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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, December 12, 2013

सामाजिक सरोकार के स्वर मुख्य होने चाहिए दलित साहित्य- जन साहित्य में

सामाजिक सरोकार के स्वर मुख्य होने चाहिए दलित साहित्य- जन साहित्य में

दलित साहित्य : अतीतवर्तमान और भविष्य

hastakshep.com

असमता और सामाजिक अन्याय का प्रतीक हैमरीचझांपी नरसंहार

साहित्य और कला के मौजूदा बाजारू स्वरूप के कारण ही स्त्री के विरुद्ध यौन अत्याचार के मामले बढ़ रहे

दलित साहित्य हो या जन साहित्य, उसमें सामाजिक सरोकार के स्वर मुख्य होने चाहियें। उसके तेवर सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक तिलिस्म तोड़ने के होने चाहिये। वह मुक्तिकामी जनता की आकाँक्षाओं के मुताबिक परिवर्तन का औजार होना चाहिये और हमारी लड़ाई मुख्यधारा में जीवन के हर क्षेत्र में अपने हक हकूक बहाल करने की होनी चाहिये।

पलाश विश्वास

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं।

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।

अरसे बाद भुवनेश्वर जाना हुआ। कटक के चरबेटिया कैंप, में मेरे पिता और मेरे गाँव के ज्यादातर लोग बंगाल के विभिन्न शरणार्थी शिविरों खदेड़े जाने के बाद लम्बे समय से डेरा डाले हुये थे। वे लोग यहीं से उत्तराखंड की तराई में घनघोर जगंल में पुनर्वासित किये गये थे। मेरे पिता का विवाह भी चरबेटिया शरणार्थी शिविर में निवास के दौरान हुई। मेरी माँ उड़ीसा के ही मयूरभंज जिले के बालेश्वर के पास बारीपदा से हैं। इस हिसाब से उड़ीसा मेरी ननिहाल है। इसके अलावा पूर्वी बंगाल के जो हमारे स्वजन बंगाल के इतिहास- भूगोल से हमेशा- हमेशा के लिये बहिष्कृत किये गये, उनमें से ज्यादातर लोग उड़ीसा (ओडिशा) में ही बसाये गये हैं। मालकानगिरि और नवरंगपुर के उमरकोट के सैक़ड़ों गावों के अलावा उड़ीसा (ओडिशा) के लगभग सभी जिलों में हमारे स्वजनों का वास है।

इसलिये जब मूलनिवासी समता परिषद के मुखपत्र टाइम्स ऑफ मूल निवासीके निरंतर सात साल तक प्रकाशित होने के मौके पर हमारे अत्यंत घनिष्ठ सहयोगी अभिराम मल्लिक और दूसरे साथियों ने मुझे और सविता को इस अवसर पर होने वाली संगोष्ठी के लिये बुलाया, करीब दो महीने से सविता के पाँव में चोट के कारण कमरे में कैद होने के बावजूद जनशताब्दी एक्सप्रेस में बैठकर हम भुवनेश्वर चले आये। जंक्शन पर हमें रिसीव करने से बुट्टु यानी जयंत नागवंशी और हमारे भाई उज्ज्वल विश्वास हाजिर थे।

कोलकाता से हम बारिश के बीच चले थे। सोदपुर से हावड़ा स्टेशन तक पहुँचने में तीन घण्टे लग गये। सियालदह और हावड़ा का रास्ता समुंदर बना हुआ था। केंद्रापाड़ा जिले के महाकालपाड़ा इलाके में बसे शरणार्थी गाँव खैरनासी गाँव की सातवीं में पढ़नेवाली बेटी से सामूहिक बलात्कार के बाद उसे जलाकर मारने के विरोध में इस वक्त पूरा उड़ीसा (ओडिशा) आंदोलित है। हावड़ा तक जाने वाली जनशताब्दी सुबह छह बजे छूटकर भी रास्ते में बार बार बाधित होने के कारण घण्टा भर लेट पहुँची। हमारी रवानगी भी घण्टा भर लेट हो गयी।

रास्त भर बारिश का सिलसिला जारी रहा। रत्नगिरि पहाड़ों में बिजलियाँ कड़क रही थीं। उससे पहले बालेश्वर में मेरे ननिहाल के पास ट्रेन घण्टे भर रुकी रही। लेकिन महानदी पार करके कटक पहुँचते न पहुँचते प्रकृति शांत हो गयी थी। रात के करीब साढ़े दस बजे स्टेशन से 12 किमी दूर शलेश्री बिहार में उज्ज्वल के डेरे में पहुँचे तो अपर्णा और बेटी इनका यानी प्रेरणा इंतजार करते करते थक गयी थीं। लेकिन लगभग सारी रात खा पीकर हम लोग बतियाते रहे। मैं 2008 के बाद और सविता 2006 के बाद भुवनेश्वर आये तो बातें खत्म ही नहीं हो रही थीं। सोते सोते फिर बारिश शुरु हो गयी।

यूनिट नाइन स्थित बुद्धबिहार,भुवनेश्वर में कार्यक्रम साढ़े दस से शुरू होना था। लेकिन बारिश की वजह से कार्यक्रम साढ़े ग्यारह बजे से शुरु हो पाया। उड़ीसा (ओडिशा) भर से स्त्री पुरुष लगभग समान संख्या में मौके पर हाजिर थे, जिनमें कोरापुट जिले के जयपुर से आयी आदिवासी स्त्रियाँ, राउरकेला सुंदरगंज, नोवापा़ड़ा, बोलांगीर, कंधमाल, गजपति,गंजाम,क्योंझर, मयूरभंज जैसे दूरदराज के लोग समेत 30 में से उड़ीसा (ओडिशा) के 25 जिलों के प्रतिनिधि, इतिहासकार, प्रशासनिक अधिकारी, सामाजिक कार्यकर्ता, साहित्यकार, कवि भी उपस्थित थे बारिश के बावजूद। हाल खचाखच भरा था।

कार्यक्रम शुरु हुआ तो पता चला कि मुझे मुख्य अतिथि बनाया गया है। अपने वक्तव्य में मैंने इस पर ऐतराज जताया क्योंकि हमारे लोगों को उड़ीसा (ओडिशा) में हर जिले में जैसे अपनाया गया, हम बंगाल में इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते। बंगाल में होते हुये भी वहाँ हम अवाँछित हैं और उड़ीसा (ओडिशा) में न होकर भी अपने स्वजनों के मध्य हम उपस्थित हैं। इसके अलावा उड़ीसा (ओडिशा) में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की संख्या बयालीस फीसद हैं, जो हमारे रक्त सम्बंधी हैं।

विषय के बारे में भी मुझे मंच पर पता चला। विषय था, "उड़ीसा (ओडिशा) में दलित साहित्य : अतीतवर्तमान और भविष्य"। मुझे भारत भर में कोई साहित्यकार नहीं मानता। मैं दलित साहित्य, ओबीसी साहित्य और आदिवासी साहित्य को ही जनसाहित्य मानता रहा हूँ और मानता हूँ कि साहित्य की मुख्यधारा लोक में हैं और तकनीक और वर्चस्ववाद के कारण मुख्यधारा ही साहित्य से बेदखल हैं। उत्पादन प्रणाली से बेदखल होते जाने की वजह से उत्पादक शक्तियाँ निरंतर साहित्य और कलाओं में हाशिये पर हैं। मैंने ऐसी किसी गोष्ठी में पहले कभी भाग नहीं लिया था। न कोई तैयारी थी। न ही मुझे उड़िया दलित साहित्य के अतीत, वर्तमान और भविष्य की कोई जानकारी है।

लेकिन पहले ही सत्र में उड़िया के महत्वपूर्ण कवि डॉ. वासुदेव सुनानी और उड़ीसा (ओडिशा) जनशिक्षा विभाग की उपनिदेशक श्रीमती सुप्रिया मल्लिक ने अपने वक्तव्य में बहस को जो दिशा दी, उससे हमारे लिये बोलना आसान हो गया। दूसरे सत्र में सामाजिक कार्यकर्ता मधुमिता राय ने इस बहस को आगे बढ़ाया। उड़ीसा (ओडिशा) के लगभग सभी जिलों के आम ओ खास की मौजूदगी में जनसाहित्य की संरचना, इतिहास, कथ्य, दशा दिशा और उसकी परिवर्तन कारी भूमिका के बारे में जो गहन विवेचन हुआ, उसको सपरिवेश आपके साथ शेयर करने के लिये ही इतनी लम्बी चौड़ी भूमिका बांधनी पड़ी।

सबसे महत्वपूर्ण बात की मधुमिता ने। उन्होंने जनसंख्या विन्यास और सामाजिक यथार्थ के वास्तविक संदर्भों से जोड़ते हुये वर्चस्ववादी समाज में साहित्य कला पर साम्राज्यवादीफासीवादी, सांप्रदायिक, धर्मोन्मादी, सामंतवादी शिकंजे को नृतात्विक दृष्टिभंगी से विश्लेषित करके बाबरी विध्वंस, कंधमाल में धार्मिक नरमेध, गुजरात नरसंहार, कॉरपोरेट राज व औद्योगीकरण, शहरीकरण के परिप्रेक्ष्य में जल जंगल जमीन से बहुजनों की बेदखली के संदर्भ में भाषा, साहित्य और कलाओं से भी इनकी बेदखली के रेखांकित किया। उन्होंने भारत में नारीवादी आंदोलन के सवर्ण चरित्र को बेपर्दा करते हुये कहा कि मनुस्मृति व्यवस्था के मुताबिक स्त्री की दासी हैसियत और खुले बाजार की अर्थ व्यवस्था में बतौर उपभोक्ता वस्तु नारी के बेलगाम इस्तेमाल, बढ़ते हुये स्त्री उत्पीड़न और यौनअत्याचारों के बावजूद भारतीय नारीवादी आंदोलन मुक्तिकामी नहीं है उस पर सवर्ण वर्चस्व के लिये। बहुजन स्त्री भी नारीवादी मंच से जीति विद्वेष और जाति जनित यौन उत्पीड़न की कथा खुलकर नही कह पाती,जबकि भारतीय जनसाहित्य का मुख्यस्वर भारतीय नारी समाज को होना चाहियेजो सामाजिक यथार्थखुले बाजर की अर्थव्यवस्था और मनुस्मृति तीनों दृष्टिकोण से शूद्र और दलित है।

इससे पहले सुबह के सत्र में साहित्य और बाजार में नारी की हैसियत की दलित साहित्य में प्रासंगिकता पर विस्तार से बोली सुप्रिया मैडम। सुप्रिया जी ने सुगठित वाक्यबंध से उड़िया साहित्य की पूरी तस्वीर पेश की तो मधुमिता अच्छी वक्ता न होने के बावजूद एक से एक तथ्य और अवधरणा पेश करती गयीं, जो भारत में जनपक्ष असली  साहित्य मानता हूँ, के नये कार्यभार और प्रस्थानबिन्दू तय हो गये।

सुप्रिया जी ने भारतीय दलित साहित्य की दशा दिशा पर सिलसिलेवार चर्चा के बीच उड़िया साहित्य पर अपने विचार बिन्दुओं को केन्द्रित किया और साफ-साफ कहा कि तमाम बहुचर्चित, पुरस्कृत और तथाकथित क्लासिक साहित्य अपने चरित्र में जनविरोधी और बहुजन विद्वेष पर आधारित है। भारतीय बहुजन समाज के चित्रण में खासकर नारी चरित्रों के चित्रण में जो मुक्त यौनाचार है, स्त्री उत्पीड़न को जायज ठहराने की प्रवृत्ति है, कला और कौशल जनित जो उत्पीड़न की पक्षधरता है, उन्होंने बाकायदा ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता उड़िया साहित्यकार गोपीनाथ मोहंती और दूसरे उड़िया साहित्यकारों के कालजयी कृतित्व के संदर्भ और प्रसंग समेत उसे साफ-साफ रेखांकित किया।

बहस का मिजाज लेकिन डॉ.वासुदेव सुनानी के प्राक्कथन से तय हो गया। हम दोनों स्त्री वक्ताओं के रेखांकिंत बिंदुओं को ज्यादा प्रासंगिक मानते हुये पहले उनकी चर्चा करना उचित समझा। लेकिन सुनानी जी ने पहले ही साफ तौर पर कह दिया कि उच्चकोटि के क्लासिक साहित्य में सब कुछ है, लेकिन कहीं भी मैं नहीं हूँ और न मेरा समाज है। न मेरा भोगा हुआ यथार्थ है और न मेरा सामजिक यथार्थ। बहुजनों का स्वर वहाँ है ही नहीं। बहुजन कथा पात्रों का निर्वाह उत्पीड़न, सामाजिक अन्याय और असमता के तंत्र को मजबूत करने की ही दृष्टि से किया जाता है। सुनानी जी ने बहुचर्चित वह प्रसंग भी उठाया कि असल में दलित साहित्य किसे कहा जाये। जो साहित्य दलित रचे, मात्र वही साहित्य दलित साहित्य है या सवर्ण भी दलितों के समर्थन और सहानुभुति में जो लिखे वह भी दलित साहित्य है।

मेरे बोलने की जब बारी आयी तो मैंने सुनानी जी और सुप्रियाजी के वक्तव्य को ही आगे बढ़ाते हुये विवेचन के कुछ बिन्दू दिये। मैंने कहा कि सुनानी जी ने जो कहा, वह भारतीय साहित्य और कला का कटु सत्य हैं। जो कथित तौर पर मुख्यधारा का साहित्य है, उसमें बहुजन समाज थर्ड पर्सन है। वह कर्ता रूप में न कोई वाक्य बनाता है और न उसके कथ्य से कोई कथा बनती है। हमने कहा कि आदि कवि बाल्मीकि दलित थे, जिन्होंने भारत के पहले महाकाव्य रामायण की रचना की तो वर्णशंकर व्यास दूसरे महाकाव्य महाभारत  के रचयिता थे। साहित्य की श्रुति परंपरा में ही विधाओं की काव्यात्मकता, व्याकरण, छंद, अलंकार और सौंदर्य शास्त्र का निर्माण हुआ।तब साहित्य में लोक का वर्चस्व था। लेकिन प्राकृत के संस्कार से देवभाषा संस्कृत के निर्माण से साहित्य से लोक और जन दोनों बेदखल हो गये। सत्ता वर्ग की भाषा में वर्चस्ववादी साहित्य का निर्माण हुआ, जिसे हम तत्कालीन मार्केटिंग बंदोबस्त के तहत धर्मग्रंथ का दर्जा देते रहे। मूल महाकाव्यों के बहुजन रचनाकारों के सृजन का सत्तावर्ग के हितों के मद्देनजर कायातल्प हो गया। साहित्य और कला को ईश्वरीय और अलोकिक बना दिया गया। लेकिन जब कवि जयदेव ने संस्कृत काव्यधारा में मनुष्य पात्रों का समावेश किया और उसकी संरचना में लोक को जोड़ा तो संस्कृत काव्य धारा का ही अवसान हो गया। उत्पादन प्रणाली की तकनीक बदलते- बदलते मुद्रण की शुरुआत के साथ साहित्य पर सत्तावर्ग का पूरा वर्चस्व कायम हो गया। सातवीं और ग्यारहवीं शताब्दी के बीच भारत में जो सर्वत्र शूद्र शासन था और बौद्धमय था बंगालसत्ता वर्ग ने उसका इतिहास ही खत्म कर दिया। उसे तम युग कहा गया जबकि इसी दरम्यान तमाम भारतीय भाषाओं का सृजन हुआ। अभिव्यक्ति के इस महाविस्फोट में रचे गये चर्यापद, जिसके तमाम रचयिता किसान, नाई, माली, मछुआरे, चर्मकार, कर्मकार वगैरह लोग थे। बंगाल में भी मंगल काव्यधारा के मूल में मूल निवासी लोग ही थे। लेकिन अब वही लोग भाषा और साहित्य से बेदखल हो गये।

हमने इसी सिलसिले में डा.बीआर अंबेडकर के जाति उन्मूलन के कार्यक्रम का उल्लेख किया और बताया कि कैसे विश्व के प्रथम रक्तहीन क्रांति के जनक गौतम बुद्ध को ईश्वर का दर्जा देकर उनकी विचारधारा को तिलांजलि दे दी गयी और कैसे अंबेडकर की मूर्ति पूजा में हम लोग हिंदुत्व की पैदल सेना में तब्दील होते हुये सत्ता में भागेदारी के लिये जाति अस्मिता को मजबूत करते हुये उनके विचारों को तिलांजलि दे रहे हैं। हमने बाबा साहेब के आर्थिक विचारों को मौजूदा संकट के सामदान के लिये सबसे प्रासंगिक बताया तो मूलनिवासी की पहचान के संकट और उसके हिंदुकरण की प्रक्रिया बताने के लिये रिडल्स इन हिंदुइज्म.शूद्र कौन है और गीता के कर्मफल और पुनर्जन्म के सिद्धांत पर आधारित मूल्यबोध की चर्चा भी की जबकि डा. सुनानी ने बाकायदा उदाहरण देकर बताया कि बोल बम नाकरे के साथ काँवर ढोने वाल सारे के सारे मूलनिवासी हैं, बाकी कोई नहीं।

सुनानी ने जैसा कहा, उसी को आगे बढ़ाते हुये हमने कहा कि साहित्य में प्रथम व्यक्ति का कोई अस्तित्व ही नहीं है और न भोगा हुआ यथार्त है, न जन समाज है और न सामाजिक यथार्थ। सिर्फ कला कौशल का घटाटोप है। विधाओं का व्यमोह है। उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन और तकनीक के विकास के साथ साहित्य और कला राजकाज में तब्दील है और उस पर नियंत्रण है सत्ता वर्ग का। मनुस्मृति व्यवस्था का निर्माण ही हुआ गौतम बुद्ध की महाक्रांति के विरुद्ध प्रतिक्रांति में। वर्णव्यवस्था का खात्मा किया गौतम बुद्ध के विप्लव ने, जिसके माध्यम से अहिंसा, सत्य पर आधारित समता और सामाजिक न्याय के मूल्यों के तहत नये भारत का निर्माण हुआ। लेकिन मनुस्मृति व्यवस्था के अमोघ हथियार से बौद्धमय भारत का वध हो गया। पुष्यमित्र शुंग ने मनुस्मृति अनुशासन लागू किया। वर्णव्यवस्था में जो शूद्र बहुजन समाज था, उसका विघटन छह हजार जातियों में कर दिया गया। जो आज के अनुसूचित जातियाँ, अनुसूचित जनजातियाँ, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय हैं। जिन्हें शिक्षा के अधिकार से वंचित कर दिया गया। बहुजनों को शिक्षा से वंचित करके साहित्य, कला और संस्कृति पर सत्तावर्ग का एकाधिकारवादी राज कायम हो गया। अंग्रेजी शासनकाल में शिक्षा का अधिकार बहाल हुआ और बाबासाहेब डा. अंबेडकर के संवैधानिक रक्षाकवच और आरक्षण के जरिये इन वंचित बहिष्कृत जनसमुदायों का सशक्ताकरण का दौर शुरू हुआ। लेकिन नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के जरिये फिर छिन रही है शिक्षा का अधिकार क्योंकि खुले बाजार में शिक्षा उपभोक्ता सेवा है, जिसे खरीदन के लिये अनिवार्य है क्रयक्षमता। क्रयक्षमता से बेदखल लोगों का नरसंहार अश्वमेध जारी है। तो दूसरी ओर विधाओं, व्याकरण, सौंदर्यशास्त्र, अलंकार, छंद के तिलिस्म में कैद है साहित्य, कला और संस्कृति जहाँ बहुजनों का प्रवेश निषेध है। जैसे नरमेध संस्कृति के अभियान के प्रतिरोध के लिये अर्थव्यवस्था के तिलिस्म को तोड़ना जरूरी है वैसे ही भाषाविधाओं,माध्यमों, संस्कृति के सौदर्यबोधवर्तनी,अलंकारछंदव्याकरण के अवरोधक तिलिस्म को तोड़कर ही जनसाहित्य का निर्माण संभव है।

सुप्रिया जी ने मस्तिस्क भाषा और ह्रदय की भाषा का विश्लेषण करते हुये साहित्य और कला में उनकी भूमिका बतायी और कहा कि साहित्य जीवन की पुनर्रचना है। जीवन जो सामाजिक यथार्थ से बनता है। तौ मेंने कहा कि जीवन एकांगी नहीं होता। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक परिप्रेक्ष्य हैं। साहित्य सिर्फ कविता और कहानी और उपन्यास नहीं हैं। साहित्य की अनिवार्य विधा है इतिहास और इतिहासबोध से ही निर्माण होता है साहित्य। जिन जनसमुदायों को इतिहास से बेदखल कर दिया गया वे स्वतः ही विधाओं से भी बहिष्कृत हो गये। मेधा वर्चस्व से ही बना गुलामी का इतिहास और इस मेधा वर्चस्व को तोड़ना सबसे ज्यादा जरूरी है। अपने इतिहास का निर्माण जनसाहित्य का सबसे बड़ा कार्यभार है।

हमने कहा कि भारत में विभाजन की त्रासदी समकालीन इतिहास में सबसे बड़ा भोगा हुआ यथार्थ है लेकिन भारतीय भाषाओं में विभाजन पीड़ितों की आप बीती नहीं है। विभाजन पर जो साहित्य लिखा गया है, उसमें पराये हुये भूगोल में जमींदारियाँ और सामाजिक सत्ता वर्चस्व खोने की विषादगाथा है वह या फिर जलसाघर की सामंतवाद के अवसान की शोकगाथा है वह। उसमें हमारी कोई कथा नहीं है। इसी सिलसिले में बंगाल में वर्चस्वादी एकाधिकारवादी सामाजिक राजनीतिक आर्थिक सत्ता विन्यास, जनसंख्या स्थानान्तरण और विभाजित पंजाब के 33 फीसद दलितों के मुकाबले शरणार्थियों को बंगाल से बाहर करने के बाद वहाँ रह गये 17 फीसद दलितों के सामाजिक यथार्थ का विश्लेषण किया हमने। बताया कि असमता और सामाजिक अन्याय का प्रतीक है मरीचझांपी नरसंहार। कहा कि ग्यारहवीं सदी तक बौद्धमय बगांल के हिंदुत्व कायाकल्प का कोई ब्यौरा हासिल नहीं है। बौद्धमय भारत के अवसान की कोई प्रामाणिक कथा नहीं है। कलिंगविजय के बाद बौध्मय उड़ीसा (ओडिशा) के हिंदुकरण की भी कोई कथा नहीं है।

हमने कहा कि साहित्य निर्माण का आधार है इतिहास रचना और भारतीय इतिहास सत्ता वर्ग के वर्चस्व का इतिहास है। भारतीय इतिहासबोध सिरे से जनविरोधी है और इस इतिहास बोध के आधार पर रचे साहित्य का निर्वाह अनिवार्यतः जनविरोधी है। हमने बांग्ला दैनिक अखबार के रविवारीय में भोजपुरी फिल्म दर्शकों पर लिखी गयी कवर स्टोरी के जरिये बंगाल के सत्तावर्ग की वर्चस्ववादी मानसिकता, कोलकाता को लंदन बनाने की महात्वाकाँक्षा और अपने अन्तिम उपनिवेश खोने के डर से गोरखालैण्ड आन्दोलन के उत्पीड़न के पक्ष में खड़े बंगाल के मीडिया, साहित्य, कला, संस्कृति और नागरिक चेतना के गोरखा दमन समर्थक उग्र सांप्रदायिक उन्माद का उल्लेख किया, जो इतिहास बोध और साहित्य कला के सौंदर्यबोध का आधार है। हमने कहा कि सुप्रिया जी और सुनानी जी जो चरित्र चित्रण के उन्मुक्त यौनाचार की बात कर रहे हैं, वह भारतीय साहित्य का असली और मूल चरित्र है। इसी सिलसिले में में ताराशंकर बंदोपाध्याय के साहित्य पर लिखे अपने अंग्रेजी आलेख ह्यूमन डाकुमेंटेशन आफ हैटरेड का उल्लेख किया और बताया कि मानववादी साहित्य की आड़ में बहुजन जीवन के साथ कैसा निर्मम निर्लज्ज अश्लील सलूक किया जाता है।

हमने रवींद्र बंकिम और शरत साहित्य के कथापात्रों का हवाला देकर बताया कि सिर्फ उड़िया साहित्य में ही नहीं, समूचे भारतीय साहित्यिक उत्कर्ष में जाति वैमनस्य और सांप्रदायिकता किस तरह स्थाई भाव बना हुआ है।

नारी पात्रों के निर्वाह का व्योरा देते हुये सुप्रिया और मधुमिता ने नारी के वस्तु बनाये जाने के विरुद्ध जो सिलसिलेवार वक्तव्य दिल्ली बलात्कार कांड से लेकर पिपली और केंद्रपाड़ा के बलात्कार प्रसंगों के साथ रेखांकित किया, उसी संदर्भ में हमने साफ-साफ कहा कि साहित्य और कला के मौजूदा बाजारू स्वरुप के कारण ही स्त्री के विरुद्ध यौन अत्याचार के मामले बढ़ रहे हैं। रात दिन सातों दिन टीवी के परदे पर कंडोम सुख के विज्ञापन और डिओड्रेन्ट अभिसार के उन्मुक्त प्रदर्शन से जो सामाजिक यथार्थ का सृजन  हो रहा है खुले बाजार में, ये तमाम कांड उसीके विस्फोटक अभिव्यक्ति हैं।

डा. रमेश चंद्र बेहेरा,प्रोफसर वसंत मल्लिक और धनेश्वर साहु ने आगे इस बहस का सिलसिला जारी रखते गये।इसी मंच से दलित साहित्य अकादमी से पुर्सकृत उड़िया साहित्यकार उत्तम जेना का सम्मान किया गया। मूलनिवासी समता परिषद के संयोजक व टाइम्स आफ मूलनिवासी के संपादक अभिराम मलिलिक ने पूरी बहस का संचालन किया। उन्होंने इस मासिक पत्रिका में सात साल तक निरतंर प्रकाशित सामग्री के बारे में श्रोताओं को सविस्तार बताया।

इस संगोष्ठी में आम राय यह बनी कि दलित साहित्य हो या जन साहित्य, उसमें सामाजिक सरोकार के स्वर मुख्य होने चाहिये। उसके तेवर सामाजिक आर्थिक राजनीति तिलिस्म तोड़ने के होने चाहिये। वह मुक्तिकामी जनता की आकांक्षाओं के मुताबिक परिवर्तन का औजार होना चाहिये और हमारी लड़ाई मुख्यधारा में जीवन के हर क्षेत्र में अपने हक हकूक बहाल करने की होनी चाहिये।

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