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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, July 17, 2013

देश बेचकर अमेरिका से लौटे चिदंबरम, अश्वमेध मध्ये अब सुधारों की बहार!

देश बेचकर अमेरिका से लौटे चिदंबरम, अश्वमेध मध्ये अब सुधारों की बहार!


देशभर में या तो मोदी वंदना के वैदिकी मंत्रोच्चार है, बहुजन यज्ञ है उनके प्रधानमंत्रित्व के लिए या फिर मोदी के खिलाफ सर्वात्मक युद्ध है।


कुरुक्षेत्र के चक्रव्यूह की रचना अद्भुत है यह।



पलाश विश्वास


आपको याद होगा कि हमने रुपये की गिरावट थामने में नाकाम चिदंबरम के अमेरिका सफर के एजंडा पर कुछ सवाल उठाये थे। अब जब वह देश को वाशिंगटन में वैश्विक पूंजी को समर्पित करके स्वदेश लौटकर अश्वमेध मध्ये सुधारों की बहार खिलाने लगे है, हम उनकी कारगुजारी को नजरअंदाज किये धर्मोन्मादी सत्ता समीकरम में ही आपदा घनघोर इस महान देश के गुलाम देशवासियों का मोक्ष खोज रहे हैं। प्रधानमंत्रित्व के लिए नरेद्र मोदी के चेहरे की पेशकश अंततः कारपोरेट परिकल्पना का परिणाम है, यह हम अभी समझने में नाकाम है। गठबंधन अल्पमत सरकार का जनसंहार अश्वमेध दरअसल दो दलीय सत्ता प्रबंधन के तकनीकी स्पेशल इफेक्ट है, जिसकी चकाचौंधीय उत्तेजना में दूसरे चरण के सुधारों को बखूब अंजाम दिया जा रहा है और सारा ध्रूवीकरण धर्मोन्माद को लेकर है। कारपोरेट राज के अबाध पूंजी वर्चस्व में मनुष्यता औरप्रकृति के सर्वनाश के विरुद्ध कोई ध्रूवीकरण नहीं हो रहा है। इससे बड़ी बौद्धिक विडंबना हो नहीं सकती। हम सत्तावर्ग के राजनीतिक अर्थ शास्त्र को समझने की चेष्टा ही नहीं कर रहे हैं। चिदमंबरम की वापसी के तुरंत बाद प्रधानमंत्री के साथ उनकी गुप्त मंत्रणा के बाद भारत की अल्पमत कारपोरेट सरकार  ने सुषुप्त संसद और ध्वस्त लोकतांत्रिक प्रणाली को ताक पर रखकर देश की संप्रभुता को किनारे करके नरमी से जूझ रही अर्थव्यवस्था को नई गति देने के लिये आज साहसिक कदम उठाते हुये दूरसंचार क्षेत्र में शत प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की छूट देने के साथ अत्याधुनिक रक्षा उत्पादन प्रौद्योगिकी सहित करीब एक दर्जन क्षेत्रों में एफडीआई सीमा बढ़ाने का फैसला कर दिया। हालांकि, नागर विमानन क्षेत्र और मीडिया में एफडीआई सीमा बढ़ाने का कोई फैसला नहीं किया गया।कहीं पत्ता भी खड़का नहीं। हम भारतवासी निहायत बेशर्मी से अपनी अपली धार्मिक,जातीय और क्षेत्रीय अस्मिता का ढोल बजा रहे हैं नरसंहार कार्निवाल में। जैसे रक्त मांस का कोई वजूद ही न हो हमारा। जैसे कबंधों का हो यह महादेश, जिसकी न आंखें है और न दिमाग।


मजा देखिये कि वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने यहां संवाददाताओं को बताया, ''प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ कुछ महत्वपूर्ण विभागों के मंत्रियों की बैठक में खास..खास क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के नियमों को उदार बनाने या उसकी सीमा बढ़ाने के बारे में सर्वसम्मति बनी।''उन्होंने कहा कि जहां रक्षा क्षेत्र में एफडीआई सीमा 26 प्रतिशत पर बरकरार रखी गई है, वहीं इस क्षेत्र में अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी पर आधारित विनिर्माण के मामले में विदेशी निवेश सीमा बढ़ाने पर मंत्रिमंडल की सुरक्षा मामलों की समिति में फैसला किया जा सकता है।


यह सर्व सम्मति क्या संसदीय प्रमाली सम्मत है?


इसकी जनादेश वैधता है?


क्या यह भारतीय संविधान के आधारभूत तत्वों के मुताबिक है?


क्या इसमें देश की संप्रभुता का विनिवेश नही हो गया?


फिर इस पर देश की सत्ता पर काबिज होने को बेताब संघ परिवार और क्रांतिधर्मी प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष तत्वों की क्या प्रतिक्रिया है?


अंबेडकरवादी अंबेडकर के नाम पर रंगबिरंगी दुकाने खोलकर सत्ता के लिए आपस में मार दंगा कर रहे हैं, इस संदर्ब में अंबेडकर के विचारों के मुताबिक क्या उन्होंने कोई राय दी?

सबसे ज्यादा विचारक, अकादमिक और लिक्खाड़ समाजवादी हैं और सत्तावर्ग में राजनेताओं की तरह उनका भी अबाध प्रवाह। उनके उच्च विचार भी सुनने को नहीं मिल रहे हैं!


देश भर में या तो मोदी वंदना के वैदिकी मंत्रोच्चार है, बहुजन यज्ञ है उनके प्रधानमंत्रित्व के लिए या फिर मोदी के खिलाफ सर्वात्मक युद्ध है।


कुरुक्षेत्र के चक्रव्यूह की रचना अद्भुत है यह।


हमारे अंबेडकरवादी मित्रों का फोन आया सुबह सवेरे। वामपंथियों, जनवादियों और समाजवादियो के लिए तो हम जैसे लोग गणशत्रु ही ठहरे। हमारे लोग बहुजन आंदोलन की दशा दिशा को लेकर चिंतित है। हम इस बात के प्रबल पक्षधर है कि अस्पृश्यता का एकमात्र पैमाना मनुस्मृति से तय नहीं होता अब। जाति अस्मिता और जाति पहचान, घृणा अभियान के जरिये न बहुजन समाज का निरमाण संभव है और न एक फीसद नवधनाढ्य कारपोरेट सत्तावर्ग के सर्वक्षेत्रे अप्रतिद्व्ंद्वी वर्चस्व के विरुद्ध को ई राष्ट्रव्यापी आंदोलन संभव है। गांधीवादी स्वदेश तो सत्ता के कारपोरेट समीकरण में अंग्रेजों से हस्तांतरित विभाजित रक्ताक्त भूगोल की सत्ता हासिल  करने के तुरंत बाद से निष्मात है। नवउदारवादी युग के प्रारंभ से पहले और उसके बाद भी पूरे दो दशक हमने यूं ही नष्ट कर दिये इस प्रत्याशा से कि जनपक्षधर वाम आंदोलन इस अंधाधुध कारपोरेट रौरव से मुक्ति की कोई परिकल्पना प्रस्तुत करेगा जो पेश करने में डा. अंबेडकर और गांधी जैसे राष्ट्रनेता विफल रहे। पर निरंतर विश्वासघात और सत्तावर्ग के साथ उनके हमबिस्तर होते रहने के इतिहास के सिवाय मुक्तिकामी जनता को कुछ भी हासिल न हुआ। मुक्ति युद्ध अरण्य तक सीमाबद्ध है और उसके घात लगाकर हुए हमले में कहीं भी कोई कारपोरेट लक्ष्यस्थल नहीं है बल्कि इस आरण्यक विप्लव से निपटने के बहाने संपूर्ण आदिवासी भूगोल के विरुद्ध राष्ट्र की युद्धघोषणा हो गयी। उस जनयुद्ध के सीमित दायरे और अंजाम से जाहिर है कि वह कोई लोकविकल्प फिलहाल है नहीं। वामपंथी महिमा की वजह से सामाजिक और उत्पादक शक्तियां दलदली बार्टीबद्धता में कैद है और जल जंगल जमीन आजीविका नागरिकता मानवाधिकार पर्यावरण बचाने के लिए उस तरफ सेपहल नहीं हो रही है। औद्योगिक विकासदर और कृषि विकासदर शून्य है, फिर भी हम  अर्थव्यवस्था की मिथ्या विकासगाथा में अपने बहिस्कार, स्वजनों के नरसंहार की इतिवृतांत भूल बैठे।


हाल में मैंने बहुत स्पष्ट तौर पर लिखा और कहा है कि अस्पृश्यता अंततः नस्ली भेदभाव है और नस्ली भेदभाव से ही इतिहास का भूगोल के खिलाफ यह महासंग्राम जारी है। ताजा उदाहरण जलप्रसलय का शिकार उत्तराखंड, हिमालय और नेपाल हैं, जहां हिंदुत्व के धाम, तीर्थस्थल , देलवताओं का प्रत्यक्ष शासन से लेकर हिंदू राष्ट्र तक है। वहां बड़ी संख्या में सत्तावर्गीय ब्राहम्णों और सवर्मों का भी प्रवास है। लेकिन नस्ली तौर पर आर्य हिंदुत्व के समावेशी विकास के अर्थशास्त्र से बाहर हैं वे लोग। आपदाओं के पहाड़ के नीचे दबले कुचले पहाड़ों के लावारिश गांव दलित बस्तियों और आदिवासी गांवों से किन्हीं मायने में बेहतर नहीं है। जातीय, क्षेत्रीय और धार्मिक अस्मिता आंदोलनों से अर्थशास्त्रीय कारपोरेट सत्ता के विरुद्ध किसी भी तरह का प्रतिरोध एकदम अ संभव है।


वामपंथी आंदोलन हो या बहुजन आंदोलन, उसकी कोई प्रासंगिकता नही बनती अगर वह एकाधिकारवादी कारपोरेट आक्रमण के विरुद्ध रक्षाकवच बनने को तैयार नही हुआ। हमने अपनी विचारधारा इसीलिये तिलांजलि दे दी। तथाकथित प्रकाशक संपादक आलोचक निर्भर सापेक्षिक सृजनशील रचनाधरमिता भी। मेरे पिता कहते थे कि जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता के अधिकारों से वंचित तमाम लोग शरणार्थी हैं। दलित हैं। उनके मुक्ति आंदोलन के लिए बाबासाहेब की विचारधारा इसीलिए प्रासंगिक है। मेरे पिता अकादमिक विद्वतजन न थे और न मैं हूं, पर उनके संघर्ष की विरासत को ढोते हुए मुझे यह अवश्य ही सही लगता है कि हमारे स्वजन जब मारे जा रहे हो देश के हरकोने में और हमारी विचारधारा उनके बचाव के लिए हमें मोर्चाबंद नहीं कर सकती ,ऐसी बांझ नपुंसक विचारधारा का हमारे लिए कोई प्रयोजन नहीं है।


हमने अपने साथियों से कह दिया है कि बामसेफ आंदोलन की मौजूदा दशा दिशा बहुजन हितों के विरुद्ध है और अंबेडकर की विचारधारा से उसका कोई नाता नहीं है। एकतरफा घृणा अभियान से और कुछ भी संभव है, जैसे सत्ता में भागेदारी, अल्पमत सरकार से सौदेबाजी, तरह तरह की सुविधाओं समेत  संसाधनों और बेहिसाब संपत्ति की अकूत राशि का निरंकुश उपभोग और करोड़ो ंअंध भक्तों का समर्थन बिना शर्त, उसके तहत न परिवर्तन संभव है और न मुक्ति आंदोलन।ऐसा बहुजन वाद भी एक तरह का धर्मोन्माद है , जिसकी पूंजी ब्राहमणत्व और हिंदुत्व विरोध है, लेकिन उसे हम कारपोरेट राज के खिलाफ लड़ने का हथियार तो बना ही नहीं सकते।


अब ममता बनर्जी की तरह फेसबुक पर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध दर्ज करा देने के धोखेबाज समय में जनहस्तक्षेप और लोकतांत्रिक पहल की जरुरत सबसे ज्यादा है। उससे ज्यादा जरुरी है, कि जनता के बीच चिदंबरम कंपनी के एजंडा का निर्मम पर्दाफाश। इस जनकारवाई से ही सही मायने में कोई आंदोलन खड़ा हो सकता है, किसी सत्ता समीकरण या वोटबैंक से नहीं।


तुरत फुरत संसदीय कार्यवाही की प्रतीक्षा किये बिना गेम चेंजर खाद्य सुरक्षा अध्यादेश की कलई भी अंततः खुल गयी है। देश बेचने के लिए सबसे जरुरी होता है आवाम को बुरबक बनाये रखा जाये। सरकार जनकल्याणकारी राज्य और संविधान की हत्या कर चुकी है। तमाम अनिवार्य व अत्यावश्यक सेवाओं को खुल बाजार की क्रयशक्ति का बंधक बना दिया गया है, तब कारपोरेट सामाजिक प्रतिबद्धता का मायने क्या हो सकता है। कोलकाता में खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के संदर्भ में पोलिटिकल करेक्ट अर्थशास्त्रीय मंतव्य करते हुए डा. अमर्त्य सेन ने भी खाद्य सुरक्षा के लिए कुपोषण और पौष्टिक गुणवत्ता के अनिवार्य प्रसंगों की चर्चा की। चर्चा की शिक्षा के सीमित बजट पर। सर्वशिक्षा योजना की जहरीली खिचड़ी का कमाल तो बिहार में नजर आ ही गया, खाद्य सुरक्षा का सड़ा गला खाद्य निगम तो पहले से ध्वस्त जनवितरणप्रमाली की अस्वस्थ अपौष्टिक व्यवस्था में मौजूद है ही। इस खाद्य सुरक्षा का असली मकसद आम जनता का मस्तिश्क नियंत्रण है। जनादेशवंचित अल्पमत सरकार के जनसंहार सस्कृति को वैधता देने की तमाम सामाजिक योजनाएं हैं ये। वोटबैंक साधने के लिए तो नरम गरम धर्मोन्माद हैं ही।


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