काव्य का स्वार्थ विज्ञान
'काव्य का स्वार्थ-विज्ञान' (समयांतर, जुलाई) पढऩे के बाद कवि लीलाधर जगूड़ी के विज्ञान और पर्यावरण संबंधी ज्ञान पर संदेह होता है। जगूड़ी या तो भारत की नदियों की वर्तमान स्थिति के बारे में ठीक से नहीं जानते या फिर जानकर भी अनजान हैं या शायद इसके पीछे कोई और ही मंशा है।
गंगा सहित देश की सभी नदियों की हालत दयनीय हो चुकी है, क्या यह बात लीलाधर जी नहीं जानते हैं? कैसे गंगा को अलग-अलग दिशाओं में मोडऩे की बात करते हैं? क्या इस तरह से वह उन लाखों लोगों का मजाक नहीं उड़ा रहे हैं जिन्हें विवेकहीन तरीके से बने बांधों के कारण विस्थापन सहना पड़ रहा है? क्या उन्होंने लेख लिखने और उसे प्रकाशित करवाने से पहले सभी पहलुओं पर ठीक से सोचा और जानकारी हासिल की थी? यह तो पक्का है कि उन्हें सुंदरवन के बारे में कुछ पता नहीं है, पर आश्चर्य की बात यह है कि वह अपनी आंखों के सामने बांध में डूबे पूरे टिहरी शहर के लोगों की पीड़ाओं को भी भूल गए हैं? मैं अभी -अभी बनारस और सुंदरवन की यात्रा से लौटा हूं। गंगा की बदहाली शब्दातीत है।
क्या कवि का देश और उसकी जनता से कोई सरोकार नहीं रहा है?
- नित्यानंद गायेन, हैदराबाद
पतन का प्रमाण
'काव्य का स्वार्थ-विज्ञान' बुद्धिजीवियों के अज्ञान का नहीं उनके पतन का प्रमाण है। लीलाधर जगूड़ी जो कर रहे हैं वह जन विरोधी तो है ही, स्वार्थपरता का निकृष्टतम उदाहरण है। यह लेख उनकी रचनात्मकता की निरर्थकता को सिद्ध कर देता है। इस ऐतिहासिक लेख पर टिप्पणी के लिए चारु तिवारी को बधाई।
गीता जी के लेख ने मुझे पीड़ा से भर दिया।
- केशव भट्ट, देहरादून
सर्वहारा के प्रति श्रद्धांजलि
जुलाई अंक के आवरण पर छपा स्व. सुनील जाना का एक अत्यंत उत्कृष्ट, प्रभावशाली छायाचित्र, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी किसी भी छाया चित्रकार की कृति को चुनौती देता हुआ। प्रकाश-छाया के अद्भुत समन्वय से रचित पुष्ट मांसपेशियां-- ऊर्जा और शक्ति से कंपायमान पुरुष शरीर आकार लेते से लगते हैं। परिप्रेक्ष्य में, शुरू से लेकर सुदूर तक दुर्बल न होने वाली शक्ति का एहसास। सीधे लकड़ी के लट्ठे मानव-शरीर के स्पंदन को जीवंतता से उभारते हैं। सफेद, संक्षिप्त वस्त्र पौरुष को सामने लाते हैं, लेकिन हावी नहीं होते। पूरा छायाचित्र सर्वहारा के प्रति एक श्रृद्धांजलि प्रतीत होता है। पाठकों को इतने महान छायाकार की कृति से परिचित करवाने के लिय धन्यवाद !
गीता गैरोला का संस्मरण बांध में डूबी जिंदगियां बहुत ही मर्मस्पर्शी है। इससे स्पष्ट तौर पर उजागर होता है की सत्ताधारी कितनी निर्दयता से पहाड़ों कि सभ्यता, सामाजिक आधारों और प्रकृति को डुबोने पर तुले हुए हैं।
जवरीमल्ल पारख का लेख भारतीय समाज में सिनेमा बहुत ही गंभीरता से भारतीय सिनेमा के उत्थान-पतन पर व्यापक रूप से प्रकाशक डालता है। एक अत्यंत ही रोचक अवलोकन।
- शेख सईद, तुर्कु, फिनलैंड
धार्मिक क्रियाकलापों पर अनुदान अनुचित है
'श्रद्धा और सांप्रदायिकता के बीच की तीर्थ यात्रा' (समयांतर, जून) समयानुकूल है। संविधान के अनुच्छेद 51 ए में धार्मिक रीति-रिवाजों पर तार्किक एवं वैज्ञानिक बहस की बौद्धिक परंपरा को जारी रखने नागरिकों के आधारभूत कर्तव्य को प्रतिस्थापित करे, निर्देशित करती है। यहां नागरिक कर्तव्यों में गति आनी चाहिए थी, लेकिन सरकार और बौद्धिक वर्ग की निष्क्रियता से संभव न होकर स्थिति अब भी यथावत है।
सर्वोच्च न्यायालय के 8 मई का फैसला युक्ति युक्त है। भारतीय गणतंत्र के धर्मनिरपेश संविधान में धार्मिक क्रियाकलापों पर अनुदान और सब्सीडी किया जाना सर्वथा अनुचित है।
- के.के. सिंह, नारायणपुरी
No comments:
Post a Comment