धीरेश सैनी
जींद जिले के बीबीपुर गांव में हुई महापंचायत में कन्या भूण हत्या के खिलाफ लिया गया फैसले का मकसद दुनिया की आंखों में धूल झोंकने, अपना चेहरा चमकाने और इससे भी बढ़कर असंवैधानिक कार्यवाहियों के लिए वैधानिकता हासिल करने की बड़ी कोशिश थी, जिसमें मीडिया सहयोगी बन गया था।
रविवार 15 जुलाई 2012 के हिंदी अखबारों के मुखपृष्ठ खापमय हो गए थे। उस दिन मैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली इलाके के अपने गांव हसनपुर लुहारी में था और मेरे हाथों में हिंदुस्तान अखबार था। अखबार की मुख्य खबर हरियाणा जींद जिले के बीबीपुर गांव में हुई महापंचायत में कन्या भूण हत्या के खिलाफ लिया गया फैसला था तो नीचे लगी बड़ी खबर के रूप में भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष और बालियान खाप के चौधरी नरेश टिकैत (दिवंगत महेंद्र सिंह टिकैत के उत्तराधिकारी) का इंटरव्यू था। भयावह यह था कि हिंदुस्तान जैसे अखबार ने बीबीपुर की कथित महापंचायत का सिर्फ महिमांडन किया था और उसे जरा भी वस्तुनिष्ठ ढंग से देखने की कोशिश नहीं की थी। दैनिक जागरण, अमर उजाला, दैनिक भास्कर (हरियाणा) आदि सभी अखबारों का सुर एक जैसा था। नवभारत टाइम्स के दिल्ली संस्करण में 'खाप की नई पहल' और 'कोख की बेटियों को खाप का आशीर्वाद' शीर्षक दिए गए थे।
दलितों-स्त्रियों के उत्पीडऩ और प्रेमी जोड़ों की हत्याओं जैसे असंवैधानिक फरमानों के लिए कुख्यात खाप पंचायतों के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि थी। यह समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं था कि महापंचायत का सोचा-समझा मकसद दुनिया की आंखों में धूल झोंकने, अपना चेहरा चमकाने और इससे भी बढ़कर असंवैधानिक कार्यवाहियों के लिए वैधानिकता हासिल करने की बड़ी कोशिश थी, जिसमें मीडिया सहयोगी बन गया था। पिता की संपत्ति में बेटियों के हिस्से के अधिकार के खिलाफ फरमान जारी करने वालीं, शादीशुदा जोड़ों को भाई-बहन करार दे देने वालीं, स्त्रियों के बुनियादी मानवीय अधिकारों की जबरदस्त मुखालफत करने वालीं, छेडख़ानी और बलात्कार के आरोपी दबंगों के समर्थन में बार-बार खड़ी होते रहने वालीं खाप पंचायतें मजे से बगुला भगत की भूमिका में आ गईं। कोई पूछने वाला नहीं था कि पितृसत्ता की मानसिकता को चुनौती दिए बिना किस तरह कन्या भ्रूण हत्या पर अंकुश लगाया जा सकता है? हास्यास्पद यह भी था कि खुद बीबीपुर गांव का रेकॉर्ड लिंगानुपात के लिहाज से बद से बदतर हुआ है। फिर भी हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने अगले ही दिन खाप महापंचायत की तारीफों के पुल बांध दिए और बीबीपुर गांव के विकास के लिए एक करोड़ रुपए देने का एलान कर दिया। हुड्डा ने खाप पंचायतों का सामाजिक जन आंदोलनों के लिए आगे आने का आह्वान भी किया।
जाहिर है कि हरियाणा के मुख्यमंत्री का खाप प्रेम नया नहीं था और वह खापों के 'आंदोलनों' के स्वरूप से नावाकिफ भी नहीं थे। हिसार जिले के मिर्चपुर गांव में मुख्यमंत्री की जाति के किसानों ने दलितों के घर फूंक दिए थे और एक विकलांग दलित लड़की को जिंदा जला दिया था तो खाप पंचायतें खुलकर आरोपियों के पक्ष में जा खड़ी हुई थीं। ऐसे नाजुक मौके पर भी मुख्यमंत्री इन बर्बर, असंवैधानिक स्वयंभू खाप पंचायतों की तुलना एनजीओज से कर उनकी पीठ थपथपा चुके थे। मनोज-बबली हत्याकांड व ऑनर किलंग की दूसरी सनसनीखेज वारदातों के बाद केंद्र सरकार ने नया सख्त कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू की तो भी हुड्डा ने केंद्र सरकार को कहा कि ऑनर किलंग की वारदातें मीडिया बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है जबकि इन्हें व्यापक संदर्भों में देखा जाना चाहिए।
दिलचस्प यह है कि उत्तर भारत में जाटों के अलावा भी लगभग सभी ताकतवर जातियां स्त्रियों और दलितों के साथ एक जैसा ही सलूक करती रही हैं लेकिन हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खाप-पंचायतों की मुहिम की धुरी सामाजिक-राजनैतिक रूप से बेहद ताकतवर हैसियत रखने वाले जाट ही रहते हैं। हरियाणा की सत्ता संभालने के बाद से ही हुड्डा की कोशिश जाटों में देवीलाल-चौटाला से ज्यादा स्वीकार्यता हासिल करने की रही है। खापों की असंवैधानिक कारगुजारियों पर चुप्पी और उनका महिमामंडन ऐसी ही कोशिशों का हिस्सा है। जिस वक्त हुड्डा खाप पंचायतों से जनांदोलनों के लिए आगे आने का आह्वान कर रहे थे, तब भी हिसार जिले के भगाना गांव के दलित ऐसी ही एक पंचायत के फरमान के बाद गांव से पलायन कर हिसार और दिल्ली में इंसाफ के लिए डेरा डाले हुए थे। बताया जाता है कि बतौर इंसाफ इस गांव के करीब 46 दलितों के खिलाफ राजद्रोह के आरोप में कार्रवाई की गई है और कई के खिलाफ दूसरी संगीन धाराओं में मुकदमे लाद दिए गए हैं। हिसार के दौलतपुर गांव में पानी का बर्तन छूने पर दलित व्यक्ति के हाथ काट देने की घटना पुरानी नहीं है। दलित उत्पीडऩ की अनगिन वारदातें रोज होती हैं और गोहाना, मिर्चपुर व कुंजपुरा जैसी दलित उत्पीडऩ की चर्चित वारदातों की तरह हर बार खाप पंचायतें आरोपियों का पक्ष लेते हुए दलितों को भाईचारा कायम करने की चेतावनी देती हैं। भाईचारे का सीधा मतलब होता है कि दलित जातियां उत्पीडऩ के खिलाफ मुंह न खोलें।
जाहिर है कि ऐसे मसलों पर हरियाणा में विपक्ष यानि ओमप्रकाश चौटाला भी चुप्पी ही साधे रहे। वैसे भी जाट नेताओं और इन खाप-पंचायतों का रिश्ता दिलचस्प है। खाप-पंचायतों के मुखिया (यहां तक कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ताकतवर किसान नेता व बालियान खाप के मुखिया दिवंगत महेंद्र सिहं टिकैत भी) कभी सीधे चुनाव जीतने-जिताने की स्थिति में नहीं होते हैं। मानो एक कबीला अपने कुछ लोगों को सीधे सरकार में रहने की भूमिका देता हो और कुछ को सरकार से बाहर रहकर ही माहौल बनाए रखने और कबीले की सामाजिक सत्ता बरकरार रखने की भूमिका देता हो।
जींद की बीबीपुर की महापंचायत के महिमामंडन के बाद खाप-पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देने की पुरानी मांग जोर-शोर से उठायी जाने लगी है। मीडिया और सरकार खापों को नई पहल करने का तमगा दे रही हों तो ऐसा होना स्वाभाविक भी था। खापों के लिए बेहद उर्वर बागपत-मुजफ्फरनगर, शामली जिलों में तो इन पंचायतों का सिलसिला-सा शुरू हो गया। आसरा और बागपत की पंचायतों के अलावा दूधाहेडी, मोघापुर, जसोई, हैबतपुर आदि कई गांवों में देखते ही देखते पंचायतें आयोजित कर दी गईं और असली एजेंडा भी जाहिर कर दिया गया। लड़कियों के जींस न पहनने, लड़कियों के मोबाइल फोन का इस्तेमाल न करने व 40 साल से कम उम्र की स्त्रियों को अकले घर से न निकलने देने आदि फरमान धड़ल्ले से दोहरा दिए गए। कहा गया कि अपनी परंपराओं की तरह 'अपनी' स्त्रियों और बेटियों की सुरक्षा करना हमारा अधिकार है। प्रेम विवाहों पर पाबंदी, गोत्र व गांव में शादी न होने देने जैसे पुराने सुर भी जोर-शोर से बजने लगे। नरेश टिकैत ने साफ तौर पर कहा कि बेटा-बेटी समान हैं पर पिता की संपत्ति में बेटियों को हिस्सा नहीं दिया जा सकता है। जाट आरक्षण संघर्ष समति के अध्यक्ष यशपाल मलिक कह रहे हैं कि रमजान के बाद देशव्यापी आंदोलन चलाया जाएगा और खाप पंचायतों के पक्ष में कानूनी अधिकार हासिल किए जाएंगे। ऑनर किलिंग की वारदातों में खाप पंचायतों की संलिप्तता और केंद्र सरकार के नए सख्त कानून बनाने की प्रक्रिया के मद्देनजर ऐसी मांगों के महत्त्व को समझना कठिन नहीं है। अपने गृह क्षेत्र बागपत में हुई इन पंचायतों को लेकर केंद्रीय मंत्री अजित सिंह और उनके बेटे जयंत के स्वर भी हिमायत भरे ही रहे। दिलचस्प है कि अजित अपने पिता चौधरी चरण सिंह की विरासत संभालने अमेरिका से भारत आए थे और उनके बेटे जयंत भी सियासत में आने से पहले अपने अंतरजातीय विवाह का हवाला देते हुए इस तरह के विवाहों को जातिवाद खत्म करने के लिए जरूरी बताते थे।
बीबीपुर की महापंचायत में महिलाओं की मंच पर भागीदारी भी बड़ी उपलब्धि के रूप में गिनाई गई। पंचायतों में स्त्रियों की गैरमौजूदगी को लेकर सवालों के घेरे में रहती आई खापों ने पहले ही मंचों पर स्त्रियों की प्रतीकात्मक नुमाइंदगी शुरू कर दी थी। अपने ढांचे और फैसलों में धुर स्त्री विरोधी इन खाप-पंचायतों के मंचों पर स्त्रियों का उनकी हां में हां मिलाना किसी को हैरानी भरा लग सकता है लेकिन एक ताकतवर समूह में शामिल रहकर (उसके भीतर उत्पीडऩ झेलते हुए भी) सुरक्षित होने के फल लगातार मिलते हों, तो ऐसा स्वाभाविक है। हालांकि यह विडंबना ही है कि जिस तरह दलित विरोध इस तरह की खाप-पंचायतों को 'व्यापक स्वीकृति' प्रदान करता है, उसी तरह इस ढांचे की बड़ी ताकत औरतों पर पुरुषों के वर्चस्व के फरमान ही हैं। यह एक ऐसा पहलू है जो खाप-पंचायतों के हिंदूवादी संगठनों से गहरे गठजोड़ (दुलीना में पांच दलितों की जलाकर हत्या से लेकर हिंदू विवाह अधिनियम में बदलाव की मांग तक ) के बावजूद मुसलमानों को भी (यहां तक कि दलितों को भी) आकर्षित करता है। बेवजह नहीं कि मुसलमान गांवों में भी ऐसी पंचायतें हो रही हैं और उलेमा भी जाट नेताओं के सुर में सुर मिला रहे हैं। यह एक ऐसी 'सर्वानुमति' है जो खापों के जाट केंद्रित होते हुए भी उनके 36 बिरादरी के जुमले को किसी हद तक सही साबित कर देती है।
इस बीच सबसे बड़ी विडंबना प्रगतिशील इंसाफपसंद ताकतों के असमंजस की है। जाहिर है कि ऐसी ताकतें लगातार असुरक्षित भी हुई हैं। बीबीपुर महापंचायत के निहितार्थों को यह सोचकर जोर-शोर से उजागर न करना कि उन पर कन्या भ्रूण हत्या जैसे मसले पर भी नकारात्मक नजरिए के इस्तेमाल का आरोप लग सकता है, नासमझी ही कही जा सकती है। खाप-पंचायतों के खिलाफ बेहद खतरा उठाकर मुखर रहे साथी कई बार खाप-पंचायतों को सीधे असंवैधानिक कहने के बजाय उनकी कुछ 'अच्छाइयों'' के साथ उनकी गलतियां गिनाते हुए बीच का रास्ता निकालने या उनका हृदय परिवर्तन कर देने की उम्मीद बांधने लगते हैं। वे भूल जाते हैं कि यह सब किसी कबीलाई जहालत, नासमझी या पिछड़ेपन का नतीजा नहीं है बल्कि सोचा-समझा फलदायी सत्ता का खेल है।
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