Tuesday, 30 July 2013 10:20 |
उदित राज शादी, सेक्स, संतान, लेन-देन, तिथि-त्योहार, पूजा-पाठ, सुख-दुख, राजनीतिक सत्ता आदि जरूरतों की पूर्ति जाति ही करती है। क्या इतना फायदा राजनीति से आम आदमी को मिल सकता है! मतदाता हो या समर्थक, राजनीति से उसे कभी-कभार कुछ फायदा जरूर मिल जाता है, लेकिन वह जाति नाम की संस्था से मिलने वाले लाभ के मुकाबले बहुत कम होता है। यही मुख्य कारण है कि लोग जाति नहीं छोड़ते। जब शादी जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति जाति के बाहर से होगी तभी जाकर यह टूटेगी। आज से लगभग ढाई हजार साल पहले जाति तोड़ने का महा अभियान भगवान गौतम बुद्ध ने चलाया था। वह असरदार भी रहा। लेकिन धीरे-धीरे फिर से जाति व्यवस्था हावी हो गई। उन्नीसवीं शताब्दी में ज्योतिबा फुले जैसे महान समाज सुधारक ने इसकी समाप्ति के लिए अभियान चलाया और उसे आगे बढ़ाने का कार्य डॉ बीआर आंबेडकर, पेरियार, नारायण गुरुआदि ने किया। जितनी जाति टूटी नहीं उससे कहीं ज्यादा इसके प्रति चेतना का प्रादुर्भाव जरूर हो गया। तभी तो इलाहाबाद हाइकोर्ट ने ऐसा फैसला दिया। कभी जाति-व्यवस्था सवर्णों के पक्ष में थी, लेकिन अब धीरे-धीरे इसका कुछ लाभ दलितों और पिछड़ों को मिलने लगा है। यही कारण है कि पिछड़ों और दलितों के नेताओं की जुबान पर भले इन महापुरुषों का नाम होता है, राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए वे जाति की खूब गोलबंदी करते हैं। यह बड़ा आसान तरीका है। इस तरीके से यानी जाति की भावना के सहारे कई बार चुनाव लड़ा जा सकता है। विकास, कानून व्यवस्था और शासन-प्रशासन अच्छा रहे या न रहे, जाति का समर्थन भावनावश मिलता रहता है। सवर्ण भी राजनीतिक लाभ के लिए जाति की रैली करते, अगर वह फायदेमंद होती। क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य नेता अगर राजनीतिक लाभ के लिए जाति-रैली करेंगे तो यह उलटा पड़ जाएगा क्योंकि इनकी संख्या काफी कम है और ये लोग वोट देने कम ही जाते हैं। यही कारण है कि जाट महासभा, ब्राह्मण महासभा, राजपूत महासभा के नेताओं ने जाति तोड़ने का जबर्दस्त विरोध किया और इसका इस्तेमाल समाज और धर्म में करने से बिल्कुल गुरेज नहीं किया, सिवाय राजनीति के। जाति व्यवस्था ऐसी है कि सवर्णों को सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक क्षेत्र में इसकी गोलबंदी का फायदा तो होता है, लेकिन अगर यही काम वे राजनीति में करेंगे तो घाटा होने के अवसर ज्यादा हैं। ब्राह्मण महासभा के नेता मांगेराम ने कहा कि इनकी जाति के साथ अन्याय हो रहा है और लोग मजबूर होकर नौकरी करने अमेरिका जा रहे हैं। इनसे कहा गया कि अब भी तमाम सरकारी विभागों में सत्तर प्रतिशत तक ब्राह्मण हैं तो उनके पास इसका कोई जवाब नहीं था लेकिन शिकायत बनी रही कि ब्राह्मणों के साथ भेदभाव हो रहा है! जाट और राजपूत नेताओं ने भी यही बात दोहराई! जब उन्हें अपनी जाति में ही रहने से घाटा हो रहा है तो हमने कहा कि ऐसे में जाति तोड़ने में ही भलाई है। मगर वे लोग इस पर सहमत नहीं हुए। यह कैसी मानसिकता है कि जब जाति से फायदा हो तो उसका स्वागत और घाटे की जगह पर विरोध। इस समय लगभग सभी जातियां असंतुष्ट लग रही हैं कि उन्हें जितना मिलना चाहिए नहीं मिल पा रहा है, वे अपने प्राप्य से वंचित हो रही हैं। तो ऐसी स्थिति में कांशीराम के नारे पर क्यों नहीं देश के लोग चलने पर सहमत हो जाते हैं कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी। जाति तो मरने पर भी नहीं जाती है। हाल में इंग्लैंड की संसद ने एक कानून बनाया कि उनके यहां भारत से गए विभिन्न जातियों के लोगों में जो भेदभाव है, अगर वहां वैसा बर्ताव किया जाता है तो जुर्म माना जाएगा। इसका सवर्ण जातियों ने विरोध किया लेकिन कानून बन ही गया। अगर इस देश में दो सामाजिक बाधाएं नहीं होतीं, एक जाति और दूसरा लिंग आधारित भेदभाव, तो इसको दुनिया की महाशक्ति बनने से कोई रोक नहीं पाता। जाति का विरोध हो तो पूरी ईमानदारी से हो। |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Wednesday, July 31, 2013
जाति ऐसे नहीं टूटेगी उदित राज
जाति ऐसे नहीं टूटेगी
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