तेल युद्ध है
प्रिज्मी डिजीटल बायोमेट्रिक समय
में निजता का अधिकार
Right to privacy
ओ3म नमो शेयर बाजाराय स्वाहा
पलाश विश्वास
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA
https://www.youtube.com/watch?v=Wn6kjGEooTE
PalahBiswas On Unique Identity
http://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=WvoSLuqYvQs
Sensex falls 651 pts as rupee drops on Syria tension, rating fears
- Chaco War (1932-1935)
- World War II (1939-1945)
- Suez Crisis (1956)
- Nigerian Civil War (1967-1970)
- Oil War, a 1973 board game by Simulation Publications
- The Saddam Hussein Wars
- Iran–Iraq War (1980-1988)
- Gulf War (1990-1991)
- Iraqi Kurdish Civil War (1994-1997)
- The Iraqi no-fly zones conflicts (1992-2003)
- Iraq War (2003-2011)
- 2012 South Sudan–Sudan border conflict (2012-)
तेलयुद्ध सिर्फ इराक में लड़ा नहीं जाता
तेलयुद्ध सिर्फ सीरिया में लड़ा नहीं जायेगा
तेलयुद्ध सिर्फ लीबिया में लड़ा नहीं जाता
हम दुनिया के हर कोने में
और भारत में भी
बंगाल की भुखमरी की तरह
बिना कोई बम गिराये
मार दिये जा रहे हैं तेलयुद्ध में
'सीरिया की एक तिहाई आबादी बेघर'
सीरिया में जारी हिंसक संघर्ष के चलते देश की एक तिहाई आबादी बेघर हो चुकी है. संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी ने ताज़ा आंकड़ों में बताया है कि हालात इतने बुरे हैं कि लोगों को मदद पहुंचाना भी मुश्किल हो गया है.
राष्ट्रपतियों की भी हो रही थी जासूसी?
ब्राज़ील और मैक्सिको के राष्ट्रपतियों की जासूसी के खुलासे ने गंभीर रूप ले लिया है. दोनों देशों ने तल्ख़ी दिखाते हुए अमरीकी राजदूतों को तलब किया और उनसे सफ़ाई मांगी.
भारत डांवाडोल, ब्राज़ील की अर्थव्यवस्था में सुधार
भारत की आर्थिक विकास दर में भले ही गिरावट आई हो लेकिन ब्राज़ील की अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ है. सवाल ये है कि क्या ब्राज़ील की अर्थव्यवस्था बुरे हालात से उबर गई है?
सीरिया ने ही कराए रासायनिक हमले: फ्रांस
फ्रांस का कहना है कि सीरिया में पिछले महीने हुए रासायनिक हमलों के लिए सिर्फ और सिर्फ वहां की सरकार ज़िम्मेदार है और कोई नहीं. फ्रांस ने दावा किया है कि हमलों में सारिन और मस्टर्ड गैस जैसी घातक गैसों का इस्तेमा हुआ था,
* | UN says Syria refugees top 2 million mark
GENEVA: More than 2 million refugees have fled Syria's violence in an exodus that shows no sign of letting up and could destabilize neighboring countries, the UN refugee agency said on Tuesday. |
प्रकृति और मनुष्यता
संस्कृति और सभ्यता
मातृभाषा और मातृभूमि
के विरुद्ध है कारपोरेट
यह बर्बर आक्रामक साम्राज्यवाद
जो सबसे पहले करता है
अपहरण निजता का
अपहरण विचारों का
अपहरण सपनों का
अपहरण भूगाल का
और अपहरण इतिहास का
ग्लोबल आतंकवाद की
सबसे बड़ी सेना है नाटो
जो लड़ता है
युद्ध आतंक के खिलाफ
जिसका नतीजा अनंत तेलयुद्ध यह
सबसे बड़ा चिटफंड है
शेयर बाजार का खेल
जिसके सारे नियम पूंजी के हित में
रुपया गिरे तो विदेशों में
फले फूले उनके कारोबार
उनके एस्सेटस का मूल्यांकन हो जाये गगनचुंबी
रुपया उछले तो स्वदेश
के कारोबार पर उनका ही परचाम लहराता
तमाम सांड़ उन्हीं के हैं भइया
तमाम भालू भी उन्हीं के
सौ फीसद मंहगाई भत्तों से
गुलामों की सेना खड़ी है
राजकाज जनविध्वंस है
लोकतंत्र अब डिजिटल है
लोकतंत्र अब बायोमेट्रिक भी है
और यह आधार प्रकल्प
गौर करें महाराज, नाटो का प्रकल्प है
सशक्तीकरण सबसे बड़ा गल्प है
वास्तव में यही है
अशक्तीकरण सबसे घनघोर
नाटो पेंटागन और विश्वव्यवस्था के मुताबिक
हर देश जो संप्रभु है, आतंकवादी है
इराक के तेलकुंओं पर इसी तरह हो गया कब्जा
अब सीरिया की बारी है
हमने पहली दफा अमेरिकी चुनाव में पहलीबार
किसी उम्मीदवार के पक्ष में
अभियान चलाया था ग्लोबल
जिसे हम अश्वेत गुलामों के वंशज मान रहे थे
जिसे हम भारतीय नस्ली रंगभेद के शिकार
कृषिजीवी जनसमुदायों का स्वजन समझ रहे थे
मान रहे थे कि उनमें होगा
अब्राहम लिंकन का कोई प्रतिरुप
जो वैश्विक व्यवस्था में
दासप्रथा के कर देंगे अंत
हम उन्हें समझ रहे थे
मार्टिन लूथर किंग के सपनों का प्रतिरुप
राष्ट्रपति बनकर
सिर्फ अमेरिकी राष्ट्रपति
बाराक ओबामा ने हमें सिखाया है
व्यक्ति या पार्टी से कोई फर्क नहीं पड़ता
सत्ता जब हो सैन्य व्यवस्था कोई
सत्ता जब हो कारपोरेट साम्राज्यवाद
बुश हो या ओबामा फर्क नहीं है कोई
विडंबना यह है कि आतंक के खिलाफ युद्ध के नाम
तेलयुद्ध में साझेदार हैं हम
जिस तेल की आग से झुलस रहे हैं हम
विडंबना यह है कि भारतवर्ष में
प्रिज्मी डिजीटल बायोमेट्रिक समय में
निजता का अधिकार भी
सत्ता का रक्षाकवच है और नागरिकों
की संप्रभुता का मामला नहीं यह कतई
नागरिक करें सच का सामना
सहें मानसिक अत्याचार पलप्रतिपल
नागरिकता हो जाये खारिज
हो जाये देश निकाला
या फिर अनिवार्य नागरिक
सेवाओं से हो जाये बेदखल
लोक गणराज्य को कोई
फर्क नहीं पड़ता
यह भी तेल युद्ध है
यह भी संप्रभु नागरिक के विरुद्ध
कारपोरेट साम्राज्यवाद का तेल युद्ध है
डिजिटल आधार ही है
सबसे बड़ा आर्थिक सुधार
नागरिकों पर नियंत्रण का तंत्र है यह
नाटो और पेंटागन का यंत्र है यह
तेल युद्ध में जलकर खाक होता निजता का अधिकार
उंगलियों की छाप और
पुतलियों की तस्वीर के बदले
निराधार खोजते आधार
अपराधी और युद्ध अपराधी लड़ेंगे चुनाव
जेल में बंद होने का बावजूद
राष्ट्रनेता वे लेकिन बिना कोई
अपराध किये नागरिकों से होगा
अपराधियों जैसा सलूक
यही युद्ध है आतंक के विरुद्ध
स्वतंत्र देश का हर संप्रभु नागरिक
आज इराक है या फिर लीबिया
सीरिया है या अफगानिस्तान
नागरिकता और मानवाधिकार के विरुद्ध
लड़ा जाता यह तेल युद्ध
प्रकृति और मनुष्यता
के विरुद्ध लड़ा जाता यह तेलयुद्ध
प्राकृतिक संसाधनों के लूट
के लिए यह विश्वयुद्ध तेलयुद्ध
बाराक ओबामा हो या
जार्ज बुश
कोई फर्क नहीं पड़ता उसीतरह
जैसे कांग्रेस हो या भाजपा
कोई फर्क नहीं पड़ता उसीतरह
यह युद्ध है वर्चस्व का
यह युद्ध है एकाधिकार का
यह युद्ध है हथियार उद्योग का
अमेरिका हो या भारत
कोई फर्क नहीं पड़ता
सैन्य राष्ट्र में न नागरिकता है
और न कोई निजता का अधिकार
इस तेल की धार का कमाल देखो
इस रुपये की मार का कमाल देखो
इस सांड़ युद्ध का धमाल देखो
सेनसेक्स उछला तो
सबसे बड़ी सत्ता संचालक कंपनी
जिसका भारत के तेल संसाधनों पर एकाधिकार
उसके शेयर चढ़ गये आसमान
बाकी के साथ फिर वही शारदा फर्जीवाड़ा
भालुओं के हवाले फिर सेनसेक्स
फिर गिरने लगा रुपया भइया
डडिजिटल बायोमेट्रिक खुले बाजार
के अनंत वधस्थल पर
कबंध का यह चेहरा देख लो भइया
उंगलियों की छाप जिसकी पहचान
पुतलियों की तस्वीर में जिसका वजूद
न उसका दिल है कोई
न उसका दिमाग है कोई
न उसके खेत हैं कोई
न उसका गांव है कोई
न उसकी कोई नदी है
न उसकी कोई घाटी
न फसका कोई हिमालय
न सुंदरवन है कोई
और न समुंदर है
उस कंबंध का
न कोई विचार है
और न सपना
रिमोट कंट्रोल से नियंत्रित
हम रोबोट के जैविकी क्लोन
याद करो भइया
हमने कहा था
आधी कीमत पर भी मिले शेयर
तो हरगिज मत खरीदना भइया
याद करो भइया
कबसे हम लगा रहे गुहार
सिंहद्वार पर दस्तक बहुत तेज है
जाग सको तो जाग जाओ भइया
यह तेल की धार नहीं
यह खून की धार है भइया
अमेरिका Vs सीरिया: कौन-सा देश किसके साथ!
p7news | - 3 घंटे पहले |
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अब सवाल ये है कि अमेरिका और सीरिया के युद्ध में कौन किसका साथ देगा और कौन किससे दुश्मनी निभाएगा। दुनिया में अब तक जितने भी बड़े युद्ध हुए उनमे देश हमेशा दो गुटों में बंट गए। क्या ऐसा इस बार भी होगा, आइए देखते हैं कि अगर ये युद्ध एक बड़े युद्ध की सूरत अख्तियार करता है तो फिर कैसी होगी दुनिया की वार पॉलिटिक्स। अमेरिका का सीरिया के खिलाफ जंग छेड़ने का मतलब होगा, दुनिया का दो हिस्सों में बंट जाना। अमेरिका को इस इलाके में कई देशों से समर्थन हासिल है, लेकिन कुछ देश अमेरिका से इस कदर खार खाते हैं कि वो अमेरिका के ऐसे किसी भी कदम का जवाब देने के लिए तैयार बैठे हैं।
यह तेल युद्ध नहीं
यह स्वतंत्रता के विरुद्ध
मनुष्यता के विरुद्ध
इतिहास के विरुद्ध
कारपोरेट धर्मयुद्ध है भइया
झूठ बोले वे जो चीखते हैं
सबसे बड़ा रुपइया
डालर राज में
तेल युद्ध में
रुपइया है छुटभइया
The benchmark S&P BSE Sensex Monday fell 651 points as the rupee once again breached the 68-mark to the dollar after a spate of negative news, including escalating tension in Syria.
Investors were spooked as Russian media said two missile launches were detected from the central Mediterranean Sea. The report came amid concern about military action in Syria.
Brokers said across-the-board selling was triggered by a report that Standard & Poor's had said chances of a credit rating downgrade for India were higher than for Indonesia.
After JP Morgan, HSBC Global Research and Nomura, Goldman Sachs today cut India's growth forecast for this fiscal to 4 percent from 6 percent earlier and said it expects the rupee to touch 72 against the dollar in the next six months.
The Sensex, which started above the 19,000 mark, fell to close at 18,234.66, a decline of 651.47 points or 3.45 percent. The drop was the most since August 16, when it fell 769 points or 3.97 percent. It was the first loss after four sessions of gains, during which it added 918.05 points.
The series of negative news followed data on Friday that showed economic growth slowed to 4.4 percent in April-June.
Yesterday, the government said growth in eight infrastructure industries was 3.1 percent in July, against 4.5 percent a year earlier. An indicator of manufacturing sector activity in India contracted in August.
"The economy's fundamentals in the near term remain on shaky ground," said Vaibhav Agrawal, VP of research at Angel Broking. "Increase in oil prices due to the Syria situation is expected to add to the current account burden, keeping the rupee under pressure. As a result, hopes of quick reversal of interest rate hikes by the RBI are waning."
The Nifty tumbled 209.30 points, or 3.77 percent, to 5,341.45. The MCX-SX's SX-40 was down 3 percent at 10842.41.
The rupee, which closed at 66 to the dollar on Monday, dipped to below the 68-mark in afternoon deals.
Banks, consumer durables and realty shares led sectoral indices lower. Reliance Industries lost 6.07 percent and ITC fell 5.37 percent, together contributing more than 220 points to the decline in the Sensex.
Asian stocks ended mostly higher on evidence of a pick-up in global manufacturing. Key indices in China, Hong Kong, South Korea, Japan and Taiwan firmed up while Singapore's Straits Times eased. European markets were lower ahead of monetary policy decisions in Japan, the euro zone and UK.
In the local market, 28 Sensex shares fell, led by Hero MotoCorp (6.58 percent). Other losers were ICICI Bank (5.21 percent), Bharti Airtel (5.17 percent), HDFC (4.8 percent) and Larsen and Toubro (4.52 percent).
The sectoral indices all fell, led by S&P BSE-Bankex dropping 5.06 percent, S&P BSE-CD 4.61 percent, S&P BSE-Realty 4.39 percent, S&P BSE-FMCG 3.89 percent and S&P BSE-Oil&Gas 3.63 percent.
The market breadth turned negative as 1,478 stocks ended lower, 805 finished higher and 133 ruled steady. Turnover rose to Rs 2,183.96 crore from Rs 1,721.63 crore yesterday.
Foreign institutional investors bought a net Rs 475.92 crore of shares yesterday, as per provisional figures issued by the stock exchanges.
सब हैं जांच और निगरानी के दायरे में
सबके लिए सूचना का अधिकार लागू
लेकिन राजनीति को कठघरे में
खड़ा करना प्रतिबंधित है
कारपोरेट राज, कारपोरेट लाबिइंग
और कारपोरेट चंदे पर कोई भी सवाल
निजता का हनन है
हमींको तैयार रहना है हर देशी विदेशी
जांच और निगरानी के लिए
कंप्यूटर ,रोबोट और अंतरिक्ष में छोड़े
गये उपग्रह हमारी करेंगी निगरानी
शक हुआ तो हमें सीधे गोली
मार देने का आदेश है
हमारे खिलाफ चांदमारी जारी है
सारे रक्षाकवच उन्हीं के लिए
घोटाले में अभियुक्त हो तो क्या
रक्षाकवच है, न मुकदमा चलेगा
और न जांच होगी कहीं
नागरिकों के लिए कहीं नहीं है
कोई रक्षा कवच
नागरिकों के लिए बस शेयर बाजार है
ओ3म नमो शेयर बाजाराय स्वाहा
संबंधित खबरें
सीरिया पर हमले की अफवाह से कोहराम मच गया और बाजार 3.5 फीसदी से ज्यादा लुढ़के। लेकिन, बाजार में भारी गिरावट आने की दूसरी वजहें भी रहीं। देश पर घटता भरोसा और रुपये के 68 तक टूटने से भी बाजार फिसले।
सेंसेक्स 651 अंक टूटकर 18235 और निफ्टी 209 अंक टूटकर 5341 पर बंद हुए। मिडकैप शेयरों में करीब 2.5 फीसदी की गिरावट आई। स्मॉलकैप शेयरों में 1 फीसदी की कमजोरी आई।
बैंक निफ्टी 5.25 फीसदी लुढ़का। कंज्यूमर ड्यूरेबल्स और रियल्टी शेयर 4.5 फीसदी टूटे। एफएमसीजी, ऑयल एंड गैस, कैपिटल गुड्स, पावर शेयर 4-3 फीसदी गिरे। मेटल, हेल्थकेयर, तकनीकी, पीएसयू, ऑटो, आईटी शेयर 2.75-1.5 फीसदी कमजोर हुए।
बाजार की चाल
मजबूत एशियाई संकेतों की वजह से बाजारों ने बढ़त के साथ शुरुआत की। लेकिन, रुपये में कमजोरी आने की वजह से शुरुआती कारोबार में ही बाजार फिसले।
कारोबार के पहले 2 घंटों में रुपये के 67 के करीब पहुंचने से बाजारों में 1 फीसदी तक की गिरावट आई। सेंसेक्स करीब 150 अंक गिरा और निफ्टी 5500 के स्तर पर पहुंचा।
इसके बाद देश की रेटिंग घटने के खतरे से बाजार में गिरावट गहराई। दिन के ऊपर स्तरों से सेंसेक्स 521 अंक और निफ्टी 160 अंक टूटे। रुपया भी 67 का अहम स्तर पार कर गया।
कारोबार के आखिरी घंटे में सीरिया पर हमले की खबर से बाजारों में हाहाकार मच गया। साथ ही, रुपये के 68 के पार चले जाने से भी बाजार पर दबाव बना।
बाजार 4 फीसदी तक लुढ़के। सेंसेक्स 720 अंक टूटा। निफ्टी 225 अंक से ज्यादा गिरकर 5324 के स्तर पर पहुंच गया। मिडकैप शेयर भी 2.5 फीसदी टूटे।
क्या गिरा, क्या चढ़ा
बैंक शेयरों में एक्सिस बैंक, यस बैंक, इंडसइंड बैंक, बैंक ऑफ इंडिया, पीएनबी, केनरा बैंक, यूनियन बैंक, आईसीआईसीआई बैंक, कोटक महिंद्रा बैंक, एचडीएफसी बैंक, एसबीआई, बैंक ऑफ बड़ौदा 10.5-3.5 फीसदी लुढ़के।
सूत्रों के मुताबिक सरकार की एफपीओ के जरिए पावर ग्रिड की 5 फीसदी हिस्सेदारी बेचने की योजना है। पावर ग्रिड करीब 3 फीसदी टूटा।
डीएलएफ, रिलायंस इंफ्रा, रिलायंस इंडस्ट्रीज, हीरो मोटो, रैनबैक्सी, एशियन पेंट्स, एचडीएफसी, जेपी एसोसिएट्स, आईडीएफसी, भारती एयरटेल, हिंडाल्को, ग्रासिम, एचयूएल, एलएंडटी, आईटीसी, एनएमडीसी जैसे दिग्गज 8.5-4.5 फीसदी लुढ़के।
मिडकैप शेयरों में वोल्टास, ऑप्टो सर्किट्स, जेएसडब्ल्यू एनर्जी, रिलायंस कैपिटल, यूनिटेक, क्रॉम्प्टन ग्रीव्स, जेएसडब्ल्यू स्टील, पुंज लॉएड, हिंदुस्तान जिंक, रिलायंस पावर 7.5-6 फीसदी टूटे।
पर्यावरण मंत्रालय ने अदानी पोर्ट्स पर 200 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया है। अदानी पोर्ट्स 6.5 फीसदी और अदानी एंटरप्राइसेज 3 फीसदी गिरे।
सुप्रीम कोर्ट ने 2जी घोटाले के आरोपी शाहिद बलवा, विनोद गोयनका और राजीव अग्रवाल की याचिका खारिज की है। डीबी रियल्टी में करीब 1.5 फीसदी की कमजोरी आई।
तेल कंपनियों ने एटीएफ के दाम 7 फीसदी बढ़ा दिए हैं और अब एटीएफ की कीमतें रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई हैं। स्पाइसजेट 2 फीसदी टूटा। जेट एयरवेज में 0.25 फीसदी की बढ़त रही।
नेशनल स्पॉट एक्सचेंज (एनएसईएल) का आज तीसरा पे-आउट है, जिसमें एक्सचेंज को 174 करोड़ रुपये लौटाने हैं। फाइनेंशियल टेक 2 फीसदी गिरा। हालांकि, एमसीएक्स 5 फीसदी चढ़ा।
निफ्टी शेयरों में 50 में से सिर्फ 3 ही शेयर हरे निशान में बंद हुए। लुपिन 2.5 फीसदी चढ़ा।
रुपये में भारी गिरावट और कच्चे तेल में तेजी आने की वजह से केर्न इंडिया 1 फीसदी मजबूत हुआ।
खबर है कि कोल इंडिया के बायबैक पर 2 हफ्तों में फैसला हो सकता है। कोल इंडिया में भी 1 फीसदी की तेजी आई।
रेडिको खेतान अपनी 26 फीसदी हिस्सेदारी जापान की सुनटोरो होल्डिंग्स को 870 करोड़ रुपये में बेचने के विचार में है। रेडिको खेतान 5 फीसदी उछला।
अंतर्राष्ट्रीय संकेत
सुस्त शुरुआत के बाद यूरोपीय बाजारों में कमजोरी बढ़ी है। सीएसी और डीएएक्स में 0.5 फीसदी से ज्यादा की गिरावट है। एफटीएसई 0.25 फीसदी फिसला है।
एशियाई बाजारों में निक्केई 3 फीसदी चढ़ा। शंघाई कंपोजिट, हैंग सैंग, ताइवान इंडेक्स, कॉस्पी 1-0.5 फीसदी मजबूत हुए। स्ट्रेट्स टाइम्स में सुस्ती रही।
अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये में 3 फीसदी से ज्यादा की गिरावट आई है। रुपये ने 68 के अहम स्तर को पार लिया है। सोमवार को रुपया 66 पर बंद हुआ था।
नागरिकों के लिए बेमायने हैं
तमाम अधिकार
अधिकार किसी भी बहाने
कभी भी हो सकते हैं निलंबित
सूचना का अधिकार चाटते रहो जनाब
विरोध किया अरुणा राय ने
तो किनारे कर दी गयी फटाक से
निजता के अधिकार की आंच
जब स्पर्श करने लगी उन्हें
तो लो एक और रक्षा कवच
उन्हीं के लिए
शिक्षा का अधिकार अब सर्वशिक्षा
पाठशाला में जहरीला खाना है
मर जाये हमारे बच्चे तो भी भला
दावा नहीं करेंगे रोजगार का
दावा नहीं करेंगे समता,न्याय का
कानून के राज का
जिंदा भी रहे तो शिक्षा उन्हें बना देगी
डिग्री धारी उपभोक्ता
गैरजरुरी जरुरतों की लिस्ट लिये
बिना क्रयशक्ति मारा मारा
भटकता रहे बाजार
और चलता रहे उनके गुलशन
का अबाध वर्चस्व कारोबार
खाद्य सुरक्षा देने से पहले गरीबी की
परिभाषा ही बदल दी
जनवितरण प्रणाली से
कुछ भी नहीं मिलता
अनाज सड़ता गोदामों में
अब बताओ और क्या क्या
अधिकार चाहिए
जोर से बोलो अम्मा की जय
गरीबी हचटेगी इसी तरह
इस श्मशान वधस्थल में
तेलयुद्ध सिर्फ इराक में लड़ा नहीं जाता
तेलयुद्ध सिर्फ सीरिया में लड़ा नहीं जायेगा
तेलयुद्ध सिर्फ लीबिया में लड़ा नहीं जाता
हम दुनिया के हर कोने में
और भारत में भी
बंगाल की भुखमरी की तरह
बिना कोई बम गिराये
मार दिये जा रहे हैं तेलयुद्ध में
लगभग 48,000 परिणाम (0.52 सेकंड)
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अभी हिमालयी सुनामी से पहले और आईपीएल प्रकरण के अवसान से पहले अमेरिकी सरकार की ओर से इंटरनेट पर खुफिया निगरानी की प्रिज्म योजना का खुलासा हो गया तो पूरे विश्व में हंगामा हो गया। चूंकि उसके ग्राफिक्स और तमाम सबूतों को रखना था, जिनके अमेरिकी स्रोत अमेरिका था, इसलिए इसपर मैंने अंग्रेजी में लिखा था। फिर हिमालय में सुनामी आ गयी तो इल प्रकरण पर हिंदी में भी लिखने की फुरसत नहीं है। हर भारतीय की तरह हमारे लिए भी सर्वोच्च प्राथमिकता अपना घर है, जो निःसंदेह हिमालय है। लेकिन इस मामले ने जागरुक नागरिकों का ध्यान जरुर खींचा।
देश के सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दायर हो गयी। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने इस युक्ति से खारिज कर दिया कि इसमें भारत सरकार की कोई भूमिका नहीं है। राजनीति और अरजनीति दोनों ने रहस्यमय चुप्पी साध ली। जैसे अमेरिकी प्रिज्म से उनका कद बड़ रहा हो।
नागरिकता, नागरिक संप्रभुता और निजता के अधिकार के लिए इस देश के तमाम जनसंगठन लगातार आंदोलन कर रहे हैं। हम भी सिर्फ लेखन तक विरोध नहीं कर रहे हैं। इसके खिलाफ हम सड़कों पर है। क्योंकि इसका असर सबसे ज्यादा हमारे स्वजन यानि आदिवासी समाज, शरणार्थी, बंजारा , अछूत और शहरों के बस्तीवासी होंगे।
लेकिन
पारदर्शिता को बढ़ावा देने में सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून की भूमिका की सराहना करते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने किसी नागरिक के 'निजता के अल्लंघनीय अधिकार' के संरक्षण के लिए पर्याप्त उपाय किए जाने की जरूरत पर जोर दिया।
राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि सूचनाओं से लैस नागरिक तैयार करने के लिए सरकार को हरसंभव कदम उठाने चाहिए क्योंकि लोकतंत्र के संचालन के लिए यह काफी अहम है ।
मुखर्जी ने सोमवार को अपने भाषण में कहा, 'पारदर्शिता एवं लोकतंत्र के प्रति हमारे उत्साह से कहीं ऐसा न हो कि हम एक क्षण के लिए भी इस तथ्य की अनदेखी कर बैठें कि इन सभी व्यवस्थाओं के केंद्र में मौजूद नागरिक भी एक व्यक्ति है जिसके निजता के कुछ अल्लंघनीय अधिकार हैं।'
केंद्रीय सूचना आयोग के सालाना सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि आरटीआई कानून में ऐसे प्रावधान हैं जो निजता के मुद्दों से जुड़े हुए हैं पर अब भी ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां और स्पष्ट होने की जरूरत है।
राष्ट्रपति ने कहा, 'सार्वजनिक और निजी के बीच बहुत ही कम फर्क है। शायद एक ऐसी व्यवस्था बनाने की जरूरत है जिससे किसी व्यक्ति की निजता के उल्लंघन की स्थिति में उसे कानूनी माध्यमों से अपने अधिकारों के संरक्षण का मौका मिले।'
राष्ट्रपति ने आंकड़ों को रखने के लिए सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकियों के प्रभावी इस्तेमाल की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि आंकड़ा प्रबंधन व्यवस्था में सुधार और दस्तावेजों के कंप्यूटरीकरण से नागरिकों को अब अपने अनुरोधों की मौजूदा स्थिति का पता अपने आप ही लग जाएगा।
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जल जंगल जमीन और नागरिकता से बेदखली का सबसे कारगर हथियार है गैरकानूनी कारपोरेट बायोमेट्रिक नाटो आविस्कृत आधार योजना ,जिसे खुद अमेरिका, ब्रिटेन , जर्मनी समेत विकसित विश्व ने नागरिकों की निजता और संप्रभुता के सवाल पर रद्द कर दिया है। ब्रिटेन में आधा काम हो जाने के बावजूद इस योजना को रद्द करना पड़ा क्योंकि इसके विरोध में सरकार ही उलट दी गयी।
भारत में न सिर्फ नागरिकता, निजता और संप्रभुता का अपहरण हो रहा है बल्कि इसके तहत देश के हर हिस्से में अबाध पूंजी प्रवाह की तरह अबाध बेदखली अभियान जारी है, देश ऩिकाला जारी है और नरसंहार जारी है। फिरभी हमारी बड़बोली राजनीति और अराजनीति पूरे एक दशक खामोश है।
नागरिक और मानव अधिकार किसी भी हाल में निलंबित नहीं किये जा सकते। यह सभ्यता और लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है। फर लोकघणराज्य भारत में जहां 1958 से सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार कानून जैसा नरसंहार संस्कृतिसहायक विरासत बनी है, देश के तमाम आदिवासियों के किलाफ राष्ट्र ने बाकायदा युद्धघोषणा कर दी है, आधा से ज्यादा भूगोल नस्ली भेदभाव के तहत अस्पृश्य है, प्रकृति से हर कही बलात्कार परंपरा है और प्राकृतिक संसाधनों की लूटखसोट के लिए रोजाना रंग बिरंगे अभियान के तहत संसदीय सहमति से आम जनता का खुला आखेट चला रहा है, तो नागरिक अधिकार और मानव अधिकार अप्रासंगिक हो गये हैं। अप्रासंगिक हो गये हैं लोकगणराज्य, संसदीय लोकतंत्र और संविधान। सर्वत्र कारपोरेट राज।
लेकिन कारपोरेट के व्याकरण का भी खुला उल्लंघन हो रहा है। देश अगर खुला बाजार है और नागरिक अगर उपभोक्ता और क्रयशक्ति धारक क्रेता, तो कारपोरेट व्याकरण के हिसाब से उसके अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए।ऐसा भी नहीं हो रहा है।
नागरिकों को अनिवार्य सेवाएं शिक्षा, कानून व्यवस्था के तहत सुरक्षा, चिकित्सा, बैंकिंग, यातायात और देश में कहीं भी अबाध आवागमन का अधिकार होना चाहिए। यूरोप जैसे परस्परविरोधी शत्रुता के महादेश में राजनीतिक सीमाएं लोगो के आवागमन को अवरुद्द नहीं करती। पर इस देश में बायोमेट्रिक नागरिकता अपनाने के बाद बैंक खाता हो या गैस सिलिंडर, बिजली पानी हो या बच्चों का दाखिला हर कहीं अपनी संप्रभुता और निजता के अपहरण के बाद दागी अपराधियों की तरह आपके हथेलियों और आंखों की पुतलियों की छाप अनिवार्य है। नागरिक रोजगार और व्यवसाय के लिए अन्यत्र आ जा नहीं सकते। बसवास नहीं कर सकते।
नकद सब्सिडी के साथ आधार कार्ट नत्थी करके जरुरी और अनवार्य सेवाओं के निलंबन से क्या नागरिकता नागरिक व मानव अधिकारों का हनन नहीं हो रहा है?
यहीं नहीं, मजदूरी, वेतन और भविष्यनिधि का भुगतान आधार योजना से अवैध तौर पर जोड़कर विलंबित या स्थगित करने का नागरिक विरोधी , संविधान विरोधी मानवता विरोधी कारोबारविरोधी अपराध सर्वदलीय सहमति से आंतरिक सुरक्षा और राष्ट्रहित के नाम पर किये जा रहे हैं।
मालूम हो कि इस पूरी प्रक्रिया की शुरुआत तत्कालीन गहमत्री लालकृष्ण आडवानी ने नागरिकता संशोधन विधेयक पेश करके किया, जिसका संसद में किसी दल ने विरोध नहीं किया। जनसुनवाई की औपचारिकता हुई लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। तब संसदीय समिति के अध्यक्ष बतौर मौजूदा राष्ट्रपति व तत्कालीन विपक्ष के नेता प्रणव मुखर्जी ने कानून बनाने की प्रक्रिया को अंजाम दिया। इसमें वामपंथियों, समाजवादियों और अंबेडकरवादियों की जितनी सहमति थी, उतनी ही आम राय थी अनुसूचित जनजातियों, अनुसूचित जातियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यक समुदायों के नेताओं की।
अमरीश कुमार त्रिवेदी ने लिखा हैः
कोई ढाई साल पहले विशिष्ट पहचान प्राधिकरण यानी यूनीक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी (यूआइडीआइए) का गठन किया गया था। इसका मकसद नागरिकों की पहचान और सामाजिक योजनाओं का लाभ उन तक पहुंचाने के लिए एक सुरक्षित तकनीकी बॉयोमेट्रिक डाटाबेस मुहैया कराना था। नॉसकॉम के पूर्व सहसंस्थापक नंदन नीलकेणी को इसका निदेशक बनाकर पांच साल में करीब 60 करोड़ लोगों को विशिष्ट पहचान पत्र यूआइडी या आधार कार्ड देने का लक्ष्य रखा गया। यूआइडी को शुरुआती तौर पर 3,000 करोड़ रुपये का बजट निर्धारित किया गया। हालांकि अब सरकार के भीतर से ही योजना के औचित्य पर सवाल उठने लगे हैं। योजना आयोग, गृह मंत्रालय के बाद वित्त मंत्रालय से संबंधित संसद की स्थायी समिति ने भी सुरक्षा जोखिम, निजता के संरक्षण के प्रावधानों की कमी और फिंगर प्रिंट और पुतलियों के स्कैन की तकनीक को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है। संसदीय समिति ने नेशनल आइडेंटिफिकेशन विधेयक को खारिज कर दिया है। हालांकि प्रधानमंत्री की दिलचस्पी और दखल से यूआइडीआइए को व्यापक अधिकारों के साथ यह जिम्मेदारी दी गई थी। अब कुछ केंद्रीय मंत्री ही कह रहे हैं कि आधार कार्ड नागरिकता या सामाजिक योजनाओं का लाभ पाने की गारंटी नहीं है।
आधार समर्थकों का तर्क है कि यूआइडीआइए को मिली स्वायत्तता से नौकरशाही छटपटा रही है और यही विरोध की वजह है। संसद में कोई विधेयक पारित किए बिना यूआइडी को इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपना, 3,000 करोड़ का बजट देना और कार्यक्षेत्र में स्वायत्तता देना मंत्रालयों को अखर रहा है। इन तर्को में भी दम नजर आता है, लेकिन कानून बनाकर कर यूआइडी को तमाम जिम्मेदारी दी जाती तो शायद आज ये आपत्तियां सामने नहींआतीं। केंद्र सरकार ने यूआइडीआइए के नीति निर्धारण, निगरानी के लिए जो मंत्रिसमूह गठित किया था, उसके सदस्य और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और गृहमंत्री पी चिदंबरम ने योजना पर दोबारा विचार करने की आवाज उठाई है, जो गंभीर सवाल खड़े करता है। माना जा रहा है कि यूआइडीआइए धीरे-धीरे योजना के तहत देश की पूरी आबादी को इसके तहत लाना चाहती है। इसका खर्च 50,000 करोड़ रुपये आंका जा रहा है। अगर सरकार ने स्थायी समिति की सिफारिशें मानीतो विधेयक लटक जाएगा और फंडिंग रुक जाएगी। सिफारिशें दरकिनार हुई तो मामला सरकार के गले की फांस बन सकता है।
आधार कार्ड के लिए सबसे बड़ा तर्क दिया जा रहा है कि इससे सामाजिक योजनाओं का लाभ गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों को चिह्नित करने में मदद मिलेगी। पीडीएस की जगह कैश सब्सिडी दिए जाने की जो योजना है। कहा जा रहा है कि आधार भी एक ऐसे स्मार्ट कार्ड का रूप लेगा और गरीबों तक सीधे मदद पहुंचाई जा सकेगी, लेकिन ऐसे सुनहरे ख्वाब पर अब धुंधले बादल गहराते जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि बॉयोमेट्रिक तकनीक के तहत इकट्ठा डाटाबेस का दुरुपयोग भी हो सकता है। खुद चिदंबरम ने नागरिकों की निजी जानकारी इकट्ठा करने के यूआइडीआइए के तौर-तरीकों पर अंगुली उठाई है। आश्चर्य है कि मंत्रिसमूह या यूआइडी पर बनी सचिवों की समिति ने इस महत्वपूर्ण पहलू पर विचार क्यों नहींकिया? यूआइडीआइए को प्रारंभ में सिर्फ 20 करोड़ आबादी के बॉयोमेट्रिक डाटा एकत्र करने का जिम्मा दिया गया था और बाद में यह काम गृह मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय आबादी रजिस्टर को सौंपा जाना है, मगर आशंका व्यक्त की जा रही है कि यूआइडी पूरी आबादी के लिए गणना और पहचान कार्य को अपने हाथों में लेना चाहता है। इससे राज्य और संबंधित एजेंसियां पसोपेश में हैं कि वे राष्ट्रीय आबादी रजिस्टर या आधार में किसकी प्रक्रिया का पालन करें। गृह मंत्रालय का तर्क है कि आधार कार्ड पाने के लिए भी फर्जी जानकारियों और पहचान पत्रों का इस्तेमाल मुमकिन है।
निजी जानकारियों को लेकर मूल अधिकारों के उल्लंघन का सवाल भी है। कई पश्चिमी देशों ने इसी वजह से यूआइडी जैसा पहचान पत्र बनाने का ख्याल छोड़ दिया। डाटाबेस की मदद से स्मार्ट कार्ड और ई-गर्वनेंस के लाभ को जनता तक पहुंचाने का इरादा है। जाहिर है, इसमें निजी एजेंसियां भी हाथ बंटाएंगी। इससे निजता भंग होने की आशंका भी बढ़ जाएगी। बहरहाल, इतने बड़े प्रोजेक्ट, उसकी लागत और उपयोगिता के बारे में मंत्रिसमूह द्वारा व्यापक विचार-विमर्श न किया जाना अरबों-खरबों रुपये की बर्बादी का सबब बन सकता है।
'लोक प्रतिनिधित्व (संशोधन और विधिमान्यकरण) विधेयक-2013 विधेयक भी हो गया पास
``लोक प्रतिनिधित्व (संशोधन और विधिमान्यकरण) विधेयक, 2013'' में जेल में बंद होने के दौरान चुनाव लड़ने तथा अपील के लंबित होने के दौरान सांसदों एवं विधायकों की सदस्यता बरकरार रखने की अनुमति देने का प्रावधान है, लेकिन इस दौरान उन्हें मतदान और वेतन हासिल करने का अधिकार नहीं रहेगा।
विधेयक संसद से पारित होने के बाद अगर कानून बनेगा तो यह 10 जुलाई 2013 से लागू होगा। 10 जुलाई 2013 को न्यायालय ने दो निर्णय दिये थे जिनके तहत दोषी साबित किये गये सांसदों एवं विधायकों की सदस्यता को समाप्त करने तथा ऐसे लोगों के जेल से चुनाव लड़ने पर रोक लगायी गयी है।इन प्रावधानों वाले लोक प्रतिनिधित्व ःसंशोधन और विधि मान्यकरणः विधेयक को कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने कल सदन के पटल पर रखा था।
जेल में रहते हुए चुनाव लड़ने पर रोक के आदेश को त्रुटिपूर्ण बताते हुए कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा है कि अदालतें राजनीतिकों को अपराधियों की तरह पेश कर रही हैं।
अदालतों को देश की राजनीति पर असर डालने वाले फैसले देते समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों को बेअसर करने के मकसद से राज्यसभा में लोक प्रतिनिधित्व (संशोधन और विधिमान्यकरण) विधेयक पेश करते हुए सिब्बल ने कहा कि देश में यह आम धारणा बन गई है कि सारे नेता अपराधी हैं। और अदालतें भी हमें यह साबित करने के लिए बेताब हैं, जबकि हम ऐसे नहीं हैं।
लेकिन
उच्चतम न्यायालय में आज उद्योगपति रतन टाटा के वकील ने नीरा राडिया के टेलीफोन टैपिंग में रिकॉर्ड की गयी बातचीत के अंश लीक होने की जांच के प्रति सरकार के रवैये को ढुलमुल बताते हुए उसकी आलोचना की। इस सुनवाई के दौरान न्यायालय में रतन टाटा खुद भी उपस्थित थे।
न्यायमूर्ति जी एस सिंघवी और न्यायमूर्ति के एस राधाकृष्णन की खंडपीठ के समक्ष रतन टाटा की ओर से पैरवी कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने अदालत से यह सुनिश्चित करने का निर्देश जारी करने का अनुरोध किया कि सरकारी एजेन्सियों द्वारा टैप की गयी बातचीत लीक नहीं हो और इसका दुरूपयोग नहीं होने पाए। साल्वे ने न्यायालय से अनुरोध किया कि इन टेपों के विवरण की छानबीन के लिये एक स्वतंत्र समीक्षा समिति गठित की जाये जो इस बातचीत को संरक्षित करने या नष्ट करने के बारे में निर्णय करे। सिलेटी रंग के सूट में रतन टाटा सुबह 11 बजे न्यायालय पहुंचे और उन्होंने करीब दो घंटे तक बहस सुनी। इस दौरान साल्वे ने निजता के अधिकार की रक्षा पर जोर दिया।
बाद में टाटा संस ने एक बयान में कहा, रतन टाटा ने इस मामले में सिद्धांत रूप में यह याचिका दायर की है। उनका मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति के लिये निजता का अधिकार महत्वपूर्ण है और वह इस मामले की प्रगति पर नजर रखे हुए हैं। साल्वे ने कहा कि एक स्वतंत्र समिति के गठन की आवश्यकता है क्योंकि टैप की गयी वार्ताओं की समीक्षा के लिये बनी समिति के अध्यक्षत कैबिनेट सचिव हैं जिनके लिए व्यस्तताओं के कारण देश भर में टेलीफोन टैपिंग के तमाम मामलों को देख पाना मुश्किल है।
साल्वे ने कहा कि इस लीक के स्रोत का पता लगाने के प्रति सरकार का रवैया उदासीनतापूर्ण है। सरकार ने बहुत ही सावधानी ने आयकर विभाग और टैपिंग करने वाले उसके अधिकारियों को बचाने के लिये सफाई दी है। वे खुद को क्लीन चिट देना चाहते हैं और उंगली सीबीआई की ओर उठा रहे हैं। साल्वे ने कहा, यह सूचना प्रकाश में आने के बाद सरकार ने क्या किया। सरकार में किसी न किसी को तो चिंतित होना चाहिए था। यदि इस तरह की सूचनाएं लीक हो सकती हैं तो फिर कुछ भी लीक हो सकता है।
पीठ इस तर्क से सहमत थी कि बहुत बड़ी संख्या में टेलीफोन वार्ताएं टैप की जा रही हैं। ऐसे में ऐसी अनेक समितियां गठित करने की जरूरत है जो सभी मामलों की समीक्षा कर सकें। साल्वे ने कहा कि टाटा की याचिका राडिया के साथ उनकी व्यक्तिगत बातचीत प्रकाशित करने से मीडिया को रोकने के लिये नहीं बल्कि देश के नागरिकों के निजता के अधिकार की रक्षा के लिये है।
उन्होंने कहा, इस पूर्णकालिक कार्य के लिये एक संस्था की आवश्यकता है, ऐसा करके ही ऐसे मामलों के लिये पर्याप्त समय दिया जा सकता है। मौजूदा माहौल में यही सर्वोत्तम है कि सरकार को समीक्षा समिति से बाहर रखा जाये। साल्वे ने कहा कि कारपोरेट जगत की तमाम हस्तियों के विभिन्न मीडिया घरानों में भागीदारी है और वे एक दूसरे से हिसाब चुकता करने के लिये इसका दुरूपयोग कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि प्रेस की आजादी और व्यक्ति की निजता के अधिकार के बीच संतुलन बनाना जरूरी है।
साल्वे ने कहा कि ऐसी गतिविधियों का आडिट करने की जरूरत है ताकि लोगों के निजता के अधिकार की सही तरीके से रक्षा की जा सके। उन्होंने कहा कि टेलीफोन टैप कराना सरकार की प्रवृत्ति है लेकिन निजता के अधिकार और विवरण प्रकाशित करने के मीडिया के अधिकार में संतुलन बनाना भी जरूरी है।
राडिया के टैप के संदर्भ में शीर्ष अदालत को सौंपी गयी सीबीआई की गोपनीय रिपोर्ट लीक होने की पृष्ठभूमि में जांच एजेन्सी ने कहा कि इस मामले की जांच की आवश्यकता है। जांच ब्यूरो की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता के के वेणुगोपाल ने कहा, इसकी जांच करनी होगी। दस्तावेज गोपनीय थे और सिर्फ न्यायाधीशों के लिए थे। यह न्यायालय की संपत्ति है। यह लीक नहीं होनी चाहिए थी। इसकी जांच करनी होगी।
कानूनों को कुंद कराने की यह कैसी मुहिम
अनूप भटनागर।।
जैसी उम्मीद थी, ठीक वैसा ही हुआ। सूचना के अधिकार कानून को कुंद करने के लिए अंततः सत्तारूढ़ यूपीए और प्रमुख विपक्षी दलों ने अभूतपूर्व एकजुटता दिखा ही दी। काश! उन्होंने इसी तरह की एकजुटता महिला आरक्षण विधेयक, लोकपाल विधेयक तथा उत्तराखंड में आई आपदा के दौरान भी दिखाई होती। सरकार ने सूचना का अधिकार कानून में संशोधन कर राजनीतिक दलों को इसके दायरे से बाहर रखने के लिए संसद में विधेयक पेश कर दिया है, हालांकि कुछ दल इसके पक्ष में नहीं हैं। विधेयक के अनुसार जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 के तहत राजनीतिक दल के रूप में पंजीकृत या मान्यता प्राप्त संगठनों को लोक प्राधिकार नहीं माना जाएगा।
संसद से पारित होने के बाद यह प्रावधान पिछली तारीख से प्रभावी होगा यानी इससे केंद्रीय सूचना आयोग का निर्णय निष्प्रभावी हो जाएगा। अधिकांश दलों को चिंता सता रही है कि उन्हें मिलने वाली आर्थिक मदद के स्त्रोतों को किस तरह भगवान रूपी मतदाताओं की नजरों से बचाया जाए। सवाल उठता है कि चंदा देने वाले स्त्रोतों का खुलासा होने पर उन्हें किसका डर सता रहा है? व्यापारियों और उद्यमियों की पार्टी के रूप में चर्चि बीजेपी का विरोध तो कुछ हद तक समझ में आता था, लेकिन सवा सौ साल पुरानी और गांधीजी के सिद्धांतों पर चलने का दावा करने वाली कांग्रेस भी इसके खिलाफ है, तो चिंता होना स्वाभाविक है।
बहुमत का बल केंद्रीय सूचना आयोग ने ही राजीव गांधी फाउंडेशन को राजनीतिक प्राधिकार घोषित करने के लिए दायर याचिका खारिज कर दी थी। स्थिति यह है कि राजीव गांधी फाउंडेशन के बारे में सूचना आयोग के रवैये के खिलाफ इस समय दिल्ली हाईकोर्ट में मामला लंबित है। सूचना आयोग के समक्ष खुद के राजनीतिक प्राधिकारी होने से इंकार करने और किसी भी तरह की सूचना उपलब्ध कराने से इंकार करने वाले राजीव गांधी फाउंडेशन को अब हाई कोर्ट ने 1991 से 2010-2011 की ऑडिट की हुई बैलेंस शीट दाखिल करने का निर्देश दे रखा है। इससे पहले भी देश की प्रशासनिक व्यवस्था में पारदर्शिता लाने और भ्रष्टाचार की समस्या पर काबू पाने के इरादे से बने इस कानून में संशोधन के लिए आवाज उठती रही है। पिछले साल निजता के अधिकार की रक्षा के नाम पर इसमें संशोधन की आवाज उठी थी। न्यायमूर्ति ए पी शाह की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञ समित ने इस बारे में अपनी रिपोर्ट भी सरकार को सौंपी थी।
इसके बावजूद सरकार ने संसद में स्पष्ट किया था कि सूचना का अधिकार कानून में संशोधन का कोई इरादा नहीं है। उसका कहना था कि इसमें व्यक्ति विशेष की निजता के संरक्षण की पर्याप्त व्यवस्था है। लेकिन राजनीतिक दलों को लोक प्राधिकार घोषित करने के सूचना आयोग के निर्णय के बाद सरकार और राजनीतिक दल इस कानून में संशोधन के लिए एकजुट हो गए।
एक और क्षेत्र ऐसा है जहां राजनीतिक दल इस तरह की अभूतपूर्व एकजुटता दिखा रहे हैं और वह है अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने के बावजूद सांसद और विधायक को संरक्षण प्रदान करने वाले जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) निरस्त करने तथा हिरासत में बंद व्यक्तियों को चुनाव लड़ने से वंचित करने संबंधी सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था। यह धारा निरस्त होने के बाद अब कोई भी सांसद या विधायक अदालत से दोषी ठहराए जाने के बाद सदन का सदस्य नहीं रह सकता है।
सरकार ने संकेत दिया है कि इन फैसलों पर पुनर्विचार के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जा सकता है और इसके अलावा उसके पास विधायी राहत का उपाय भी उपलब्ध है। यानी राजनीतिक दल एकजुट होकर संसद में इन फैसलों को निष्प्रभावी बनाने के लिए कोई कानून पारित करा सकते हैं।
रास्ता बंद नहीं सरकार चाहती है कि जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को निरस्त करने वाले निर्णय पर बड़ी संविधान पीठ विचार करे क्योंकि ऐसे ही एक मसले पर 2005 में संविधान पीठ अपनी व्यवस्था दे चुकी है। बहुमत और आम सहमति के बल पर ये राजनीतिक दल और इनके नेता संसद से विधेयक पारित कराके कानूनों में संशोधन करा सकते हैं लेकिन उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट में ऐसे कानून की न्यायिक समीक्षा का रास्ता हमेशा खुला रहता है। असम में विदेशी नागरिकों की पहचान कर उन्हें बाहर निकालने के मामले में सरकार के अडि़यल रुख के बाद सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक व्यवस्था जगजाहिर है।
नवभारत टाइम्स | Aug 26, 2013, 05.29AM IST
Boycott UID/Aadhaar Number
By Gopal Krishna
27 September, 2011
Countercurrents.org
This is to appeal to you and to draw your most urgent attention towards the world's biggest database project unfolding through Unique Identification (UID)/Aadhaar Number in India without legislative approval since January 2009. It is about a 12-digit identification number which is linked to the National Population Register (NPR), Census and National Intelligence Grid (NATGRID) under Home Ministry among other initiatives.
Montek Singh Ahluwalia and P. Chidambaram have recommended the cut in the budget of Unique Identification Authority of India (UIDAI) because of "unnecessary spending" by it. UIDAI operates under the same Planning Commission that has filed an affidavit in the Supreme Court in the PUCL vs Union of India & Others wherein it has said that any citizen who spends more than Rs 965 per month in urban India (around Rs.32 per day) and Rs 781 in rural India (around Rs.26 per day) "at June 2011 price level" would be considered not to be poor. It is the same agency that claims that UID scheme is for providing social services to the poor.
The UIDA had asked for Rs 3,500 cr for 2012-13, but the Planning Commission has recommended a figure of Rs 1,400 cr. UIDA was given Rs 3,000 cr for fiscal 2011-2012. The proposal has been forwarded to the Ministry of Finance for final approval.
The Ministry of Home Affairs wants to curb UID/Aadhaar Number's scope to promote its own National Population Register (NPR), which is tasked to collect information about Indian citizens in a similar manner. At present both UIDAI under Nandan Manohar Nilekani and NPR under C Chandramouli, the Census Commissioner are collecting demographic details along with biometric data. In a classic case of pretending ignorance the Ministry of Home Affairs has questioned the legality of UIDAI. "Until the NIAI Bill 2010, is passed by parliament the UIDA does not become an authority, and should not be allowed to function so independently". The fact is Union Home Minister is a member of the Cabinet Committee on UID Authority and related matters and he was also the member of the Empowered Group of Ministers that decided both the initiative of NPR and UID. Revealing the sad state of affairs even without the passage of any legislation from the Parliament, UIDA has issued 1 crore UID/Aadhaar Numbers and plans to issue 60 crore UID/Aadhaar Number by 2014.
This project has been implemented in Pakistan under its Home Ministry. In India, NATGRID Chief Executive Officer, Capt Raghu Raman has proposed intervention of commercial czars and creation of private territorial armies in a a document titled "A Nation of Numb People".
It may be noted that ASSOCHAM, representing 3 lakh companies and KPMG, a Swiss consultancy have underlined the ramifications of UID number in their report titled "Homeland Security in India".. Union Ministry of Home Affairs, Annual Report, 2010 claims NATGRID will be started in 2011 after "approval from the competent authority (Union cabinet)". When Hard News, a news magazine asked Nilekani about the relationship of UID/Aadhaar Number, his response was "No comments".
It may be noted that we already have at least 15 identity proofs including Voter I card. What creates a compelling logic for a 16th identity proof?
Providing bio-metric data like finger prints of ten fingers, iris scan etc for the identification number to public and private institutions is akin to wearing a radio collar. This is an act of subjecting oneself to constant surveillance which in itself is a dehumanizing act. How can students submit themselves to such indignity unthinkingly.
It is quite alarming that the enrollment for it has started where gullible citizens and even chief ministers are queuing up for it not knowing its dangerous implications. Similar identification schemes have been rejected by in China, UK, Phillipines, Australia and USA. Pakistan has been awarded for the successful implementation of identification project. According to World Bank, it is unfolding in 14 developing countries like Nepal, Bangladesh, Uganda.
The National Identification Authority of India (NIAI) Bill, 2010 for UID/Aadhaar Number is pending with the Parliamentary Standing Committee on Finance. We have given testimony to it. Its classic case of putting the cart before the horse wherein the project precedes the legislation. The Bill does not define bio-metric data implying that it could include DNA profiling and voice identification. Section 57 of the Bill reveals that the Indian National Congress led UPA government holds Parliament in contempt. It is also linked to several other proposed legislations and initiatives.
Bio-metric identification based UID/Aadhaar Number for residents of India is essentially a surveillance project which will last for centuries to come. It is an assault on the human rights of present and future citizens of India. It is being bulldozed down our throats at behest of US bio-metric technology companies which manifestly work with intelligence agencies. This will neutralize political resistance in India to a huge extent. It will ensure profiling of minorities of all ilk for good.
The entire data base of UID/Aadhaar Number will be stored in a Central Identities Data Repository (CIDR) which will be handed over to US based security, intelligence and bio-metric technology companies like Accenture Services Pvt Ltd and L1 Identities Solution Pvt Ltd as per a contract awarded to them on July 30, 2010. It is germane to recollect that Wikileaks' latest disclosure reveals that former Egyptian President, Hosni Mubarak had transferred the identity database of Egyptians to US Federal Bureau of Investigation. Is it not relevant to this so called e-governance initiative of UPA Government?.
I also wish to draw your considered attention towards the manifesto titled "2083: A European Declaration of Independence" brought out by Norwegian gunman and neo-Crusader, Anders Behring Breivik who carried out the heinous attacks on his fellow citizens. This 1500 page manifesto refers to the word "identity" over 100 times, "unique" over 40 times and "identification" over 10 times. There is reference to "state-issued identity cards", "converts' identity cards", "identification card", "fingerprints", "DNA" etc. The words in this manifesto give a sense of deja vu.
In a significant development following rigorous deliberations, an Indian development support organization founded in 1960, Indo-Global Social Service Society (IGSSS) has disassociated itself from UID Number project which was being undertaken under Mission Convergence in Delhi. Withdrawal of IGSSS that works in 21 states of the country across four core areas India: Sustainable Livelihood, Youth Development, Disaster Risk Reduction, and Urban Poverty merits the attention of all the states and civil society organisations especially those who are unwittingly involved in the UID Number enrollment process.
In its withdrawal letter IGSSS said, "we will not be able to continue to do UID enrolment, as we discussed in the meeting of 10th May 2011." It added, it is taking step because `it's hosted under the rubric of UNDP's "Innovation Support for Social Protection: Institutionalizing Conditional Cash Transfers" [Award ID: 00049804, Project: 00061073; Confer: Output 1, Target 1.2 (a) & Output 3 (a), (b)]. In fact we had no clue of this until recently when we searched the web and got this information.'
A Statement of Concern calling for halting of UID Number project was issued in September 2010 by 17 eminent citizens led by Justice V R Krishna Iyer, Prof. Romila Thapar, Late K.G.Kannabiran, Prof. Upendra Baxi, Bezwada Wilson, Late S.R.Sankaran, Prof. Trilochan Sastry, Prof. Jagdeep Chhokar, Justice A.P.Shah among others at a Press Conference in New Delhi but corporate media chose to ignore it.
Let me also request you to forward this message to concerned legislators, lawyers, students, teachers and citizens for their perusal and consideration of this grave issue.
I can share more reference documents to enable the fellow citizens to adopt a resolution or issue a appeal calling for UID/Aadhaar Number boycott within our own states and spheres.
Gopal Krishna
Member, Citizens Forum for Civil Liberties (CFCL)
ToxicsWatch Alliance
New Delhi
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'Nandan Nilekani is subverting the Constitution' - Rediff.com News
05-02-2011 - Human Rights activist Gopal Krishna speaks at length to Prasanna D Zore on what ails the UID project and why he thinks it should be scrapped ...
UID/Aadhar | Bargad... बरगद...
bargad.org/category/uidaadhar/
24-03-2013 - World Bank paper reveals the ulterior motive behind UID related schemes.Gopal Krishna is an environmental and civil rights activist and can ...
UID Is A Dangerous Project: Gopal Krishna | Bargad... बरगद...
bargad.org/.../uid-is-a-dangerous-proje...
05-07-2011 - Paritosh Tyagi (PT), former Chairman, Central Pollution Control Board interviews Gopal Krishna (GK), Member, Citizens Forum for Civil ...
Gopal Krishna | kracktivist
kractivist.wordpress.com/.../gopal-krish...
17-09-2012 - Posts about Gopal Krishna written by kracktivist. ... The deceit in promoting UID as a pro-poor initiative needs to be exposed. The Monograph ...
Truth behind UID related schemes-Gopal Krishna - Im4change.org
19-10-2012 - Pratirodh.comBiometric data based 12 digit Unique Identification (UID)-Aadhaar Number linked welfare schemes is being bulldozed with 2014 ...
UID CARD-This card is Dangerous - YouTube► 24:53► 24:53
07-05-2012 - blackandwhitechauthi द्वारा अपलोड किया गया
UID CARD NDA UPA BJP Congress JDU BSP SP India CBI IB Crime Scam news Politics Political Party Baba ...
Is UID anti-people?–Part7: Incarnation of new geo-strategic tools ...
Gopal Krishna | 26/12/2012 01:09 PM |. NPR, NATGRID, NCTC and UID are unfolding without any legal mandate. It appears UID was, and remains, an attention ...
What's the 'Aadhaar' of the UID Scheme?
www.cpiml.org › ... › April_11
What's the 'Aadhaar' of the UID Scheme? Gopal Krishna. The national identity card scheme represents the worst of government. It is intrusive and bullying.
The trouble with big brother's eye - Tehelka - India's Independent ...
21-05-2011 - asks Gopal Krishna of the Citizens Forum for Civil Liberties. Krishna, who has been aggressively campaigning against the UID, says the Nazi ...
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nandigramunited: Palash Biswas, lashed out those 1% people in the ...
nandigramunited-banga.blogspot.com/.../palash-biswas-lashed-out-those-...
22-03-2013 - Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg ... Palash Biswas, one of the editors for Indian Express, a major daily from India ...
nandigramunited: THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ...
nandigramunited-banga.blogspot.com/.../the-himalayan-talk-palash-bisw...
30-06-2013 - Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg ... Nandan Nilekani appointed as Chairman of program to provide unique identification numbers ...
Twitter / sunil_abraham: Hindi Video: Palash Biswas ...
Sunil Abraham @sunil_abraham 27 Apr 10. Hindi Video: Palash Biswas On Unique Identity http://bit.ly/aZcZEz [Pt 1] http://bit.ly/9VHgrZ [Pt 2] #uid #india.
Palaash Tarapore - vebidoo people search
Palash Biswas. Hits. website hit counters: Palah Biswas On Unique Identity No1.mpg. Unique Identity No2. Please send the LINK to your Addresslist and send ...
Anarya Dravid Vanga Indigenous: Unique IDENTITY Number Project
anaryadravidvangaindigenous.blogspot...
21-01-2010 - Palash Biswas. Notification - Constituting the Unique IdentificationAuthority of India · Notification of appointment of Nandan Nilekani as the ...
palashscape: Fwd: [Say No to UID] New doc: Unique ID: There ...
palashscape.blogspot.com/.../fwd-say-n...
07-12-2010 - Subject: [Say No to UID] New doc: Unique ID: There should be participatory discussions. To: Palash Biswas <palashbiswaskl@gmail.com> ...
palashscape: Unique Identity crisis
palashscape.blogspot.com/2012/05/unique-identity-crisis.html
04-05-2012 - THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST... Biometric-based unique identity or Aadhaar is leading to huge ...
palashscape: Re: Please give suggestions for UID - India's Unique ...
palashscape.blogspot.com/.../re-please-...
21-01-2010 - www.karmayog.org/uid -- bringing out your unique identity. -- Palash Biswas Pl Read: http://nandigramunited-banga.blogspot.com/. Posted by ...
Know Your Unique ID - REIS
www.reis.railnet.gov.in/searchsql/Showuidallot.asp?rly=ER...ASN...
292, 1144032, SITANGSHU BISWAS, 01/09/1975, 01/02/2008, 00045354, NIKHIL ......1315, 1671458, PALASH GHOSH, 02/05/1985, 01/02/2007, 00065389 ...
My story Troubled Galaxy Destroyed dreams: Stop enrolment shivir ...
troubledgalaxydetroyeddreams.blogspot.com/.../stop-enrolment-shivir-of...
03-08-2013 - Recalling the Statement of Concern on Unique Identification (UID) Number/ Aadhaar ... 2013/8/2 Palash Biswas <palashbiswaskl@gmail.com>.
डेढ़ लाख करोड़ की एक संदिग्ध योजना
THURSDAY, 24 MAY 2012 11:35
रेल यात्रा में ई टिकट यात्रियों के पास फोटो पहचान पत्र न होने की स्थिति में उन्हें बिना टिकट माना जाता है. ऐसी स्थिति में जब यूआईडी योजना शुरू कर दी गयी है और यह पहचान जिनके पास नहीं होगी तब उन्हें किस जलालत से गुजरना पड़ेगा...
सुनील
भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण 12 अंकों का पहचान पत्र भारत सरकार ने अपने नागरिकों के पहचान के लिए जारी किया है. यूआईडी को लेकर प्रचार किया जा रहा है कि यह जिसके पास होगा उसी को सरकारी सेवाओं का लाभ उठा पायेगा. जबकि यह सीधे सीधे लोगों की निजता (व्यक्तिगत जानकारी) से जुड़ा हुआ मामला है. विशि'ट पहचान को लेकर ब्रिटेन जैसे देशों में चुनावी मुद्दा बना और सरकार वहां सत्ताधारी पार्टी की हार का एक मुख्य कारण बना. भारत में पहला यूआईडी कार्ड सोनिया गांधी द्वारा 29 सितम्बर, 2010 को महारा'ट्र के नन्दूरबार जिले के तमभली गांव की एक महिला को देकर शुभारम्भ किया गया था.
यूआईडी (आधार) कार्ड योजना को लागू करते समय इसके प्रमुख नंदन नीलकेणी ने जोर देते हुए कहा था कि यह स्वैच्छिक होगा, लेकिन जिस तरह से इसका प्रचार-प्रसार (इसकी जरूरत सभी सरकारी-अद्र्धसरकारी कार्यों में मान्य होगा) किया जा रहा है उससे यही लग रहा है कि यह अनिवार्य है.
यूआईडी तथा उसके अध्यक्ष नन्दन नीलकेणी को केन्द्रीय मंत्री का दर्जा प्राप्त है. लेकिन प्राधिकरण को किसी मंत्रालय के अन्तर्गत रखने के बजाय योजना आयोग के तहत रखा गया है जो कि संसद और सरकार के प्रति एक जवाबदेह संस्था नहीं है. एक समय इन्फोसिस कंपनी के सेल्स से जुड़े श्री नन्दन नीलकेणी विवादस्पद रहे हैं.
पूरी योजना पर डेढ़ लाख करोड़ खर्च किया जाना है. एक हजार बानबे करोड़ रुपया बजट में उपलब्ध कराया जा चुका है. 2012-13 के बजट में यूआइडी के मद में 1758 करोड़ रु. सरकार ने दिये हैं. प्राधिकरण देश के एक अरब पच्चीस करोड़ नागरिकों में से पांच वर्ष से अधिक उम्र के सभी नागरिकों को 12 अंकों का एक पहचान अंक उपलब्ध कराएगा, जिसके लिए हर नागरिक को दस ऊंगलियों के निशान तथा आंख की छवि देने के लिए मजबूर किया जाता है.
यूआइडी कार्ड के लिए प्रत्येक नागरिक पर 450 रुपये खर्च किये जाएंगे. सरकार के दावे के अनुसार यूआईडी परियोजना का उद्देश्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के लक्ष्य को बेहतर बनाना, नियामक उद्देश्य कराधान और लाईसेंसिंग, सुरक्षा उद्देश्य- बैंकिंग और वित्तीय क्षेत्र की गतिविधियां इत्यादि हैं. यूआईडीएआई को धीरे धीरे विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों व नियामक एजेंसियों साथ ही बैंकिंग वित्तीय सेवाओं, मोबाईल टेलिफोनों और अन्य क्षेत्रों की नियामक एजेंसियों तक विस्तारित किया जायेगा. सरकारी टिप्पणीकारों ने दलील दी है कि 12 अंको की यह पहचान गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों की बेहतर डिलीवरी सुनिश्चित करेगी. उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तिसगढ़ जैसे गरीब राज्यों में अबतक क्रमशः 4.39 प्रतिशत, 1.19 प्रतिशत और 1.07 प्रतिशत लोगों को यूआइडी कार्ड उपलब्ध हो पाया है.
अब तक सरकार पहचान के तौर पर चुनाव आयोग द्वारा तैयार किये गये मतदाता पहचान पत्र पर कार्य करती रही है. मतदाता पहचान पत्र बनाते हुए पन्द्रह वर्ष बीत गये लेकिन सभी जानते हैं कि अब तक साठ प्रतिशत मतदाताओं के परिचय पत्र नहीं बन सके हैं. चालीस प्रतिशत मतदाता चैदह किस्म के दस्तावेज लेकर वोट डालने के लिए मजबूर हैं.
हर बुथ से चुनाव के दिन तमाम ऐसे मतदाता वापस कर दिये जाते हैं जो अपनी पहचान स्थापित नहीं कर पाते. जब पन्द्रह वर्ष में चुनाव आयोग जैसी महत्वपूर्ण संस्था के मातहत इस योजना को पूरा नहीं किया जा सका तब यूआईडी परियोजना को पूरा करने में कितना वर्ष लगेगा ? विशेष तौर पर तब जब सरकार द्वारा यह कहा जा रहा है कि यूआईडी को अनिवार्य नहीं बनाया गया है.
लेकिनप जब सब कुछ 12 अंको से जोड़ दिया जायेगा तब बिना इस पहचान के किसी भी व्यक्ति की पहचान खतरे में पड़ जायेगी. जो लोग ई टिकट से यात्रा करते हैं उन्हें यह अच्छे से मालूम है कि वोटर आईडी कार्ड, बैक पासबुक, पासपोर्ट, ड्राइवरी लाईसेंस (सब कुछ फोटो के साथ) न होने की स्थिति में यात्री को बिना टिकट माना जाता है. ऐसी स्थिति में जब यूआईडी योजना शुरू कर दी गयी है तब जिन लोगों के पास यह पहचान नहीं होगी तब उन्हें किन समस्याओं का सामना करना पड़ेगा तथा किस जलालत से गुजरना पड़ेगा यह समझा जा सकता है.
पहले विश्वास पर सब चलता था, बाद में वह परिचय पत्र पर आधारित हो गया. अब वह आपके द्वारा पंजीकृत ऊंगलियों के निशान तथा आंखों के छवि पर निर्भर करेगा. ऊंगलियों के निशान उम्र के साथ बदलते हैं, मौसम, गीलेपन तथा वातावरण का भी असर पड़ता है. देश में साढ़े तीन करोड़ से अधिक मेहनतकश ऐसे हैं जिनकी ऊंगलियों के निशान धुमिल पड़ गये हैं. चर्म रोग से पीडि़त नागरिकों की संख्या भी लाखों में है.
पंजीयन के समय तो किसी तरह रसायन आदि का इस्तेमाल करके पंजीयन हो जायेगा लेकिन जब रोजगार गारंटी के तहत काम करने वाला मजदूर अपनी पहचान के आधार पर पैसा निकालना चाहेगा तब उसकी ऊंगलियों की मिट गयी रेखाएं उसे अपनी मजदूरी के भुगतान से भी वंचित कर देंगी इसी तरह देश में तीस लाख से अधिक ऐसे लोग हैं जिनके आंखों में कोर्निया संबंधी विकृतियां हैं. उनके साथ साथ दृष्टिहीन संख्या भी देश में 25 लाख से अधिक हैं वे सब अपनी पहचान स्थापित करने में कठिनाईयां झेलेंगे.
तकनीकी तौर पर यह साबित हो चुका है कि ऊंगलियों के निशान आसानी से बदले जा सकते हैं, केवल फेवीकाले का इस्तेमाल ही इसके लिए काफी है. आंखों की छवि भी कान्टेक्ट लेंस के माध्यम से आसानी से बदली जा सकती है. कान्टेकट लेंस की कीमत पांच सौ से पांच हजार के बीच होती है. ऐसी स्थिति में अपराध जगत से जुड़े लोग यूआईडी के चलते सुरक्षा एजेसियों के जाल में फंसने वाले नहीं हैं बल्कि उनके लिए अपनी पहचान बदल कर कानूनी चूनौती देना आसान हो जायेगा, लेकिन एक आम गरीब आदमी जरूर परेशानी में पड़ेगा.
विशेष तौर पर दलितों, अल्पसंख्यकों तथा ऐसे समूहों के लिए पहचान खतरनाक साबित होगी, जिनकी पहचान ही उनके प्रति हिंसा का कारण बनती है. खुद तकनीकी विशेषज्ञ बताते हैं कि अब तक किये गये अध्ययन के अनुसार करीब दस लाख लोग ऐसे निकलेंगे जिनके ऊंगलियों के निशान तथा आंख की छवि सही होने की बावजदू मशीन नतीजे के तौर पर उसको प्रमाणित नहीं करेगी यानी तब एक बार फिर भौतिक सत्यापन ही रास्ता रह जायेगा जो किसी व्यक्ति पर निर्भर करेगा.
मशीनों के सही चलने के लिए पूरे समय बिजली की जरूरत होगी. ऐसे समय में जबकि पूरी देश में बिजली का संकट बना हुआ है. मशीन हर समय काम तभी करेगी. अच्छे किस्म के स्कैनर खरीदने होंगे. हर स्कैनर की कीमत ऊंची होगी तथा यह स्कैनर ऊंचे पहाड़ांें तथा घाटियों में काम नहीं करेंगे. यह भी महत्वपूर्ण है कि स्कैनर इस्तेमाल करने वाली एजेंसी दावे के अनुसार ही काम करेंगी या जो डाटा इकट्ठा होगा उसका दुरूपयोग करेगी यह भी बड़ा मुद्दा है. हाल ही में जापान के एक शोधकर्ता ने बताया कि हवाई अड्डों पर लगी मशीनों में व्यक्ति को आर पार देखने की तकनीक का भी दुरूपयोग किया गया है.
जर्मनी में जब यहूदियों को गैस चेम्बर में डाल कर बड़े पैमाने पर मारा गया था तब यहूदियों की पहचान आईबीएम द्वारा एकत्रित डाटा के माध्यम से ही की गयी थी. भारत में भी 2002 के गुजरात कांड में रा"ान कार्डों व अन्य डाटा के माध्यम से मुसलमानों के घरों को निशाना बनाया गया. प्राधिकरण जो डाटा इकट्ठा कर रहा है उसमें ऐसी एजंेसियां भी हैं जो दूसरे देशों के खुफिया तंत्र के साथ कमा भी करती है ऐसे में वह कितना सुरक्षित रहेगा इसके दावे पूर्णतया खोखले दिखलाई पड़ते हैं.
नागरिकों का बायोमेट्रिक डाटा बेस कितना महत्वपूर्ण हो सकता है इसका अंदाजा यदि लगाना हो तो ब्रिटेन के गत आम चुनाव के समय की बहस को देखना चाहिए जिसमें कंजरवेटिव पार्टी ने यह दावा किया था कि ब्रिटेन के नागरिकों के राष्ट्रीय पहचान पत्र के नाम पर सरकार ने जो डाटा इकट्ठा किया है उससे न केवल निजता का अधिकार प्रभावित हुआ है बल्कि हर ब्रिटेन का नागरिक ज्यादा असुरक्षित हो गया है. ब्रिटेन के चुनावों में यह चुनावी मुद्दा बना. कंजरवेटिव पार्टी ने घोषणा कि की वह यदि चुनाव जीती तो पूरी योजना को रद्द कर देगी.
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार लेबर पार्टी के हारने का यह भी एक बड़ा कारण बना. कंजरेविटव पार्टी ने अपना वायदा निभाया. चुनावा जीतने के बाद सरकार ने केवल योजना को रद्द कर दिया बल्कि जो डाटा इकट्ठा हुआ था उसे सुरक्षित तरीके से नष्ट किया गया. कहा गया कि स्टेट यानी राज्य को हर नागरिक के निजता के अधिकार का सम्मान करना चाहिए. उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन में 980 मिलियन डालर इस योजना पर खर्च किये जा चुके थे तथा 90.2 बिलियन डाॅलर का इंतजाम सरकार द्वारा इस योजना के लिये किया गया था. इसके बावजूद योजना को रद्द कर दिया गया.
लोगो के मन में यह सवाल भी उठ रहे हैं कि सरकार ने जब बायोमेट्रिक्स को लेकर कोई पायलट स्टडी नहीं कराई तब कैसे इसका इस्तेमाल किया जा रहा है. वित्त पर संसद की स्थायी समिति की विस्फोटक रिपोर्ट का डेटाबेस बनाने के क्रम में बायोमीट्रिक आंकड़ों के संग्रहण की वैधता पर सवाल उठायी है. रिपोर्ट कहती है (सिफारिशों वाले खंड में), 'बायोमेट्रिक सूचना का संग्रहण और निजी जानकारी के साथ उनके संबंधों पर नागरिकता कानून 1955 तथा नागरिकता नियम 2003 में संशोधन के बगैर कोई अन्य विधेयक बनाकर सही ठहराने की गुंजाइ"ा नहीं बनती, और इसकी संसद को विस्तार से पड़ताल करनी होगी.'
संसद की इस स्थायी समिति का भी अनदेखा किया गया है. यह आश्चर्यजनक है कि जनता के टैक्स की डेढ़ लाख करोड़ की राशि बिना किसी पूर्व अध्ययन तथा अनुभव के केवल इसलिए खर्च करने जा रही है कि सरकार विप्रो और इन्फोसेस दो कम्पनियों को उप्कृत करना चाहती है, स्वभाविक तौर पर यह तभी हो सकता है जब इन कम्पनियों ने सरकार के कुछ लोगों को उप्कृत किया हो.
अलग अलग पार्टियां इस पर अलग अलग राय रखती हैं. कांग्रेस का तो यह सोच है ही कि राज करने के लिए नागरिकों की सुचनाएं महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है. हम देखते ही हैं कि सरकार किस तरह सीबीआई के माध्यम से नेताओं को ब्लैक मेल करती हैं तथा गुप्तचर जानकारियों के आधार पर काले करनामे करने वाले नेताओं को सरकार काबू में लाकर समर्थन हासिल करती है. भारतीय जनता पार्टी की समझ है कि इससे आतंकवाद तथा घुसपैठियों पर रोक लगाई जा सकेगी.
राजनीतिक तौर पर यह मुद्दा उठाया जा सकता है इसका लाभ लेकर भाजपा अल्पसंख्यक विरोधी अपने दृष्टिकोण को और पैना कर सकती है. अन्य मामलों की तरह इस मामलों में भी कांग्रेस व भारतीय जनता पाटी की सहमति है. देश भर के जनसंगठनों के द्वारा भी योजना का विरोध किया जा रहा है. 14 मार्च 2012 को दिल्ली के जंतर मंतर पर एस.यू.सी.आई की अगुवाई में प्रदर्शन के समय 375 लाख लोगों के हस्ताक्षरित मांग पत्र प्रधानमंत्री को दिया जिसमें यूआईडी को बंद करने की मांग सम्मिलत था.
संगठनों के विरोध का मुख्य आधार यह है कि सरकार का यूआईडी से गारंटी तथा जनवितरण प्रणाली में सुधार का दावा पूरी तरह खोखला है. 12 अंकों को याद रखना कठिन होगा, यह कोई परिचय पत्र नहीं होगा तथा इस नम्बर को लेने के बाद भी बैंक का कार्ड पासपोर्ट, राशन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस सभी कुछ अलग बनाना होगा. गृह मंत्री चिदम्बरम ने डीएनए बैंक बिल लाने की घोषणा की है तथा आई टी 2008 कानून पहले ही बनाया ही जा चुका है और अभी एनटीसी लाने की योजना चल रही है. जो सीधा सीधा नागरिकों के निजता के अधिकार का अतिक्रमण है.
सरकार की साजिश जनवितरण प्रणाली को पूरी तरह समाप्त करने की है जिसकी शुरूआत दिल्ली में पायलट प्रोजेक्ट के रूप में हो चुकी है. तथा यूआईडी के 12 अंक देकर गरीबों से कहा जायेगा कि वे किसी भी दुकान से राशन लें तथा एक निश्चित राशि योजना के अनुसार उन्हें कैस ट्रांसफर के माध्यम से उपलब्ध करा दी जायेगी. यह पूरी परियोजना राज्य के कारपोरेटाईजेशन तथा राज्य के वित्तीय हित साधने के साथ जुड़ी हुई है तथा जो जानकारी यूआईडी के नाम पर इकट्ठी की जायेगी उसको अलग अलग-अलग एजेंसियों के साथ बांट कर प्राधिकरण पैसा कमाने का काम करेगा तथा हर व्यक्ति की पहचान एक फोल्डर में तब्दील कर दी जायेगी.
प्राधिकरण द्वारा दिये जाने वाले हर ठेके में वित्तीय अनियमितताएं हो सकती हैं जैसा कि राष्ट्रमंडल खेलों से जुडी योजनाओं में हुई घपलेबाजी ने यह सिद्ध कर दिया है. कि राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन सरकार द्वारा खेलों में रूचि तथा खेलों की प्राथमिकता देने में नहीं बल्कि आर्थिक हित साधने के लिये किया गया था.
जो लोग यह समझते हैं कि इस योजना के लागू होने से आतंकवादियों पर अंकुश लगेगा वे गलतफहमी में जी रहे हैं. इससे किसी भी गैर कानूनी गतिविधियों को रोका नहीं जा सकता बल्कि इससे बड़े अपरधियों को लाभ ही पहुंचेगे जो अपनी सर्जरी और कंटेक्ट लेंस द्वारा अपनी पहचान बदल कर कानूनी चुनौती दे सकते हैं.
यह प्राधिकरण इस दमनकारी व्यवस्था को ही मजबूत करेगी इसे दमित, शोषित-पीडि़त जनता को नुकसान होगा उनकी हर गतिविधियों पर पैनी नजर रखी जायेगी. अल्पसंख्यकों को चिन्हित कर के उन पर हमला करना असान होगा जैसा कि 1984 में सिक्खों का जनसंहार, 2002 में मुसलमानों का और उसके बाद उड़ीसा के कंधमाल में ईसाइयों के ऊपर हमले हुए हैं. आधार कार्ड इस तरह के कत्ले आम को और ज्यादा संगठित रूप दे सकता है.नागरिक अधिकार कार्यकर्ता सुनील कुमार मजदूरों के मुद्दे पर सक्रिय हैं.
मिसाइल परीक्षण
मंगलवार, 3 सितंबर, 2013 को 19:41 IST तक के समाचार
सीरिया पर पश्चिमी देशों की संभावित कार्रवाई की बढ़ती आशंकाओं के बीच इसराइल ने पुष्टि की है कि उसने अमरीका के साथ मिलकर भूमध्य सागर में मिसाइल का परीक्षण किया है. एक वरिष्ठ इसराइली अधिकारी ने बीबीसी को बताया कि लड़ाकू विमान से इस मिसाइल को दागा गया.
इससे पहले रूस के रक्षा मंत्रालय ने कहा कि उसे भूमध्य सागर में दो बैलेस्टिक उपकरणों को दागे जाने का पता चला है जो पूर्वी तट की तरफ जा रहे थे.
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इस बीच अमरीका में इस बात को लेकर कयास लगाए जा रहे हैं कि राष्ट्रपति बराक ओबामा की योजना सीरिया पर व्यापक सैन्य हमले की है.
हालांकि पिछले महीने सीरिया में हुए कथित रासायनिक हथियारों के बाद अभी तक सार्वजनिक तौर पर सीमित हमले की योजना की बात ही कही गई है.
क्लिक करेंकहाँ आ पहुँचा सीरिया
अमरीकी सेना के पूर्व वाइस चीफ ऑफ स्टाफ जनरल जैक कीन ने बताया कि बड़े पैमाने पर हमले की जानकारी रिपब्लिकन पार्टी के कुछ वरिष्ठ सीनेटरों से मिली है.
सोमवार को राष्ट्रपति कार्यालय की ओर से कुछ वरिष्ठ सीनेटरों को सीरिया के मुद्दे पर भावी योजना के बारे में बताया गया.
जनरल जैक ने बीबीसी को बताया कि अगर सैन्य कार्रवाई के लिए कांग्रेस की मंजूरी मिल गई तो राष्ट्रपति ओबामा की योजना सीरियाई राष्ट्रपति असद की सैन्य ताकत को महत्वपूर्ण नुकसान पहुँचाने की है.
अमरीकी योजना
जनरल जैक का कहना है कि राष्ट्रपति ओबामा ने सीनेटरों को खुद इस बात का भरोसा दिलाया है.
जनरल कीन ने कहा, "राष्ट्रपति ने उनके सामने कार्रवाई के पैमाने और उसकी गंभीरता के बारे में अपनी मंशा जाहिर की. मुझे लगता है कि सीनेटरों ने जो सोचा होगा, यहीं उससे कहीं व्यापक होने जा रहा है. जो कुछ होने जा रहा है, उसके दो पहलू हैं. वह सीरिया को रोकेंगे और उसकी ताकत को कमजोर करेंगे. यह अहम है और इसका मतलब असद की सैन्य शक्ति से है."
हालांकि रूस और चीन बराबर सीरिया में किसी भी तरह के बाहरी हस्तक्षेप का विरोध कर रहे हैं.
सीरिया अमरीका के इन आरोपों को ठुकराता है कि उसने अपने नागरिकों पर रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल किया, जबकि अमरीकी बारबार कह रहा है कि उसके पास इस हमले के सबूत के पक्के सबूत हैं और इनमें 1429 लोग मारे गए.
तिहाई आबादी बेघर
इस बीच संयुक्त राष्ट्र संघ ने कहा है कि सीरिया में चल रहे संघर्ष के कारण अब तक बीस लाख लोगों को घरबार छोड़कर शरणार्थी बनना पड़ा है.
शरणार्थियों की यह तादाद छह महीने पहले दर्ज लोगों के मुक़ाबले दोगुनी है. बहुत से सीरियाई तुर्की, जॉर्डन और लेबनान जैसे पड़ोसी देशों में शरण ले रहे हैं.
क्लिक करेंरासायनिक हथियारों का प्रयोग
लगभग सात लाख सीरियाई अब तक अकेले लेबनान में शरण ले चुके हैं.
संयुक्त राष्ट्र संघ के मुताबिक़ सीरिया में 50 लाख लोग विस्थापन का शिकार हैं. इसका मतलब यह है कि देश की कुल आबादी का तिहाई हिस्सा बेघर है.
शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के राजदूत एंटोनियो गुतेरेस ने बीबीसी को बताया है कि बहुत से लोग बेहद बदतक हालात में ज़िंदगी बिता रहे हैं और इनमें से सभी को मदद पहुंचा पाना बेहद मुश्किल साबित हो रहा है.
उनका कहना था कि दो पड़ोसी देशों तक फैला यह संघर्ष मध्य पूर्व में विस्फोट की शक्ल ले चुका है और इसे तत्काल प्रभाव से रोका जाना बहुत ज़रूरी है.
अल्पसंख्यकों पर खतरा
सीरिया में संयुक्त राष्ट्र संघ के दूत ने चेतावनी दी है कि देश में जारी हिंसा की वारदात लगातार नरसंहार की तरफ़ बढ़ रही है.
मुख़्तार लमानी ने बीबीसी को बताया है कि सीरिया में जारी जातीय हिंसा बेहद डरावनी शक्ल इख़्तियार कर चुकी है.
क्लिक करेंसुधारवादी राष्ट्रपति से तानाशाह तक
लोग बड़ी तादाद में अपने गांवों और घरों को छोड़कर जा रहे हैं. इनमें सुन्नी, अलावाइट और ईसाई सभी शामिल हैं.
लमानी ने बताया है कि सबसे ज़्यादा ख़तरे में अलावाइट अल्पसंख्यक हैं जिस समुदाय से राष्ट्रपति असद भी हैं. ईसाइयों को भी निशाना बनाया जा रहा है.
लमानी के मुताबिक सीरियाई लोग सदियों से शांतिपूर्ण जीवन बिताते रहे हैं लेकिन इस मौजूदा संघर्ष ने उन्हें एक दूसरे से अलग-थलग कर दिया है.
फ्रांस का रवैया
फ्रांस के प्रधानमंत्री ने कहा है कि पिछले महीने सीरिया की राजधानी दमिश्क में रासायनिक हमलों के लिए सिर्फ और सिर्फ राष्ट्पति बशर अल असद के नेतृत्व में सीरियाई सेना ही जिम्मेदार है.
संसद में एक रिपोर्ट पेश कर फ्रांस के प्रधानमंत्री जॉ मार्क एरॉल्ट ने कहा कि गत 21 तारीख को सीरिया में विनाशकारी हथियारों का बड़े पैमाने पर प्रयोग हुआ.
सरकारी सूत्रों का कहना है कि फ्रांसीसी खुफिया अधिकारियों के मुताबिक सीरिया में पिछले महीने हुए हमलों में एक हजार टन से ज़्यादा रसायनों का इस्तेमाल हुआ था जिनमें सारिन और मस्टर्ड गैस जैसे खतरनाक रसायन शामिल थे.
फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसवा ओलांड ने सीरिया में सैन्य कार्रवाई का पुरज़ोर समर्थन किया है लेकिन अमरीका और ब्रिटेन की तरह फ्रांस में भी इस बात का दबाव बढ़ रहा है कि इसके लिए संसद से अनुमति ली जाए.
फ्रांस में इस मुद्दे पर राष्ट्रीय असेंबली में बुधवार को बहस होनी है लेकिन मतदान होगा या नहीं, ये अभी तय नहीं है.
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America, Oil, and War in the Middle East
+Author Affiliations
- Toby Craig Jones is an associate professor of Middle East history at Rutgers University, New Brunswick
- Readers may contact Jones at tobycjones@yahoo.com.
Let our position be absolutely clear: An attempt by any outside force to gain control of the Persian Gulf region will be regarded as an assault on the vital interests of the United States of America, and such an assault will be repelled by any means necessary, including military force.
—Jimmy Carter, state of the union address, Jan. 23, 1980
Middle Eastern oil has enchanted global powers and global capital since the early twentieth century. Its allure has been particularly powerful for the United States. The American romance began in earnest in the 1930s, when geologists working for Standard Oil of California discovered commercial quantities of oil on the eastern shores of Saudi Arabia. In the years that followed, enchantment turned into obsession. Shortly after World War II it became clear that oil was more than merely a coveted industrial commodity. The most visible and celebrated event in that history occurred when Franklin D. Roosevelt hosted 'Abd al-'Aziz Ibn Saud, the founding monarch of Saudi Arabia, aboard the USS Quincy on Egypt's Great Bitter Lake in February 1945. The meeting permanently linked Middle Eastern oil with American national security. It also helped forge one of the twentieth century's most important strategic relationships, in which the Saudis would supply cheap oil to global markets in exchange for American protection. A bargain was made. And so too was a future tinderbox.1
Over the course of the twentieth century, preserving the security not just of Saudi Arabia but of the entire Persian Gulf region and the flow of Middle Eastern oil were among the United States' chief political-economic concerns.2 The pursuit of American power in the Gulf has been fraught with peril and has proved costly in terms of both blood and treasure. Oil has flowed, although not without difficulty. Since the late 1970s the Gulf has been rocked by revolution and almost permanent war. Security, if measured by the absence of conflict, has been elusive, and safeguarding the Persian Gulf and the region's oil producers has meant increasingly more direct and dearer forms of U.S. intervention.
The U.S.-led invasion of Iraq in 2003 and the American military occupation there represented only the latest stage of American militarism in the Middle East. While more considerable in scale, duration, and devastation than previous military misadventures in the region, the Iraq War was the outgrowth of several decades of strategic thinking and policy making about oil. It is true, of course, that terrorism and especially the attacks of September 11, 2001, helped accelerate the drive to war in 2003, but to focus too much on 9/11 is to overlook and discount the ways that oil and oil producers have long been militarized, the role oil has played in regional confrontation for almost four decades, and the connections between the most recent confrontation with Iraq and those of the past.3Oil and war have become increasingly interconnected in the Middle East. Indeed, that relationship has become a seemingly permanent one. This outcome was not inevitable; the United States has not only been mired in the middle, but its approach to oil has also abetted the outcome.
It is also important to understand the U.S. emphasis on security, and the contradictions of its approach to it, in a broader regional context. While this essay does not dwell on the U.S.-Israeli relationship, U.S. Persian Gulf policy and America's relationship with the region's oil producers were often at odds with the alliance between the United States and Israel. The tensions created by American policies in the Gulf have undermined U.S. claims about pursuing regional security more generally. This contradiction played out most spectacularly during the 1973 oil crisis.4
The Strategic Logic of Militarism
The United States is not the only Western power with a history of war in the oil-rich Persian Gulf. In a rush to secure and expand their own supplies in the region, the British landed an expeditionary force near Basra in what is now Iraq in 1914. By 1918 the British captured Baghdad and ensconced themselves and their allies there, a perch from which they projected power for several decades.5 American ascendance in the Persian Gulf later in the century created a new pattern of militarism and war. Unlike its predecessors, the United States did not wage war out of old-fashioned imperial calculation or ambition. American oil wars have not been about establishing direct control over oil fields nor about liberation or freedom, at least not political freedom for the peoples of the region. Instead, they have primarily been about protecting friendly oil producers. The objective has not necessarily been to guarantee that Middle Eastern oil made its way to the United States, although meeting basic domestic energy needs remained a vital part of the broader calculation. Keeping prices stable (not low) and keeping pro-American regimes in power were central to U.S. strategic policy.
The pattern of militarism that began in the Persian Gulf in the 1970s has partly been the product of American support for and deliberate militarization of brutal and vulnerable authoritarian regimes. Massive weapons sales to oil autocrats and the decision to build a geopolitical military order in the Gulf that depended on and empowered those rulers resulted in a highly militarized and fragile balance of power. And from the 1970s on, oil-producing states have faced repeated internal and external threats, including domestic unrest, invasion, and regional or civil war, or at least the imminent prospect of turmoil. Such instability and conflict has had much to do, of course, with internal political problems, only some of which were the result of outside intervention. But the militarization that began in earnest under the United States' watch exacerbated and accelerated those uncertainties and helped further destabilize oil-producing states and the region.
The approach of the United States to oil and the Persian Gulf in the late twentieth century was both a sign of its superpower status and a demonstration of its limits. What began as an effort to build up and empower surrogates, client states in the Gulf that would do the bidding of the United States, proved instead to be the gateway for more direct projections of American military power. Jimmy Carter's warning during his 1980 state of the union address that the United States would use "any means necessary, including military force" to safeguard its "vital interests" in the Gulf has clearly come to pass.6
The late 1960s and early 1970s marked the transformative period in the United States' approach to security and militarism in the Persian Gulf. In January 1968 the British government announced that it would end its longtime imperial presence in the region and withdraw its political and military resources. The move unsettled American policy makers anxious about a potential power vacuum. Other pressures also began to mount. In the decade leading up to the British announcement, governments of oil-producing countries had already begun to bristle against the dominating and unfair practices of the major oil companies, which had exercised monopolistic control over the means of production and pricing for much of the twentieth century. In 1960 several major oil producers established the Organization of Petroleum Exporting Countries (OPEC) in a gambit to drive prices higher. OPEC achieved little in its early years. The assertiveness of the oil producers would grow by the 1970s, however, as major producers began to nationalize the operations of the oil companies.7
More importantly, contradictions in America's Middle East security strategy would challenge the nation's efforts to maintain friendly relations with the region's oil producers. Historically, the United States struggled to balance its support for Israel with its support for the region's oil producers, who had long considered the Israel-friendly foreign policy of the United States as an irritant. In 1973 this irritation transformed into outrage during the October War, when Egypt launched a surprise attack on Israeli forces to recapture territory in the Sinai Peninsula. Gulf oil producers were infuriated when the United States helped re-equip the beleaguered Israeli military in the course of battle. Led by Saudi Arabia, Arab oil producers and oil companies orchestrated an embargo of the United States, thereby drying up supply and driving up prices. As a result of the 1973 crisis, the oil-producing countries finally seized direct control over production and pricing mechanisms from the giant Western oil conglomerates, leading to a massive increase in oil revenues for those nations. The embargo and its impact on domestic politics troubled American officials, who struggled to rebuild relations with oil-producing allies. But the anxieties generated by the contradictions of U.S. policies on Israel and oil did not lead to a reconsideration of U.S. regional security policy. Rather, the United States deepened its commitment to the regional order.8
In fact, after the initial shock of the embargo, the rapid spike in prices did not overly trouble American policy makers, who worked to convince leaders in Saudi Arabia, Kuwait, Iran, and elsewhere in the Gulf to reinvest the revenues they were generating from the skyrocketing price of oil in the West by spending some of their newfound wealth on Western products and, most importantly, American weapons. The creation of a weapons pipeline deepened the ties between the United States and Gulf oil producers, but the waves of nationalization did help dismantle a geopolitical framework that had served American oil interests in the past. In that system Western oil companies, in cooperation with their home governments, exercised direct control over Middle Eastern oil. The relationships between these companies and the oil-producer governments were periodically tempestuous, but they were mostly cooperative. Governments of the region fought to achieve a modicum of equity in profit sharing from the sale of oil, but they remained almost entirely beholden to the companies for the extraction, refining, distribution, and sale of petroleum. It was an arrangement that enjoyed the full support of the U.S. government. Companies such as Aramco that operated in Saudi Arabia not only cooperated closely with the U.S. government, but they also often had members of the American political and intelligence communities on their payrolls.9
The convergence of corporate and political interests around oil had profound consequences on the character of political authority in and around the region. The companies helped forge and defend a set of relationships with Arab autocrats that American leaders since Roosevelt have considered vital to the stability of the region. The United States demonstrated its preference for autocrats in 1953, when the Central Intelligence Agency orchestrated a coup to overthrow Mohammed Mossadeq, the democratically elected prime minister of Iran, and bring back Mohammed Reza Shah Pahlavi as ruler. The oil companies did their part to strengthen authoritarians elsewhere in the region. During the 1950s and 1960s U.S. government officials and oil-company executives feared the potential power of Arab nationalists and the possibility that they might nationalize Arab oil and refuse to supplicate to American and Western interests. The companies and the U.S. government considered the possibility of such a scenario a threat to U.S. Cold War and material interests in the Persian Gulf.10
Although direct corporate and U.S. political control over Persian Gulf oil ended in the 1970s, the authoritarian regimes remained. The U.S. government sought to do new kinds of business with them, by arming them and positioning them as surrogates for American interests and power. Richard M. Nixon provided the impetus for the new militarization strategy in 1969 when he articulated a new strategic doctrine. Under pressure to guide the United States out of the quagmire in Vietnam, the Nixon Doctrine called on American allies to bear a greater burden in providing for their own defense. U.S. policy makers observed the doctrine in the Gulf by keeping American military forces "over the horizon." Without the British present to preserve the Gulf's balance of power, the United States moved to build up local militaries to maintain regional order. The American government focused primarily on strengthening Iran and Saudi Arabia, propping them up as the twin pillars of the United States' new regional geopolitical strategy. Between 1970 and 1979 the United States committed to over $22 billion in arms sales to Iran, accounting for roughly three-quarters of all of Iran's weapons purchases during the decade. Sales commitments to Saudi Arabia were more modest, at just under $3.5 billion for the decade, still a significant amount considering that the United States only started selling weapons to the kingdom in 1972.11
The Perils of Militarization
The consequences of the new militarization policy were considerable. Although the policies were not immediately destabilizing, they did help lay the foundation for the era of violence and insecurity that followed. As militarization became a regional phenomenon, it also emboldened Gulf dictators, who became increasingly assertive and threatening to one another. Rising tensions in the Gulf, most notably between Iran and Iraq, were the result of complicated domestic and regional politics. However, embattled Gulf state leaders sought security through the purchase of billions of dollars worth of weapons, which the American government and the American weapons industry were happy to provide. The result was further massive militarization of the region and a boon for the military-industrial complex. By the end of the decade the largest oil producers in the Gulf were in a full-blown arms race. The Soviet Union pitched in by committing to sell over $10 billion in weapons to Iraq, its main client in the region and the principal rival to Iran. But it was the United States that did the most to facilitate the militarization of the region. Between 1975 and 1979 Iran, Iraq, and Saudi Arabia purchased 56 percent of all the weapons sold in the Middle East and made almost one-quarter of all global arms purchases. Lee Hamilton, a leading Democratic congressman, warned in a 1973 statement on the floor of Congress about the potentially excessive nature of arms sales to the region. He remarked that "the net impression left … is that we are willing to sell just about everything these Persian Gulf states want and will buy." And buy they did. Iran proved particularly keen to acquire as much high-tech military weaponry as possible. The shah purchased the newest weapons systems available from American manufacturers, including seventy-nine F-14 Tomcat fighter jets, the U.S. Navy's premier fighter, in 1974.12 By the middle of the 1970s, the American notion of security in the Persian Gulf was based almost entirely on the ability of oil producers to purchase the machines of war.
The militarization of the Persian Gulf exacerbated existing instabilities and hastened an era of regional conflict. During the heyday of arms sales, some U.S. officials and elected representatives grew alarmed. Throughout the 1970s and into the following decade, members of Congress convened regular meetings to flesh out the potential harm of massive militarization in the Gulf. Much of the concern centered on the potential threat that newly armed Arab oil producers posed to Israel. Hamilton cautioned that "the appropriate area for justifiable concerns is in the general policy of pouring lots of sophisticated arms in an extremely volatile portion of the Middle East, known not for exemplary regional cooperation, but instead for a plethora of territorial, ethnic, familial and political disputes over the last several hundred years."13
Although others shared Hamilton's anxieties, those responsible for overseeing U.S. policy in the Gulf dismissed those concerns. The warnings expressed by Hamilton and others should have prompted caution, but few policy makers or arms manufacturers were inclined to question the stability of authoritarian regimes that had been longtime allies. Especially after the first oil boom, Gulf oil states seemed even more in command than before. Flush with billions of dollars in new oil revenues by the mid-1970s, the Gulf oil producers went on a decade-long domestic spending spree, throwing money at a range of social, economic, and potential political problems. Regimes in the region committed billions of dollars to modernization and development programs and to the expansion of cradle-to-grave social services.14
The intent of that spending was to redistribute oil wealth as a means to stave off potential restiveness. And the potential for unrest was considerable. Most of the Gulf's autocrats came to power through conquest, alliances with imperial powers, or both. The preferred clients of the United States, the rulers of Iran and Saudi Arabia, used a combination of coercion and co-option to establish and then maintain their power. But even after decades of rule, neither regime possessed much credibility or legitimacy in the eyes of their citizens. Significant domestic political fault lines were evident in each country. Although most Saudi Arabians and Iranians embraced the new wealth and the services it provided, many continued to bristle against the practices of their rulers. Both regimes assumed that the widespread redistribution of wealth would placate whatever simmering hostilities lurked beneath the surface of Saudi Arabian and Iranian society. Neither engaged in any significant reform or allowed for a greater role for their citizens in government. Saudi Arabia, with a smaller population, became less coercive, although the threat of regime violence was omnipresent. In contrast, the shah in Iran remained a brutal and cruel tyrant. Martin Ennals, the secretary general of Amnesty International, remarked in 1977 that Iran has the "highest rate of death penalties in the world, no valid system of civilian courts and a history of torture which is beyond belief. No country in the world has a worse record in human rights than Iran."15 Leaders in both countries proceeded as though the spike in oil revenues and their new spending power had allowed them to renew autocracy at home. Their social programs were meant to establish a new deal with the governed, one in which the state redistributed wealth in exchange for complete political quiescence. Many inside and outside Iran and Saudi Arabia assumed that the new social contract and the influx of oil revenues had strengthened the regimes.
In neither Saudi Arabia nor Iran did the bargain hold up. Rather than emerge from the oil boom stronger, both regimes proved vulnerable to significant domestic pressures by the end of the 1970s. Saudi Arabia faced two episodes of unrest in November 1979. In the kingdom's Eastern Province, tens of thousands of Shi ites rebelled against Saudi rule and especially against their status as second-class citizens. Simultaneously, but in an unrelated event, hundreds of rebels seized and occupied the Mecca Grand Mosque. The rebels, who denounced the Al Saud ruling family as illegitimate rulers, held the mosque for two weeks before being rooted out by a combination of Saudi and French special forces.16
It was the oil-fueled authoritarianism in Iran, however, that proved most vulnerable. Iranian revolutionaries tossed the shah from power in 1979.17The fall of the shah, considered unthinkable by American officials just a few years before, demolished the twin-pillar policy. From the perspective of American policy makers, the revolution radically transformed the balance of power in the region, turning Iran from America's strategic ally to a menacing rival. Whatever the reality of Iran's new position in the region, the revolution brought to a dramatic conclusion U.S. reliance on highly militarized local powers as defenders of the Gulf's regional order. While they would continue to encourage and oversee the militarization of Saudi Arabia and other Arab oil producers in the 1980s and beyond, American leaders lost faith in the idea that local surrogates possessed the political capacity to safeguard U.S. interests. Anxieties that Middle Eastern oil was vulnerable to new Cold War developments also deepened shortly after the fall of the shah, which accelerated the transformation of how the United States would project its power in the region. In December 1979 the Soviet invasion of Afghanistan prompted Carter to make clear America's deep attachment to the Persian Gulf and U.S. willingness to use militarily force to protect the flow of oil. Even after Carter mapped out a new strategic/military vision for the region, it would not be fully realized for a few years. Nevertheless, it was here that the era of direct American intervention in the Persian Gulf began.
The Long War
The Iranian Revolution not only helped transform the regional order and reshape American policy but it also helped unleash many of the destructive forces that have plagued the Persian Gulf ever since. In September 1980, sensing weakness in Iran and concerned about potential domestic challenges to his power, Saddam Hussein ordered the Iraqi army to launch an invasion of Iranian oil facilities. Fighting between Iran and Iraq persisted until 1988, with hundreds of thousands killed and wounded. The Persian Gulf has been virtually engulfed in war ever since. Of course, American oil policy was not directly responsible for Hussein's decision to invade Iran. Hussein perceived himself to be beset by a number of domestic and regional challenges that he believed war would resolve.18 The considerations that led him down this path were partly pathological, but they were also shaped by the militarization of oil and the region in the previous decade. This intense militarization, the politics of the region's arms race, and the combination of the increasing boldness of regional powers and their growing paranoia about one another were central to Hussein's calculus for war.
While the United States claimed to have been caught off guard by Iraq's invasion of Iran, many U.S. policy makers came to see a continuation of the war as a useful way to bog down two of the region's most highly militarized regimes and to stave off short-term threats to the regional order and the political economy of oil. To this end, the United States supplied weapons, funding, and intelligence to both sides in the conflict, and acknowledged and condoned Iraq's use of chemical weapons on the battlefield and against its own citizens.19 The decision to view the Iran-Iraq War as a useful conflict, one worth abetting as a means to contain the belligerents and therefore ensure security elsewhere in the Gulf, proved to be a dangerous gambit. Ultimately, that decision would result in the realization of the Carter Doctrine and the direct intervention of the United States in Persian Gulf conflict. And it was the threat to oil shipping that finally brought the American military in to stay.
In 1986 Kuwait requested protection from both the United States and the Soviet Union from Iranian attacks on its oil tankers. The following March the United States obliged by allowing Kuwaiti tankers to fly the U.S. flag, thereby rendering attacks on tankers as attacks on American interests, and by dispatching a large naval fleet to provide direct protection. American and Iranian military forces exchanged fire on several occasions in 1987. Hostilities escalated in 1988, with the United States sinking several Iranian warships and damaging oil platforms. That summer the USSVincennes shot down an Iranian passenger jet, killing all 290 civilians on board. The incident was a stunning blow to Iran, and one that effectively sapped its will to fight further.20 That the United States became an active participant in the Iran-Iraq War, taking and causing casualties, is hardly a secret. Yet it has not been featured in considerations of the patterns of American engagement in the region or in its history of militarism in the Gulf. It should be. The war intensified American and Arab anxieties about Iranian power and ambition, worries that began with the 1979 revolution. Iran's status as one of the region's principal bogeymen and "rogue" states has endured and continues today to be one of the primary and repeated justifications for a continued American military presence in the region.
American involvement in and efforts to protract the Iran-Iraq War also shaped future conflict with Iraq. Although Iraq received substantial military, technical, and financial assistance from the United States and its Arab neighbors during the war, it emerged from the conflict mired in debt and deeply shaken. Although encouraged by its allies and its patrons to drag out the war, Iraq could not afford it. Hussein borrowed heavily from neighboring oil states to fund his war machine. Unable to pay its debts or to stimulate its economy after the war, Iraq faced domestic disaster. Saddam Hussein urgently sought a remedy, knowing that his power would be imperiled if he proved unable to steward Iraq back to the path of reasonable prosperity. Reestablishing its oil industry and resecuring a share of the global oil market might have provided Iraq a way out of indebtedness, but Iraq's oil-producing neighbors were not sympathetic. Arab lenders demanded that Iraq repay its war debts. Meanwhile, several of Iraq's neighbors, including Kuwait, were dumping excess oil onto the market, which had the effect of driving prices down, limiting Iraqi revenues, and constraining its potential recovery.21
The anxieties, traumas, and hypermilitarism that precipitated Iran's revolution, Iraq's invasion, and the escalation of regional insecurity in the 1980s persisted. After two years of pleading and saber rattling, Saddam Hussein once again pursued a military solution, invading Kuwait in August 1990 and precipitating an even more dramatic escalation of American military intervention in the Gulf. Much of the history of Operation Desert Storm and the 1990s sanctions regime are well known. Alarmed by the potential fallout of Iraq possessing not only Kuwaiti oil but also Saudi Arabian oil led the United States to mobilize more than five hundred thousand troops in its largest war effort since the Vietnam War. In just a few days the U.S.-led coalition drove Iraqi forces from Kuwait. In the decade that followed the United States oversaw a devastating sanctions regime that eviscerated Iraq's society and economy. The official American policy immediately after the war was one of containing both Iraq and Iran—keeping the region's "rogue" states from threatening the other oil producers. By the end of the 1990s, however, containment had given way to a policy of regime change, the high-water mark of direct American militarism in the region, in which the U.S. government began actively to pursue the overthrow of Saddam Hussein. Even the sanctions regime, which was officially rationalized as a system designed to ensure that Iraq abandon its weapons of mass destruction program, functioned instead as an extension of the policy of regime change, which was realized with the 2003 American invasion of Iraq.22
Capturing oil and oil fields and establishing direct or imperial control over oil has not been part of the United States' strategic logic for war. But protecting oil, oil producers, and the flow of oil has been. This is a critical distinction. The period between 1990 and the end of the long war in Iraq marks only the latest stage of American militarism in the Gulf. If oil and American oil policy—rather than the behavior of Saddam Hussein, the politics of the war on terrorism, or a handful of other political factors—are kept in focus, then one can argue that this period constitutes not a series of wars, but a single long war, one in which pursuing regional security and protecting oil and American-friendly oil producers has been the principal strategic rationale. That the permanent shadow of war has settled over the Persian Gulf in the last three decades is largely the direct outcome of the ways that oil has been tied to American national security and the ways that American policy makers linked security to militarization.
An Elusive Security
It might be tempting to argue that the escalating involvement of the United States and its history of militarism and military engagement in the Gulf region have provided a kind of security for the region. After all, oil has continued to flow, the network of oil producers has remained the same, and thus the primary interests of the United States in the region have been served. But three decades of war belie this argument. War is not tantamount to security, stability, or peace. Even in the periods between wars in the region the violence carried out by regimes against their own subjects makes clear that peace is not always peaceful. The cost has been high for the United States and especially for people who live in the Middle East. In thirty years of war, hundreds of thousands have died excruciating and violent deaths. Poverty, environmental disaster, torture, and wretched living conditions haunt the lives of many in Iraq, Iran, and elsewhere in the region. Of course, the burden of death and destruction does not fall entirely on the United States and its policy of militarization. The politics of war have primarily served the interests of regional leaders who have, often from a position of weakness, exported violence to deflect internal challenges to their authority. And international political rivalry, particularly during the Cold War, drew in the other global powers, most notably the Soviet Union, which also helped facilitate insecurity and disorder in the Middle East.
The region's autocrats have also remained in power. As citizens began to challenge ruling regimes in early 2011 in Bahrain, Saudi Arabia, and Oman—three of the closest allies of the United States in the region—it became clear that those governments are all too willing to turn the weapons of war, purchased mostly from the United States, on their subjects. It is also clear that those regimes are hardly stable and that they are and will remain perennially vulnerable to domestic and regional shocks, which poses a real dilemma for U.S. policy. In addition to factoring in the human toll of wars and the moral dilemmas they raise, Americans trying to determine the true price of oil in the United States must take into account the financial cost of maintaining a massive military presence in the Gulf region. Roger Stern estimates that between 1976 and 2007 the total cost of maintaining the U.S. military in the Persian Gulf was about $7 trillion, and that figure does not include the costs of the 2003 Iraq War.23
The increasing willingness of the United States to use force and violence to shore up the flow of oil to global markets has not been a sign of American strength but rather of its limits. Popular political discourse in the United States often posits Americans and their government as unwitting victims of an unhealthy and unsustainable addiction or as dupes of duplicitous oil producers. It would certainly be wise to break this addiction to oil, but to do so requires coming to terms with the history of that addiction and the multiple costs it entails. But it is hardly clear that any such reconsideration is happening. Instead, the United States appears set to continue along a familiar path. Having crafted a set of relationships with oil and unstable oil producers and having linked the fate of those relationships to American national security virtually ensures that while the United States is wrapping up the most recent oil war, its military and political strategists are already preparing for the next one.
Acknowledgments
He is grateful to Vishal Kamath, Matthew Oliveri, Courtney Shaw, Justin Stearns, Chris Toensing, Robert Vitalis, Brandon Wolfe-Hunnicut, and theJAH referees for their criticisms and suggestions on earlier drafts of this essay
Footnotes
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↵1 Daniel Yergin, The Prize: The Epic Quest for Oil, Money, and Power(New York, 2008), 385–86; Lloyd C. Gardner, Three Kings: The Rise of an American Empire in the Middle East after World War II (New York, 2009), 19–25.
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↵2 For an alternative take on the political economy of oil and the need to protect supply, see Timothy Mitchell, "McJihad: Islam in the U.S. Global Order," Social Text, 20 (Winter 2002), 5. Timothy Mitchell notes that "contrary to popular belief, there is too much [oil]. Oil is the world's second most abundant fluid, so any producer is always at risk of being undercut by another. If all one wanted was a market in oil to supply those who need it, this would pose no problem. But the oil industry is about profits, not markets, and large profits are impossible to sustain under such competitive conditions. The potential rents—or 'premiums on scarcity,' as they are called—could be realized only if mechanisms were put in place to create the scarcity." See ibid.
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↵3 Sheila Carapico and Chris Toensing wrote in 2006 that "to hear American politicians and the commercial news media tell it, the greatest military power in world history hastily launched an ill-conceived invasion because of intelligence failures and wishful fantasies of sweets and flowers. It is as if, to paraphrase a sentiment heard in White House hallways on September 11, 2001, history really did start on that day, and nothing that happened beforehand mattered. It is as if the United States had never articulated a global vision of 'full-spectrum dominance,' acted upon hegemonic ambitions in the Persian Gulf or planned for forcible 'regime change' in Iraq." See Sheila Carapico and Chris Toensing, "The Strategic Logic of the Iraq Blunder,"Middle East Report (no. 239, Summer 2006), 6–11, esp. 6. For the best account emphasizing the role of 9/11 in the decision to invade Iraq in 2003, see F. Gregory Gause III, The International Relations of the Persian Gulf (New York, 2010), 184–97.
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↵4 On the tensions between U.S. policies regarding Israel and oil, see Brandon Wolfe-Hunnicut, "The End of the Concessionary Regime: Oil and American Power in Iraq, 1958–1972" (Ph.D. diss., Stanford University, 2011).
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↵5 On Iraq and the British role there see Charles Tripp, A History of Iraq (New York, 2000), 30–147; Hanna Batatu, The Old Social Classes and the Revolutionary Movements of Iraq: A Study of Iraq's Old Landed and Commercial Classes and of Its Communists, Bathists, and Free Officers (Princeton, 1978); Eric Davis, Memories of State: Politics, History, and Collective Identity in Modern Iraq (Berkeley, 2005); Toby Dodge, Inventing Iraq: A History of Nation Building and a History Denied (New York, 2003); and Priya Satia, Spies in Arabia: The Great War and the Cultural Foundations of Britain's Covert Empire in the Middle East (New York, 2008).
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↵6 On the Carter Doctrine, see Zbigniew Brzezinski, Power and Principle: Memoirs of the National Security Adviser, 1977–1981 (New York, 1983).
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↵7 Nadav Safran, Saudi Arabia: The Ceaseless Quest for Security(Ithaca, 1988), 134. On the Organization of Petroleum Exporting Countries (OPEC), see Yergin, Prize; and Leonardo Magueri, The Age of Oil: What They Don't Want You to Know about the World's Most Controversial Resource (Westport, 2006), 93–102.
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↵8 Joe Stork, Middle East Oil and the Energy Crisis (New York, 1975). See also James Gelvin, The Modern Middle East: A History (New York, 2011). Andrew Scott Cooper, The Oil Kings: How the U.S., Iran, and Saudi Arabia Changed the Balance of Power in the Middle East (New York, 2011).
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↵9 On the efforts of American policy makers to convince leaders to reinvest revenues from oil sales to the West, see Cooper, Oil Kings. Robert Vitalis, America's Kingdom: Mythmaking on the Saudi Oil Frontier (Palo Alto, 2007). Aramco was the name for the Arabian American Oil Company, a consortium established by the U.S.-based oil giants Chevron, Texaco, Exxon, and Mobil. Aramco operated under their ownership until 1980, when it was fully nationalized by Saudi Arabia.
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↵10 On the role of U.S. experts in strengthening the grip of the Saudi royal family over its territory and resources in the twentieth century, see Toby Craig Jones, Desert Kingdom: How Oil and Water Forged Modern Saudi Arabia (Cambridge, Mass., 2010). Mark J. Gasiorowski, "The 1953 Coup d'Etat in Iran," International Journal of Middle East Studies, 19 (Aug. 1987), 261–86. Nathan J. Citino, From Arab Nationalism to OPEC: Eisenhower, King Saūd, and the Making of U.S.-Saudi Relations (Bloomington, 2002).
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↵11 Douglas Little, American Orientalism: The United States and the Middle East since 1945 (Chapel Hill, 2002). On the United States and arms sales to Saudi Arabia, see Safran, Saudi Arabia, 180–214. The dollar figures are drawn from the Stockholm International Peace Research Institute (SIPRI) Arms Transfer Database athttp://www.sipri.org/databases/armstransfers and are presented usingSIPRI's online trend indicator values (TIVs) expressed in U.S. dollar amounts at constant 1990 prices. For an explanation of SIPRI's arms transfer tables, see "Explanation of the TIV Tables," Stockholm International Peace Research Institute,http://www.sipri.org/databases/armstransfers/background/explanations2_default.
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↵12 SIPRI Trend Indicator Values Database,www.sipri.org/databases/armstransfers. Gause, International Relations of the Persian Gulf, 33. Statement by Lee Hamilton on "Arms Policy in Persian Gulf Area," May 31, 1973, in New Perspectives on the Persian Gulf, Hearings before the Subcommittee on the Near East and South Asia of the Committee on Foreign Affairs, House of Representatives, Ninety-Third Congress, 1973 (Washington, 1973), 191. SIPRI Arms Transfer Database and SIPRI Trade Register Database,www.sipri.org/databases/armstransfers. The original sale of the F-14 Tomcats was for eighty planes. Seventy-nine were delivered between 1976 and 1978, with the United States quarantining one after the outbreak of the Iranian Revolution.
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↵13 Hamilton, "U.S. Policy toward the Persian Gulf," in New Perspectives on the Persian Gulf, 192.
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↵14 Steffen Hertog, Princes, Brokers, and Bureaucrats: Oil and the State in Saudi Arabia (Ithaca, 2010), 41–142; Daryl Champion, The Paradoxical Kingdom: Saudi Arabia and the Momentum of Reform (New York, 2003), 76–215; Alexei Vassiliev, The History of Saudi Arabia (New York, 2000), 401–35.
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↵15 On redistribution efforts in Saudi Arabia, see Hertog, Princes, Brokers, and Bureaucrats; and Jones, Desert Kingdom, 1–19, 54–137. On Iran and reform, see Nikki R. Keddie, Modern Iran: Roots and Results of Revolution (New Haven, 2006), 132–69. Martin Ennals quoted in Noam Chomsky and Edward S. Herman, The Washington Connection and Third World Fascism: The Political Economy of Human Rights, vol. I (Cambridge, Mass., 1979), 13.
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↵16 Oil-producing states elsewhere were also vulnerable to domestic pressures. See Terry Lynn Karl, The Paradox of Plenty: Oil Booms and Petro-states (Berkeley, 1997). Jones, Desert Kingdom, 138–78. Thomas Hegghammer and Stephane Lacroix, "Rejectionist Islamism in Saudi Arabia: The Story of Juhayman al-'Utaybi Revisited," International Journal of Middle East Studies, 39 (Feb. 2007), 103–22. On the 1979 Mecca Grand Mosque uprising, see Yaroslav Trofimov, The Siege of Mecca: The 1979 Uprising at Islam's Holiest Shrine (New York, 2007).
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↵17 Ervand Abrahamian, Iran between Two Revolutions (Princeton, 1982), 419–529; Keddie, Modern Iran, 132–213.
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↵18 F. Gregory Gause III, "Iraq's Decisions to Go to War, 1980 and 1990," Middle East Journal, 56 (Winter 2002), 47–70.
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↵19 Joost R. Hiltermann, A Poisonous Affair: America, Iraq, and the Gassing of Halabja (New York, 2007), 37–64.
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↵20 Gause, International Relations of the Persian Gulf, 81–85.
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↵21 On U.S. policy toward Iraq and Iran in the 1990s, see ibid., 88–135. Tripp, History of Iraq, 248–53. Iraq's neighbors dumped oil onto global spot markets and exceeded quotas set by OPEC not because they intended to harm Iraq directly; Kuwait and the United Arab Emirates, the two states most responsible for overproducing oil, had economic reasons of their own to do so. Even so, Saddam Hussein saw their actions as acts of betrayal. See Gause, "Iraq's Decisions to Go to War," 52–59.
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↵22 For a sober and devastating account of the politics of the sanctions regime, see Joy Gordon, Invisible War: The United States and the Iraq Sanctions (Cambridge, Mass., 2010). See also Sarah Graham-Brown, Sanctioning Saddam: The Politics of Intervention in Iraq (New York, 1999).
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↵23 Roger J. Stern, "United States Cost of Military Force Projection in the Persian Gulf, 1976–2007," Energy Policy, 38 (June 2010), 2816–25.
सूचना के अधिकार के बारे में |
भारत सरकार ने किसी सार्वजनिक प्राधिकरण के कार्यकरण में पारदर्शिता और जबावदेही को बढ़ाने के लिए सार्वजनिक प्राधिकरणों के नियंत्रण के अन्त्र्गत सूचना तक पहुंच पाने हेतु सूचना के अधिकार (आर टी आई) की व्यावहारिक व्यवस्थाा को उल्लिेखित करने के लिए "सूचना का अधिकार अधिनियमए 2005" अधिनियम बनाया है। सूचना का अधिकार क्या है? सूचना के अधिकार में ऐसी सूचना तक पहुंच पाने का प्रावधान है जो किसी सार्वजनिक प्राधिकरण ने धारित की है अथवा नियंत्रण में हैए इसमें कार्य की जांचए दस्तालवेजों/अभिलेखोंए दस्तािवेजोंध्अभिलेखों के टिप्प णोंए उद्धरणों या प्रमाणित प्रतियों और सामग्री के प्रमाणित नमूनों और ऐसी सूचना पाना जो इलैक्ट्रॉिनिक रूप में भी भण्डापरित है, को प्राप्त् करने का अधिकार शामिल है। सूचना हेतु कौन पूछ सकता है? कोई भी नागरिक निर्धारित शुल्को सहित लिखित रूप में आवेदन करके या अंग्रेजीध्हिन्दी्ध्क्षेत्र की राजभाषा में इलैक्ट्रॉ निक जरियों के माध्यलम से जिसमें आवेदन किया जा रहा हैए सूचना हेतु अनुरोध कर सकता है। सूचना कौन प्रदान करेगा? प्रत्येौक सार्वजनिक प्राधिकरण विभिन्ना स्तमरों पर एक केन्द्रीाय सहायक जन सूचना अधिकारी (सी ए पी आई ओ) पदनामित करेगा जो जनता से सूचना हेतु अनुरोध प्राप्तर करेगा। सभी प्रशासनिक ईकाइयों/कार्यालय में केन्द्री य जन सूचना अधिकारी जनता को आवश्यतक सूचना प्रदान करने की व्यइवस्थार करेगा। सूचना हेतु आवेदन पत्र /अनुरोध को 30 दिनों की अवधि के भीतर सूचना प्रदान करके अथवा अनुरोध को रद्द करते हुए निपटान किया जाना चाहिये। सूचना के प्रकटन से छूट (सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा 8(1)(ञ)) इस धारा में उल्लेेख है कि ष्ष्इस अधिनियम में निहित कोई बात के होते हुए भी किसी नागरिक को ऐसी सूचना देने में कोई बाद्धता नहीं होगीष्ष् जिसका व्यकक्तिोगत सूचना से संबंध होए जिसके प्रकटन का किसी सार्वजनिक क्रिया.कलाप या हित से कोई नाता ना होए या जिससे व्य क्तिं विशेष की निजता का अनधिकृत रूप से हस्ततक्षेप होता होए जब तक केन्द्री य जन सूचना अधिकारी या राज्यज जन सूचना अधिकारी या अपीलीय प्राधिकारीए जैसी भी स्थिनति होए संतुष्टर नहीं हो जाता है कि बड़े जनहित में ऐसी सूचना का प्रकटन न्या्योचित हैरू परन्तुद यह तब जबकि सूचना को संसद या किसी राज्य विधान सभा को नकारा ना जा सकता होए तो किसी व्य्क्तिज को भी नहीं नकारा जायेगा। अत: भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण प्रकटन मानदण्डि उल्लेख करते हैं: सूचना का अधिकार अधिनियमए 2005 की धारा 8(1)(ञ) के अनुसार और जनसांख्यिनकीय और बायोमेट्रिक डाटा (निवासी का व्यक्तिीगत डाटा) की गोपनीय प्रकृति को ध्याेन में रखते हुए केवल निवासीए जिससे डाटा संबंधित हैए सूचना मांग सकता है। कोई अन्यो आवेदक यह सूचना नहीं मांग सकता है। किसी अन्यक प्रार्थी को तीसरी किसी पार्टी या किसी अन्यय निवासी से संबंधित किसी व्याक्तियगत सूचना को नहीं दिया जायेगा ताकि आधार कार्यक्रम के तहत नामांकित निवासी की निजता सुरक्षित और गोपनीयता बनी रहे। आवेदक को कतिपय मामलों में पहचान की अतिरिक्तर वैधता देना भी अपेक्षित हो सकता है। निवासी का प्रक्रिया संबंधी स्तर, आधार संख्यांक या प्रेषण एवं सुपुर्दगी जैसे अपने नामांकनों का ब्यौरा मांगना: निवासी ई आई डी संख्यांक भरकर यू आई डी ए आई वेबसाइट (http://uidai.gov.in) से आधार जेनरेशन/संख्या् की स्थिरति प्राप्त कर सकता है। निवासी जनसांख्यिैकीय सूचना सहित ई आई डी संख्याआ भरकर निवासी पोर्टल (http://uidai.gov.in) से आधार पत्र अर्थात् ई.आधार के इलैक्ट्रॉ निक वर्शन को भी प्राप्तक कर सकता है। यदि समस्तत सूचना यू आई डी ए आई डाटाबेस में उपलब्ध् सूचना से मेल खाती है तो एक बारगी पासवर्ड (ओ टी पी) निवासी के मोबाइल नम्बिर या नामांकन के समय निवासी द्वारा दिए गए ई.मेल पते पर भेज दिया। किसी मामले मेंए निवासी जिसने नामांकन के समय मोबाइल नम्बगर औरध्या ई.मेल पता नहीं दिया है या उसने मोबाइल नम्बेर बदल दिया है तो सत्याबपन के पश्चाजत् एक बारगी पासवर्ड (ओ टी पी) पाने के लिए निवासी का नामए ई आई डी और पिन कोड सहित मोबाइल नम्ब र देना अपेक्षित होगा। ओ टी पी को ई.आधार डाउनलोड करना अपेक्षित होता है। निवासी संबंधित क्षेत्रीय कार्यालयों या संपर्क केन्द्रों द्वारा प्रक्रियानुसार विधिवत् सत्याापन के पश्चा त् यू आई डी ए आई के क्षेत्रीय कार्यालयों और संपर्क केन्द्रों् के जरिये ई.आधार भी प्राप्त कर सकता है। सूचना का अधिकार आवेदन शुल्क 'वेतन एवं लेखा अधिकारी, यू आई डी ए आई को देय नकद/मांग ड्राफ्ट/आई पी ओ के जरिये अधिनियम के अन्तर्गत आर टी आई आवेदन शुल्क' |
मुख्यालय और क्षेत्रीय कार्यालयों में मुख्य जन सूचना अधिकारी की सूची |
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा 4(1)(ख) के अन्तर्गत अनिवार्य मदों को प्रकाशित करना | सूचना की वर्तमान स्थिति | |
i. | इसके संगठनए कार्यों और कर्तव्यों के विवरण | |
ii. | इसके अधिकारियों और कर्मचारियों की शक्तियां और कर्त्तव्य | |
iii. | पर्यवेक्षण एवं जवाबदेही के माध्यमों सहित प्रक्रिया बनाने के उनके निर्णय में अपनाई गई कार्यविधि | भारत सरकार के मंत्रालयों/विभागों पर लागू मानदण्ड/और अनुदेश यू आई डी ए आई के प्रशासनिक कार्यों पर भी लागू होते हैं। |
iv. | इसके कार्यों को निभाने हेतु इसके द्वारा निर्धारित मानदण्ड | भारत सरकार के मंत्रालयों/विभागों पर लागू मानदण्ड/और अनुदेश यू आई डी ए आई के प्रशासनिक कार्यों पर भी लागू होते हैं। |
v. | इसके कार्यों को निभाने हेतु इसके कर्मचारियों द्वारा प्रयुक्त किए नियम, विनियम, अनुदेश, मैनुअल और अभिलेख। | भारत सरकार के मंत्रालयों/विभागों पर लागू सामान्य नियम/विनियम आदि यू आई डी ए आई को भी लागू होते हैं। |
vi. | इसके द्वारा धारित या इसके नियंत्रणाधीन दस्तावेजों की श्रेणियों की विवरणी। | यू आई डी ए आईए विशिष्ट पहचान (यू आई डी) परियोजना से संबंधित दस्ता्वेज धारित करता है और जो "UIDAI Documents" के भाग में वेबसाइट पर उपलब्ध हैं। |
vii. | ऐसी किसी व्यवस्था के विवरण जो नीति के निष्पादन या इसके कार्यान्व्यन के बारे में विचार-विमर्श या जनता के सदस्योंा द्वारा प्रतिनिधित्व हेतु मौजूद है। | यू आई डी ए आई विशेष विचारों पर विभिन्न पणधारियों से विचार-विमर्श करता है। इसके अलावा, जनता के सदस्यों से ई-मेल द्वारा सुझाव लिये जाते हैं। |
viii. | इसके द्वारा गठित बोर्डो, परिषदों, समितियां और दो या दो से अधिक शामिल व्योक्तिोयों के अन्य निकायों की विवरणी। इसके अतिरिक्त ए ऐसी सूचना कि क्या इसकी बैठकें जनता के लिए खुली हैं या ऐसी बैठकों के कार्यवृत्तों तक जनता तक पहुंच होती है। | यू आई डी ए आई द्वारा 3 समितियॉं बनाई गई थी:
इन समितियों की रिपोर्टें यू आई डी ए आई की वेबसाइट पर उपलब्ध हैं।. (विस्तृत सूचना) यू आई डी ए आई द्वारा जारी प्रेस नोट यू आई डी ए आई की वेबसाइट पर उपलब्ध हैं।(विस्तृत सूचना) |
ix. | इसके अधिकारियों और कर्मचारियों की डायरेक्ट्री | कृपया हमें संपर्क करें पर देंखे (विस्तृत सूचना) |
x. | इसके प्रत्ये क अधिकारी और कर्मचारी द्वारा प्राप्त् मासिक प्रतिपूर्ति जिसमें इसके विनियमों में प्रावधान किए अनुसार प्रतिपूर्ति भी शामिल है। | |
xi. | सभी योजनाओं के विवरण, प्रस्तावित व्यय और किए गए संवितरणों पर रिपोर्टं दर्शाते हुए इसकी प्रत्येक एजेंसी को आबंटित बजट | |
xii. | सब्सििडी कार्यक्रमों के निष्पाबदन की रीति जिसमें आबंटित राशि और इसमें ऐसे कार्यक्रमों के लाभार्थियों के विवरण भी शामिल हैं। | लागू नहीं |
xiii. | इसके द्वारा मंजूर की गई छूट, परमिट या अनुज्ञप्ति पाने वालों के विवरण | लागू नहीं |
xiv. | इसके द्वारा प्राप्त या धारित सूचना का ब्यौ्रा जिसे इलैक्ट्रॉेनिक रूप में किया गया हो। | इलैक्ट्रॉ निक रूप में सूचना वेबसाइट पर उपलब्ध है। |
xv. | पुस्तधकालय या अध्ययन कक्ष, यदि जनता के उपयोग हेतु बनाया है, की कार्यावधि सहित सूचना प्राप्ता करने हेतु नागरिकों को उपलब्धू सेवाओं के विवरण। | यू आई डी ए आई द्वारा बनाया गया कोई पब्लिक पुस्तकालय या अध्ययन कक्ष नहीं है। |
xvi. | केन्दीय जन सूचना अधिकारी के नामए पदनाम और अन्यी विवरण। |
http://uidai.gov.in/hindi/index.php/extensions.html
Right to privacy
From Wikipedia, the free encyclopedia
"The Right to Privacy" redirects here. For the law review article, see The Right to Privacy (article).
The right to privacy is a human right and an element of various legal traditions which may restrain both government and private party action that threatens the privacy of individuals.[1]
Contents
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Background[edit source | editbeta]
Privacy uses the theory of natural rights, and generally responds to new information and communication technologies. In the United States, an article in the December 15, 1890 issue of the Harvard Law Review, written by attorney Samuel D. Warren and future U.S. Supreme Court Justice Louis Brandeis, entitled The Right To Privacy, is often cited as the first implicit declaration of a U.S. right to privacy. Warren and Brandeis wrote that privacy is the "right to be let alone", and focused on protecting individuals. This approach was a response to recent technological developments of the time, such as photography, and sensationalist journalism, also known as "yellow journalism".[2]
Privacy rights are inherently intertwined with information technology. In his widely cited dissenting opinion in Olmstead v. United States(1928), Brandeis relied on thoughts he developed in his 1890 article The Right to Privacy. But in his dissent, he now changed the focus whereby he urged making personal privacy matters more relevant to constitutional law, going so far as saying "the government [was] identified .... as a potential privacy invader." He writes, "Discovery and invention have made it possible for the Government, by means far more effective than stretching upon the rack, to obtain disclosure in court of what is whispered in the closet." At that time, telephones were often community assets, with shared party lines and the potentially nosey human operators. By the time of Katz, in 1967, telephones had become personal devices with lines not shared across homes and switching was electro-mechanical. In the 1970s, new computing and recording technologies began to raise concerns about privacy, resulting in the Fair Information Practice Principles.
Definitions[edit source | editbeta]
In recent years there have been only few attempts to clearly and precisely define a "right to privacy." In 2005, students of the Haifa Center for Law & Technology asserted that in fact the right to privacy "should not be defined as a separate legal right" at all. By their reasoning, existing laws relating to privacy in general should be sufficient.[3] Other experts, such as Dean Prosser, have attempted, but failed, to find a "common ground" between the leading kinds of privacy cases in the court system, at least to formulate a definition.[3]One law school treatise from Israel, however, on the subject of "privacy in the digital environment," suggests that the "right to privacy should be seen as an independent right that deserves legal protection in itself." It has therefore proposed a working definition for a "right to privacy":
The right to privacy is our right to keep a domain around us, which includes all those things that are part of us, such as our body, home, property, thoughts, feelings, secrets and identity. The right to privacy gives us the ability to choose which parts in this domain can be accessed by others, and to control the extent, manner and timing of the use of those parts we choose to disclose.[3]
An individual right[edit source | editbeta]
Alan Westin believes that new technologies alter the balance between privacy and disclosure, and that privacy rights may limit government surveillance to protect democratic processes. Westin defines privacy as "the claim of individuals, groups, or institutions to determine for themselves when, how, and to what extent information about them is communicated to others". Westin describes four states of privacy: solitude, intimacy, anonymity, reserve. These states must balance participation against norms:
Each individual is continually engaged in a personal adjustment process in which he balances the desire for privacy with the desire for disclosure and communication of himself to others, in light of the environmental conditions and social norms set by the society in which he lives. - Alan Westin, Privacy and Freedom, 1968[4]
Under liberal democratic systems, privacy creates a space separate from political life, and allows personal autonomy, while ensuring democratic freedoms of association and expression.
David Flaherty believes networked computer databases pose threats to privacy. He develops 'data protection' as an aspect of privacy, which involves "the collection, use, and dissemination of personal information". This concept forms the foundation for fair information practices used by governments globally. Flaherty forwards an idea of privacy as information control, "[i]ndividuals want to be left alone and to exercise some control over how information about them is used".[5]
Richard Posner and Lawrence Lessig focus on the economic aspects of personal information control. Posner criticizes privacy for concealing information, which reduces market efficiency. For Posner, employment is selling oneself in the labour market, which he believes is like selling a product. Any 'defect' in the 'product' that is not reported is fraud.[6] For Lessig, privacy breaches online can be regulated through code and law. Lessig claims "the protection of privacy would be stronger if people conceived of the right as a property right", and that "individuals should be able to control information about themselves".[7] Economic approaches to privacy make communal conceptions of privacy difficult to maintain.
A collective value and a human right[edit source | editbeta]
There have been attempts to reframe privacy as a fundamental human right, whose social value is an essential component in the functioning of democratic societies.[8] Amitai Etzioni suggests a communitarian approach to privacy. This requires a shared moral culture for establishing social order.[9] Etzioni believes that "[p]rivacy is merely one good among many others",[10] and that technological effects depend on community accountability and oversight (ibid). He claims that privacy laws only increase government surveillance.[11]
Priscilla Regan believes that individual concepts of privacy have failed philosophically and in policy. She supports a social value of privacy with three dimensions: shared perceptions, public values, and collective components. Shared ideas about privacy allows freedom of conscience and diversity in thought. Public values guarantee democratic participation, including freedoms of speech and association, and limits government power. Collective elements describe privacy as collective good that cannot be divided. Regan's goal is to strengthen privacy claims in policy making: "if we did recognize the collective or public-good value of privacy, as well as the common and public value of privacy, those advocating privacy protections would have a stronger basis upon which to argue for its protection".[12]
Leslie Regan Shade argues that the human right to privacy is necessary for meaningful democratic participation, and ensures human dignity and autonomy. Privacy depends on norms for how information is distributed, and if this is appropriate. Violations of privacy depend on context. The human right to privacy has precedent in the United Nations Declaration of Human Rights. Shade believes that privacy must be approached from a people-centered perspective, and not through the marketplace.[13]
Universal Declaration of Human Rights[edit source | editbeta]
A right to privacy is explicitly stated under Article 12 of the Universal Declaration of Human Rights:
No one shall be subjected to arbitrary interference with his privacy, family, home or correspondence, nor to attacks upon his honour and reputation. Everyone has the right to the protection of the law against such interference or attacks.[14]
United States[edit source | editbeta]
The U.S. Supreme Court has found that the Constitution implicitly grants a right to privacy against governmental intrusion. This right to privacy has been the justification for decisions involving a wide range of civil liberties cases, including Pierce v. Society of Sisters, which invalidated a successful 1922 Oregon initiative requiring compulsory public education, Griswold v. Connecticut, where a right to privacy was first established explicitly, Roe v. Wade, which struck down a Texas abortion law and thus restricted state powers to enforce laws against abortion, and Lawrence v. Texas, which struck down a Texas sodomy law and thus eliminated state powers to enforce laws against sodomy.
The 1890 Warren and Brandeis article "The Right To Privacy", is often cited as the first implicit declaration of a U.S. right to privacy.[2]This right is frequently debated. Strict constructionists[who?] argue that no such right exists (or at least that the Supreme Court has no jurisdiction to protect such a right), while some civil libertarians[who?] argue that the right invalidates many types of currently allowed civilsurveillance (wiretaps, public cameras, etc.).
Most states of the United States also grant a right to privacy and recognize four torts based on that right:
Intrusion upon seclusion or solitude, or into private affairs;
Public disclosure of embarrassing private facts;
Publicity which places a person in a false light in the public eye; and
Appropriation of name or likeness.
Journalism[edit source | editbeta]
* | This section does not cite any references or sources. Please help improve this section byadding citations to reliable sources. Unsourced material may be challenged and removed.(June 2013) |
It is often claimed, particularly by those in the eye of the media, that their right to privacy is violated when information about their private lives is reported in the press. The point of view of the press, however, is that the general public have a right to know personal information about those with status as a public figure. This distinction is encoded in most legal traditions as an element of freedom of speech.
Arguments for and against the right to privacy[edit source | editbeta]
* | This section requires expansion. (June 2013) |
In 1999, during a launch event for the Jini technology, Scott McNealy, the chief executive officer of Sun Microsystems, said that privacy issues were "a red herring" and then stated "You have zero privacy anyway. Get over it."[15]
Related arguments[edit source | editbeta]
The nothing to hide argument is an argument which states that government data mining and surveillance programs do not threaten privacy unless they uncover illegal activities, and that if they do uncover illegal activities, the person committing these activities does not have the right to keep them private. Hence, a person who favors this argument may state "I've got nothing to hide" and therefore does not express opposition to government data mining and surveillance.[16] The data can still be misused though, for example if a third-party gains access to it.
See also[edit source | editbeta]
References[edit source | editbeta]
Mordini, Emilio. "Nothing to Hide — Biometrics, Privacy and Private Sphere." In: Schouten, Ben, Niels Christian Juul, Andrzej Drygajlo, and Massimo Tistarelli (editors). Biometrics and Identity Management: First European Workshop, BIOID 2008, Roskilde, Denmark, May 7-9, 2008, Revised Selected Papers. Springer Science+Business Media, 2008. p. 245-258. ISBN 3540899901, 9783540899907.
Notes[edit source | editbeta]
^ a b Warren and Brandeis, "The Right To Privacy", 4 Harvard Law Review 193 (1890)
^ a b c Yael Onn, et al., Privacy in the Digital Environment , Haifa Center of Law & Technology, (2005) pp. 1-12
^ Westin, A. (1968). Privacy and freedom (Fifth ed.). New York, U.S.A.: Atheneum.
^ Flaherty, D. (1989). Protecting privacy in surveillance societies: The federal republic of Germany, Sweden, France, Canada, and the United States. Chapel Hill, U.S.: The University of North Carolina Press.
^ Posner, R. A. (1981). The economics of privacy. The American Economic Review, 71(2), 405-409.
^ Lessig, L. (2006). Code: Version 2.0. New York, U.S.: Basic Books.
^ Johnson, Deborah (2009). Beauchamp, Bowie, Arnold, ed.Ethical theory and business. (8th ed. ed.). Upper Saddle River, N.J.: Pearson/Prentice Hall. pp. 428–442. ISBN 0136126022.
^ Etzioni, A. (2006). Communitarianism. In B. S. Turner (Ed.), The Cambridge Dictionary of Sociology (pp. 81-83). Cambridge, UK: Cambridge University Press.
^ Etzioni, A. (2007). Are new technologies the enemy of privacy? Knowledge, Technology & Policy, 20, 115-119.
^ Etzioni, A. (2000). A communitarian perspective on privacy. Connecticut Law Review, 32(3), 897-905.
^ Regan, P. M. (1995). Legislating privacy: Technology, social values, and public policy. Chapel Hill, U.S.: The University of North Carolina Press.
^ Shade, L. R. (2008). Reconsidering the right to privacy in Canada. Bulletin of Science, Technology & Society, 28(1), 80-91.
^ United Nations. (1948). Universal Declaration of Human Rights. Retrieved October 7, 2006 fromhttp://www.un.org/Overview/rights.html
^ Sprenger, Polly. "Sun on Privacy: 'Get Over It'." Wired. January 26, 1999. Retrieved on June 29, 2013.
Further reading
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पृष्ठभूमि | |
भारत के प्रत्येक निवासियों को प्रारंभिक चरण में पहचान प्रदान करने एवं प्राथमिक तौर पर प्रभावशाली जनहित सेवाऐं उपलब्ध कराने के उद्देश्य से प्रारंभ में विशिष्ट पहचान परियोजना पर योजना आयोग द्वारा विचार किया गया था। यह सरकार के विभिन्न स्कीमों, कार्यक्रमों की प्रभावशाली निगरानी में एक औज़ार की तरह भी काम करेगा। (क) विशिष्ट पहचान के विचार पर पहली बार 2006 में चर्चा कर तब कार्य प्रारंभ किया गया, जब सूचना प्रौद्योगिकी विभाग, संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा ''गरीबी रेखा के नीचे बसे परिवारों के लिये विशिष्ट पहचान'' परियोजना 3 मार्च, 2006 को प्रशासनिक अनुमोदन दिया गया। यह परियोजना राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केन्द्र (एनआईसी) द्वारा 12 माह की अवधि में लागू किया जाना था । बाद में जुलाई, 2006 को गरीबी रेखा के नीचे बसे परिवारों के लिये विशिष्ट पहचान परियोजना के अंतर्गत मुख्य डाटाबेस के डाटा फील्ड्स में उन्हें अद्यतन, संशोधन, जोड़ने, हटाने आदि की प्रक्रिया पर सलाह देने हेतु प्रक्रिया समिति बनाई गई। यह डा. अरविन्द विरमानी, प्रमुख सलाहकार, योजना आयोग की अध्यक्षता में बनाई गयी। (ख) यू.आई.डी.ए.आई. परियोजना पर एक रणनीतिक दृष्टिकोण, मेसर्स विप्रो लिमिटेड (यू.आई.डी.ए.आई. के पायलट परियोजना में डिजाइन चरण एवं प्रबंधन चरण के परामर्शदाता) द्वारा तैयार कर इस समिति को प्रस्तुत किया गया। यह परिकल्पना की गई है कि (यू.आई.डी.ए.आई. का चुनावी डाटाबेस के साथ निकट का संबंध होगा। समिति ने योजना आयोग के तत्वावधान में एक अंतर्विभागीय एवं तटस्थ पहचान सुनिश्चित करने के लिये एक कार्यकारी आदेश के द्वारा एक प्राधिकरण बनाये जाने की आवश्यकता की अनुशंसा की थी और इसी के साथ यह 11वीं योजना के लिये निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहेगा। 30 अगस्त 2009 को आयोजित प्रक्रिया समिति की 7वीं बैठक में योजना आयोग को ''सिद्धांत रूप में'' संसाधन मॉडल पर आधारित एक विस्तृत प्रस्ताव प्रस्तुत करने का निर्णय लिया गया है। (ग) इसी समय में, भारत के महापंजीयक, भारत के नागरिकों के लिये राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर एवं बहुउद्देशीय राष्ट्रीय पहचान कार्ड बनाने में कार्यरत थे। (घ) अतएव, प्रधानमंत्री के अनुमोदन के साथ यह निर्णय लिया गया कि अधिकार प्राप्त मंत्रियों के समूह (ईजीओएम) का गठन किया जाये जो दो योजनाओं- नागरिकता अधिनियम, 1955 के अंतर्गत राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर एवं सूचना प्रौद्योगिकी विभाग की विशिष्ट पहचान संख्या परियोजना की तुलना कर सके। परियोजना की कार्यप्रणाली, इसके शीघ्र और प्रभावी समापन हेतु विशेष मील-पत्थर (प्रगति चरणों) पर नजर रखने और इन पर अंतिम निर्णय लेने के लिए अधिकार प्राप्त मंत्रियों के समूह (ईजीओएम) को अधिकार दिए गए । मंत्रियों के समूह का गठन 4 दिसंबर 2006 को किया गया। • मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समूहों की पहली बैठक 27 नवंबर 2007 को आयोजित की गयी। इसमें पहचान संबंधी निवासी डाटाबेस बनाने की आवश्यकता को मान्यता दी गई, भले ही डाटाबेस व्यक्ति विशेष के डाटा केा नए सिरे से एकत्र किया था । पहले से मौजूद डाटाबेस जैसे मतदाता सूची से संग्रह किया गया हो। डाटाबेस निर्माण के बाद इसके रख-रखाव एवं निरंतर आधार पर अद्यतन करने का दायित्व लेने के लिये संस्थागत तंत्र की पहचान करने एवं स्थापित करने की महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य आवश्यकता रही जो इसको स्वंय का डाटाबेस कहेगा । • मंत्रियों के समूह की दूसरी बैठक 28 जनवरी 2008 को आयोजित की गई। इसमें एन.पी.आर. एवं यू.आई.डी.ए.आई. के मिलान की रणनीति पर चर्चा की गई। अन्य बातों के साथ योजना आयोग के अधीन यू.आई.डी.ए.आई. को स्थापित करने के प्रस्ताव को अनुमोदित किया गया। • मंत्रियों के समूह की तीसरी बैठक 7 अगस्त 2008 को आयोजित की गई थी। योजना आयोग ने मंत्रियों के समूह के समक्ष यू.आई.डी.ए.आई. स्थापित करने का एक विस्तृत प्रस्ताव प्रस्तुत किया। बैठक में निर्णय लिया गया कि कुछ सदस्यों द्वारा यू.आई.डी.ए.आई. के संबंध में (मंत्रियों की बैठक की कार्यवाही का संलग्नक) उठाये गये मुद्दों को अधिकारिक स्तरीय समिति द्वारा जांचने की आवश्यकता को देखते हुए इस मामले को सचिवों की एक समिति को जांचने एवं अपनी सिफारिशों से अधिकार प्राप्त मंत्रियों के समूह को अवगत कराने हेतु सौंपना चाहिए ताकि अंतिम निर्णय लेने में सुविधा हो। • सचिवों की समिति की सिफारिशों के बाद मंत्रियों के समूह की चौथी बैठक 4 नवंबर 2008 को हुई। मंत्रियों के समूह ने सचिवों की सिफारिशों को प्रस्तुत किया गया था एवं निम्नलिखित निर्णय लिये गये। (क) शुरू में यू.आई.डी.ए.आई. को एक कार्यकारी प्राधिकरण के रूप अधिसूचित कर सकते हैं तथा बाद में इसे उपयुक्त समय पर वैधानिक अधिकार प्रदान कर सकते हैं। (ख) यू.आई.डी.ए.आई. मतदाता सूची/ईपीआईसी आंकड़ों से प्रारंभिक डाटाबेस बनाने तक की गतिविधि कर सकता है। लेकिन यू.आई.डी.ए.आई. डाटा तत्वों का मानकीकरण सुनिश्चित करने के लिये डाटाबेस निर्माण करने वाले एजेंसियों को अतिरिक्त अनुदेश दे सकता है। (ग) यू.आई.डी.ए.आई. , डाटाबेस के निर्माण में अपना निर्णय स्वयं लेगा। (घ) यू.आई.डी.ए.आई. को 5 वर्षों के लिये योजना आयोग के भरोसे रहना होगा बाद में एक राय ली जायेगी कि यू.आई.डी.ए.आई. को सरकार के भीतर किस रूप में और कहां स्थान दिया जाये। (ङ) केंद्रीय स्तर पर यू.आई.डी.ए.आई. का गठन 10 कर्मियों की कोर टीम के साथ किया जायेगा एवं योजना आयोग को निर्देशित किया जायेगा कि वह यू.आई.डी.ए.आई. के लिये अलग से पूरे ढांचा, बाकी स्टॅाफ, संगठनात्मक ढांचा आदि सामान्य प्रक्रिया के अधीन अनुमोदन प्राप्त करने से पहले केबिनेट सचिव के पास उसके विचारार्थ इलेक्ट्रानिक विभाग/सीसीईए के माध्यम से विस्तृत प्रस्ताव करे। (च) केंद्रीय स्तर पर यू.आई.डी.ए.आई. के साथ-साथ राज्य स्तर पर यू.आई.डी.ए.आई. के 3 कर्मियों की कोर टीम को मंजूरी। (छ) यू.आई.डी.ए.आई. को इस कार्य को आरम्भ कर प्रथम सेट जारी करने के लिये दिसंबर 2009 का लक्ष्य दिया गया था। (ज) मौजूदा प्रक्रिया के अनुसार डीओई एवं सीसीईए के माध्यम से पूर्ण संगठनात्मक ढांचा एवं स्टॅाफ के घटकों के लिये अनुमोदन प्राप्त करने से पहले केबिनेट सचिव को एक बैठक बुलाकर संगठनात्मक ढांचा, स्टॅाफ एवं अन्य आवश्यकताओं को अंतिम रूप देना होगा। 1.1 बाद में, 22 जनवरी 2009 को केबिनेट सचिव ने अधिकार प्राप्त मंत्रियों के समूह के निर्णय के अनुसरण में सूचना प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा शासनिक ढांचे के बारे में प्रस्तुत प्रस्ताव पर विचार करते हुए निम्न अनुशंसाऐं की हैं- (क) यू.आई.डी.ए.आई. के गठन हेतु अधिसूचना तत्काल जारी की जानी चाहिये। (ख) यू.आई.डी.ए.आई. के कार्य पर नजर रखने के लिये एक उच्च स्तरीय सलाहकारों, निगरानी एवं समीक्षा समिति का गठन योजना आयोग के उपाध्यक्ष की अगुवाई में किया जाना चाहिए। (ग) सदस्य/सचिव, योजना आयोग को आयुक्त, यू.आई.डी.ए.आई. को दिये गये कार्य की देखभाल का कार्य सौंपा जाना चाहिये। (घ) कोर टीम को यथास्थान रखा जाना चाहिए। 1.2 अधिकार प्राप्त मंत्रियों के समूह की 4 नवंबर 2008 को हुई चौथी बैठक का अनुसरण करते हुए, यू.आई.डी.ए.आई. का गठन किया गया एवं 28 जनवरी 2009 को योजना आयोग के संरक्षण में 115 अधिकारियों की कोर टीम के साथ संबद्ध कार्यालय के रूप में अधिसूचित किया गया। यू.आई.डी.ए.आई. की जिम्मेदारियों एवं भूमिका इस अधिसूचना में निर्धारित की गई थी। यू.आई.डी.ए.आई. को अपनी योजनाओं और नीतियों को लागू करने के लिए डाटाबेस अपने पास रखने एवं उसे ऑपरेटर करने की जिम्मेदारी दी गई थी और निरंतरता के आधार पर डाटाबेस को अद्यतन करने एवं उसके रख-रखाव की जिम्मेदारी भी दी गई है। | |
प्रधानमंत्री की परिषद | |
यू.आई.डी.ए.आई. पर प्रधानमंत्री की परिषदः- 02 जुलाई 2009 को प्रधानमंत्री की मंत्री परिषद की अनुशंसा के बाद, भारत सरकार द्वारा श्री नंदन एम निलेकणी को केबिनेट मंत्री के दर्जे एवं ओहदे के साथ यू.आई.डी.ए.आई. के अध्यक्ष के रूप में 5 वर्षों के लिये नियुक्त किया गया। श्री निलेकणी ने 23 जुलाई 2009 को इसके अध्यक्ष पद का कार्यभार सम्भाला। यू.आई.डी.ए.आई. पर प्रधानमंत्री की परिषद को 30 जुलाई 2009 को स्थापित किया गया था। परिषद यू.आई.डी.ए.आई. को उसके कार्यक्रम, कार्य प्रणाली और क्रियान्वयन पर सलाह देनी है ताकि मंत्रालय /विभागों /पणधारियों /साझेदारों के बीच समन्वयन सुनिश्चित हो सके। परिषद की हर 3 माह में एक बैठक होगी। यू.आई.डी.ए.आई. पर प्रधानमंत्री परिषद की पहली बैठक 12 अगस्त 2009 को आयोजित की गई थी। प्रधानमंत्री परिषद के प्रमुख निर्णय निम्नलिखित थे: वैधानिक ढांचे की आवश्यकता। कार्यनीति का व्यापक समर्थन । भागीदारों को बजट सहायता। बायोमेट्रिक एवं जनसांख्यिकीय मानक स्थापित करना। यू.आई.डी.ए.आई. के ढांचे की रूप-रेखा अनुमोदित करना। कार्मिक एवं अन्य मामलों में उदारता। अधिकारियों का चयन, तैनाती और उनकी वापसी। सरकारी आवास की पात्रता। पदों की व्यापक बैंडिंग मार्किट से विशेषज्ञों को लेना पी आई ओ की वैश्विक सलाहकार परिषद का गठन इन्टर्स एवं सब्बाटिकल ग्लोबल प्रोक्योर्मेन्ट | |
मंत्रीमंडल समिति | |
भारत सरकार ने 22 अक्टूबर 2009 को यू.आई.डी.ए.आई. पर मंत्रीमंडल समिति के गठन के आदेश जारी किये। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित इस समिति में वित्त, कृषि, उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति, गृह, विदेश, विधि, संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी, श्रम एवं रोज़गार , मानव संसाधन विकास, ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज, आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन एवं पर्यटन मंत्रियों को शामिल किया गया है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष एवं यू.आई.डी.ए.आई. के अध्यक्ष इसके विशेष आमंत्रित सदस्य हैं। माननीय प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली इस समिति के कार्य निम्नानुसार होंगेः- यू.आई.डी.ए.आई. से संबंधित सभी मुद्दे जिसमें शामिल हैं संगठन, योजनाओं, नीतियों, कार्यक्रम, स्कीमें, वित्त पोषण एवं यू.आई.डी.ए.आई. के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये अपनाई जाने वाली कार्य-प्रणाली। | |
जनादेश और उद्देश्य | |
यू.आई.डी.ए.आई. से संबंधित सभी मुद्दे जिसमें शामिल हैं संगठन, योजनाओं, नीतियों, कार्यक्रम, स्कीमें, वित्त पोषण एवं यू.आई.डी.ए.आई. के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये अपनाई जाने वाली कार्य-प्रणाली। यू.आई.डी.ए.आई. को योजना आयोग के अधीन एक संबद्ध कार्यालय के रूप में बनाया गया है। इसकी भूमिका, भारतीय निवासियों को विशिष्ट पहचान संख्या जारी करने हेतु आवश्यक संस्थागत, तकनीकी एवं वैधानिक संरचना विकसित करना एवं इसे लागू करना है। 25 जून 2009 को केबिनेट द्वारा यू.आई.डी.ए.आई. का अध्यक्ष पद स्वीकृत एवं अनुमोदित किया गया एवं श्री नंदन एम.निलेकणी को केबिनेट मंत्री का दर्जा एवं पद के साथ इसके प्रथम अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। श्री रामसेवक शर्मा को महानिदेशक नियुक्त किया गया है। | |
अभियान एवं समय-सीमा | |
अभियान अभियानः यू.आई.डी.ए.आई. की भूमिका विशिष्ट पहचान संख्या जारी करना है एवं उनका आन-लाइन सत्यापन तथा प्रमाणीकरण और कम लागत के द्वारा डुप्लिकेट एवं जाली पहचान को सशक्त रूप से रोकना है। समय-सीमा समय-सीमाः अगस्त 2009 में शुरू कर अगले 12-18 माह में यू.आई.डी.ए.आई. को संख्या जारी करना होगा। पहली संख्या अगस्त 2010 से फरवरी 2011 के मध्य जारी करनी होगी। यू.आई.डी.ए.आई. 5 वर्षों में 60 करोड़ विशिष्ट पहचान संख्या जारी करने की योजना बना रहा है। पहचान संख्याओं को विभिन्न पंजीयक-एजेंसियों के माध्यम से पूरे भारत में जारी किया जायेगा। | |
संगठन विवरण | |
28 जनवरी 2009 को एक अधिसूचना के द्वारा योजना आयोग के संबद्ध कार्यालय के रूप में 115 अधिकारियों और स्टॅाफ की कोर टीम के साथ यू.आई.डी.ए.आई. को स्थापित किया गया। अधिसूचना के अधीन 3 पद (महानिदेशक, उपमहानिदेशक, सहायक महानिदेशक) मुख्यालय हेतु एवं विशिष्ट पहचान आयुक्तों के 35 पद प्रत्येक राज्यों हेतु स्वीकृत किये गये हैं। इसके बाद यह निर्णय लिया गया कि बंगलुरु, चंडीगढ़, दिल्ली, हैदराबाद, गौहाटी, लखनऊ, मुम्बई एवं रांची में क्षेत्रीय कार्यालय खोले जायें। एक तकनीकी केन्द्र बंगलूरू में स्थापित किया गया। सितंबर 2009 में 268 अतिरिक्त पदों का सृजन किया गया। वर्तमान में यू.आई.डी.ए.आई. के पास अधिकारियों एवं कर्मचारियों के कुल 383 स्वीकृत पद हैं। मुख्यालय संगठनः यू.आई.डी.ए.आई. का मुख्यालय, अध्यक्ष, श्री नंदन निलेकणी एवं महानिदेशक एवं अभियान निदेशक, आर. एस. शर्मा के साथ नई दिल्ली में स्थापित है। संगठनात्मक डिजाइन में महानिदेशक की सहायता के लिये 7 उप-महानिदेशक, संयुक्त सचिव स्तर के हैं जो विभिन्न खण्डों के प्रभारी हैं । एक उप-महानिदेशक वित्त प्रकोष्ठ का मुखिया है। उप-महानिदेशक की सहायता के लिये 21 सहायक महानिदेशक, 15 उपनिदेशक, 15 अनुभाग अधिकारी, 15 सहायक होंगे। मुख्यालय की लेखा एवं आई.टी. शाखा को मिलाकर अधिकारियों एवं कर्मचारियों का कुल स्वीकृत स्टॅाफ 146 कर्मियों का है। सभी अधिकारी/कर्मचारी केन्द्रीय कर्मचारी स्कीम के तहत अथवा द्विपक्षीय माध्यम के द्वारा प्रतिनियुक्ति पर नियुक्त किये गये हैं। स्वीकृत पदों में से 85 कार्यरत हैं एवं बचे हुए स्टॅाफ हेतु प्रक्रिया जारी है। क्षेत्रीय कार्यालयों का संगठनात्मक ढांचाः – प्रत्येक क्षेत्रीय कार्यालय डीडीजी की देख-रेख में कार्य करेगा। सहयोग में 4 एडीजी 3 उपनिदेशक, 3 अनुभाग अधिकारी, 1 वरिष्ठ लेखा अधिकारी, 1 लेखापाल एवं निजी स्टॅाफ होगा। क्षेत्रीय कार्यालय एवं उनके क्षेत्र में आने वाले राज्यों/केन्द्र शासित प्रदेशों की सूची निम्न दी गई हैः- संगठन चार्ट | |
प्रधान कार्यालय (प्र.का.) * बड़ा देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें | |
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क्षेत्रीय कार्यालय (क्षे.का.) * बड़ा देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें | |
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योजना आयोग इसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री हैं, एवं यह राष्ट्रीय विकास परिषद के पूर्ण मार्गदर्शन के अधीन कार्य करता है। आयोग के उपाध्यक्ष एवं पूर्णकालिक सदस्य, विषय प्रभागों को वार्षिक योजना राज्य योजनाऐं, परियोजनायें, पंचवर्षीय योजना के सूत्रीकरण हेतु सलाह एवं मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। | |
यू.आई.डी.ए.आई. मुख्यालय | |
अध्यक्ष | |
* वर्तमान में श्री नंदन निलेकणी केबिनेट मंत्री के दर्जे के साथ भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यू.आई.डी.ए.आई. ) के अध्यक्ष हैं, जिनका उद्देश्य भारत के सभी निवासियों को विशिष्ट पहचान संख्या उपलब्ध कराना है। श्री नंदन हाल ही तक 1981 में स्थापित इनफोसिस टेक्नोलाजी के सह संस्थापक एवं निदेशक मण्डल के सह-अध्यक्ष थे। स्थापना के बाद से 2009 तक कंपनी के निदेशक के रूप में सेवाऐं देते रहे थे। उन्होंने इंफोसिस में विभिन्न पदों पर कार्य किया है, और वे मुख्य कार्यकारी अधिकारी, प्रबंध निदेशक, अध्यक्ष एवं मुख्य ऑपरेटरिंग अधिकारी रहें। श्री निलेकणी भारत की साफ्टवेयर एवं सेवा कंपनियों के राष्ट्रीय संघ (नेस्काम) एवं बंगलूरू चैपटर के लिये दी इंडस इंटरप्रिन्यूर (टाई) के सह संस्थापक भी हैं। श्री निलेकणी अंतर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्र संबंधों पर अनुसंधान के लिये भारतीय परिषद (आईसीआरआईईआर) के गवर्नर मण्डल के सदस्य एवं एनसीएईआर (भारतीय स्वतंत्र व्यवहारिक अर्थशास्त्र अनुसंधान संस्थान) के अध्यक्ष भी हैं। बैंगलूरू में जन्में श्री निलेकणी ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई से विद्युत यांत्रिकी में स्नातक की डिग्री ली है। इन्हें (2004) में सीएनबीसी द्वारा आयोजित एशिया बिजनेस लीडर अवार्ड में वर्ष कार्पोरेट सिटीजन हेतु नामित किया गया था। वर्ष 2005 में इन्हें, अर्थशास्त्र विज्ञान एवं राजनीति शास्त्र पर नवीन सेवाओं के लिये प्रतिष्ठित जोसेफ शुमपीटर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 2006 में इन्हें भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ''पद्म भूषण'' प्रदान किया गया। इसी वर्ष फोब्र्स एशिया द्वारा ''बिसनेसमेन आफ द इअर'' से भी सम्मानित किया गया। टाइम पत्रिका द्वारा वर्ष 2006 एवं 2009 में इन्हें विश्व के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों में सूचीबद्ध किया गया था। | |
महानिदेशक एवं अभियान संचालक | |
परियोजना के लिए मुख्य कार्यकारी अधिकारी यानी महानिदेशक एवं अभियान संचालक नियुक्त किया गया है। श्री आर.एस. शर्मा को यू.आई.डी.ए.आई. का प्रथम महानिदेशक नियुक्त किया गया है। श्री शर्मा, अपर सचिव पद के अधिकारी हैं एवं भारतीय प्रशासनिक सेवा के 1978 बैच के अधिकारी हैं। श्री शर्मा झारखंड केडर के हैं जहां इन्होंने सूचना विभाग में प्रमुख सचिव रहते हुए कई ई-गवर्नेंस परियोजनाऐं लागू की हैं। श्री आर.एस. शर्मा वर्तमान में यू.आई.डी.ए.आई. में महानिदेशक एवं अभियान संचालक के रूप में कार्यरत हैं एवं भारत सरकार के द्वारा भारत के निवासियों हेतु विशिष्ट पहचान संख्या प्रदान करने की एक बहुत महत्वाकांक्षी एवं चुनौतीपूर्ण परियोजना के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी भी इन्हीं के कंधों पर है। इस से पहले श्री शर्मा झारखंड सरकार में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, पेयजल एवं सफाई विभाग के प्रमुख सचिव थे। इनके पूर्व दायित्वों में सूचना प्रौद्योगिकी, ग्रामीण विकास, मानव संसाधन विकास विभाग भी शामिल हैं। श्री शर्मा ने प्रमुख सचिव, सूचना प्रौद्योगिकी विभाग में रहते हुए आईटी एवं ई-गवर्नेंस के क्षेत्रों में राज्य की नीतियों का दायित्व भी निभाया और इन्होंने राज्य के सभी विभागों की विभिन्न ई-गवर्नेंस परियोजनाओं के क्रियान्वयन का प्रबंधन भी देखा। श्री शर्मा ने पूर्व में भारत सरकार के साथ-साथ राज्य सरकार में भी कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया है। इन्होंने, वित्त, विज्ञान, परिवहन, कोषालय, भविष्य निधि एवं जल संसाधनों के क्षेत्र में काफी कार्य किया है एवं प्रशासनिक सुधार एवं आईटी से लाभ प्राप्त करने के लिये प्रशासनिक प्रक्रिया सरल करने में गहनता से जुड़े रहे। भारत सरकार में अपने कार्यकाल के दौरान इन्होंने आर्थिक मामलों के विभाग में कार्य करते हुए कई द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय विकास एजेंसियों जैसे विश्व बैंक, एडीबी एमआईजीए एवं जीईएफ के साथ कार्यरत रहे। श्री शर्मा, राजमार्ग, बंदरगाह, हवाई अड्डे एवं दूरसंचार की बुनियादी परियोजनाओं के वित्त-पोषण के प्रभारी भी थे। श्री शर्मा का आईटी एवं ई-गवर्नेंस के क्षेत्र में दिया गया योगदान व्यापक रूप से सराहा गया है। इसके अतिरिक्त श्री शर्मा आईसीटी से संबंधित बुनियादी सुविधाओं, पुनः अभियांत्रिकरण की प्रक्रिया एवं सार्वजनिक निजी भागीदारी (पीपीपी) प्रणाली में सेवा प्रदाता से संबधित कई परियोजनाओं के लिये भी जिम्मेदार थे। श्री शर्मा भारतीय प्रौद्योगिक संस्थान, कानपुर से गणित विषय में स्नातकोत्तर हैं एवं कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय (यूएसए)से कम्प्यूटर साइंस में मास्टर हैं। प्रौद्योगिकी विकास इकाई यह विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को लेकर बनाई गई है। जिसमें शामिल हैं, प्रौद्योगिकी, वैधानिक ढांचा, हार्डवेयर एवं साफ्टवेयर की खरीदारी के जानकार आदि। इस इकाई में स्वयंसेवक, संसाधन एवं विश्राम कालीन जन शामिल है। परियोजना प्रबंधन इकाई यह इकाई, पहचान संख्या जारी करने की प्रक्रिया में तेज़ी लाने एवं प्रौद्योगिकी, वैधानिक, हार्डवेयर एवं सॉफ्टवेयर की खरीदारी परियोजना रिपोर्ट का विस्तृत विवरण, जागरूकता उत्पन्न करना आदि हेतु मार्गदर्शन प्रदान करने की आवश्यकता को देखते हुए विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को लेकर स्थापित की गई है। ये पेशेवर अपने-अपने कार्यों में काफी अनुभवी हैं। अतः इन्हें यू.आई.डी.ए.आई. को सलाह देने एवं परामर्शदाताओं/सेवा प्रदाताओं के साथ परियोजना के विभिन्न पहलुओं प्रतिकृति का विकास, अवधारणा के सबूतों का परीक्षण, प्रौद्योगिकी मंच का निर्माण, डिजाइनिंग, संचार एवं जागरूकता कार्यक्रम आदि पर काम करने हेतु संलग्न किया गया है। यह टीम राष्ट्रीय स्मार्ट सरकार संस्थान, जिसके साथ 30 नवंबर 2009 को यू.आई.डी.ए.आई. का करार हुआ है, की सहायता से स्थापित किया गया है। वर्तमान में 20 पेशेवर, प्रौद्योगिकी, वैधानिक, संचार एवं खरीदारी से लेकर क्षमता निर्माण प्रक्रिया एवं आपरेशन में संलग्न है। यू.आई.डी.ए.आई. बायोमेट्रिक क्षमता केन्द्र इस केन्द्र की स्थापना संगठन की भारत के निवासियों को विशिष्ट पहचान संख्या जारी करने की अनिवार्यता को देखते हुए की जा रही है। केन्द्र प्रारंभिक बायोमेट्रिक प्रणाली चयन क्षमता को निर्देशित करेगा एवं समय-समय पर नवीन प्रौद्योगिकी को चलाने एवं सर्वोत्तम उपयोग करने के लिये वृद्धि भी करेगा। केन्द्र, प्रौद्योगिकी, डिवाइसेस एल्गोरिथम एवं विनिर्देशों को कब और कहां संशोधित करना है, का आंकलन, मूल्यांकन एवं चिन्हित करेगा। यह केन्द्र यू.आई.डी.ए.आई. के उद्देश्य को बायोमेट्रिक प्राप्त करने में अपनी कुशलता का परिचय भी देगा। यह अनुकूल बायोमेट्रिक्स प्रणाली लागू करने में अन्य विभागों के लिये एक राष्ट्रीय संसाधन होगा तथा यह विश्व स्तरीय बायोमेट्रिक प्रतिभाओं को कार्य करने हेतु आकर्षित करेगा। इस तरह यह केन्द्र असाधारण वैज्ञानिकों एवं अभियंताओं का एक मुख्य वर्ग तैयार करेगा। |
http://uidai.gov.in/hindi/index.php/about-uidaiiiiiiiiiiii.html
History of the Middle East
This article is a general overview of the history of the Middle East. For more detailed information, see articles on the histories of individual countries and regions. For discussion of the issues surrounding the definition of the area see the article on Middle East.
Contents
[hide]The ancient Near East[edit source | editbeta]
Cradle of civilization[edit source | editbeta]
The earliest civilizations in history were established in the region now known as the Middle East around 3500 BC by the Sumerians, inMesopotamia (Iraq), widely regarded as the cradle of civilization. The Sumerians and the Akkadians (later known as Babylonians andAssyrians) all flourished in this region.
"In the course of the fourth millennium B.C., city-states developed in southern Mesopotamia that were dominated by temples whose priests represented the cities' patron deities. The most prominent of the city-states was Sumer, which gave its language to the area and became the first great civilization of mankind. About 2340 B.C., Sargon the Great (c. 2360-2305 B.C.) united the city-states in the south and founded the Akkadian dynasty, the world's first empire."[1]
Soon after the Sumerian civilization began, the Nile River valley of ancient Egypt was unified under the Pharaohs in the 4th millennium BC, and civilization quickly spread through the Fertile Crescent to the west coast of the Mediterranean Sea and throughout the Levant. The Elamites, Hittites, Amorites, Phoenicians, Israelites and others later built important states in this region.
Assyrian empires[edit source | editbeta]
Mesopotamia was home to several powerful empires that came to rule almost the entire Middle East—particularly the Assyrian Empiresof 1365-1076 BC and the Neo Assyrian Empire of 911- 605 BC. The Assyrian Empire, at its peak, was the largest the world had seen. It ruled all of what is now Iraq, Syria, Lebanon, Israel, Palestine, Kuwait, Jordan, Egypt, Cyprus, and Bahrain—with large swathes of Iran, Turkey, Armenia, Georgia, Sudan, and Arabia. "The Assyrian empires, particularly the third, had a profound and lasting impact on the Near East. Before Assyrian hegemony ended, the Assyrians brought the highest civilization to the then known world. From the Caspian to Cyprus, from Anatolia to Egypt, Assyrian imperial expansion would bring into the Assyrian sphere nomadic and barbaric communities, and would bestow the gift of civilization upon them."[2]
Persian empires[edit source | editbeta]
From the early 6th century BC onwards, several Persian states dominated the region, beginning with the Medes and non-Persian Neo-Babylonian Empire, then their successor the Achaemenid Empire known as the first Persian Empire, conquered in the late 4th century BC. by the very short-lived Macedonian Empire of Alexander the Great, and then successor kingdoms such as Ptolemaic Egypt and the Seleucid state in Western Asia.
After a century of hiatus, the idea of the Persian Empire was revived by the Central Asian Iranian Parthians in the 3rd century BC—and continued by their successors, the Sassanids from the 3rd century AD. This empire dominated sizable parts of what is now the Asian part of the Middle East, and continue to influence the rest of the Asiatic and African Middle East region, until the Arab Islamic conquest of Persia in the mid-7th century CE. Eastern Rite, Church of the East Christianity took hold in Persian ruled Mesopotamia, particularly in Assyria from the 1st Century AD onwards, and the region became a center of a flourishing Syriac-Assyrian literary tradition.
Roman Empire[edit source | editbeta]
In the 1st century BC, the expanding Roman Republic absorbed the whole Eastern Mediterranean, which included much of the Near East. The Roman Empire united the region with most of Europe and North Africa in a single political and economic unit. Even areas not directly annexed were strongly influenced by the Empire, which was the most powerful political and cultural entity for centuries. ThoughLatin culture spread across the region, the Greek culture and language first established in the region by the Macedonian Empirecontinued to dominate throughout the Roman period. Cities in the Middle East, especially Alexandria, became major urban centers for the Empire and the region became the Empire's "bread basket" as the key agricultural producer.
As the Christian religion spread throughout the Roman and Persian Empires, it took root in the Middle East, and cities such asAlexandria and Edessa became important centers of Christian scholarship. By the 5th century, Christianity was the dominant religion in the Middle East, with other faiths (gradually including heretical Christian sects) being actively repressed. The Middle East's ties to the city of Rome were gradually severed as the Empire split into East and West, with the Middle East tied to the new Roman capital ofConstantinople. The subsequent fall of Rome and the Western Roman Empire, therefore, had minimal direct impact on the region.
Byzantine Empire (Eastern Roman Empire)[edit source | editbeta]
The Eastern Roman Empire, today commonly known as the Byzantine Empire, ruling from the Balkans to the Euphrates, became increasingly defined by and dogmatic about Christianity, gradually creating religious rifts between the doctrines dictated by the establishment in Constantinople and believers in many parts of the Middle East. At the time Greek had turned to the 'lingua franca' of the region, although ethnicities such as the Syriacs and the Hebrew continued to exist. Under Byzantine/Greek rule the area of theLevant met an era of stability and prosperity.
The medieval Near East[edit source | editbeta]
Islamic caliphate[edit source | editbeta]
From the 7th century, a new power was rising in the Middle East, that of Islam, whilst the Byzantine Roman and Sassanid Persian empires were both weakened by centuries of stalemate warfare during theRoman-Persian Wars. In a series of rapid Muslim conquests, theArab armies, motivated by Islam and led by the Caliphs and skilled military commanders such as Khalid ibn al-Walid, swept through most of the Middle East; reducing Byzantine lands by more than half and completely engulfing the Persian lands. In Anatolia, theirexpansion was blocked by the still capable Byzantines with the help of the Bulgarians.
The Byzantine provinces of Roman Syria, North Africa, and Sicily, however, could not mount such a resistance, and the Muslim conquerors swept through those regions. At the far west, they crossed the sea taking Visigothic Hispania before being halted in southern France by the Franks. At its greatest extent, the Arab Empire was the first empire to control the entire Middle East, as well 3/4 of the Mediterranean region, the only other empire besides the Roman Empire to control most of the Mediterranean Sea.[3] It would be the Arab Caliphates of the Middle Ages that would first unify the entire Middle East as a distinct region and create the dominant ethnic identity that persists today. The Seljuk Empire would also later dominate the region.
Much of North Africa became a peripheral area to the main Muslim centres in the Middle East, but Iberia (Al Andalus) and Morocco soon broke from this distant control and founded one of the world's most advanced societies at the time, along with Baghdad in the eastern Mediterranean.
Between 831 and 1071, the Emirate of Sicily was one of the major centres of Islamic culture in the Mediterranean. After its conquest by the Normans the island developed its own distinct culture with the fusion of Arab, Western and Byzantine influences. Palermo remained a leading artistic and commercial centre of the Mediterranean well into the Middle Ages.
Africa was reviving, however, as more organized and centralized states began to form in the later Middle Ages after the Renaissance of the 12th century. Motivated by religion and dreams of conquest, the kings of Europe launched a number of Crusades to try to roll back Muslim power and retake the holy land. The Crusades were unsuccessful in this goal, but they were far more effective in weakening the already tottering Byzantine Empire that began to lose increasing amounts of territory to the Ottoman Turks. They also rearranged the balance of power in the Muslim world as Egypt once again emerged as a major power in the eastern Mediterranean.
Turks, Crusaders and Mongols[edit source | editbeta]
The dominance of the Arabs came to a sudden end in the mid-11th century with the arrival of the Seljuk Turks, migrating south from the Turkic homelands in Central Asia, who conquered Persia, Iraq (capturing Baghdad in 1055), Syria, Palestine, and the Hejaz. Egypt held out under the Fatimid caliphs until 1169, when it too fell to the Turks.
Despite massive territorial losses in the 7th century, the Christian Byzantine Empire continued to be a potent military and economic force in the Mediterranean, preventing Arab expansion into much of Europe. The Seljuks' defeat of the Byzantine military in the 11th century and settling in Anatoliaeffectively marked the end of Byzantine influence in the region. The Seljuks ruled most of the Middle East region for the next 200 years, but their empire soon broke up into a number of smaller sultanates.
Christian Western Europe had staged a remarkable economic and demographic recovery in the 11th century since the nadir of its fortunes in the 7th century. The fragmentation of the Middle East allowed joined forces, mainly from England, France and the emerging Holy Roman Empire to enter the region. In 1095, Pope Urban II, had responded to pleas from the flagging Byzantine Empire, summoned the European aristocracy to recapture the Holy Land for Christianity, and in 1099 the knights of the First Crusade captured Jerusalem. They founded the Kingdom of Jerusalem, which survived until 1187, whenSaladin retook the city. Smaller crusader fiefdoms survived until 1291.
Mongol invasions (13th century)[edit source | editbeta]
In the early 13th century, a new wave of invaders, the Mongol armies of the Mongol Empire, swept through the region, sacking Baghdadin 1258 and advancing as far south as the border of Egypt. Mamluk Emir Baibars left Damascus to Cairo where he was welcomed bySultan Qutuz. After taking Damascus, the Ilkhanate was established and Hulagu demanded that Sultan Qutuz surrender Egypt but Sultan Qutuz had Hulagu's envoys killed and, with the help of Baibars, mobilized his troops.
Although Hulagu had to leave for the East when great Khan Möngke died in action against the Southern Song, he left his lieutenant, the Christian Kitbuqa, in charge. Sultan Qutuz drew the Mongol army into an ambush near the Orontes River, routed them at the Battle of Ain Jalut and captured and executed Kitbuqa. With this victory Mamluk Turks became Sultans of Egypt and the real power in the Middle East and gaining control of Palestine and Syria, while other Turkish sultans controlled Iraq and Anatolia until the arrival of theOttomans.
The Ottoman Empire (1299–1923)[edit source | editbeta]
By the early 15th century, a new power had arisen in western Anatolia, the Ottoman emirs, who in 1453 captured the Christian Byzantine capitol of Constantinople and made themselves sultans. The Mameluks held the Ottomans out of the Middle East for a century, but in 1514 Selim the Grim began the systematic Ottoman conquest of the region. Syria was occupied in 1516 and Egypt in 1517, extinguishing the Mameluk line. Iraq was conquered almost in 40 years from Safavids, were successors of Aq Qoyunlu.
The Ottomans united the whole region under one ruler for the first time since the reign of theAbbasid caliphs of the 10th century, and they kept control of it for 400 years. "The Ottoman Empires was one of the greatest, most extensive, and long lasting in the History of the World. It included most of the territories of the Eastern Roman Empire(...)and held portions that the Byszantinians never ruled (...)The Ottoman Empire was born in 1300 and endured until World War I-."[4]
By this time the Ottomans lost to Greece, the Balkans, and most of Hungary, setting the new frontier between east and west far to the north of the Danube. But in the west Europe they were rapidly expanding, demographically, economically and culturally, with the new wealth of the Americas fuelling a boom that laid the foundations for the growth of capitalismand the industrial revolution. By the 17th century, Europe had overtaken the Muslim world in wealth, population and—most importantly—technology.
By 1700, the Ottomans had been driven out of Hungary and the balance of power along the frontier had shifted decisively in favour of the west. Although some areas of Ottoman Europe, such as Albania and Bosnia, saw many conversions to Islam, the area was never culturally absorbed into the Muslim world. From 1700 to 1918, the Ottomans steadily retreated, and the Middle East fell further and further behind Europe, becoming increasingly inward-looking and defensive. During the 19th century, Greece, Serbia, Romania, and Bulgaria asserted their independence, and in the Balkan Wars of 1912–13 the Ottomans were driven out of Europe altogether, except for the city of Constantinople and its hinterland.
By the 19th century, the Ottoman Empire was known as the "sick man of Europe", increasingly under the financial control of the European powers. Domination soon turned to outright conquest. The French annexed Algeria in 1830 and Tunisia in 1878. The Britishoccupied Egypt in 1882, though it remained under nominal Ottoman sovereignty.
The British also established effective control of the Persian Gulf, and the French extended their influence into Lebanon and Syria. In 1912, the Italians seized Libya and theDodecanese islands, just off the coast of the Ottoman heartland of Anatolia. The Ottomans turned to Germany to protect them from the western powers, but the result was increasing financial and military dependence on Germany.
Ottoman attempts at reform[edit source | editbeta]
In the late 19th and early 20th centuries, Middle Eastern rulers tried to modernize their states to compete more effectively with the European powers. Reformist rulers such as Mehemet Ali in Egypt, the Ottoman Sultan Abdul Hamid II and the authors of the 1906 revolution in Persia all sought to import versions of the western model of constitutional government, civil law, secular education and industrial development into their countries. Across the region railways and telegraphs lines were built, schools and universities were opened, and a new class of army officers, lawyers, teachers and administrators emerged, challenging the traditional leadership of Islamic scholars.
In all these cases the money to pay for the reforms was borrowed from the west, and the crippling debt this entailed led to bankruptcy and even greater western domination, which tended to discredit the reformers. Egypt, for example, fell under British control because the ambitious projects of Muhammad Ali and his successors bankrupted the state. Additionally, the westernisation of the Islamic world created professional armies, led by officers who were both willing and able to seize power for themselves—a problem that has plagued the Middle East ever since.
There was also the problem that affects all reforming absolute rulers: they are prepared to consider all reforms except giving up their own power. Abdul Hamid, for example, grew ever more autocratic as he tried to impose reforms on his reluctant empire. Reforming ministers in Persia also tried to impose modernisation on their subjects, provoking sharp resistance.
The most ambitious reformers were the Young Turks (officially called the Committee for Union and Progress), who seized power in the Ottoman Empire in 1908. Led by an ambitious pair of army officers, Ismail Enver (Enver Pasha) and Ahmed Cemal (Cemal Pasha), and a radical lawyer, Mehmed Talat (Talat Pasha), the Young Turks initially established a constitutional monarchy, but soon became a ruling junta, with Talat as Grand Vizier and Enver as War Minister, which tried to force a radical modernisation program onto the Ottoman Empire.[5]
The plan had several flaws. First it entailed imposing the Turkish language and centralised government on what had hitherto been a multi-lingual and loosely governed empire, which alienated the Arabic-speaking regions of the empire and caused an upsurge in Arab nationalism. Secondly it drove the empire ever deeper into debt. And thirdly, when Enver Bey formed an alliance with Germany, which he saw as the most advanced military power in Europe, it cost the empire the support of Britain, which had protected the Ottomans against Russian encroachment all through the 19th century.
Modern Middle East[edit source | editbeta]
Final years of the Ottoman Empire[edit source | editbeta]
In 1878, as the result of the Cyprus Convention, the United Kingdom took over the government ofCyprus as a protectorate from the Ottoman Empire. While the Cypriots at first welcomed British rule, hoping that they would gradually achieve prosperity, democracy and national liberation, they soon became disillusioned. The British imposed heavy taxes to cover the compensation they paid to the Sultan for conceding Cyprus to them. Moreover, the people were not given the right to participate in the administration of the island, since all powers were reserved to the High Commissioner and to London. In 1819, the Government of Lord Liverpool created the Six Acts, which established press censorship, the banning of political parties (mainly the communist party), the dissolution of municipal elections, as well as the out-ruling of trade unions, meetings of more than five individuals, and the tolling of church bells outside services.[6]
Meanwhile, the fall of the Ottomans had allowed Kemal Atatürk to seize power in Turkey and embark on a program of modernisation and secularisation. He abolished the caliphate, emancipated women, enforced western dress and the use of a new Turkish alphabet based on Latin alphabet in place of Arabic alphabet, and abolished the jurisdiction of the Islamic courts. In effect, Turkey, having given up rule over the Arab World, now determined to secede from the Middle East and become culturally part of Europe. Ever since, Turkey has insisted that it is a European country and not part of the Middle East.
Another turning point in the history of the Middle East came when oil was discovered, first in Persia in 1908 and later in Saudi Arabia (in 1938) and the other Persian Gulf states, and also in Libya and Algeria. The Middle East, it turned out, possessed the world's largest easily accessible reserves of crude oil, the most important commodity in the 20th century industrial world. Although western oil companies pumped and exported nearly all of the oil to fuel the rapidly expanding automobile industry and other western industrial developments, the kings and emirs of the oil states became immensely rich, enabling them to consolidate their hold on power and giving them a stake in preserving western hegemony over the region.[7]
A Western dependence on Middle Eastern oil and the decline of British influence led to a growing American interest in the region. Initially, the Western oil companies established a predominance over oil production and extraction. However, indigenous movements towards nationalising oil assets, oil sharing and the advent of OPEC ensured a shift in the balance of power towards the Arab oil producing nations.[8] Oil wealth also had the effect of stultifying whatever movement towards economic, political or social reform might have emerged in the Arab world under the influence of the Kemalist revolution in Turkey.
In 1914 Enver Bey's alliance with Germany led the Young Turks into the fatal step of joining Germany and Austria-Hungary in World War I, against Britain and France. The British saw the Ottomans as the weak link in the enemy alliance, and concentrated on knocking them out of the war. When a direct assault failed at Gallipoli in 1915, they turned to fomenting revolution in the Ottoman domains, exploiting the awakening force of Arab nationalism (and also that of the Armenians and Assyrians).
The Arabs had lived more or less happily under Ottoman rule for 400 years, until the Young Turks had tried to "Turkicise" them and change their traditional system of government. The British found an ally in Sharif Hussein, the hereditary ruler of Mecca (and believed by Muslims to be a descendant of the family of Muhammad), who led an Arab Revolt against Ottoman rule, having received a promise of Arab independence in exchange. Armenians and Assyrians, long persecuted Christian minorities were also allied to the British, and rose up in response to Ottoman massacres of their populations.
Defeat and partition of the Ottoman Empire (1918-22)[edit source | editbeta]
When the Ottoman Empire was defeated by British Empire forces after the Sinai and Palestine Campaign in 1918, the Arab population was met with what it perceived as betrayal by the British. The British and French governments concluded a secret treaty (the Sykes-Picot Agreement) to partition the Middle East between them and, additionally, the British promised via the Balfour Declaration the international Zionist movement their support in creating a Jewish homeland in Palestine.
Historically known as the site of the ancient Jewish Kingdom of Israel and successor Jewish nations for 1,200 years between approximately 1100BC-100AD, the region now had a large Arab population also from the 7th century. When the Ottomans departed, the Arabs proclaimed an independent state in Damascus, but were too weak, militarily and economically, to resist the European powers for long, and Britain and France soon established control and re-arranged the Middle East to suit themselves.[9]
Syria became a French protectorate thinly disguised as a League of Nations Mandate. The Christian coastal areas were split off to become Lebanon, another French protectorate. Iraq and Palestine became British mandated territories. Iraq became the "Kingdom of Iraq" and one of Sharif Hussein's sons, Faisal, was installed as the King of Iraq. Iraq incorporated large populations of Kurds, Assyriansand Turkmens, many of whom had been promised independent states of their own.
Palestine became the "British Mandate of Palestine" and was split in half. The eastern half of Palestine became the "Emirate ofTransjordan" to provide a throne for another of Husayn's sons, Abdullah. The western half of Palestine was placed under direct British administration. The already substantial Jewish population was allowed to increase. Initially this increase was allowed under British protection. Most of the Arabian peninsula fell to another British ally, Ibn Saud. Saud created the Kingdom of Saudi Arabia in 1932.
During the 1920s, 1930s, and 1940s, Syria and Egypt made moves towards independence. In 1919, Saad Zaghloul orchestrated mass demonstrations in Egypt known as the First Revolution. While Zaghloul would later become Prime Minister, the British repression of the anticolonial riots led to the death of some 800 people. In 1920, Syrian forces were defeated by the French in the Battle of Maysalun and Iraqi forces were defeated by the British when they revolted. In 1922, the (nominally) independent Kingdom of Egypt was created following the British government's issuance of the Unilateral Declaration of Egyptian Independence.
Although the Kingdom of Egypt was technically "neutral" during World War II, Cairo soon became a major military base for the British forces and the country was occupied. The British were able to do this because of a 1936 treaty by which the United Kingdommaintained that it had the right to station troops on Egyptian soil to protect the Suez Canal. In 1941, the Rashīd `Alī al-Gaylānī coup in Iraq led to the British invasion of the country during the Anglo-Iraqi War. The British invasion of Iraq was followed by the Allied invasion of Syria-Lebanon and the Anglo-Soviet invasion of Iran.
In Palestine, conflicting forces of Arab nationalism and Zionism created a situation the British could neither resolve nor extricate themselves from. The rise to power of German dictator Adolf Hitler in Germany had created a new urgency in the Zionist quest to immigrate to Palestine and create a Jewish state there. A Palestinian state was also an attractive alternative for Arab and Persian leaders to British, French, and perceived Jewish colonialism and imperialism under the logic of "the enemy of my enemy is my friend".[10]
New states post-World War 2[edit source | editbeta]
The British, the French, and the Soviets departed many parts of the Middle East during and after World War II. Turkey, Saudi Arabia, and the Middle East states on the Arabian Peninsula generally remained unaffected by World war II. However, after the war, the following Middle states had independence restored or became independent:
- 17 October 1941 – Iran (forces of the United Kingdom and the Soviet Union withdrawn)
- 22 November 1943 – Lebanon
- 1 January 1944 – Syria
- 22 May 1946 – Jordan (British mandate ended)
- 1947 – Iraq (forces of the United Kingdom withdrawn)
- 1947 – Egypt (forces of the United Kingdom withdrawn to the Suez Canal area)
- 1948 - Israel (forces of the United Kingdom withdrawn)
- August 16, 1960 – Cyprus
The struggle between the Arabs and the Jews in Palestine culminated in the 1947 United Nations plan to partition Palestine. This plan attempted to create an Arab state and a Jewish state in the narrow space between the Jordan River and the Mediterranean Sea. While the Jewish leaders accepted it, the Arab leaders rejected this plan.
On 14 May 1948, when the British Mandate expired, the Zionist leadership declared the State of Israel. In the 1948 Arab-Israeli War that immediately followed, the armies of Egypt, Syria, Transjordan, Lebanon, Iraq, and Saudi Arabia intervened and were defeated by Israel. About 800,000 Palestinians fled from areas annexed by Israel and became refugees in neighbouring countries, thus creating the "Palestinian problem," which has bedevilled the region ever since. Approximately two-thirds of 758,000—866,000 of the Jews expelled or who fled from Arab lands after 1948 were absorbed and naturalized by the State of Israel.
On August 16, 1960, Cyprus gained its independence from the United Kingdom. Archbishop Makarios III, a charismatic religious and political leader, was elected the first president of independent Cyprus, and in 1961 it became the 99th member of the United Nations.
Modern states[edit source | editbeta]
The departure of the European powers from direct control of the region, the establishment ofIsrael, and the increasing importance of the oil industry, marked the creation of the modern Middle East. These developments led to a growing presence of the United States in Middle East affairs. The U.S. was the ultimate guarantor of the stability of the region, and from the 1950s the dominant force in the oil industry. When radical revolutions brought radical anti-Western regimes to power in Egypt in 1954, in Syria in 1963, in Iraq in 1968 and in Libya in 1969, the Soviet Union, seeking to open a new arena of the Cold War in the Middle East, allied itself with Arab socialist rulers such as Gamal Abdel Nasser of Egypt and Saddam Hussein of Iraq.
These regimes gained popular support through their promises to destroy the state of Israel, defeat the U.S. and other "western imperialists," and to bring prosperity to the Arab masses. When the Six-Day War of 1967 between Israel and its neighbours ended in a decisive loss for the Muslim side, many in the Islamic world saw this as the failure of Arab socialism. This represents a turning point when "fundamental and militant Islam began to fill the political vacuum created".[11]
In response to this challenge to its interests in the region, the U.S. felt obliged to defend its remaining allies, the conservative monarchies of Saudi Arabia, Jordan, Iran and the Persian Gulf emirates, whose methods of rule were almost as unattractive to western eyes as those of the anti-western regimes. Iran in particular became a key U.S. ally, until a revolution led by the Shi'a clergy overthrew the monarchy in 1979 and established a theocratic regime that was even more anti-western than the secular regimes in Iraq or Syria. This forced the U.S. into a close alliance with Saudi Arabia. The list of Arab-Israeli wars includes a great number of major wars such as1948 Arab-Israeli War, 1956 Suez War, 1967 Six Day War, 1970 War of Attrition, 1973 Yom Kippur War, 1982 Lebanon War, as well as a number of lesser conflicts.
Between 1963 and 1974, conflict arising between Greek Cypriots and Turkish Cypriots inBritish colonial Cyprus lead to Cypriot intercommunal violence and the Turkish invasion of Cyprus. The Cyprus dispute remains unresolved.
In the mid-to-late 1960s, the Arab Socialist Ba'ath Party led by Michel Aflaq and Salah al-Din al-Bitar took power in both Iraq and Syria. Iraq was first ruled by Ahmed Hassan al-Bakr, but was succeeded by Saddam Hussein in 1979, and Syria was ruled first by a Military Committee led by Salah Jadid, and later Hafez al-Assad until 2000, when he was succeeded by his son, Bashar al-Assad.
In 1979, Egypt under Nasser's successor, Anwar Sadat, concluded a peace treaty with Israel, ending the prospects of a united Arab military front. From the 1970s the Palestinians, led by Yasser Arafat's Palestine Liberation Organization, resorted to a prolonged campaign of violence against Israel and against American, Jewish and western targets generally, as a means of weakening Israeli resolve and undermining western support for Israel. The Palestinians were supported in this, to varying degrees, by the regimes in Syria, Libya, Iran and Iraq. The high point of this campaign came in the 1975 United Nations General Assembly Resolution 3379 condemning Zionism as a form of racism and the reception given to Arafat by the United Nations General Assembly. Resolution 3379 was revoked in 1991 by the United Nations General Assembly Resolution 4686.
The fall of the Soviet Union and the collapse of communism in the early 1990s had several consequences for the Middle East. It allowed large numbers of Soviet Jews to emigrate from Russia and Ukraine to Israel, further strengthening the Jewish state. It cut off the easiest source of credit, armaments and diplomatic support to the anti-western Arab regimes, weakening their position. It opened up the prospect of cheap oil from Russia, driving down the price of oil and reducing the west's dependence on oil from the Arab states. It discredited the model of development through authoritarian state socialism, which Egypt (under Nasser), Algeria, Syria and Iraq had followed since the 1960s, leaving these regimes politically and economically stranded. Rulers such as Saddam Hussein in Iraq increasingly turned to Arab nationalism as a substitute for socialism.
Saddam Hussein led Iraq into a prolonged and very costly war with Iran in the 1980s, and then into its fateful invasion of Kuwait in 1990. Kuwait had been part of the Ottoman province of Basra before 1918, and thus in a sense part of Iraq, but Iraq had recognized its independence in the 1960s. The U.S. responded to the invasion by forming a coalition of allies that included Saudi Arabia, Egypt and Syria, gaining approval from the United Nations and then evicting Iraq from Kuwait by force in the Persian Gulf War. President George H. W. Bush did not, however, attempt to overthrow Saddam Hussein's regime, something the U.S. later came to regret[citation needed]. The Persian Gulf War and its aftermath brought about a permanent U.S. military presence in the Persian Gulf region, particularly in Saudi Arabia, something that offended many Muslims, a reason often cited by Osama Bin Ladin as justification for the September 11 Attacks.
1990s-present[edit source | editbeta]
By the 1990s, many western commentators (and some Middle Eastern ones) saw the Middle East as not just a zone of conflict, but also a zone of backwardness. The rapid spread of political democracy and the development of market economies in Eastern Europe, Latin America, East Asia and parts of Africa passed the Middle East by boats. In the whole region, only Israel, Turkey and to some extent Lebanon and the Palestinian territories were democracies.
Other countries had legislative bodies, but these had little power, and in the Persian Gulf states the majority of the population could not vote anyway, as they were guest workers and not citizens. Many Arab countries counter-claim that a direct result of Western foreign policy and an overly strong Israel, has been the removal of much progress that would come naturally from these nations.
In most Middle Eastern countries, the growth of market economies was inhibited by political restrictions, corruption and cronyism, overspending on arms and prestige projects, and over-dependence on oil revenues. Successful economies in the region were those that combined oil wealth with low populations, such as Qatar, Bahrain, and the United Arab Emirates. In these states, the ruling emirs allowed some political and social liberalization, but without giving up any of their own power. Lebanon, after a prolonged civil war in the 1980s, also rebuilt a fairly successful economy.
By the end of the 1990s, the Middle East as a whole was falling behind Europe, India, China, and other rapidly developing market economies, in terms of production, trade, education, communications and virtually every other criterion of economic and social progress. The assertion that, if oil was subtracted, the total exports of the whole Arab world were less than those of Finland was frequently quoted. The theories of authors such as David Pryce-Jones, that the Arabs were trapped in a "cycle of backwardness" from which their culture would not allow them to escape, were widely accepted in the west and east.
In the opening years of the 21st century all these factors combined to raise the Middle East conflict to a new height, and to spread its consequences across the globe. The failure of the attempt by Bill Clinton to broker a peace deal between Israel and the Palestinians atCamp David in 2000 (2000 Camp David Summit) led directly to the election of Ariel Sharon as Prime Minister of Israel and to the Al-Aqsa Intifada, characterised by suicide bombing of Israeli civilian targets. This was the first major outbreak of violence since the Oslo Peace Accords of 1993.
At the same time, the failures of most of the Arab regimes and the bankruptcy of secular Arab radicalism led a section of educated Arabs (and other Muslims) to embrace Islamism, promoted both by the Shi'a clerics of Iran and by the powerful Wahhabist sect of Saudi Arabia. Many of the militant Islamists gained military training while fighting against the forces of the Soviet Union in Afghanistan.
One of these was a wealthy Saudi Arabian, Osama bin Laden. After fighting against the Soviets in Afghanistan, he formed the al-Qaidaorganization, which was responsible for the 1998 U.S. embassy bombings, the USS Cole bombing and the September 11, 2001 attackson the United States.[citation needed] The September 11 attacks led the administration of U.S. President George W. Bush to launch an invasion of Afghanistan in 2001 to overthrow the Taliban regime, which was harbouring Bin Laden and his organisation. The U.S. and its allies described this operation as part of a global "War on Terrorism."
During 2002 the administration, led by Defense Secretary Donald Rumsfeld, developed a plan to invade Iraq, remove Saddam from power, and turn Iraq into a democratic state with a free-market economy, which, they hoped, would serve as a model for the rest of the Middle East. When the U.S. and its principal allies, Britain, Italy, Spain and Australia, could not secure United Nations approval for the execution of the numerous United Nations resolutions, they launched an invasion of Iraq, overthrowing Saddam with no great difficulty in April 2003.
The advent of a new western army of occupation in a Middle Eastern capital marked a turning point in the history of the region. Despite successful elections (although boycotted by large portions of Iraq's Sunni population) held in January 2005, much of Iraq had all but disintegrated due to a post-war insurgency. A post-war insurgency has morphed into persistent ethnic violence the American army has been unable to quell. Many of Iraq's intellectual and business elite have fled the country, and many Iraqi refugees have left as a result of the insurgency, further destabilizing the region. A responsive surge in US forces in Iraq has recently been largely successful in controlling the insurgency and stabilizing Iraq.
By 2005, also, George W. Bush's Road map for peace between Israel and the Palestinians has been stalled, although this situation began to change with Yasser Arafat's death in 2004. In response, Israel moved towards a unilateral solution, pushing ahead with theIsraeli West Bank barrier to protect Israel from Palestinian suicide bombers and proposed unilateral withdrawal from Gaza. The barrier if completed would amount to a de facto annexation of areas of the West Bank by Israel. In 2006 a new conflict erupted between Israel and Hezbollah Shi'a militia in southern Lebanon, further setting back any "prospects for peace".
Starting in late 2010 to the present, a revolutionary wave popularly known as the Arab Spring has brought major protests, uprisings, and even revolutions to several Middle Eastern countries and appears to be in the process of significantly changing the social order of the Middle East.
See also[edit source | editbeta]
By country:
- History of Armenia
- History of Azerbaijan
- History of Bahrain
- History of Egypt
- History of Georgia
- History of Iran
- History of Iraq
- History of Israel
- History of Jordan
- History of Kuwait
- History of Lebanon
- History of Oman
- History of Qatar
- History of Saudi Arabia
- History of Syria
- History of Turkey
- History of the United Arab Emirates
- History of Yemen
General:
- History of North Africa
- Synoptic table of the principal old world prehistoric cultures
- History of Asia
References[edit source | editbeta]
Notes[edit source | editbeta]
- ^ Lyons, Albert S. "Ancient Civilizations - Mesopotamia". Health Guidance.org. Retrieved 24 August 2013.
- ^ BetBasoo, Peter (2007). "Brief History of Assyrians". Assyrian International News Agency. Retrieved 24 August 2013.
- ^ Subhi Y. Labib (1969), "Capitalism in Medieval Islam", The Journal of Economic History 29 (1), p. 79–96 [80].
- ^ Quataert 2000.
- ^ Mansfield & Pelham 2013, pp. 141-147.
- ^ Dr. Tofallis, Kypros, A History of Cyprus, p.98 (2002)
- ^ Morton, Michael Quentin (December 2011). "Narrowing the Gulf: Anglo-American Relations and Arabian Oil, 1928-74". Liwa Journal3 (6): 39–54. Retrieved 14 July 2012.
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- ^ "Skyes Picot Agreement: Division of Territory". Crethi Plethi. 2009. Retrieved 24 August 2013.
- ^ Lewis 1995, pp. 348–350.
- ^ Watson, Peter (2006). Ideas: A History of Thought and Invention, from Fire to Freud. New York: Harper Perennial. p. 1096. ISBN 0-06-093564-2.
Bibliography[edit source | editbeta]
- Lewis, Bernard (1995), The Middle East: A Brief History of the Last 2,000 Years, New York: Scribner
- Sharp, Jeremy (2006-09-15). "CRS Report for Congress -- Lebanon: The Israel-Hamas-Hezbollah Conflict". CRS Online. Retrieved 2006-01-20.
- Rogan, Eugene (2009), The Arabs: A History
- Schlicht, Alfred (2008), Die Araber und Europa (in German), Stuttgart
- Quataert, Donald (2000), The Ottoman Empire, 1700-1922, Cambridge University Press
- Mansfield, Peter; Pelham, Nicolas (2013), A History of the Middle East (4 ed.), Penguin Books, ISBN 978-0-7181-9967-8
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