जैसे पाकिस्तान ने पूर्वी बंगाल के खिलाफ युद्ध छेड़ा,क्या वैसे ही हम कश्मीर को युद्ध घोषणा के तहत जीतना चाहते हैं?
पलाश विश्वास
पूर्वी बंगाल में भारत के सैन्य हस्तक्षेप से पहले और बाद में भारतीय मीडिया में और दुनियाभर के मीडिया में क्या लिखा जा रहा था,वह कमोबेश हम लोग पढ़ चुके होंगे।पाकिस्तान में उस दौरान सत्तावर्ग और मीडिया का नजरिया खुलकर सामने नहीं आया है या हमने सिलसिलेवार उसे जाना नहीं है।बांग्लादेश में इस्लामी राष्ट्रवादी तत्वों की भारतविरोधी गतिविधियों और उनके धर्मोन्मादी ताजा साहित्य देख लें या बांग्लादेश में लगातार हो रहे अल्पसंख्यक उत्पीड़न,धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रीक ताकतों,कवियों,पत्रकारों,बुद्धिजीवियों और प्रकाशकों से लेकर ब्लागरों की हत्या और हाल में जारी आतंकवादी हमलों में उस हकीकत का सामना करने का मौका है।
अब भी मनुष्यता आतंक पर भारी है और जो भी मारा जा रहा है,मनुष्य है,यह बा्गाल राष्ट्रवाद का बाबुलंद नारा है जिसके तहत खंडित बंगाल सांप्रदायिकता के खिलाफ अब भी मानव बंधऩ बनाने में लगा है।फिरभी आत्मघाती धर्मोन्माद पर कोई अंकुश नहीं है तो इसका कारण वैश्विक आतंक का सर्वशक्तिमान नेटवर्ग है और उसे मजबूत करता हुआ धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का मुक्तबाजारी एजंडा है।
बांग्लादेश युद्ध की याह्या खान और भुट्टो की युगलबंदी से पहले भारत विभाजन के तहत दो रााष्ट्र सिद्धांत के आधार पर पूर्वी बंगाल को जिस अवैज्ञानिक तरीके से अखंड भारत के जमींदार राजसिक नेतृत्व ने पाकिस्तान का उपनिवेश बना दिया,उसका नतीजा हम आज भी भुगत रहे हैं।
हम भूल रहे हैं कि भारत विभाजन के नतीजतन पंजाब और कश्मीर का विभाजन भी हुआ।हमें इसका शायद ही अहसास हो कि जिस सिंधु घाटी की सभ्यता के कारण हम भारत वर्ष के प्राचीन इतिहास को विश्व की तमाम सभ्यताओं के समतुल्य या अतुल्य मानते हैं,स्वतंत्रता संग्राम की इस आत्मघाती परिणति से उस सिंधु घाटी की सभ्यता का भी हमने बंटवारा कर दिया।
जनसंख्या का आधा अधूरा स्थानांतरण हुआ और बांग्लादेश में अब भी ताजा आंकड़ों के मुताबिक दो करोड़ 39 लाख हिंदू हैं।इनमें भी कमसकम दो करोड़ लोग बहुजन हैं।
इसीतरह पाकिस्तान में भी हिंदुओं का पूरी तरह सफाया अभी नहीं हुआ है।
कच्छ के रण के आर पार गुजरात और सिंध में मोहंजोदोड़ो और हड़प्पा के तमाम जो नगर बसे थे,हमने एक झटके से उनका भी बंटवारा कर दिया।
संजोग से लेकिन इस खंडित महादेश का इतिहास साझा है,चाहे उसकी जो भी व्याख्या हम करते रहे।पाकिस्तान और बांग्लादेश का इतिहास कोई 15 अगस्त,1947 से और मार्च 1971 से शून्य से शुरु नहीं हुआ है।पाकिस्तान हो या बांग्लादेश,वे अपने आजाद इतिहास हिदुस्तान के बिना बना नहीं सकते वैसे ही जैसे पाकिस्तान,बांग्लादेश या सिंधु सभ्यता के बिना हम सिर्फ रामायण, महाभारत या वैदिकी साहित्य को अपना इतिहास नहीं बना सकते या गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस, महाभारत सीरियल ,रामकथा या तमाम पुराण स्मृतियों, शतपथ, उपनिषदों, वेदों या संस्कृत काव्यधारा को ही अपना इतिहास साबित नहीं कर सकते।
न अतीत को हम बदल सकते हैं और न हम भविष्य के शाथ खिलवाड़ करने के लिए आजाद है जबकि वर्तमान को भी संबोधित करने की हम कोई इतिहास दृष्टि नहीं हासिल कर सके हैं।हम तकनीक के गुलाम है जो रोज बदलती है लेकिन विज्ञान के बुनियादी सिद्धांत रोज रोज नहीं बदलते।तकनीक से हम विज्ञान को बदल नहीं सकते जिसतरह,धर्मोन्माद से हम इतिहास भीगोल कुछ भी बदल नहीं सकते।हां,आत्मघाती सुनामिया रच सकते हैं।रंग बिरंगे सेज या सेट न विज्ञान होता है और न इतिहास जैसे फार्मूले का मतलब भौतिकी और रसायन शास्त्र नहीं है तो राजनीति भी कोई फार्मूला नहीं है और न आंकड़े अर्थव्यवस्था का सच है।सच बहुआयामी है। सच सापेक्षिक है।
संजोग से हमारे पुरखे भी एक हैं।
हमारी विरासत भी एक है।
भाषा जैसी बांग्ला सीमा के आर पार एक है वैसे ही पंजाबी, सिंधी, कश्मीरी और उर्दू भी एक है।
खान पान रीति रिवाज रिशते संस्कृति लोकसंस्कृति सियासत मजहब हमारी साझी फिजां,हमारी जान जिगर,खून पानी और कायनात की तरह, बुनियाद की जड़ों में भी साझा है।हममें से कोई विशुध श्वेत या अश्वेत,आर्य या अनार्य,ब्राह्मण या बहुजन नहीं है।रक्तधाराएं ऐसी एकाकार हैं।
हमारे सामने वे तमाम दस्तावेज नहीं आये हैं,जो 1971 से पहले और बाद में याह्या खान और भुट्टो के दमन, उत्पीड़न और नरसंहार की फौजी वीभत्सता के हक में लिखे जाते रहे हैं।
बांग्लादेश में अभी भी वे तत्व बड़ी तादाद में हैं जो अंध इस्लामी राष्ट्रवाद के पक्ष में है।ऐसे तत्वों ने भारत के भीतर अनेक राज्यों में घुसपैठ की है और बिना चश्मे के हकीकत को नंगी आंखों से देखेंगे तो बंगाल और असम,बिहार और यूपी में भी हालात कश्मीर से कम संगीन नहीं है हालांकि इन राज्यों में फौजी हुकूमत नहीं है लेकिन जम्हूरियत कहीं नहीं है।
अंध राष्ट्रवाद सिर्फ इस्लामी नहीं है।यहूदी राष्ट्रवाद और विशुध ईसाई राष्ट्रवाद का सामना भी हमसे होता रहा है और हिंदू राष्ट्रवाद तो अब हमारा समूचा वजूद है।दिलोदिमाग हिंदू है।मजहबी रष्ट्रवाद या मजहबी सियासत इंसानियत के हक में नहीं होता चाहे मजहब का नाम कुछ भी हो।
1971 के मुक्तियुद्ध के दौरान बांग्लादेश में हिंदुओं को एकमुश्त निशाना बनाया इसलिए गया था कि पाकिस्तानी हुकूमत की नजर में वे बागी मुजीबुर रहमान और उनकी पार्टी के वोटबैंक थे।
खानसेना और रजाकरों ने तब एक बड़ी कोशिश की थी मलाउन काफिर हिंदुओं को भारत में खदेड़ने की और उसी कोशिश का नतीजा था भारत का सैन्य हस्तक्षेप।
उस जल्लाद रजाकर वाहिनी के तमाम सरगना युद्ध अपराधियों को फांसी की सजा हाल में दी जाती रही है।शहबाग जनांदोलन की निरंतरता और बांग्लादेश में बांग्ला राष्ट्रीयता,धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक और बहुजन एकता के दम पर।लेकिन इस्लामी अंध राष्ट्रवाद की सुनामी फिर बांग्लादेश में चल रही है।रजाकर जमायत तत्व अब भी बांग्लादेश में हद से ज्यादा मजबूत हैं और उनके निशाने पर तमाम अल्पसंख्यक और आदिवासी हैं और वे बांग्लादेश को फिर पाकिस्तान बनाने पर आमादा हैं।
वे तमाम लोग याह्या और भुट्टो के नरसंहार के हिमायती हैं अब भी।
खान सेना ने तब लाखों बंगाली महिलाओं और बालिकाओं को बलात्कार का शिकार बनाया था तो सिर्फ हवस के लिए नहीं,बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के डीएनए में इस्लामी राष्ट्रवाद का पाकिस्तानी खून डालने के लिए।यह निर्मम यथार्थ है।
बलात्कार से जनमी वह पीढी अब बांग्ला राष्ट्रवाद के बदले इस्लामी बांग्लादेशी राष्ट्रवाद की बात उसीतरह कर रही है जैसे अखंड भारत के झंडेवरदार बजरंगी सत्तावर्ग और उसकी पैदल सेनाएं हिंदुत्व के एजंडे पर कुछ भी करने को तैयार है।
हम यकीन के साथ यह कह नहीं सकते कि हमारे सत्तावर्ग के डीएनए में विदेशी हित और विदेशी खून डालने के लिए अंग्रेजों ने क्या क्या तरीके अपनाये होंगे।लेकिन नतीजे बागों में बहार है।मुक्त बाजार।
बांग्लादेश में अभी एक अभियान बहुत भयंकर चल रहा है कि अगर 1971 के पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में पूर्वी बंगाल के लड़ाके मुक्तियोद्धा थे तो कश्मीर में भारत राष्ट्र के खिलाफ लड़ रहे कश्मीरी को आजादी के परिंदे मानने से क्यों इंकार किया जा रहा है।
सनद रहे कि यह कैंपेन सिर्फ पाकिस्तान या बांग्लादेश में नहीं,असम में भी जारी है बड़े पैमाने पर।
हमने पाकिस्तान में पूर्वी बंगाल के दमन,उत्पीड़न,बलात्कार,नरसंहार के पक्ष में विद्वतजनों के लेख वगैरह उसतरह देखे नही है जैसा हमने बांग्लादेश की मौजूदा इस्लामी राष्ट्रवादी तत्वों का देखते पढ़ते रहते हैं।जिन्होंने याह्या और भुट्टो का राजकाज राजधर्म नहीं देखा और उनकी महान विचारधारा और उदात्त इस्लामी राष्ट्रवाद के सिद्धांतो से जिनका साक्षात्कार न हुआ या जो सिर्फ बांग्ला या असमिया न जानने की वजह से बांग्लादेश और असम में ऐसे तत्वों के भारतविरोधी हिंदू विरोधी लोकतंत्रविरोधी धर्मनिरपेक्षता विरोधी विचारधारा के बारे में नहीं जानते,वे फिलहाल फेसबुक पर अपने विद्वतजनों के उद्गार,सुभाषित पर नजर रखें।
आपरेशन ब्लू स्टार के दौरान भारत में हिंदी के दो दिवंगत मसीहाओं ने देश के सबसे बड़े,सबसे लोकप्रिय दो राष्ट्रीय हिंदी अखबारों के मार्फत स्वर्ण मंदिर में आपरेशन ब्लू स्टार के पक्ष में इसीतरह जनमत बनाया था और वे लोग तब लिख रहे थे कि राष्ट्र आपरेशन टेबिल पर है और आपरेशन हो जाना चाहिए।उस आपरेशन के जख्म अब भी हरे हैं और हमें उसका अहसास भी नहीं है।
हमारे विद्वतजनों को,बजरंगी बिरादरी को शायद लग रहा होगा कि भारत में फिर जनरल याह्या खान और भुट्टो की युगलबंदी से राजकाज और राजधर्म का मौजूदा दौर है और जिस तरह पूर्वी बंगाल का दमन किया गया था,वह निहायत पाक फौजों का नाकारा प्रदर्शन है और हमारी महान फौजें याह्या और भुट्टो के अधूरे एजंडे को पूर्वी बंगाल में न सही,कश्मीर में बखूब अंजाम तक पहुंचा सकते हैं।अपने महान दिवंगत संपादकों की तर्ज पर अनेक स्वयंभू महामहिम फेसबुक रंगते नजर आ रहे हैं और उनका भी सारा जोर इसी पर है कि तुरंत कश्मीर का आपरेशन कर देना चाहिए।
कृपया गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु जी के रोजनामचे को देखें जिसमें वे छत्तीसगढ़ में जारी सलवा जुड़ुम का किस्सा रोज एक एक गांव में सारी सैन्य अभियान का किस्सा कहकर बता रहे हैं।
मणिपुर की मुठभेड़ों के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने आफ्सा के बारे में फैसला दे दिया है।
फिर गौर करें कि भारत सरकार और कश्मीर सरकार भी कश्मीर में सैन्यबलों और पुलिस प्रशासन से संयम की गुहार लगा रहे हैं।लेकिन हथियार बंद जवान कोई अनुशासित स्वयंसेवक भी होता नहीं है।गोलियां जब चलती हैं तो वे किसी को भी नहीं देखतीं और न किसी की सुनती हैं।
हालात इतने संगीन हैं कि कश्मीर के आपरेशन से पहले तनिक यह भी योजना बना लें कि कश्मीर और पंजाब की तर्ज पर क्या आप मसलन यूपी बिहार में ऐसा कोई आपरेशन के लिए तैयार हैं या बंगाल या असम में या महाराष्ट्र या तमिलनाडु में या ओड़ीशा या राजस्थान और गुजरात में।
कश्मीर के हालात बेहद संगीन हैं।हम किसी वानी के महिमामंडन के पक्षधर नहीं हैं और न हम सैन्य दमन के पक्षधर हैं।कश्मीर के मौजूदा हालात पूर्वी बंगाल के 1971 के हालात से ज्यादा भयंकर हैं।
कश्मीर घाटी में पूर्वी बंगाल की अल्पसंख्यक आबादी की तरह कोई जनसंख्या नहीं है और कश्मीरी पंडित घाटी से बाहर हैं। घाटी में जो दलित, ओबीसी, आदिवासी रहते हैं,उनका अबतक कोई संघर्ष घाटी के मुसलमानों से हुआ हो,ऐसी कोई जानकारी हमारे पास नहीं है।
अनुसूचित बहुजन वे लोग सियासत से दूर घाटी और बाकी कश्मीर में बने हुए हैं और बाकी देश को कश्मीरी पंडितों की तो फिक्र है,लेकिन इन बहुजनों की जान माल की परवाह जाहिर है किसी को नही है और मुसलमानों के साथ उन बहुजनों का सेना सफाया कर दे तो न हिंदुत्व के सिपाहसालारों और न बजरंगी पैदल सेनाओं को उसकी कोई परवाह है।
यह निर्मम सच पूर्वी बंगाल का भी है।पूर्वीबंगाल के जमींदार सारे राष्ट्र के नेतृत्व में अहम थे और कोलकाता में ही वे रहते थे या पश्चिम बंगाल में उनकी जमींदारियां थी।बंग भंग के खिलाफ 1905 में जिन लोगों ने पूरे देश को आंदोलित कर दिया था,उन्हीं लोगों की पहल और जिद पर बंगाल का विभाजन तय करने के लिए एकमुश्त कश्मीर,पंजाब,सिंधु घाटी और भारत का विभाजन हो गया।
विभाजन पीड़ित पूर्वी बंगाल की क्या कहे,भारत में शरणार्थी बनने को मजबूर पांच करोड़ बहुजन हिंदू शरणार्थियों,पश्चिम बंगाल की तीन करोड़ अनुसूचितों और बांग्लादेश की आजादी के बाद वहां जारी निरंतर अल्पसंख्याक उत्पीड़न से पीड़ित वहां रह गये दो करोड़ 39 लाक हिंदुओं की न बंगाल और न भारत के जमींदारी रियासती सत्तावर्ग को कोई फिक्र है और न बाकी भारत को बहुजनों के जीने मरने की परवाह है।
हम पूर्वी बंगाल में जारी सत्तर साला रंगेभेदी वैमनस्य का प्रयोग फिर कश्मीर में दोहरा रहे हैं।
हमें बंगाल के सत्तावर्ग की तरह सिर्फ कश्मीरी पंडितों की परवाह है और कश्मीर के बहुजन हिंदुओं की सेहत की हमें कोई परवाह नहीं है और हम मान कर चल रहे हैं कि पूर्वी बंगाल का अधूरा प्रयोग कश्मीर में कामयाब यकीनन होगा।
इसीलिए प्रबुद्ध जन कश्मीर और कश्मीरियों के हक हकूक,उनके नागरिक अधिकार, उनके मानवाधिकार की बात करने वाले हर शख्स को राष्ट्रद्रोही करार देने में हिचक नहीं रहे हैं।सन 1971 से पहले पाकिस्तान में भी हो न हो,इसी तर्ज पर पाकिस्तान को मजबूत बनाने के लिए सेना के बेलगाम इस्तेमाल की दलीलें दी गयी होंगी।
मुठभेड़ में मारे गये वानी के बारे में बाकी देश के लोग असलियत जानते नहीं हैं और हमं भी मीडिया के परस्परविरोधी दावों से ज्यादा कुछ मालूम नहीं है।वानी की असलियत कुछ भी हो,उसे कुछ भी साबित किये बिना इस त्थय पर गौर करना बेहद जरुरी है कि कश्मीर में हालात बेहद संगीन हैं और कश्मीर का केसरियाकरण वहां मुफ्ती बाप बेटी के सौजन्य से बनी केसरिया सरकार कर पायी हो या नहीं,लेकिन वहां हालात राज्य और केंद्र सरकार के काबू में कतई नहीं है।
सारा कश्मीर वानी की मुठभेड़ में मौत के बाद जलने लगा है।
चप्पा चप्पा बागी है।
वजह लेकिन वही मुठभेड़ है,इस पर गौर करना जरुरी है।
अब विद्वत जनों का आग्रह है कि कश्मीर में तुरंत राष्ट्रपति शासन लागू करके कश्मीर को सेना के हवाले कर दिया जाना चाहिए और अलगाववादी तत्वों को चुन चुनकर मार दिया जाना चाहिए।
इन विद्वत जनों को शायद कश्मीर और पूर्वोत्तर में 1958 से लागू सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून के बारे में कुछ पता नहीं है।जिसके तहत सेना किसी को भी बिना कैफियत गिरफ्तार कर सकती है।गोली से उड़ा सकती है।सैन्य अभियान को चुनौती भी नहीं दी जा सकती और न राज्य सरकार के अधीन सेना है।
कश्मीर और मणिपुर तो 1958 से सेना के हवाले हैं।क्या हमारे ये अत्यंत मेधावी लोग चाहते हैं कि जैेसे पाकिस्तान ने पूर्वी बंगाल के खिलाफ बाकायदा युद्ध घोषणा कर दी थी,उसीतरह भारत सरकार भी कश्मीर के खिलाफ युद्ध घोषणा करके कश्मीर का वजूद ही मिटा दें ताकि न रहेगा बांस और न बजेगा बांसुरी।
इजराइल और अमेरिका ने मिलकर तेलकुंऔं पर कब्जे के लिए मध्यपूर्व पर सीधा हमला बोला और इसके लिए सद्दाम हुसैन के प्रगतिशील रूस समर्थक हुकूमत के खिलाफ दुनियाभर की मीडिया में एकतरफा खबरों के जरिये विश्व जनमत तैयार किया और इराक अफगानिस्तान के अलावा एक के बाद एक इस्लामी राष्ट्र को ध्वस्त कर दिया आतंक के खिलाफ युद्ध के नाम,जिसके हम भी अब कास पार्टनर है।अब सारा सच खिला खिला है और नतीजा सामने है कि दुनियाभर में कोई भी कहीं भी सुरक्षित नहीं है।
हम यूरोप और अमेरिका का नर्क अपने अखंड भारत में जीने पर आमादा है तो जाहिर है,क्योंकि हिंदुतव में जात पांत और रंगभेद का कुंभीपाक नर्क हमारे ऐसोआराम के लिए,हमारे मुक्तबाजारी अबाध भोग के लिए कम पड़ गया है।जाहिर है कि हम यकीन के साथ यह कह नहीं सकते कि हमारे सत्तावर्ग के डीएनए में विदेशी हित और विदेशी खून डालने के लिए अंग्रेजों ने क्या क्या तरीके अपनाये होंगे।लेकिन नतीजे बागों में बहार है।मुक्त बाजार।
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