Monday, 29 July 2013 12:02 |
हरिराम मीणा प्रसिद्ध फे्रंच लेखक हर्वे कैंफ ने अपनी पुस्तक 'हाउ द रिच आर डेस्ट्रॉइंग द प्लेनेट' की प्रस्तावना में लिखा है- 'इस दुनिया में पाए जाने वाले संसाधनों के उपभोग में हम तब तक कमी नहीं ला सकते, जब तक हम शक्तिशाली कहे जाने वाले लोगों को कुछ कदम नीचे आने के लिए मजबूर नहीं करते और जब तक हम यहां फैली हुई असमानता का मुकाबला नहीं करते। इसलिए ऐसे समय में जब हमें सचेत होने की जरूरत है, हमें 'थिंक ग्लोबली एेंड एक्ट लोकली' के उपयोगी पर्यावरणीय सिद्धांत में यह जोड़ने की जरूरत है कि 'कंज्यूम लेस एेंड शेयर बेटर।' कुछ महीने पहले दिवंगत हुए वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज ने 20 सितंबर 2006 को काराकास में संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में भाषण देते हुए विश्व जन-गण के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का संदर्भ देते हुए कहा था कि- 'मैं याद दिलाना चाहता हूं कि इस दुनिया की जनसंख्या के सात प्रतिशत (अमीर) लोग पचास प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। जबकि इसके विपरीत पचास प्रतिशत गरीब लोग, मात्र और मात्र सात प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जवाबदेह हैं।... इस दुनिया के पांच सौ सबसे अमीर लोगों की आय सबसे गरीब इकतालीस करोड़ साठ लाख लोगों से ज्यादा है। दुनिया की आबादी का चालीस प्रतिशत गरीब भाग यानी 2.8 अरब लोग दो डॉलर प्रतिदिन से कम में अपनी जिंदगी गुजर-बसर कर रहे हैं और यह चालीस प्रतिशत हिस्सा दुनिया की आय का पांच प्रतिशत ही कमा रहा है। हर साल बानबे लाख बच्चे पांच साल की उम्र में पहुंचने से पहले ही मर जाते हैं और इनमें से 99.9 प्रतिशत मौतें गरीब देशों में होती हैं।... नवजात बच्चों की मृत्यु दर प्रति एक हजार में सैंतालीस है, जबकि अमीर देशों में यह दर प्रति हजार में पांच है। मनुष्यों की जीवन प्रत्याशा सड़सठ वर्ष है, कुछ अमीर देशों में यह प्रत्याशा उन्यासी वर्ष है, जबकि कुछ गरीब देशों में यह मात्र चालीस वर्ष है। इन सबके साथ ही 1.1 अरब लोगों को पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं है। 2.6 अरब लोगों के पास स्वास्थ्य और स्वच्छता की सुविधाएं नहीं हैं। अस्सी करोड़ से अधिक लोग निरक्षर हैं और एक अरब दो करोड़ लोग भूखे हैं। यह है हमारी दुनिया की तस्वीर।' इन्हीं हालात को देखते हुए क्यूबा के दिवंगत राष्ट्रपति फिदल कास्त्रो ने जोर देकर कहा था 'एक प्रजाति खात्मे के कगार पर है और वह है मानवता।' रोजा लग्जमबर्ग का कहना है कि अगर पृथ्वी को बचाए रखना है तो बर्बर पूंजीवाद का एक ही विकल्प है वह है समाजवाद। सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका की अगुआई में एक मुहिम के तहत अग्रसर पूंजीवाद साम्राज्यवाद को करीब पचीस वर्ष होने जा रहे हैं। इसी चौथाई शताब्दी में अमेरिका ने जो बेलगाम दादागीरी की है उसके ज्वलंत उदाहरण इराक, अफगानिस्तान, मिस्र, लीबिया, सीरिया और लातिन अमेरिका के राष्ट्रों की संप्रभुता में सेंध आदि हैं, लेकिन यह सब कुछ होते हुए भी पश्चिमी राष्ट्रों के साम्यवादी-समाजवादी दलों की सदस्यता में वृद्धि, 2012 के चुनाव में यूनान में तेजी से उभरी रेडिकल वामपंथी पार्टी सिरिजा, अरब देशों में अमेरिका के विरुद्ध शत्रुगत भावना का फैलाव, दक्षिणी अमेरिकी देशों में अमेरिका विरोधी माहौल और अमेरिकी धमकी के खिलाफ उत्तरी कोरिया की चुनौती आदि को देखते हुए दुनिया के हर क्षेत्र में इस नवसाम्राज्यवाद के क्रूर यथार्थ का पर्दाफाश करने और बेहतर विकल्प ढूंढ़ने के प्रयास जारी हैं। वैश्वीकरण बनाम प्रकृति और आदिवासी की अवधारणा को समझने के लिए जाने-माने ग्लोबल इन्वेस्टर जेरेमी ग्रेंथम कहते हैं कि 'सभी संसाधनों के अंधाधुंध उपयोग से हमारी ग्लोबल अर्थव्यवस्था ऐसे कई संकेत दर्शा रही है जिनके कारण हमसे पहले कई सभ्यताएं धराशायी हो चुकी हैं।' माइक्रोसॉफ्ट धनपति बिल गेट्स ने पिछले दिनों प्रायश्चित करते हुए कहा है कि 'पूंजी को अब मानवीय चेहरे के साथ आना चाहिए।' स्पष्ट है कि पूंजी की वैश्विक भूमिका मनुष्य-विरोधी रही है। आज सवाल आदिवासी का होने के साथ-साथ राष्ट्र का है और राष्ट्र के आगे प्रकृति और अंतत: पृथ्वी का। इसलिए सवाल हम सब का है। जो तटस्थ हैं या रहेंगे वे भी बच नहीं सकते। |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Monday, July 29, 2013
वैश्वीकरण बनाम आदिवासी हरिराम मीणा
वैश्वीकरण बनाम आदिवासी
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