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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, September 29, 2012

बाजरी और हाजरी
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/29332-2012-09-27-04-59-18
Thursday, 27 September 2012 10:28

अरविंद कुमार सेन
जनसत्ता 27 सितंबर, 2012: राजस्थानी में एक कहावत है- जाकि खावै बाजरी, बाकि बजावै हाजरी। कहावत का मतलब है कि हम जिस आदमी का अनाज खाते हैं, उसके गलत और सही कामों में साथ भी देना पड़ता है। अगर बाजरी की जगह राजनीतिक दलों को कॉरपोरेट घरानों से मिलने वाले चंदे को रखें तो तस्वीर और साफ हो जाती है। निर्वाचन आयोग के आंकड़ों के मुताबिक भारत में कारोबार कर रही कंपनियों ने बीते पांच सालों में देश के छह बड़े राजनीतिक दलों (भाजपा, कांग्रेस, बसपा, सपा, माकपा और राकांपा) को 4,400 करोड़ रुपए से ज्यादा का चंदा दिया है।
सबसे खतरनाक बात यह है कि कोई भी पार्टी चंदा देने वाली कंपनियों का खुलासा करने को तैयार नहीं है। अमेरिकी चुनावों में कारोबारी घराने खुलकर चंदा देते हैं लेकिन वहां यह काम पारदर्शिता से किया जाता है और जनता को मालूम होता है कि उसका उम्मीदवार किस कंपनी के पैसे से चुनाव लड़ रहा है। कारोबारियों की तरफ से नकद दिए जाने वाले चंदे के अलावा राजनीतिक दलों को विमान सेवा, चुनावी प्रचार में गाड़ियां, प्रायोजित विदेश यात्राएं और पंचसितारा होटलों में सम्मेलन आयोजित करने का खर्च भी उठाया जाता है।
कांग्रेस केंद्र के साथ ही कई अहम राज्यों की सत्ता संभाल रही है, लिहाजा इस पार्टी पर कारोबारियों ने 1,660 करोड़ रुपए की बारिश की है। गौर करने वाली बात यह है कि अपने को किसान-मजदूरों की पार्टी बताने वाली माकपा को 335 करोड़ रुपए चंदे के रूप में मिले हैं। क्या कोई इंसान शिकारी से हथियार उधार लेकर शिकारी को ही खत्म कर सकता है? पूंजीवादी नीतियों के खिलाफ भारत में एकमात्र दीवार होने का दावा करने वाली माकपा ने हर साल औसतन 67 करोड़ रुपए का चंदा कारोबारियों से लिया है और चंदा देने वाली कंपनियों का नाम बताने से इनकार किया है।
गुप्त चंदा देकर अप्रत्यक्ष तौर पर देश चलाने की इस दौड़ में नैतिक मानदंडों पर चलने की बात करने वाले टाटा समूह से लेकर मुनाफे के लिए कानूनों का उल्लंघन करने के लिए बदनाम स्टरलाइट इंडस्ट्रीज (अनिल अग्रवाल के वेदांता समूह की कंपनी) तक शामिल हैं। भले ही राजनीतिक दल यह तर्क पेश करें कि चुनाव लड़ने के लिए धनराशि की जरूरत पड़ती है, मगर मतदाता के रूप में इस देश की जनता को सरकार को जवाबदेह बनाने के लिए चंदा देने वाली कंपनियों का ब्योरा हासिल करने का अधिकार है। अगर जनता के पास यह जानकारी होगी तो इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार की नीतियां और फैसले किन लोगों के हितों को पूरा कर रहे हैं। 
कारोबार निवेश पर प्रतिफल के नियम पर चलता है और कंपनियां अपने हितों के हिसाब से ही चंदा देती हैं। मिसाल के तौर पर, जब उत्तर प्रदेश में मायावती मुख्यमंत्री थीं तो बसपा को भाजपा (852 करोड़) से भी ज्यादा 1,226 करोड़ रुपए कंपनियों ने दिए, वहीं समाजवादी पार्टी को दो सौ करोड़ रुपए का चंदा मिला। उत्तर प्रदेश में अब समाजवादी पार्टी का राज है तो कारोबारियों की तिजोरी का रुख लोहिया के चेलों की तरफ हो जाएगा। देश में चल रही लूट-खसोट से ठगा महसूस कर रहा देश का हर नागरिक बदलाव के सवाल पर एक बात जरूर कहता है कि सारे नेता एक जैसे हैं।
जब कारोबारी छह बड़े राजनीतिक दलों को पैसा दे रहे हैं तो जाहिर-सी बात है कि कोई भी सरकार आए, पैसेवालों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है। यह एक तरह से लोकतंत्र की नीलामी है जिसमें चंदे के रूप में सबसे ज्यादा बोली लगाने वाले को सबसे अधिक फायदा मिलता है। चूंकि पैसे और लोकतंत्र की नीलामी के इस खेल में हिस्सा लेने की कुव्वत गरीब आदमी में नहीं है, इसलिए वह राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में भी सबसे नीचे है। यही वजह है कि सत्ता में आने के बाद कांग्रेस से लेकर माकपा तक सारे राजनीतिक दलों का चरित्र एक जैसा हो जाता है, क्योंकि सबका नियंत्रण कक्ष कंपनियों के बोर्डरूम में है।
देशी-विदेशी कंपनियों के मुनाफे का एक हिस्सा लॉबिंग और राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदे के रूप में रखा जाता है, और इसे कारोबार की भाषा में, लगातार लाभ के लिए किया गया निवेश कहा जाता है। चंदे के जरिए राजनीतिक दलों को अपने साथ जोड़ने के बाद नौकरशाही को साधने के लिए लॉबिंग का सहारा लिया जाता है। उपहारों और लॉबिंग के बाद भी अगर कोई अधिकारी 'कॉरपोरेट फ्रेंडली' नहीं बनता तो राजनीतिक आकाओं की मार्फत उस अधिकारी को ऐसी जगह भेजा जाता है, जहां से वह फैसला लेने की प्रक्रिया को प्रभावित न कर पाए। सारी अड़चनें हटाने के बाद अर्थव्यवस्था को गति देने के नाम पर किसानों की जमीन कारोबारियों को मूंगफली के दानों की माफिक बांट दी जाती है और भोली-भाली जनता अचरज करती है कि वामपंथी सरकार भी कांग्रेस-भाजपा की तरह कंपनियों का पक्ष क्यों ले रही है। आधी जनता लालटेनों की रोशनी को ही विकास का उजाला मान बैठती है, वहीं दस हजार यात्रियों के लिए मेट्रो की एअरपोर्ट एक्सप्रेस लाइन शुरू कर दी जाती है।
देशी-विदेशी मीडिया मनमोहन सिंह को मौन रहने वाला त्रासद प्रधानमंत्री बता कर अर्थव्यवस्था की कथित दुर्गति के लिए खरी-खोटी सुना रहा था और देश की सारी मौजूदा समस्याओं के पहले समाधान के रूप में बहुब्रांड खुदरा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति देने की बात कही जा रही थी। पूछा जा सकता है कि आखिर भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी दिक्कतों और लंबे समय से उपेक्षित कृषि क्षेत्र की हरेक बीमारी का उपचार महज बहुब्रांड खुदरा में एफडीआइ से कैसे हो सकता है। जवाब जानना है तो दुनिया की तीन सबसे बड़ी खुदरा कंपनियों- वालमार्ट, टेस्को और कार्फूर- की वेबसाइट पर जाएं।
अकेली वालमार्ट ने ही महज दो साल के भीतर भारत में लॉबिंग के लिए बावन करोड़ रुपए फूंक दिए हैं और इसका जिक्र अमेरिका में दिए गए खुलासा-बयान में वालमार्ट ने किया है। एकल ब्रांड में सरकार ने पहले ही सौ फीसद विदेशी निवेश की अनुमति दे दी थी, लेकिन एक शर्त यह रखी गई कि विदेशी कंपनियों को अपनी जरूरत का तीस फीसद सामान भारत के छोटे कारोबारियों से लेना होगा। दुनिया की सबसे बड़ी फर्नीचर निर्माता कंपनी स्वीडन की आइकिया के सीइओ ने खुलेआम निवेशकों से कहा कि घरेलू छोटे कारोबारियों से तीस फीसद सामान लेने की बंदिश हटवा दी जाएगी। अंग्रेजी अखबारों के अभियान और आइकिया कंपनी के दलालों के दबाव में महज एक हफ्ते में यूपीए सरकार ने यह शर्त बदल दी। वाणिज्यमंत्री आनंद शर्मा तो बहुब्रांड खुदरा में विदेशी निवेश के मसले पर इतने आक्रामक हो गए हैं कि अब भ्रम होने लगा है कि वह भारत की जनता के प्रतिनिधि हैं या वालमार्ट के प्रवक्ता।
दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं के उदारीकरण के साथ ही लॉबिंग और चंदे के इस खेल का भी वैश्वीकरण हो गया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ ही सरकारें भी चंदा बांट कर मुनाफा पीटने के इस हथियार का बखूबी इस्तेमाल कर रही हैं। ब्रिटेन की सरकार भारत को दान देती है और भारत की सरकार नेपाल को चंदा देती है। चंदे के साथ देने वाला अपनी नीतियां लेने वाले देश पर थोपना चाहता है और संबंधित देश में अपने हितों को खाद-पानी मिलने की उम्मीद रखता है।
अमेरिका, इजराइल के बाद सबसे ज्यादा आर्थिक मदद पाकिस्तान को देता है तो पाकिस्तान का इस्तेमाल आज सैनिक बंकर के रूप में किया जा रहा है। अमेरिकी ड्रोन हमलों के सबसे ज्यादा शिकार पाकिस्तान के निर्दोष लोग बन रहे हैं मगर अमेरिका का नमक खा रही पाकिस्तान की सरकार खामोश बैठी है। भारतीय वायुसेना ने जब पिछले दिनों फ्रांस की कंपनी राफेल से 75,000 करोड़ रुपए में लड़ाकू विमान खरीदने का सौदा किया तो ब्रिटेन की संसद में जमकर हंगामा हुआ। सांसदों का कहना था कि ब्रिटेन की सरकार भारत को ढाई सौ करोड़ पौंड की सालाना रकम 'विकास' के लिए देती है, ऐसे में भारत ने लड़ाकू विमानों की आपूर्ति के लिए ब्रिटिश कंपनी टाइफून को छोड़ कर फ्रांस की कंपनी राफेल का चुनाव क्यों किया।
यानी कथित विकास के लिए दी जाने वाली रकम का असली मकसद ब्रिटिश कंपनियों के मार्ग में आने वाली अड़चनों को साफ करना है। कहने की जरूरत नहीं कि फ्रांस ने लॉबिंग और दलाली पर इस दफा ज्यादा रकम खर्च की, लिहाजा फ्रांस की कंपनी राफेल यह सौदा हासिल करने में कामयाब रही। बहुराष्ट्रीय कंपनियां और विकसित देश चंदे और आर्थिक सहायता की आड़ में गरीब देशों के संसाधनों पर कब्जा कर चुके हैं। अब यह रिवाज बन गया है कि जब भी किसी शक्तिशाली देश का राष्ट्रप्रमुख गरीब देश की यात्रा करता है तो मेजबान देश को आर्थिक पैकेज देने की घोषणा करता है। यह आर्थिक पैकेज नेताओं और दलालों की जेब में जाता है, जो बदले में विकसित देशों को अपने देश में बेशकीमती संसाधन लूटने का लाइसेंस बांटते हैं। सबसे बड़ा सवाल यही है कि अगर कोई विकसित देश वाकई गरीब देशों की जनता की सहायता करना चाहता है तो आर्थिक पैकेज देने के बजाय उद्योग-धंधों के विकास के लिए तकनीक क्यों नहीं दी जाती है। पुरानी कहावत है कि भिखारी को पैसा देने की जगह कोई रोजगार दिया जाए तो भूख की वजह ही खत्म हो जाएगी।
चंदे और आर्थिक मदद का यह कारोबार राष्ट्रों की सीमाओं से निकल कर वैश्विक रूप धारण कर चुका है और भारत जैसे देशों के तमाम लाल-नीले-भगवा झंडों वाले राजनीतिक दलों को पूंजीपति जेब में डाल कर संसाधनों को लूट रहे हैं और गरीब जनता इस लूट को देखने के लिए विवश है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल का कहना है कि केवल अमेरिका की कंपनियां दुनिया भर में हर माह 1,243 करोड़ रुपए चंदे और लॉबिंग पर खर्च कर रही हैं और भारत इन कंपनियों के निशाने पर सबसे ऊपर है। चंदे और लॉबिंग पर खर्च की गई यह रकम कर-राहतों और कारोबारी सहूलियतों के रूप में कारोबारियों के मुनाफे में कई गुना इजाफा करती है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह विशाल रकम जेब में डालने वाले बिचौलिये क्यों फल-सब्जियों में दो-तीन रुपए कमाने वाले भारतीय बिचौलियों (आढ़तियों) को खदेड़ने पर उतारू हैं।
यही कारण है कि भारत के किसानों और जनता की भलाई के नाम पर बहुब्रांड खुदरा में विदेशी निवेश को अनुमति देने के फैसले का इस देश के किसानों और ग्राहकों से ज्यादा जश्न अमेरिका में मनाया गया है। बहस लंबी है, मगर संदेश साफ है कि जो पैसा लेगा उसे लूट में साझीदार बनने के लिए जायज-नाजायज काम भी करना होगा, चाहे उसकी पार्टी के झंडे का रंग कैसा भी हो। याद रहे, भीष्म पितामह ने गलत आदमी का नमक खाने की कीमत ताजिंदगी चुकाई थी।


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