tatus Update
By चन्द्रशेखर करगेती
व्यंजनों के चटखारे और भूख की बातें.....
संवेदनहीनता की हद देखनी हो तो उत्तराखंड आइये । यहां सरकार, एनजीओ और तमाम संगठन खुद को आपदा प्रभावितों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने में जुटे हैं । आपदा पीड़ितों तक भले ही एक रुपये की मदद न पहुंच पा रही हो लेकिन अपना चेहरा चमकाने की कवायद में लाखों-करोड़ों रुपए फूंके जा रहे हैं । ऐसी कमरों में बैठकर उन हजारों लोगों के भविष्य के पुनर्निर्माण का सपना बुना जा रहा है, जिनके पास सिर छुपाने के लिए पक्की छत भी नहीं है । लजीज व्यंजनों के चटखारों के बीच आपदा प्रभावितों की भूख पर लम्बे-चौडे व्याख्यान दिए जा रहे हैं ।
यह प्रदेश के किसी एक हिस्से या किसी एक जगह की कहानी नहीं है, देहरादून, श्रीनगर, पिथौरागढ़, खटीमा, हल्द्वानी, नैनीताल समेत दिल्ली -मुम्बई तमाम उन जगहों पर जहां कथित बुद्धिजीवियों और राजनेताओं की आबादी बसती है, वहां यह नजारा आए दिन देखने को मिल रहा है । आपदा का विश्लेषण और पुनर्निर्माण की संभावनाओं के नाम पर सम्मेलन, गोष्ठी और कार्यशालाओं का आयोजन किया जा रहा है । लेकिन इसमें आपदा प्रभावित क्षेत्र और वहां के लोगों के दुख-दर्द बांटने की कम अपना चेहरा चमकाने की कवायद ज्यादा चल रही है ।
चेहरा चमकाने के इस खेल में सरकारी संस्थान और एनजीओ सबसे आगे हैं । आपदा की आड़ में विशेषज्ञता जाहिर करने और बजट ठिकाने लगाने के उद्देश्य से हो रहे ऐसे कार्यक्रम आपदा पीड़ितों के लिए कितने फायदेमंद होंगे, यह तो आने वाला समय बताएगा । लेकिन इतना तय है कि केवल ऐसी हॉल में बैठकर लोगों के दुख-दर्द बांटने का सपना पूरा नहीं हो पाएगा । आपदा से कराह रहे पहाड़ के लोगों का दुख-दर्द समझने और उन्हें मदद पहुंचाने के लिए वहां तक पहुंचना भी जरूरी होगा ।
अब समय आ गया है, दिन प्रतिदिन तेजी से काल के गाल में समा रहे इस राज्य के निवासियों को बचाने हेतु, प्राकृतिक संशाधनो के संरक्षण के लिए कोई ठोस योजना बने, उस योजना को कैसे लागू करवाया जाएगा, राजनैतिक विकल्प क्या होगा, मशीनरी मैं कौन होगा, स्थानीय जनता की सहभागिता क्या होगी ? इन सब पर विचार कर उसे मूर्त रूप दिया जाए, तब तो राज्य के हालात बदलते है, नहीं तो फिर वही होगा जो होता आया है !
इस आपदा पर कुछ लोग लेख लिखेंगे, कुछ लोग शपथ दिलवाएंगे और कुछ लोग हिमालय को बचाने के नाम पर सरकार से पुरुष्कार प्राप्त करने की तैयारी में लग जायेंगे l इन सबमें हिमालय बचने के बजाय और उजडता जाएगा, जैसे अब तक इन बीते सालों उजडता गया है ! हिमालय के उजडने पर सेमीनार दर सेमीनार होते रहेंगे, हिमालय भी घायल पड़ा उनका आयोजन देखता रहेगा !
साभार : दैनिक जनवाणी
संवेदनहीनता की हद देखनी हो तो उत्तराखंड आइये । यहां सरकार, एनजीओ और तमाम संगठन खुद को आपदा प्रभावितों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने में जुटे हैं । आपदा पीड़ितों तक भले ही एक रुपये की मदद न पहुंच पा रही हो लेकिन अपना चेहरा चमकाने की कवायद में लाखों-करोड़ों रुपए फूंके जा रहे हैं । ऐसी कमरों में बैठकर उन हजारों लोगों के भविष्य के पुनर्निर्माण का सपना बुना जा रहा है, जिनके पास सिर छुपाने के लिए पक्की छत भी नहीं है । लजीज व्यंजनों के चटखारों के बीच आपदा प्रभावितों की भूख पर लम्बे-चौडे व्याख्यान दिए जा रहे हैं ।
यह प्रदेश के किसी एक हिस्से या किसी एक जगह की कहानी नहीं है, देहरादून, श्रीनगर, पिथौरागढ़, खटीमा, हल्द्वानी, नैनीताल समेत दिल्ली -मुम्बई तमाम उन जगहों पर जहां कथित बुद्धिजीवियों और राजनेताओं की आबादी बसती है, वहां यह नजारा आए दिन देखने को मिल रहा है । आपदा का विश्लेषण और पुनर्निर्माण की संभावनाओं के नाम पर सम्मेलन, गोष्ठी और कार्यशालाओं का आयोजन किया जा रहा है । लेकिन इसमें आपदा प्रभावित क्षेत्र और वहां के लोगों के दुख-दर्द बांटने की कम अपना चेहरा चमकाने की कवायद ज्यादा चल रही है ।
चेहरा चमकाने के इस खेल में सरकारी संस्थान और एनजीओ सबसे आगे हैं । आपदा की आड़ में विशेषज्ञता जाहिर करने और बजट ठिकाने लगाने के उद्देश्य से हो रहे ऐसे कार्यक्रम आपदा पीड़ितों के लिए कितने फायदेमंद होंगे, यह तो आने वाला समय बताएगा । लेकिन इतना तय है कि केवल ऐसी हॉल में बैठकर लोगों के दुख-दर्द बांटने का सपना पूरा नहीं हो पाएगा । आपदा से कराह रहे पहाड़ के लोगों का दुख-दर्द समझने और उन्हें मदद पहुंचाने के लिए वहां तक पहुंचना भी जरूरी होगा ।
अब समय आ गया है, दिन प्रतिदिन तेजी से काल के गाल में समा रहे इस राज्य के निवासियों को बचाने हेतु, प्राकृतिक संशाधनो के संरक्षण के लिए कोई ठोस योजना बने, उस योजना को कैसे लागू करवाया जाएगा, राजनैतिक विकल्प क्या होगा, मशीनरी मैं कौन होगा, स्थानीय जनता की सहभागिता क्या होगी ? इन सब पर विचार कर उसे मूर्त रूप दिया जाए, तब तो राज्य के हालात बदलते है, नहीं तो फिर वही होगा जो होता आया है !
इस आपदा पर कुछ लोग लेख लिखेंगे, कुछ लोग शपथ दिलवाएंगे और कुछ लोग हिमालय को बचाने के नाम पर सरकार से पुरुष्कार प्राप्त करने की तैयारी में लग जायेंगे l इन सबमें हिमालय बचने के बजाय और उजडता जाएगा, जैसे अब तक इन बीते सालों उजडता गया है ! हिमालय के उजडने पर सेमीनार दर सेमीनार होते रहेंगे, हिमालय भी घायल पड़ा उनका आयोजन देखता रहेगा !
साभार : दैनिक जनवाणी
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