कि सरकारी आँकड़े कितने ही दोषपूर्ण क्यों न हो, मैं तो सोचता हूँ कि यह आँकड़े इतने भयावह हैं कि यह राष्ट्र को उद्वेलित कर सकते हैं। इसे राष्ट्र को उद्वेलित करना भी चाहिए। अगर हमारे पास सिर्फ सरकारी आँकड़े भी हैं तो मैं विश्वास कर उन्हें स्वीकार करने को तैयार हूँ। अगर आप भी इसे एक दिल दहला देने वाले आँकड़े के रूप में स्वीकार करते हैं तो हम राष्ट्र को भविष्य की ओर ले जा सकते हैं।
हर क्षेत्र में समान कारक हैं
जिन क्षेत्रों में यह संकट है, वहाँ पर क्या समानताएं हैं ? नकदी फसल, जल की भरी कमी, राष्ट्रीय औसत से भी काफी ऊंचे स्तर पर किसानों का कर्ज में होना। अगर आपके पास भारत में कर्ज में डूबे किसानों का मानचित्र हो और इन सभी आत्महत्याओं के इलाके का मानचित्र हो तो आप पायेंगे कि एक के ऊपर रखे जाने के बाद ये मानचित्र पूरी तरह एक से हो जाते हैं। देश में कर्ज में दबे सबसे ज्यादा घरों का प्रतिशत आंध्र प्रदेश में है, जो कि 82 प्रतिशत पर है, केरल में 64 प्रतिशत और कर्नाटक में 62 प्रतिशत खेतिहर-घर कर्ज के बोझ तले दबे हैं। यह सूची अंतहीन हैं। आप देख सकते हैं कि आत्महत्या का मानचित्र कर्ज के मानचित्र के साथ किस तरह मेल खाता है, जो कि इन आत्महत्याओं को सबसे बड़ा कारण है।
मैं यह बताना चाहूँगा कि लगभग हर आत्महत्या के पीछे एक नहीं कई कारण होेते हैं। हम उन सभी कारणों को इकट्ठा करने की कोशिश करने के बजाए अंतिम कारण को रिकार्ड करते हैं। मैं कर्ज में हूँ। मेरे लड़के का कॉलेज छूट जाता है। मैं अपनी बेटी की शादी करने में असमर्थ हूँ और हर रोज मैं जब बाजार जाता हूँ, सूदखोर महाजन मुझे बेइज्जत करता है। मेरी फसल नष्ट हो गई और बैंक मुझे कर्ज देने से मना कर देता है। मैं नशे में घर लौटता हूँ। मैं अपनी पत्नी से झगड़ता हूँ और फिर आत्महत्या कर लेता हूँ। अगले दिन मेरी आत्महत्या का यह कारण दर्ज किया जाता है कि मैंने अपनी पत्नी के साथ झगड़ा किया और इस कारण खुद को मार डाला। अंतिम कारण को रिकार्ड किया जाता है। यह स्वाभाविक है और हमारा ढाँचा भी इसी तरह का बना है। पर यह जितनी बातें सामने लाता है, उससे कहीं ज्यादा छुपा लेता है।
जिन क्षेत्रों में आत्महत्याएँ हो रही हैं, वहाँ बैंक ऋण की वापसी इन आत्महत्याओं का एक अन्य समान कारण है। कृषि इन क्षेत्रों में ज्यादा अव्यवस्थित है, जैसा कि विदर्भ और महाराष्ट्र के अन्य इलाकों में है। खेती की लागत काफी ज्यादा है और यह समस्या सभी क्षेत्रों में हैं। 1991 में विदर्भ इलाके में एक एकड़ खेत में कपास की खेती पर 2500 रुपये का खर्च बैठता था। आज के दिन में नये बीटी ब्रांड बीजों से खेती करने में 13,000 रूपये से ज्यादा का खर्च आता है। इस तरह हम पाते हैं कि प्रति एकड़ खेती की लागत में 500 प्रतिशत की वृद्धि है। यह जानलेवा है। इसका बोझ नहीं उठाया जा सकता।
अगर आप जानना चाहते हैं कि खेती में प्रयुक्त चीजों की लागत में कितनी भारी वृद्धि है, अगर आप समझना चाहते हैं कि बीजों का उद्योग कितना बड़ा है जिसे नियंत्रित करने और लूटने की खुली छूट हमने कुछ कार्पोरेसंस को दे दी है तो हमें यह देखना होगा कि आन्ध्रप्रदेश में क्या हो रहा है। आप समझ जायेंगे कि हम कितनी बड़ी कीमत चुका रहे हैं।
मेरे गृह राज्य आंध्रप्रदेश को अपने साफ्टवेयर निर्यात पर बड़ा गर्व है। लेकिन बीज और खेती में काम आने वाले चीजों का उद्योग आंध्रप्रदेश के साफ्टवेयर निर्यात से कहीं बड़ा है। इस तरह हम समझ सकते हैं कि बीज उद्योग कितना विशाल है। आंध्रप्रदेश अपने साफ्टवेयर निर्यात से जितना कमाता है, इस देश में लोग बीज पर उससे कहीं ज्यादा खर्च करते हैं।
यह ठीक है कि हम विदेशी साफ्टवेयर बाजार की ओर भाग रहे हैं, पर साथ ही साथ हम बीज के बाजार को पूरी तरह कुछ कंपनियों के हाथों में सौंपते जा रहे हैं। यह किसी भी स्थिति में अच्छी बात नहीं है। यह सब वही कारण है जिसके आधार पर मैंने कहा कि हम इस स्तर पर कॉरपोरेट खेती की ओर बढ़ रहे हैं।

जारी

गावों को वायुसेना भेज कर ध्वस्त कर दीजिए

Posted by Reyaz-ul-haque on 4/27/2008 07:19:00 PM

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पी साईनाथ
दूसरी किस्त पहली किस्त यहाँ पढ़ें
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खेती का नीति-संचालित विध्वंस
जैसा कि हर मंत्री व हर प्रधानमंत्री भी मानते हैं कि कृषि में सार्वजनिक निवेश काफी तेजी से घटा है, पिछले 10-15 वर्षों में तो यह ध्वस्त होने के कगार तक पहुँच चुका है। यह एक ऐसा मामला है, जिसे अब सरकार महसूस करती है कि पलटे जाने की जरूरत है। हमारे अग्रणी कृषि अर्थशास्त्री हमें यह बताते हैं कि जहाँ कश्षि-क्षेत्र में 1989-90 में कुल विकास खर्च जीडीपी का 14.5 प्रतिशत था, 2005 में यह घटकर 5.9 प्रतिशत रह गया। यह 30,000 करोड़ रुपये प्रति वर्ष की भरी गिरावट है या 120,000 करोड़ रुपये का आय घटा है। मैं अक्सर यह महसूस करता हूँ कि वायु सेना भेज गाँवों को बमबारी कर खत्म कर देना चाहिए। संभवतः ऐसा करना उस लंबी क्षति से कम भयावह होगा, जो कृषि में सार्वजनिक निवेश की वापसी के कारण हुआ है।

रोजगार में जबरदस्त कमी हुई है
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम द्वारा पिछले डेढ़ वर्षों में किसी तरह (लेकिन पर्याप्त संख्या से काफी कम) जरूरतों को पूरा किया जा सका है, जिस कार्यक्रम का मैं बड़ा समर्थक हूँ। यह कार्यक्रम हर जगह उस तरीके से शुरू नहीं किया गया, जिस तरह से किया जाना चाहिए था। मैं आशा करता हूँ कि यह कार्यक्रम और भी जिलों में शुरू किया जायेगा और इसकी सघनता बढेगी क्योंकि गाँवों में व्याप्त संकट की स्थिति में यह एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम है। पिछले दो वर्षों में यह हमारे द्वारा किये गये बड़े प्रयासों में से एक है। लेकिन यह भी पूरी तरह पर्याप्त नहीं है।

सेज बने लेकिन कोई भूमि सुधार नहीं हुआ
काश्तकारों के लिए भारी लगान भी एक समस्या है। आन्ध्रप्रदेश में हुए आत्म-हत्याओं के मामले में आप पायेंगे कि कुछ क्षेत्रों में आत्महत्या करने वालों की बड़ी संख्या वास्तव में काश्तकारों की थी। वे अगर 28 बोझा धान काटते थे तो उसमें से 25 बोझा उन्हें खेत के मालिकों को देना पड़ता था। अगर अचानक आये चक्रवात या अन्य किसी कारण से फसल को नुकसान पहुँचाता है तो क्षतिपूर्त्ति और मुआवजा गाँव में नहीं रहने वाले जमीन के मालिक को ही मिलता है। हमारे पास काश्तकारी कानून संबंधी कोई सुधार भी नहीं है। यह काफी विस्मयकारी है कि हम 6 महीनों में एक सेज की स्वीकृति दे सकते हैं लेकिन तीन राज्यों को छोड़ कर हम इन 60 वर्षों में देश भर में भूमि सुधार नहीं कर सके हैं।

खेती में बढ़ती कृत्रिम लागत

खेती के लागत में विस्फोट एक अन्य मुद्दा है, एक प्रक्रिया जिसे बहुत हद तक नियंत्रित और कश्त्रिम रूप से घटाया-बढ़ाया जाता है। शोषणकारी अंतर्राष्ट्रीय सहमतियाँ जो हमने कर रखीं हैं, वो भी एक गंभीर मुद्दा हैं और वे हमारे किसानों के हितों को बुरी तरह नुकसान पहुँचा रही हैं। तैयार फसलों का तेजी से गिरता बाजार मूल्य भी एक चिंताजनक पहलू है क्योंकि कृषि उत्पादों के व्यापार पर ग्लोबल कंपनियों ने नियंत्रिण कर लिया है और वे कृषि उत्पाद के कीमतों के साथ छेड़-छाड़ करते हैं। इस कारण जब पश्चिम में कॉफी मूल्य में भारी तेजी आई थी तब भी केरल में कॉफी उगाने वालों ने आत्महत्याएँ की थीं, खासकर 2000 से 2003 के बीच में।
आत्महत्याएँ डरावनी हैं। कहाँ कितनी आत्महत्याएँ हुईं? मैं आँकड़ों के इस जाल में नहीं उलझना चाहता। हम कुछ ही दिनों में द हिंदू में इस पर एक बड़ी व विस्तश्त खबर प्रकाशित करने जा रहे हैं। मैं कोई पूर्वानुमान नहीं लगाना चाहता। हालाँकि आपने जो पिछले साल तक के आँकड़े दिये थे और जहाँ तक मुझे याद है 1993 से अब तक एक लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्याएँ की हैं। पिछले 10 सालों के आँकड़ें दिल दहला देने वाले हैं। फिर भी आप पायेंगे कि ये आँकड़े गलत हैं। सच्चाई यह नहीं है। ऐसा कई कारणों से है। मैंने पाया है कि इसमें उन 4 वर्षों को भी जोड़ दिया गया है, जिस अवधि में किसानों की आत्महत्याओं के आँकड़े उपलब्ध ही नहीं हैं। आप उन वर्षों के आधार पर किसानों की आत्महत्याओं का औसत निकाल रहे हैं, जो वर्ष महत्वहीन हैं।
हमने राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो में 1995 से किसान आत्महत्याओं के आंकड़े इकट्ठा करना प्रारंभ किया है। किसी भी नयी संग्रहण प्रणाली को परिणाम देने में वक्त लगता है। पहले के दो वर्षों में तो ज्यादातर राज्यों ने तो ठीक से रिपोर्ट ही तैयार नहीं किया। राज्यों को आँकड़ा इकट्ठा करने के तरीक को समझने में भी समय लगता है। वास्तविक और विश्वसनीय आँकड़े 1997 से आने प्रारंभ हुए। इस तरह आप एक लाख आत्महत्याओं के जिस आँकड़ों को देख रहे हैं, वे 1993 से 2003 के बीच के नहीं बल्कि 1997 से 2003 के बीच के हैं। यह दिल दहला देनेवाले आँकड़े हैं। कई कारणों से यह संख्या अभी भी काफी कम ही सामने आ पाई है, जिसके कारणों पर मैं अब आ रहा हूँ।

भ्रमित करने वाले और अव्यवस्थित हैं आत्महत्याओं के आँकड़ें
लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि आँकड़े निर्णायक मुद्दा नहीं हैं। मैं सोचता हूँ कि एक लाख से ज्यादा का आँकड़ा भी काफी भयावह है। डराने वाली बात यह है कि अगर आप आँकड़ों पर गौर करें तो पाएँगे कि दो-तिहाई आत्महत्याएँ वैसे 6 राज्यों में हुई हैं, जहाँ भारत की कुल आबादी का लगभग एक-तिहाई हिस्सा रहता है। ज्यादातर आत्महत्याएँ उन इलाकों में हुई हैं, जहाँ नकदी फसल उगाया जाता है। अनाज उपजाने वाले किसानों ने नकदी फसल उगाने वाले किसानों के मुकाबले कम आत्महत्याएं की हैं। पिछले पन्द्रह वर्ाों में हमने किसानों को नकदी फसल की ओर प्रेरित किया है। हमने उन्हें निर्यात करने को कहा है क्योंकि निर्यात विकास की ओर ले जाता है। सत्तासीन चाहे जो भी हो, हमने उन्हें नकदी फसल की ओर धकेला और अब हम ऐसा करने की कीमत चुका रहे हैं। हमने उन्हें उतार-चढ़ाव भरे वैश्विक मूल्यों के बीच फँसा दिया है, जिनका नियंत्रण कॉरपोरेशनस्‌ (संघों) के पास है। ऐसा अक्सर वैसे व्यापारिक संघों द्वारा किया जाता है, जिन्हें हमारे किसान नहीं देख सकते और जो न ही हमारे लोगों के प्रति उत्तरदायी हैं।
डराने वाला अन्य पहलू यह है कि ये पाँच-छः राज्य एक हद तक पड़ोसी हैं। अन्य राज्य भी हैं, जहाँ स्थिति बुरी है। पर ये 5-6 राज्य काफी बुरी स्थिति में हैं। महाराष्ट्र सबसे बुरे हाल में है। कुछ राज्यों में आत्महत्याओं में वश्द्धि तो कुछ राज्यों में कमी देखी जा रही है। चिंताजनक बात यह है कि जिन कुछ राज्यों में आत्महत्याओं में वश्द्धि देखी जा रही है, उन राज्यों में अगले 6 वर्षों में यह संख्या दुगुनी हो सकती है।

पहले हम किसानों को लूटते हैं फिर मार डालते हैं

Posted by Reyaz-ul-haque on 4/17/2008 09:29:00 PM
किसान इस देश में सबसे हिकारत कि चीज़ बना दिए गए हैं। उनके नाम पर कर्ज़माफी की छलावे और धोखेबाजियों भरी घोषणा करके सरकार किसान-कन्हैया बन जाती हैं और किसान भौंचक रहते हैं कि उन्हें मिला क्या। एक निर्मम प्रक्रिया हैं जो सरकार चलाने से लेकर नीतियाँ बनाने और उन्हें लागू कराने तक में दिखती हैं। और इन सबसे जो निकलता हैं, वह हैं एक लाख से अधिक किसानों की आत्महत्या और हजारों किसानों का विद्रोह। किसानों की आत्महत्या विषय पर पी साईनाथ ने 6 सितंबर, 2007 को संसद में स्पीकर लेक्चर सीरीज़ में यह लंबा व्याख्यान दिया था। इसका हिन्दी अनुवाद किया हैं साथी मनीष शांडिल्य ने।

कृषि क्षेत्र का संकट

पिछले दशक में एक लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या क्यों की ?


पी
साईंनाथ

म एक राष्ट्र के रूप में पिछले चार दशकों में सबसे गंभीर कृषि संकट से गुजर रहे हैं। इतने बड़े मुद्दे के सभी पहलूओं को एक साथ समेटना असंभव है। इस कारण मैं आज इस मुद्दे पर टुकड़ों में अपनी बात रखूँगा। मैं यह जोर देना चाहूँगा कि संकट इतना गंभीर और व्यापक है कि पहली बात तो यह कि न तो कोई राज्य इसे बचा है एवं दूसरी यह कि इसे एक पार्टी या एक सरकार या एक राज्य की समस्या के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह एक राष्ट्रीय समस्या है और हमें इसका सामना इसी रूप में करना चाहिए। यह एक बड़ी बात है। इस संकट में हुई आत्महत्याएँ हालाँकि दुखद है, पर यह केवल रोग के लक्षण है न कि रोग। ये परिणाम हैं, न कि प्रक्रिया।
पिछले 15 वर्षों में इस संकट के परिणामस्वरूप जीविकोपार्जन के लाखों साधन या तो नष्ट हुए हैं या फिर क्षतिग्रस्त हुए हैं। लेकिन अगर आप मीडिया में देखें तो पायेंगे कि हम कृषि संकट या खेती का संकट जैसे शब्दों का प्रयोग बड़े पैमाने पर तीन या चार वर्षों से ही कर रहे हैं। पहले इस तरह के किसी भी संकट को पूरी तरह नकार दिया जाता था।
मद्रास इंस्टीच्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के प्रो के नागराज के शब्दों में कहें तो हम इस पूरी स्थिति को एक पंक्ति में इस तरह रख सकते हैं-जो प्रक्रिया इस संकट को संचालित कर रही है वो है- गाँवों के लूटनेवाली व्यवसायीकरण की प्रक्रिया। सभी मानवीय मूल्यों की विनिमय मूल्यों में तब्दीली। यह प्रक्रिया जैसे-जैसे ग्रामीण भारत में बढ़ती गई, जीविका के लाखों साधन ध्वस्त हो गये। लाखों लोग कस्बों और शहरों की ओर रोजगार की तलाश में पलायन कर रहे हैं, पर वहाँ काम नहीं हैं। वो एक ऐसी स्थिति की ओर बढ़ते हैं, जहाँ न तो वो मजदूर हैं और न ही किसान। कई घरेलू नौकर बन कर रह जाते हैं, जैसे कि दिल्ली शहर में झारखंड की एक लाख से अधिक लड़कियाँ घरेलू नौकरानियों के रूप में काम कर रही हैं।

छोटी जोतवाले किसानों का विश्व-व्यापी संकट
हालाँकि मैं तो कहना चाहता हूँ कि यह संकट किसी भी रूप में सिर्फ भारत से जुड़ा हुआ नहीं है और जैसा कि मैंने ऊपर कहा भी है। यह छोटे पैमाने पर खेती करने वालों का विश्वव्यापी संकट है। पूरी पश्थ्वी पर से छोटे पारिवारिक खेतों को मिटाया जा रहा है और ऐसा पिछले 20 से 30 वर्षों से होता आ रहा है। यह ठीक है कि पिछले 15 साल में भारत में यह प्रक्रिया काफी तेज हुई है। नहीं तो किसानों की आत्महत्या ने कोरिया में भी काफी गंभीर चिंताएँ उत्पन्न किया है। नेपाल और श्रीलंका में भी आत्महत्याओं की दर काफी ऊँची है। अफ्रीका, बुर्किना फासो, माली जैसे इलाकों में बड़े पैमाने पर हुई आत्महत्याओं का कारण यह है कि संरा अमेरिका और यूरोपीय यूनियन की सब्सिडियों के कारण उनके कपास उत्पाद का कोई खरीददार नहीं रहा।
इत्तफाक से, संरा अमेरिका के मिडवेस्ट और अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में भी समय-समय पर किसानों ने बड़े पैमाने पर आत्महत्याएँ की हैं। वास्तव में, अस्सी के दशक में अकलाहोमा में किसानों के आत्महत्या की दर संरा अमेरिका के राष्ट्रीय आत्महत्या दर के दुगुनी से भी ज्यादा थी और ऐसा कम ही होता है कि ग्रामीण आत्महत्या दर शहरी आत्महत्या के दर से ज्यादा हो। मैंने पिछले साल अमेरिकी किसानों के साथ कुछ समय बिताया और मैं यह देख सका कि किस तरह वे पिछड़ रहे हैं।
हम कई रूपों में छोटे किसानों को टूटते और मरते देख रहे हैं। यह बहुत जरूरी है कि हम कुछ करें क्योंकि हमारा देश ऐसा सबसे बड़ा देश है जहाँ छोटे जोते वाले किसानों की संख्या सबसे ज्यादा है। संभवतः हमारे यहाँ ही खेतिहर मजदूरों और भूमिहीन श्रमिकों की संख्या सबसे ज्यादा है। अगर आप गौर करें तो संरा अमेरिका में जो कुछ घटा उससे सबक लेना चाहिए।
संरा अमेरिका में 1930 में 60 लाख पारिवारिक खेत थे। यह वह समय था जब भारत स्वतंत्रता प्राप्त करने से ठीक एक दशक के आसपास दूर था, तब अमेरिका की एक चौथाई आबादी इन 60 लाख खेतों पर आश्रित थी और इनमें काम करती थी। आज अमेरिका में खेतों में काम करने वालों से ज्यादा लोग जेलों में बंदी हैं। आज 7 लाख लोग खेतों पर आश्रित हैं और 21 लाख लोग जेलों में हैं।

हमें कॉरपोरेट खेती की ओर धकेला जा रहा है
यह प्रक्रिया हमें किस ओर ले जा रही है ? दो शब्दों में कहें तो कॉरपोरेट खेती की ओर। यह भारत और पूरे विश्व में आने वाले दिनों में खेती की बड़ी तस्वीर है। हमें कॉरपोरेट खेती की ओर धकेला जा रहा है। एक प्रक्रिया जिसमें खेती को किसानों से छीना जा रहा है और कॉरपोरेट के हाथों में सौंप दिया जा रहा है। संरा अमेरिका में बिल्कुल ऐसा ही हुआ है और विश्व के अन्य कई देशों में भी। यह जीत बंदूकों, ट्रकों, बुलडोजरों और लाठियों के सहारे नहीं मिली। ऐसा किया गया लाखों छोटे जोत वाले किसानों के लिए खेती को अलाभकारी बनाकर, वर्त्तमान ढाँचे में खेती कर गुजर-बसर करना असंभव कर दिया गया। यह सब बातें तब सामने आईं जब स्वतंत्र भारत के इतिहास में असमानता को तेजी से बढ़ता देखा गया। और यह समझने वाली बात है कि जब समाज में असमानता बढ़ती है, तब सबसे ज्यादा भार कृषि क्षेत्र पर ही पड़ता है। हर हाल में यह एक अलाभकारी क्षेत्र है। इस कारण जब असमानता बढ़ती है तो कृषि क्षेत्र पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है।

भारत में असमानता का विध्वंसकारी विकास
खरबपतियों में चौथा स्थान- मुझे पूरा विश्वास है कि आप यह जान कर रोमांचित हो जायेंगे कि 2007 में भारत में खरबपतियों की चौथी सबसे बड़ी संख्या थी। खरबपतियों की संख्या में हम संरा अमेरिका, जर्मनी और रूस को छोड़ सभी देशों से आगे हैं। इतना ही नहीं कुल संपत्ति के मामले में हमारे खरबपति जर्मनी और रूस के खरबपतियों के मुकाबले ज्यादा धनी हैं। आप फोर्ब्स पर जाकर विश्व के खरबपतियों की पूरी संख्या देख सकते हैं।
मानव विकास में 126 वें स्थान पर - हमारे पास दुनिया का दूसरा सबसे धनी खरबपति है और खरबपतियों की कुल संख्या में हम चौथे स्थान पर हैं। लेकिन हम मानव विकास में126वें स्थान पर हैं। 126वें स्थान पर होने का मतलब क्या है ? इसका मतलब है कि बोलीविया (दक्षिणी अमेरिका का सबसे गरीब देश) या ग्वाटेमाला या गैबॉन में गरीब होना भारत में गरीब होने से ज्यादा अच्छा है। ये देश संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव विकास सूचकांक में हमसे आगे हैं। आप पिछले 10 या 15 वर्षों के संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव विकास सूचकांक रिपोर्ट में यह सब आँकड़े प्राप्त कर सकते हैं, जो कि संसद के पुस्तकालय में उपलब्ध हैं।
83.6 करोड़ लोग प्रतिदिन 20 रूपये से कम पर जीते हैं - हम विश्व अर्थव्यवस्था में उभरते हुए शेर (tiger economy) हैं। लेकिन हमारे देश में जीवन प्रत्याशा बोलीविया, कजागिस्तान और मंगोलिया से भी कम है। हमारे पास एक लाख करोड़पति हैं और मुझे ऐसा कहते गर्व होता है कि जिसमें से 25 हजार मेरे शहर मुंबई के ही हैं। फिर भी भारत सरकार के अनुसार हमारे देश में 83.6 करोड़ जनता अब भी रोजाना 20 रूपये से भी कम पर जीती है। भारतीय सच्चाई के समान दूसरी कोई चीज नहीं है। ऐसी कई भारतीय सच्चाईयाँ (वास्तविकताएँ) हैं। ऐसी सच्चाई के कई रूप हैं।
नवजात शिशु मश्त्यु का गिरता दर धीमा हुआ - हमारे देश का विकास दर वास्तव में बहुतों के ईर्ष्या का कारण है। लेकिन पिछले 15 सालों में हमारे देश में नवजात शिशु मश्त्यु का गिरता स्तर धीमा हुआ है अर्थात्‌ नवजात शिशु मश्त्यु दर बढ़ा है। चीन के बाद यह देश वार्षिक 25 लाख नवजात शिशुओं की मश्त्यु के साथ पुरी दुनिया में दूसरे स्थान पर रहा।
सीईओं का वेतन अब तक के सबसे ऊँचे स्तर पर-पिछले दस साल में मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) को मिलने वाले पैकेज में जैसी वश्द्धि हुई है, वैसी कभी नहीं हुई। वास्तविकता तो यह है कि अपने देश के प्रधानमंत्री को मजबूर होकर सीईओं के वेतन पर टिप्पणी करनी पड़ी। लेकिन जहाँ एक ओर सीईओ के वेतन में छप्पर-फाड़ वश्द्धि हुई वहीं खेती से होने वाली आमदनी लगभग जमीन पर आ गई है।
खेतिहर घरों का डरावना प्रति व्यक्ति औसत मासिक खर्च (MPCE) -भारत के खेतिहर घरों (जमींदारों और आधा एकड़ वाले किसानों सहित) में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार प्रति व्यक्ति औसत मासिक खर्च मात्र 503 रुपये है।
खर्च की दयनीय प्रवश्त्ति- इन 503 रुपयों में 55 प्रतिशत या उससे भी ज्यादा हिस्सा भोजन पर खर्च होता है। 18 प्रतिशत जलावन, कपड़ों और जूते-चप्पल पर खर्च होता है। इसके बाद शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे जरूरी मद में खर्च करने को काफी कम बच पाता है। स्वास्थ्य पर शिक्षा के मुकाबले दुगुना खर्च किया जाता है क्योंकि वर्त्तमान में हमारे पास विश्व का छठवां सबसे बड़ा निजीकृत स्वास्थ्य तंत्र है। इस कारण MPCE यह दिखाता है कि स्वास्थ्य पर शिक्षा के 17 रुपये के मुकाबले 34 रुपये खर्च किये जाते हैं। शिक्षा पर मासिक 17 रुपये खर्च का अर्थ है कि प्रतिदिन शिक्षा पर 50 पैसे से थोड़ा अधिक खर्च हो रहा है। यह भारतीय खेतिहर घरों के खर्च का तरीका है, यह राष्ट्रीय औसत है। मैं राज्यवार आँकड़ों पर बाद में आऊंगा।
इत्तेफाकन, हमें आपको यह बताते हुए काफी गर्व होता है कि अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार आर्थिक सुधार के दशकों में हमारी श्रम-उत्पादकता 84 प्रतिशत तक बढ़ी है। परंतु आईएलओ की वही रिपोर्ट यह भी मुझे बताती है कि निर्माण क्षेत्र में श्रमिकों के वास्तविक मजदूरी में 22 प्रतिशत की कमी हुई है (ऐसे समय में जबकि सीईओ के वेतन आसमान छू रहे हैं)। इस तरह पिछले 15 वर्षों के दौरान हमने अपनी आबादी के ऊपर के एक छोटे से हिस्से की अप्रत्याशित समश्द्धि देखी है। और ठीक उसी समय पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से शुद्ध प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता घटी है।
आबादी के निचले तबके में बढ़ती भूख- खाद्य असुरक्षा की स्थिति पर संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था एफएओ का विश्व रिपोर्ट यह दिखाता है कि 1995-97 से 1999-2001 के बीच लाखों की संख्या में जितने नये भूखे भारतीय आबादी में जुड़े, वो पूरे विश्व में भूखों की कुल संख्या से भी अधिक थे। हमारे देश में ऐसे समय में भूख बढ़ी है जबकि यह इथोपिया में भी घटी है। हमारे देश के कुछ शहरों में रोज एक नया रेस्त्रां खुलता है पर हमारे देश के प्रसिद्ध कृषि अर्थशास्त्री प्रो उत्सा पटनायक बताती हैं कि एक औसत ग्रामीण परिवार 10 वर्ष पूर्व के मुकाबले आज 1000 किलोग्राम अनाज की कम खपत प्रतिवर्ष कर रहा है। खाद्यान्न उपलब्धता के यह आंकड़े संसद में प्रतिवर्ष रखे जाने वाले उस आर्थिक सर्वेक्षण से लिए गये हैं, जो हमें शुद्ध प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता (एनपीसीए) संबंधी आँकड़े मुहैया कराता है। इस सर्वेक्षण के सहारे हम 1951 से लेकर अब तक के आँकड़े प्राप्त कर सकते हैं। इसमें आप देख सकेंगे कि पिछले 15 वर्षों में यह किस तरह घटा है। यह उपलब्धता आर्थिक सुधारों के शुरूआती दिनों 1992 में 510 ग्राम थी। यह 1993 में 437 ग्राम तक गिर गया। 2005 का अपुष्ट आँकड़ा 422 ग्राम था। एक-दो वर्षों में यह थोड़ा जरूर बढ़ा है, पर पिछले 15 वर्षों में समग्र रूप से देखा जाए तो एक स्पष्ट गिरावट हुई है।
70-80 ग्राम की गिरावट काफी मामूली लगती है पर तभी तक जब तक कि आप इसे 365 दिनों और फिर एक अरब भारतीयों की संख्या से गुना नहीं कर देते। तब आप देख सकते हैं कि यह गिरावट कितनी बड़ी है। चूँकि आबादी का ऊपरी हिस्सा अब तक का सबसे अच्छा भोजन खा रहा है, तब यह सवाल खड़ा होता है कि इस पश्थ्वी पर सबसे निचले पायदान पर रहने वाली 40 प्रतिशत आबादी क्या खा रही है ?
द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत अब पुरानी बात है, अब दो ग्रहों की सी स्थिति है- आज 5 प्रतिशत भारतीय आबादी के लिए पश्चिमी यूरोप, संरा अमेरिका, जापान और अस्टे्रलिया बेंचमार्क है और तलछटी में रहने वाली 40 प्रतिशत आबादी के लिए उप-सहारा के अफ्रीकी देश बेंचमार्क हैं, जो साक्षरता में हमसे भी आगे हैं।
पिछले दशक में ऋण का बोझ दुगुना हुआ है- NSSO का 59वाँ सर्वेक्षण हमें बताता है कि जहाँ 1991 में 26 प्रतिशत खेतिहर घरों पर कर्ज का बोझ था, 2003 तक यह प्रतिशत लगभग दुगुना बढ़कर 48 प्रतिशत हो गया है।
जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि इस अव्यवस्था और आय के स्त्रोतों के ध्वस्त होने एवं जीवन-खर्च में बेतहाशा वश्द्धि के कारण बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है। हमारी समझ के अनुसार असमानता का यह ढाँचा इतना महत्वपूर्ण क्यों है ? हम इस खाई को लगातार चौड़ा ही करते जा रहे हैं। मैं गाँवों को लूटने वाली व्यवसायीकरण की इस प्रक्रिया से क्या समझता हूँ ? मैं उस पर जल्द आऊँगा। लेकिन इस बीच बहुत कुछ घटा है।
जारी

सुनिए : हम देखेंगे/इकबाल बानो

बीच सफ़हे की लड़ाई

गरीब वह है, जो हमेशा से संघर्ष करता आ रहा है. जिन्हें आतंकवादी कहा जा रहा है. संघर्ष के अंत में ऐसी स्थिति बन गई कि किसी को हथियार उठाना पड़ा. लेकिन हमने पूरी स्थिति को नजरअंदाज करते हुए इस स्थिति को उलझा दिया और सीधे आतंकवाद का मुद्दा सामने खड़ा कर दिया. ये जो पूरी प्रक्रिया है, उन्हें हाशिये पर डाल देने की, उसे भूल गये और सीधा आतंकवाद, 'वो बनाम हम ' की प्रक्रिया को सामने खड़ा कर दिया गया. ये जो पूरी प्रक्रिया है, उसे हमें समझना होगा. इस देश में जो आंदोलन थे, जो अहिंसक आंदोलन थे, उनकी क्या हालत हमने बना कर रखी है ? हमने ऐसे आंदोलन को मजाक बना कर रख दिया है. इसीलिए तो लोगों ने हथियार उठाया है न?

अरुंधति राय से आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत.

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कॉरपोरेट जगत के हित में देश की आम जनता के संहार की योजना रोकें

हम महसूस करते हैं कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक विध्वंसक कदम होगा, यदि सरकार ने अपने लोगों को, बजाय उनके शिकायतों को निबटाने के उनका सैन्य रूप से दमन करने की कोशिश की. ऐसे किसी अभियान की अल्पकालिक सफलता तक पर संदेह है, लेकिन आम जनता की भयानक दुर्गति में कोई संदेह नहीं है, जैसा कि दुनिया में अनगिनत विद्रोह आंदोलनों के मामलों में देखा गया है. हमारा भारत सरकार से कहना है कि वह तत्काल सशस्त्र बलों को वापस बुलाये और ऐसे किसी भी सैन्य हमले की योजनाओं को रोके, जो गृहयुद्ध में बदल जा सकते हैं और जो भारतीय आबादी के निर्धनतम और सर्वाधिक कमजोर हिस्से को व्यापक तौर पर क्रूर विपदा में धकेल देगा तथा उनके संसाधनों की कॉरपोरेशनों द्वारा लूट का रास्ता साफ कर देगा. इसलिए सभी जनवादी लोगों से हम आह्वान करते हैं कि वे हमारे साथ जुड़ें और इस अपील में शामिल हों.
-अरुंधति रॉय, नोम चोम्स्की, आनंद पटवर्धन, मीरा नायर, सुमित सरकार, डीएन झा, सुभाष गाताडे, प्रशांत भूषण, गौतम नवलखा, हावर्ड जिन व अन्य

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