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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, July 17, 2013

कितना ताकतवर है सोशल मीडिया?

कितना ताकतवर है सोशल मीडिया?


सलीम अख्तर सिद्दीकी

 

Saleem Akhtar Siddiqi,सलीम अख्तर सिद्दीकी

सलीम अख्तर सिद्दीकी पत्रकारिता जगत का जाना पहचाना चेहरा हैं.देश के अनेक समाचार-पत्रों में सामायिक मुद्दों पर लेख लिखते हैं। आजकल दैनिक जनवाणी में कार्यरत हैं।

11 जुलाई को दिल्ली में प्रख्यात पत्रकार उदयन शर्मा की स्मृति में आयोजित एक कार्यक्रम में देश के कई जाने-माने पत्रकारों और केन्द्रीय सूचना प्रसारण मन्त्री मनीष तिवारी ने 'क्या सोशल मीडिया देश का एजेण्डा बदल रहा है?' विषयक सेमिनार में पर अपने विचार रखते हुये सोशल मीडिया की ताकत को आँका।

पत्रकार राजदीप देसाई का मानना था कि देश का एजेण्डा सोशल मीडिया तो क्या कोई भी राजनीतिक दल तय नहीं कर सकता। देश का एजेण्डा यहाँ की जनता तय करती है और करती करेगी। राजदीप देसाई की इस बात में दम था कि सोशल मीडिया पर अधिकतर देश का मध्यम वर्ग हावी है, जो इस हैसियत में नहीं है कि देश का एजेण्डा तय कर सके। वह बहुत चंचल है। इसलिये उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। उनकी इस राय से सभी को इत्तेफाक था। देसाई का कहना था कि सोशल मीडिया की ताकत को कुछ ज्यादा करके आँका जा रहा है। इसलिये भारतीय जनता पार्टी सोशल मीडिया पर दो सौ करोड़, तो कांग्रेस सौ करोड़ रुपये खर्च करने जा रही है। हालाँकि मनीष तिवारी ने अपने विचार रखते हुये देसाई की इस बात का यह कहते हुये खण्डन किया कि पता नहीं देसाई को किस स्रोत से ऐसी जानकारी है, लेकिन कम से कम काँग्रेस सोशल मीडिया पर सौ करोड़ तो क्या दो करोड़ रुपये भी खर्च करने का इरादा नहीं रखती।

बहरहाल, इसमें दो राय नहीं कि आज की तारीख में देश में ही नहीं, दुनिया में सोशल मीडिया ताकत बना है, लेकिन इतना नहीं कि वह देश का एजेण्डा तय करने लगे। मिस्र की क्रांति और खाड़ी के अन्य देशों में हुये राजनीतिक बदलावों में सोशल मीडिया के योगदान का बहुत उदाहरण दिया जाता है। जो लोग मिस्र आदि का उदाहरण देते हैं, वे भूल जाते हैं कि भारत उन देशों से कई मामलों में अलग है। वे बहुत छोटे देश हैं। दूसरे, वहाँ का मीडिया इतना आजाद नहीं है। तीसरे, सोशल मीडिया की पहुँच अधिकांश लोगों तक है। इसलिये पूरी तरह से आजाद सोशल मीडिया वहाँ अपना असर दिखाता है। भारत में मीडिया पूरी तरह से आजाद हैशायद जरूरत से ज्यादा। भारत में अभी इंटरनेट की पहुँच एक चौथाई आबादी तक भी नहीं है। वह भी शहरों में बसती है, जहाँ हमारा अधिकाँश मध्यम वर्ग निवास करता है। यही वजह है कि जब अन्ना का आन्दोलन होता है, तो उसमें सोशल मीडिया अपनी भूमिका तो निभाता है, लेकिन उसका दायरा सीमित रहता है। उसमें भागीदारी भी मध्यम वर्ग की ही होती है। दिल्ली से बाहर उसकी धमक सुनाई नहीं देती। देश के अन्य शहरों में 'जंतर मंतर' नहीं बनते।

भारत में 15-20 करोड़ जो लोग तथाकथित रूप से सोशल मीडिया से जुड़े हैं, उनमें कई करोड़ तो ऐेसे होंगे, जिन्होंने अपना एकाउंट बनाने के बाद उसे अपडेट भी नहीं किया होगा। हजारों ब्लॉग ऐसे हैं, जो बना दिये गये, लेकिन उन पर एक भी पोस्ट नहीं डाली गयी।

यही हाल फेसबुक का भी है। बच्चों ने फेसबुक पर अपने साथ ही अपने माता-पिता और दादा-दादी के भी एकाउंट बना दिये, जो नियमित रूप से संचालित नहीं होते। सिर्फ संख्या के आधार पर तय नहीं किया जा सकता कि सोशल मीडिया ताकतवर हो गया है। यह भी जरूरी नहीं कि सोशल मीडिया से जुड़ा हर आदमी राजनीतिक समझ रखता है या उसकी उसमें दिलचस्पी हो। हजारों ब्लॉगों में चंद ही ऐसे हैं, जिन पर राजनीतिक पोस्ट लिखी जाती हैं या उन पर बहस होती है। ज्यादातर ब्लॉग कविताओं और किस्से-कहानियों से भरे हुये हैं। यही हाल फेसबुक और ट्विटर का भी है। जब यह हाल है, तो पता नहीं यह कैसे कहा जा रहा है कि भारत में सोशल मीडिया बहुत ताकतवर हो गया है। हैरत की बात यह है कि देश की राजनीतिक पार्टियाँ भी सोशल मीडिया के पीछे इतनी दीवानी हो गयीं कि उस पर सौ-दौ सौ करोड़ रुपये खर्च करने के लिये तैयार हैं? वैसे देखा जाए, तो भाजपा सोशल मीडिया के पीछे कुछ ज्यादा ही दीवानी है। इसकी शायद वजह यह है कि नरेंद्र मोदी हर समय सोशल मीडिया में छाए रहते हैं। उनके फॉलोवर भी ज्यादा संख्या में हैं। जब फेसबुक  पर कोई भाजपा या नरेंद्र मोदी के खिलाफ कुछ लिखता है, तो उसका विरोध करने वालों का तांता लग जाता है। यही हाल ब्लॉग और इंटरनेट न्यूज पोर्टलों और अखबारों की वेबसाइटों का भी है।


ऐसा क्यों होता है? इसकी दो वजह हो सकती हैं। एक, सोशल साइटों परहिंदुत्व मानसिकता के लोग हावी हैं, जो शहरी वर्ग से आते हैं और उसी मध्यम वर्ग का हिस्सा हैं, जिसकी पहुँच सोशल मीडिया तक ज्यादा है। दो, यह बात सच है कि भाजपा सुनियोजित तरीके से उसका इस्तेमाल कर रही है।

भाजपा सोशल मीडिया के माध्यम से भ्रम फैलाने पर तुली है कि देश अब बदलाव चाहता है। लेकिन उसकी दिक्कत यह है कि यह भ्रम उन्हीं लोगों में फैल रहा है,जो इसको फैला रहे हैं। सोशल मीडिया के बारे में अक्सर कहा भी जाता है कि इस पर लिखने और पढ़ने वाले एक ही हैं। भारतीय जनता पार्टी यह भूल रही है या इससे जानबूझकर अनजान बन रही है कि देश की 80 प्रतिशत आबादी आज भी गाँवों में निवास करती है, जहाँ उसके फैलाये जा रहे भ्रम को देखने वाले बहुत कम लोग हैं और यही वे लोग हैं, जो देश का एजेण्डा तय करते हैं। अगर वह यह सोच रही है कि चन्द करोड़ लोगों तक पहुँचकर वह देश का एजेण्डा तय करेगी, तो वह भ्रम में है। मनीष तिवारी भले ही कहें कि कांग्रेस का सोशल मीडिया पर कुछ भी खर्च करने का इरादा नहीं है, लेकिन कांग्रेस भी इसे आज के दौर की ताकत मानकर चल रही है। कांग्रेस को समझ लेना चाहिए कि देश का एजेण्डा देश की वह जनता तय करेगी, जो सोशल मीडिया से तो नहीं जुड़ी है, लेकिन सरकार से अपेक्षा रखती है कि वह उसकी उसकी समस्याओं को हल करेगी। फिलहाल तो देश की जनता इस पशोपेश में लगती है कि आखिर उसे अपनी समस्याओं से कब छुटकारा मिलेगा।

हाँपारस्परिक विद्वेष और घृणा फैलाने के मामले में सोशल मीडिया जरूर ताकतवर बन गया है। इसकी बानगी हम पिछले साल उत्तर-पूर्व के लोगों के बारे में फैलाई गयी अफवाह के परिणास्वरूप दक्षिण भारत से उत्तर-पूर्व के लोगों के पलायन में रूप में देख चुके हैं। सांप्रदायिक घृणा फैलाने में भी उसका योगदान रहा है। शायद यही वजह है कि सूचना प्रसारण मन्त्री मनीष तिवारी सोशल मीडिया को 'नियन्त्रण' करने की तो नहीं, लेकिन उस पर 'अँकुश' लगाने की बात जरूर करते हैं। यह भी बहस का विषय है कि क्या सोशल मीडिया पर अंकुश लगना चाहिए?


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