Wednesday, 17 July 2013 10:18 |
अजेय कुमार उन्होंने यह कभी ख्वाब में भी न सोचा होगा कि हजारों-लाखों की संख्या में साधारण नागरिक उनके खिलाफ नारे लगाते हुए इस्तांबुल के केंद्र में स्थित तकसीम चौक पर जमा हो जाएंगे। तकसीम चौक दरअसल इस्तांबुल का जंतर मंतर है जहां विरोध-प्रदर्शन आयोजित होते रहते हैं। तमाम विपक्षी पार्टियां इस मुद््दे को लेकर एकजुट हैं। तुर्की की संप्रभुता और अन्य अहम सवालों पर फैसला लेने की उसकी स्वतंत्रता ही खतरे में पड़ गई है। इसलिए इस्तांबुल और अंकारा ही नहीं, देश के कई अन्य शहरों में भी विरोध प्रदर्शन हुए हैं और इन्होंने एर्दोगान सरकार की नींद हराम कर दी है। तुर्की में भगतसिंह की तरह एक कम्युनिस्ट क्रांतिकारी डेनिस गेजमी हुए हैं जिन्हें 1972 में केवल पच्चीस वर्ष की उम्र में फांसी पर लटका दिया गया था। जब विभिन्न शहरों में आंदोलनकारियों के हाथों में डेनिस गेजमी के पोस्टर देखे गए तो एर्दोगान ने फौरन कम्युनिस्ट पार्टी पर इल्जाम लगाया कि उसी की साजिश के चलते इतना हंगामा हो रहा है। अंकारा में कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय पर हमला किया गया, कई कम्युनिस्टों को पुलिस घर से उठा कर ले गई। जन-उभार को बदनाम करने के लिए सरकार जनता के विभिन्न समूहों के बीच घृणा का बीज बोने का काम भी कर रही है। यहां इसका जिक्र करना भी उचित होगा कि पिछले कुछ वर्षों से तुर्की सरकार अपना धर्मनिरपेक्ष चोला उतारने का प्रयास भी कर रही है। धार्मिक कामकाज मंत्रालय में अब बड़ी संख्या में धर्मगुरु और धर्मशिक्षक बडेÞ-बड़े ओहदों पर विराजमान हैं। नागरिक विवादों को सुलझाने के लिए जहां पहले केवल कानून देखा जाता था, अब धार्मिक पक्ष भी देखा जाने लगा है। अब वहां धर्म की शिक्षा अनिवार्य कर दी गई है। हो सकता है कल एर्दोगान 'इस्लाम खतरे में है' का नारा देकर अपनी कुर्सी बचाने में लग जाएं। इसका एक कारण और भी है। तुर्की ने खाड़ी के देशों से बहुत ज्यादा ऋण ले रखा है। ये वे देश हैं जहां जनतंत्र न होकर इस्लामी कानून की सत्ता है, मुल्लाओं के फतवे हैं, सार्वजनिक जीवन में धर्म का दखल है, स्त्रियों की स्वतंत्रता पर कई अंकुश हैं। लिहाजा ऋणदाता यह भी देखना चाहेंगे कि तुर्की की धर्मनिरपेक्षता का 'दुष्प्रभाव' उनके देश पर न पड़े। इसलिए एर्दोगान भी अब धीरे-धीरे ऋणदाताओं के सुर में सुर मिलाते दिखते हैं। यूरोप में तुर्की को एक मॉडल देश समझा जाता रहा है। 2011 के पहले छह महीनों में तुर्की की वार्षिक वृद्धि दर दस फीसद थी जो कि इस साल के पहले चार महीनों में घटते-घटते शून्य के आसपास आकर रुक गई। इसका मुख्य कारण यह रहा कि दो वर्ष पहले सरकार ने अल्पावधि बैंक ऋणों की मदद से 'उपभोक्ता बुलबुला' पैदा करने की कोशिश की थी। उपभोक्ता बुलबुला तो उड़ गया लेकिन अर्थव्यवस्था में ठहराव होते हुए भी बैंकों ने ऋण देने की मुहिम जारी रखी। यह ऋण हर वर्ष पिछले वर्ष के मुकाबले तीस फीसद बढ़ता गया। लिहाजा तुर्की का चालू वित्तीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद के दस प्रतिशत के आसपास पहुंच गया। तुर्की ने तब विदेशी बैंकों से ऋण लेना शुरू किया जो पिछले चार वर्षों में तिगुना हो चुका है। इन परिस्थितियों में वृद्धि दर प्रभावित हो रही है। इस सब के चलते अब तुर्की के साधारण नागरिकों को कहा जा रहा है कि वे देश के ऋण को देखते हुए अपना खर्च कम पैसे में चलाएं। दूसरी ओर संसद में, एर्दोगान की सरकार राष्ट्रीय अभयारण्यों और वनों को भी 'प्रगति' के नाम पर बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों के हवाले करने के लिए प्रस्ताव लाने को उत्सुक है। पिछले कुछ दिनों से प्रदर्शनकारियों की खबरों पर मीडिया चुप्पी साधे हुए है, पर वहां की जनता चुप नहीं है। तुर्की के पत्रकार, आज भी तमाम धमकियों के बावजूद, सक्रिय हैं। उसी तरह डॉक्टर भी, जेलों में ठूंसे जाने की सार्वजनिक घोषणाओं के बावजूद, विरोध-कार्रवाइयों में घायल प्रदर्शनकारियों की मरहम-पट््टी कर रहे हैं। एर्दोगान की समस्याएं दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं। तुर्की के अखबार 'हुर्रियत' के अनुसार सेना का मनोबल इतना गिरा हुआ है कि जब से ये विरोध-प्रदर्शन शुरू हुए हैं, लगभग एक हजार अफसरों ने इस्तीफा दे दिया है और छह अफसरों ने आत्महत्या कर ली है। एर्दोगान बेशक अपनी सरकार बचा लें, पर अब उनकी कोई साख नहीं बची है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/49016-2013-07-17-04-49-37 |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Wednesday, July 17, 2013
उपभोक्तावाद बनाम इतिहास
उपभोक्तावाद बनाम इतिहास
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment