चेतन भगत : भुखमरी के पारावार में विकास की गजदंती मीनारों के पैरोकार
दिगंबर
चेतन भगत ने दैनिक भास्कर (11 जुलाई) के सम्पादकीय पन्ने पर एक लेख लिखा है 'खाद्य सुरक्षा बिल नहीं, विकास चाहिये'। लेख के शीर्षक से ही जाहिर है कि वे खाद्य सुरक्षानहीं विकास चाहते हैं। लेकिन पिछले 20 वर्षों की तेज विकास दर और भुखमरी कैसे एक-दूसरे की सहचरी रही है, इस पर सोचने के बजाय वे विकास के इसी रथ सवारी गाँठने के हामी नज़र आते हैं, जिनके पहिये बहुसंख्य मेहनतकश जनता के खून से सने हैं।
हाल ही में ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की एक रपट प्रकाशित हुयी है जिसमें बताया गया है कि हरियाणा जैसे समृद्ध और विकास कि अगली कतार में खड़े प्रदेश में 71 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। गुजरात, महाराष्ट्र जैसे विकास के सिरमौर प्रदेशों की हालत भी ऐसी ही है। सरकारी गैर-सरकारी रिपोर्टें बताती हैं कि विकास ने मेहनतकशों को यही उपहार दिया है— भुखमरी, कुपोषण, आत्महत्या. फिर भी, नव उदारवादी (साम्राज्यवादी पूँजी के भूत और देशी पूँजी की डायन के नाजायज़ सम्बंधों पर आधारित नए अर्थतंत्र को दिया गया मनभावन नाम है— नव उदारवाद) के अंधपक्षधर चेतन भगत को विकास चाहिए— भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी और कंगाली के पारावार में खड़ी विकास की गजदंती मीनारें, जहाँ से वे देश की बहुसंख्य बदहाली का नज़ारा लें.
चेतन भगत भोले नहीं हैं। खाद्य सुरक्षा के खिलाफ अपना स्टेंड रखते हुये तमाम जनपक्षधर और बिल के समर्थक लोगों के खिलाफ तलवार भाँजते हुये अपने लेख का तीन चौथाई हिस्सा उद्दृत और अहंकारी जुमलेबाजी में खर्च करते हैं कि "सबसे बेहूदा योजनाओं में से एक –खाद्य सुरक्षा बिल… ऐसा है एक कि इसके विरोध में लिखना कठिन है… रंग-ढंगसे वामपंथी लगभग कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी माफिया आपको मार ही डालेंगे।" आगे लिखते हैं कि "इससे बद्दतर यह होगा कि आपको गरीब विरोधी करार देने के बाद आपको बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का हिमायती घोषित कर दिया जाय… दक्षिणपंथी करार दिया जाय… ऐसा पूँजीवादी जिस पर एफडीआई का भूत सवार है। हो सकता है साम्प्रदायिक होने का दाग भी लगा दिया जाय. तो ऐसे भारत में आपका स्वागत है जहाँ कोई तर्क के आधार पर बहस नहीं करता।"
सचमुच कितने बड़े-बड़े जोखिम उठा कर भगत जी ने गरीबों को अनाज बाँटने के खिलाफ'देशभक्तिपूर्ण' स्टेंड लिया है। हालाँकि इसके लिये उन्होंने कोई तर्क नहीं दिया। जैसे उनका बयान ही प्रमाण हो। वे यह तो बताते हैं कि गरीबों को अनाज देने से वित्तीय घाटा बढ़ जायेगा। रेटिंग एजेंसियां हमारी साख कम देंगी, विदेशी निवेशक निवेश करना बन्द कर देंगे, विदेशी डर कर भाग जायेंगे इत्यादि। लेकिन ऐसा क्यों होगा, इसके लिये कोई प्रमाण नहीं। जैसे यह सब स्वयं सिद्ध हो, एक्जिप्रोम हो। और उस पर तुर्रा यह कि वह दूसरों पर आरोप लगा रहे हैं कि वे तर्क के आधार पर बहस नहीं करते। अबसे तीन साल पहले खाद्य सुरक्षा बिल के दायरे में कम से कम गरीब परिवारों को शामिल करने के लिये योजना आयोग ने काफी कवायद की थी। गरीबों की संख्या को अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी के 77 फीसदी, एनसी सक्सेना कमेटी के 50 फीसदी और तेंदुलकर कमेटी के 33.7 फीसदी के मुकाबले योजना आयोग ने 28 फीसदी का आँकड़ा पेश किया था. इस पर तल्ख़ टिप्पणी करते हुये पी साईनाथ ने अपने एक लेख में भारतीय शाषकों की तुलना चार्ल्स डिकेंस के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ओलिवर ट्विस्ट के पात्रों से की थी.
"यह खाद्यान सुरक्षा के प्रति ओलिवर ट्विस्ट नज़रिया है। उपन्यास का मुख्य पात्र, गरीब ओलिवर ट्विस्ट अपने मालिक से कहता है –'दुहाई मालिक, मुझे थोड़ा और खाना दे दो।' राष्ट्रीय सलहाकार परिषद के भीतर भी इस उपन्यास के कुछ पात्र हैं। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया चार्ल्स के एक पात्र 'बुम्बले' की भूमिका में हैं तो वित्त मंत्री 'फौगिन' की। सच तो यह है कि इन दोनों के आगे बुम्बले और फौगिन के चरित्र कहीं ज्यादा परोपकारी दिखते हैं। लेकिन जो कुछ आज हो रहा है, उसमें इससे भी ज्यादा समस्याएँ अन्तर्निहित हैं। हर क्षेत्र में यही सब हो रहा है."
पिछले दिनों 'ओलिवर ट्विस्ट' की इस कहानी में कुछ नाटकीय मोड़ आये हैं और इसमें कुछ नये किरदार भी शामिल हुये हैं न्यायपालिका, कृषि मंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद। और तो और, स्वयं सेवी संगठनों और खाद्य सुरक्षा की माँग करने वाली संस्थाओं के कर्ता-धर्ता, जिनको राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में शामिल किये जाने से यह उम्मीद बनी थी कि वे 'ओलिवत ट्विस्ट' को थोड़ा और खाना दिलाने की कोशिश करेंगे, लेकिन हुआ वहीढाक के तीन पात। अब इन किरदारों में नया किरदार शामिल हुआ है– चेतन भगत।
लेकिन भगत जी ने ओलिवर ट्विस्ट के सभी पात्रों कों काफी पीछे छोड़ दिया। वे तो सिर्फ कटौती करने की सिफारिश कर रहे थे, ये महानुभाव तो पूरी तरह इस बिल के खिलाफ हैं।
भगत जी भावुक लहजे में कहते हैं कि "इस पर आने वाले खर्चे का भुगतान कौन करेगा या इतना अनाज कैसे मुहैय्या कराया जायेगा या पहले से ही कर्ज में डूबी सरकार की हालत इसके बाद क्या होगी" और ये कि इसमें अगले कुछ ही वर्षों में लाखों करोड़ों रूपये सरकारी खर्चे से चले जायेंगे। सरकार पूंजीपतियों को हर साल लाखों करोड़ की छूट और सब्सिडी देती है, उससे भगत जी को कोई शिकायत नहीं है। शिकायत तो गरीबों से है जिनका मजाक उड़ाते हुये भगत जी कहते हैं कि उन्हें सिर्फ अनाज ही क्यों, फल-सब्जी-दूध भी दो और पूरी तरह मुफ्त दे दो।
सच तो यह है कि मौजूदा खाद्य सुरक्षा का मसौदा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये दी जाने वाली वास्तविक खाद्य सुरक्षा कों खत्म करने की दिशा में उठाया गया कदम है। इस बात को लेकर इस बिल का विरोध भी हो रहा है। लेकिन चेतन भगत जैसे विकास के समर्थक खाद्य सुरक्षा या किसी भी तरह की सामाजिक सुरक्षा को विकास के खिलाफ मानते हैं। इसे मुट्ठी भर धनाड्यों की खुशहाली पर कुठाराघात मानते हैं। रचनात्मक लेखन –उपन्यास, कहानी या फिल्म की पटकथा में जिसे छद्म रूप में, मुलम्मा चढाकर जिन जनविरोधी-प्रतिगामी विचारों को आसानी से परोसा जा सकता हो, वह लेख और टिप्पणी में खुल के सामने आ जाता है। चाहे जितनी भावुकता दिखाए –सच सामने आ ही जाता है।
No comments:
Post a Comment