बिजली परियोजनाओं पर सवाल
लेखक : शेखर पाठक (पर्यावरण मामलों के जानकार)
उत्तराखंड की इस सबसे बड़ी आपदा ने कितनी तरह से पहाड़ों की प्रकृति और समाज को ध्वस्त किया, धीरे-धीरे इसका विस्तार सामने आने लगा है । इसके केंद्र में असमय अति वर्षा, भूस्खलनों का त्वरित और नदियों का आक्रामक होना था । प्रकृति के इस गुस्से ने मनुष्य, जानवर, मकान, पुल, सड़कें, पेयजल, सिंचाईं योजनाओं, वाहन, खेती, बागवानी, पर्यटन-तीर्थाटन और विभिन्न प्रकार के स्वरोजगारों को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया । विकराल प्रकृति ने राज्य तथा बहुत अधिक नफे के सिद्धांत से लैस जल विद्युत व्यापारियों द्वारा संयुक्त रूप से विकसित 'हाइड्रो आतंक' को जैसे चूर-चूर कर दिया । विभिन्न नदियों ने चुन-चुनकर जल विद्युत परियोजनाओं को ध्वस्त कर दिया है । जिस नदी में जितनी अधिक घुसपैठ हुई, वहां उतना ही अधिक ध्वंस हुआ है । रुद्रप्रयाग जिले में मंदाकिनी की सहायक नदियों में निर्मित हो रही कालगंगा प्रथम, द्वितीय और मदगंगा परियोजनाएं बाढ़ द्वारा नेस्तनाबूद कर दी गई हैं । इन नदियों ने इतना विकराल रूप लिया कि जहां विविध भवन,पावर हाउस, सिल्ट टैंक, सुरंग और कॉलोनी या उपकरणों के गोदाम थे, वहां मलबा और बड़े बोल्डर आ जमे हैं ।
मंदाकिनी नदी पर फाटा-ब्योंग तथा सिंगोली-भटवाड़ी परियोजनाओं को काफी क्षति पहुंची है और इन दोनों की सुरंगें भी ध्वस्त हुई हैं । इन दोनों परियोजनाओं के निर्माताओं/ठेकेदारों द्वारा नदी किनारे छोड़े गए मलबे-मिट्टी ने मंदाकिनी को अधिक विकराल बनाने में मदद की । यही नहीं इन परियोजनाओं की बड़ी-बड़ी मशीनों ने बहते हुए अनेक पुलों को ध्वस्त किया । श्रीनगर में लगभग पचहत्तर घर, एसएसबी परिसर, आईटीआई परिसर, सिल्क फार्म, गोदाम के अलावा बाजार भी इस मलबे में डूबे हैं । कहा जा रहा है कि इस मलबे की मात्रा 1894 और 1970 की बाढ़ से भी अधिक है ।
निचली मंदाकिनी घाटी के विनाश के लिए केदारनाथ से विकसित आपदा को कारण बताया गया है, पर उस इलाके के कार्यकर्ताओं के मुताबिक, केदारनाथ में प्रलय तो 16 जून की रात और 17 जून की सुबह आया था, जबकि निचली मंदाकिनी घाटी उससे पहले ही तबाह हो चुकी थी । उत्तरकाशी में भागीरथी की सहायक असी गंगा में बन रही चारों परियोजनाएं तबाह हुई हैं ।
केंद्रीय जल आयोग तथा उत्तराखंड जल विद्युत निगम के उस वक्तव्य को राज्य के मुख्यमंत्री ने बिना जांचे दोहरा दिया, जिसमें कहा गया था कि यदि बांध नहीं होते, तो उत्तराखंड और बुरी तरह तबाह हो गया होता । दरअसत स्थिति इसके बिलकुल विपरीत थी । टिहरी बांध में सिर्फ भागीरथी और भिलंगना का पानी इकट्ठा होता है, जबकि अन्यत्र बांध नहीं थे, बल्कि एक-दो किलोमीटर लंबे डायवर्जन जलाशय थे । जैसा कि हिमांशु ठक्कर ने लिखा है कि भागीरथी में सर्वाधिक पानी 16 जून को था, जबकि अलकनंदा में 17 जून को । अतः दोनों घाटियों में अधिकतम जल प्रलय अलग-अलग दिन हुए थे । अर्थात टिहरी बांध नहीं होता, तो निचली घाटी में एक दिन पहले ही पानी बढ़ता, पर वह अधिकतम होता, यह जरूरी नहीं है ।
परेशानी तब होती, जब बरसात के अंत में इस तरह की स्थिति आती । 16 तथा 17 जून का जल स्तर केंद्रीय जल आयोग या केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण की वेबसाइटों में नहीं दिखाया गया । इस जानकारी को जनता से छिपाना भी शक पैदा करता है । यह तथ्य बहुतों को याद होगा कि 2010 में टिहरी बांध बाढ़ के प्रभाव को नियंत्रित नहीं कर सका था । टिहरी झील के जरूरत से ज्यादा भर जाने के इस परिणाम की तरफ अभी नजर नहीं जाएगी कि कैसे इससे किनारे के गांवों में 2010 में भूस्खलन बहुत अधिक बढ़ गए थे, जिनकी आशंका टिहरी बांध के दस्तावेजों में भी नहीं की गई थी ।
संयोग से जिस दिन (15 जून) वर्षा बढ़ने लगी थी, उसी दिन केंद्रीय मंत्रियों के अंतर मंत्रालय समूह ने, जिन्हें गंगा के ऊपरी जलागम में जल विद्युत परियोजनाओं पर अपनी राय देनी थी, अधिकांश बांधों का समर्थन किया । जबकि भारतीय वन्य जीव संस्थान ने अपनी रपट में 70 परियोजनाओं में से 24 को बंद करने की सिफारिश की है, क्योंकि इससे पर्यावरण पर अत्यंत विपरीत प्रभाव पड़ेगा । पर मुख्यमंत्री की तरह केंद्रीय मंत्री भी उत्तराखंड को अतिरिक्त बिजली पैदा करने वाला राज्य बनाना चाहते हैं । केंद्र सरकार ने ही पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील इलाकों का चयन किया है और अब उन्हीं क्षेत्रों में जल विद्युत परियोजनाओं की सिफारिश भी की जा रही है ।
आज पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्र को पुनर्परिभाषित करने की जरूरत है । यदि गोमुख से उत्तरकाशी तक के क्षेत्र को अति संवेदनशील घोषित किया जा सकता है, तो वैसे ही भूगर्भ-भूगोल वाले टौंस, यमुना, भिलंगना, अलकनंदा (मंदाकिनी, विष्णुगंगा, धौली पश्चिमी, मंदाकिनी, पिंडर), सरयू, रामगंगा पूर्वी, गोरी तथा धौली पूर्वी के जलागमों को क्यों नहीं ? इस हेतु इस क्षेत्र के लोगों से संवाद क्यों नहीं हो सकता ?
अमेरिका के 'वाइल्ड ऐंड सिनिक रीवर ऐक्ट' की तरह या उससे भी बेहतर कानून हमारे देश में भी लागू होना चाहिए, जो नदियों के हक को परिभाषित करे । इससे गंगा प्राधिकरण का काम भी सही ढंग से आगे बढ़ेगा । गंगा को भी परिभाषित करने की जरूरत है । यह सिर्फ भागीरथी या अलकनंदा नहीं है, बल्कि हिमालय के संदर्भ में यह उत्तराखंड और नेपाल की नदियों का समग्र है ।
यह आपदा शायद हमें चेतावनी देने आई है कि सीखो और विकास तथा पर्यावरण संतुलन का उचित रास्ता चुनो, और शायद चुनौती देने भी, कि प्रकृति की क्षमता और शक्ति को कमतर न आंको । यह मौका हम सबके लिए विकल्पों पर चर्चा करने, अपने उपभोग में कमी करने और बर्बादी को रोकने का भी है ।
सरकार का तर्क है कि यदि बांध न होते, तो तबाही और भयावह होती, जबकि तथ्य यह है कि नदियों ने चुन-चुनकर जल विद्युत परियोजनाओं को ध्वस्त किया है । जिस नदी में जितनी घुसपैठ हुई है, वहां ध्वंस उतना ही अधिक हुआ । ऐसे में, संवेदनशील इलाकों में जल विद्युत परियोजनाएं लगाने के बारे में गंभीरता से सोचना होगा ।
लेखक : शेखर पाठक (पर्यावरण मामलों के जानकार)
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