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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, March 6, 2014

जाति कौन सी चीज है,जिसे धोकर पी जायेंगे तो सामाजिक न्याय और समता का लक्ष्य हासिल हो जायेगा?

जाति कौन सी चीज है,जिसे धोकर पी जायेंगे तो सामाजिक न्याय और समता का लक्ष्य हासिल हो जायेगा?

पलाश विश्वास


माननीय एचएल दुसाध जी के फेसबुक वाल से

ढसाल में 99% कमियां:एक मार्क्सवादी सह आंबेडकरवादी

एच एल दुसाध

मित्रों कुछ देर पहले(9-9.40pm) मोबाइल पर एक ऐसी शख्सियत से लम्बे वार्तालाप में मशगूल था जिन्हें मार्क्सवादी अर्थात सवर्ण एकमात्र दलित चिन्तक मानते हैं.सवर्ण मार्क्सवादियों में उनकी लोकप्रियता का यह आलम है कि पिछले वर्ल्ड बुक फेयर में मेरे जिले का एक मार्क्सवादी,जो शायद अपना जनपदवासी होने के ना...See More

इस पोस्ट में उन्होंने हमारे आदरणीय मित्र आनंद तेलतुंबड़े के धसाल को महाकवि न मानने पर अपना उद्गार व्यक्त करते हुए मेरा उल्लेख भी कर दिया है।इस संबंध में दोनों मित्रों के बीच हुए संवाद में मैं बीच में फंस गया हूं।

आनंद जी ने  धसाल जी के उद्गार पर जो विनम्रता पूर्वक निवेदन किया,उसके जवाब में उन्होंने आनंद जी को जो जवाब दिया,उसका लब्वोलुआब यही हैः


सर शाम को आपने वार्तालाप के दौरान ढसाल के विषय में जो राय दी वह स्तंभित करनेवाली रही.बातों-बातों में मैंने यह भी उपलब्धि किया कि डाइवर्सिटी के प्रति भी आप में सम्मान का भाव नहीं है.हम व्यक्ति के रूप में तो परस्पर के प्रति आदर रख सकते हैं ,पर वैचारिक रूप से नदी के ऐसे दो किनारे हैं जिनका मिलना मुमकिन नहीं दीखता.आप बेसिकली मार्क्सवादी हैं,यह यकीं आज और पुख्ता हुआ.


इल बारे में दुसाध जी से और आनंद जी से मेरी सविस्तार बात हुई है।

इस गर्मागर्म बहसबाजी से सविता सख्त नाराज हो गयी है और मुझे जिम्मेदार ठहरा रही हैं कि क्यों मेंने दुसाध जी से आनंद की बात करायी।


गौरतलब है कि जब अरविंद केजरीवाल की सरकार दिल्ली में बनी तब एनजीओ सरकार के प्रतिरोध की गरज से नया राजनीतिक दल खड़ा करने के कार्यभार के साथ नईदिल्ली से दुसाध जी का प्रस्थान हुआ,पटना में उन्होंने एक कामयाब सम्मेलन भी किया और दिल्ली से चलने से पहले उन्होंने हमें जो सूचना दी,उसके मुताबिक वे हमारे यहां आ पधारे।


उन्होंने सीधे कहा कि आपको इस राजनीतिक दल का चेहरा बनना है।


जाहिर है कि जैसा भी है,मेरा चेहरा मेरा है और वह कम से कम राजनीति का चेहरा हो,ऐसा तो मैं मान ही नहीं सकता।बेहतर होता कि दुसाध जी कोई फिल्म निर्माता निर्देशक होते और हमें अपनी फिल्म का चेहरा बनाने का प्रस्ताव देते तो मुझे खुशी खुशी रजामंद होने में कोई दिक्कत नहीं थी।


चूंकि दुसाध जी बेहद ईमानदारी से लिखते हैं और बहुत अच्छा लिखते हैं तो उस दिन से लगातार हम उनसे निवेदन कर रहे हैं कि हम तो चाहते हैं कि वे महाबलि हनुमान हों ,लेकिन हम नहीं चाहते कि वे रामभक्त हनुमान बनें।


उनके साथ भाजपा नेता लल्लन सिंह आये थे।


दुसाध जी के डायवर्सिटी विचारों पर हम सहमति जता चुके हैं।समता और सामाजिक न्याय की बत करने वाले किसी भी शख्स को सैद्धांतिक तौर पर इससे कोई ऐतराज नहीं है।हमारे अन्य मित्र भी उनसे सहमति जता चुके हैं ।


सविता की चेतावनी के बावजूद कि  सत्ता की राजनीति में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है और हमारे पूरे परिवार की तरफ से अपना वीटो भी तलाक की धमकी के साथ उन्होंने लगा दिया,हम राजनीतिक परिदृश्य पर लंबी बहस में उलझते रहे और इस पर सहमति हुई कि सत्ता की राजनीति से हमारा कोई लेना देना नहीं है।इसी के मध्य आनंद तेलतुंबड़े का फोन आ गया,जिनसे बात करने की इच्छा दुसाध जी जता चुके थे।


हमने दुसाध जी को आनंद का फोन थमा दिया और उन्होंने भी सामाजिक बदलाव के मद्देनजर राजनीतिक सत्ता समीकरण को गैर प्रासंगिक बता दिया।


उस दिन भी नामदेव धसाल पर दुसाध जी से हमारी बात हुई थी। बार बार होती रही है। हमारा साफ साफ कहना है कि नामदेव दलित अस्मिता के कवि रहे हैं और उनकी कविता से बड़ा योगदान उनका दलित पैंथर आंदोलन है। हम न तो नामदेव धसाल को मुक्तिबोध या निराला से बड़ा कवि मानेंगे,न सुकांत भट्टाचार्य या पाश से बड़ा कवि।लेकिन हम उनकी कविताओं के प्रशंसक रहे हैं।न हम ओम प्रकाश बाल्मीकि को प्रेमचं से बड़ा कथाकार मानेंगे और न कंवल भारती को रामविलास शर्मा और विजयदान सिंह चौहान से बड़ा आलोचक। यह हमारा मूल्याकंन है।


किसी के कहने से हमारे विचार नहीं बदलेंगे,हमारी दृष्टि,सामाजिक यथार्थ के बदलते संदर्भ ,हमारे इतिहास बोध,वैज्ञानिक दृष्टिकोण,सौंदर्यबोध और अवधारणाओं और विचारों को जोड़ने तोड़ने की हमारी क्षमता के मुताबिक ही विचार बनेंगे बिगड़ेंगे।


कम से कम विचारों के मामले में हम मौकापरस्त नहीं है।सत्ता समीकऱण और निजी लाभ हानि की वजह से लोगों के विचार और जीवन बदले जाते हैं,पक्ष पक्षातंरित हो जाते हैं,हम फिलहाल अपने को इस विपर्यय से बचाने की कोशिश कर रहे हैं।चारों तरफ से अभिमन्यु की तरह घिर जाने के बाद हमारा क्या हश्र होगा हम भी नहीं जानते।


इस बारे में हमने विस्तार से लिखा भी है कि दलित पैंथर आंदोलन का विचलन कोई अलग घटना नहीं है।यह समूचे अंबेडकरी आंदोलन की तार्किक परिणति है.जो अपने बुनियादी जाति उन्मूलन के एजंडे से ही भटक गया।


अगर भारत में सही मायने में दलित साहित्य की बात की जाये तो शैलेश मटियानी का लिखा से बेहतर कोई दलित साहित्य हमारी जानकारी में नहीं है।लेकिन आजीवन कसाई परिवार में जनमने के बावजूद एकदम शास्त्रीय लेखन क्षमता वाले शैलेश जी ने अपने को कभी दलित नहीं माना।वे प्रगतिशील थे।एक निजी हादसे की वजह से नितांत अकेलेपन और टूटन में उन्होंने भी संघ परिवार की शरण ली धसाल की तरह।


निजी तौर पर इसके लिए हम न नामदेव धसाल और न शैलेश मटियानी को इसका जिम्मेदार मानते हैं। हम लोगों ने धूमिल का अंत देखा है।पाश की शहादत देखी है और गोरख पांडेय की खुदकशी से भी वास्ता पड़ा हमें।


इन तमाम लोगों के लिए जो हालात बने,उनसे उन्हें बचाने लायक कोई शरण स्तल हम नहीं बना सकें तो जहां उन्हें शरण मिल सकती थी वे वहां गये,या बेमौत मारे गये पाश की तरह या गोरख ने आत्महत्या कर ली। आज वरवरा राव और गद्दर के अवस्थान में फर्क आया है। लेकिन चेरावंडा राजू की जमात में वे दोनों हैं और रहेंगे।


किसी प्रतिबद्ध कार्यकर्ता और संस्कृति कर्मी की रचनाधर्मिता उसकी सामाजिक सक्रियता से बनती बिगड़ती है।विचारधारा ,आंदोलन और संगठन के विचलित होने की हालत में अकेले व्यक्ति पर तमाम लांछन लगाना शायद न्याय भी नहीं है।


जो लोग रास्ता भटक गये, जो लोग अलग थलग हो गये, उनके लिए कारंवा की भी बड़ी जिम्मेदारी है,हमारा ऐसा मानना है।


हमें व्यक्तियों को अपनी अपनी फतवेबाजी से ईश्वर बनाने की वर्चस्ववादी प्रवृत्तियों से बचना चाहिए कम से कम कला और साहित्य के मामले में।


कल ही हमारे फिल्मकार मित्र जोशी जोसफ,जिनकी पूर्वोत्तर बनायी बेहतर फिल्मों के जरिये हमारी यात्रा मणिपुर के इमा खैथलों से लेकर इरोम शर्मिला के आफसा विरोधी आंदोलन में भागेदारी तक चल रही है, उनसे लंबी बातचीत हुई।


प्रतिरोध के सिनेमा के दिल्ली आयोजन के  मौके पर हमने खुद अपनी गैरहाजिरी के एवज में एक नोट लिखकर भारतीय उपमहाद्वीप के एक तिहाी लोगों के अपढ़ और नब्वे फीसद लोगों के बाजारु अर्धपढ़ होने के मद्देनजर तेजी से गैरप्रासंगिक होते जा रहे प्रिटं के विकल्प बतौर विजुअल मीडिया को पेश करने की दलीलें दी थीं।


चूंकि न हम फिल्मकार हैं और न इस माध्यम के विशेषज्ञ,हमने आनंद पटवर्द्धन के अति प्रसंगिक फिल्मों के हवाला देते हुए यही लिखा था कि निःसंदेह जय भीम कामरेड जैसी उनकी फिल्म जमीन तोड़डती है,लेकिन उनकी शास्त्रीयता को भी तोड़ना जरुरी है।


जैसे हम बार बार कहते रहे हैं कि आनंद तेलतुंबड़े या अरुंदति राय,गौतम नवलखा या सुभाष गाताडे जैसे अनेक लोग सामाजिक यथार्थ को बड़ी शिद्दत और काबिलियत से संबोधित करते हैं,लेकिन उनके पाठक हमेशा सत्ता वर्ग के होते हैं।जिन वंचितों के हालात बदलने के लिए वे लिखते हैं,उनतक उनकी बात पहुंच ही नहीं पाती।


आम लोगों को सत्ता,राजनीति,राष्ट्र,समाज और अर्थव्यव्स्था में हो रहे बदलाव के बारे में सही सही सूचना ही नहीं हो पाती।इसलिए वे भाव वादी तरीके से सोच रहे होते हैं।


जैसे अभिनव सिन्हा की टीम ने एक बड़ी पहल की जाति विमर्श को फोकस करने के सिलसिले में। लेकिन जिस तबके को संबोधित किया जाना है,उनकी मानसिक तैयारी के बारे में उन्होंने सोचा ही नहीं।

यह ऐसा ही है कि जैसे किसी सर्जन ने मरीज को आपरेशन थियेटर में ले जाकर जीवनदायी प्रणालियों को एक्टिवेट किये बिना ,एनेस्थेशिया दिये बिना सीधे दिमाग की चीरफाड़ शुरु कर दी हो।


ऐसे चिकित्सकों की इन दिनों बेहद भरमार है।


जोशी आनंद पटवर्द्धन के बारे में हमारी टिप्पणी से खासे नाराज हैं। वे पटवर्द्धन के उतने ही दोस्त हैं जितने हमारे।


कल हमसे बोले,तुम छोटी फिल्मों की बात करते हो,हमने अभी दो घंटे की फिल्म बनायी है।तुम्हारे लिए अलग स्क्रीनिंग करेंगे।आओ देखो.फिर बात करो माध्यम पर।


जाहिर सी बात है कि कोई भी बढ़िया निर्देशक अपने माध्यम में बाहरी हस्तक्षेप बर्दाशत नहीं करता।


जोशी ने आगे जो कहा, वह बेहद महत्वपूर्ण है। उसके मुताबिक साहित्य और कलामाध्यमों के दो अनिवार्य तत्व है,पालिटिक्स और पोयेटिक्स।इन पर बात करने के लिए दोनों दुरुस्त होने चाहिए।


राज्यतंत्र की समझ के बिना सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से रचनाक्रम करना असंभव है तो इतिहासबोध से लैस वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सौंदर्यबोध के बिना किसी भी तरह का मूल्याकन नाजायज है।


हम चाहते हैं कि दुसाध जी इस वक्तव्य के तात्पर्य को समझें।


हम इस व्यक्तिगत संवाद को सार्वजनिक नहीं बनाते अगर इसका सार्वजनिक महत्व नहीं होता।दुसाध जी ने पहले ही अपना उद्गार फेसबुक वाल पर डालकर निजी संवाद को सार्वजनिक बना चुके हैं।


क्योंकि मैं बीच में फंसा हुआ हूं तो मुझे भी अपनी सफाई देने का हक है। इसीसिलसिले में आनंद ने दुसाध जी की सहमति से अपना जो जवाब मेरे साथ साझा किया,उसे मैं ानंद की सहमति से आप सबके साथ साझा कर रहा हूं।


दुसाध जी अगर डायवर्सिटी के अपने सिद्धांतों को लेकर गंभीर हैं तो उन्हें फतवेबाजी से बाज आना होगा।और बहुजन अंबेडकरी राजनीति के माफिक टैग लगाने से परहेज करना होगा।हमने उनसे इस सिलसिले में बात भी की है।


अगर हम निराला या टैगोर को ब्राह्मण कवि नहीं कहते, प्रेमचंद को लाला कथाकार नहीं कहते, फिल्मों को जाति पहचान के हिसाब से नहीं देखते,बाजार,उत्पादन प्रणाली और श्रमसंबंधों में जाति वरीयता नहीं देखते,तो साहित्यऔर कला में विचारधारा और पहचान के आधार पर इस किनारे उस किनारे की बात करके डायवर्सिटी के सिद्धांत का मखौल क्यों उड़ा रहे हैं।


सांप्रतिक इतिहास में बाबा साहेब अंबेडकर और महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरु और नेताजी सुभाष चंद्र बोस से लेकर इंदिरागांधी और कामरेड ज्योति बसु में भयंकर वैचारिक मतभेद के बावजूद संवाद का सिलसिला हमेशा कायम रहा है।


अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीति और राजनय संवाद की हालिया बेहतरीन मिसाल है।वाजपेयी की वजह से ही केंद्र में भाजपी की सरकार बनी,यह बात संघ परिवार मान लें तो यह राष्ट्र और यह समाज बेवजह रक्त नदियों के डूब में समाहित होने से बचेगा और भाजपा के लिए सत्ता समीकऱण धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के खूनी खेल के बजाय स्वस्थ लोकतांत्रिक विकल्प बतौर बनना ज्यादा व्यवहारिक होगा।


इस सत्य को नजरअंदाज करके लौह पुरुष लाल कृष्ण आडवाणी मुंह की का चुके हैं और धर्मोन्मादी सुनामी के जरिये भाजपा चेहरा बनकर देश का प्रधानमंत्री बनने के लिए रोजाना जो भयंकर गलतियां नरेंद्र मोदी कर रहे हैं,वह देश के लिए जितना खतरनाक है उससे कम खतरनाक न शंघ परिवार के लिए है और न नरेंद्र मोदी स्वयं के लिए।


हमने दैत्य,राक्षस, दानव,यक्ष,असुर, किन्नर जैसे पौराणिक टैगो का हवाला देते हुए कहा था कि ये सारे टैग नस्ली नरसंहारक टुल हैं।अस्मिता ऐसा ब्रह्मास्त्र है,जिसका परिणाम हमेशा आत्मघाती होता है।


वीटी राजशेखर की बड़ी भूमिका रही है,लेकिन उनकी परिणति जाति अंधता में हुई।हमारे ज्यादातर कामरेड विचारअंध हैं। मायावती की जाति अंधता बहुसंख्य आम जनता की नियति सी बन गयी है।


जाति पहचान के जरिये सशक्तीकरण के फायदे पाने वाली जातियों के नाम गिना दीजिये तो बाकी छह हजार जातियों की जाति अंधता का औचित्य पानी की कतरह सरल हो जायेगा।


हमारे हिसाब से तो भ्रष्टाचार की जड़ है यह जाति व्यवस्था और उसकी विशुद्धता का सिद्धांत।वर्णवर्चस्वी इंतजामात में भ्रष्टाचार का कारखाना है और ऴंशवादी वायरल से बचता वनहीं कोई छोटा या बड़ा। जाति और विवाह के जटिल प्रबंधकीय खर्च के लिए ही बेहिसाब अकूत संपत्ति अर्जित करने की जरुरत होती है।


बंगाल में 35 साल के वाम शासन से और जो हुआ हो,उससे इतना तो जरुर हुआ है कि वैवाहिक संबंधों में जाति धर्म या भाषा का टंटा खत्म है और दहेज न होने की वजह से सार्वजनिक जीवन में तमाम समस्याओं और आर्थिक बदहाली के बावजूद लोग तनावरहित आनंद में हैं।


जहां जाति का बवंडर ज्यादा है,वहां अंधाधुंध कमाने की गरज बाकायदा कन्यादायी पिता की असहाय मजबूरी है।उत्तर भारतीय परिवार और समाज में ज्यादा घना इस जाति घनघटाों की वजह से ही हैं।


और समझ लीजिये कि आपकी पहचान का फायदा उठाकर कैसे कैसे लोग आपके मत्थे पर बैछकर हग मूत रहे हैं और आप तनिक चूम करें कि चूतड़ पर डंडे बरसने लगे।


जाति राजनीति की वजह से आप प्लेटो में परोसे जाने वाले मुर्ग मुसल्लम को रहमोकरम पर हैं।


आप जाति उन्मूलन कर दीजिये।विवाह संबंधों को खुल्ला कर दीजिये,भ्रष्टाचार की सामाजिक जड़ें खत्म हो जायेंगी।


हम वीटीआर की नाराजगी का शिकार हुए हैं।


हम कोई चुनाव लड़ नहीं रहे हैं कि बहुमत का समर्थन हमारे लिए अनिवार्य है।

दुसाध जी,आप इसे समझ लें कि हम आपके इन विचारों को भावनाों के विस्पोट के अलावा कुछ नहीं समझते।हम आपके लिखे और आपके विचारों का समर्थन करते हैं।


लेकिन यह तो आप हैं जो अपने विचारों और सिद्धांतों के विपरीत आचरण कर रहे हैं।


कृपया मोदियाइये नहीं।


जाते जाते हम आनंद के नीचे दिये गये पत्र के मुताबिक वंचितों को न्याय दिलाने और सामाजिक न्याय और समता के लक्ष्य के लिए वंचित समुदायों को चिन्हित करने की हद तक,उनके समान अवसर और संसाधनों में हिस्सेदारी सुनिश्चित करने की हद तक अस्मिताओं का उल्लेख कर सकते हैं,लेकिन राजनीतिक या वैचारित टुल की तरह कदापि नहीं।


फिर हम मानते हैं कि नदियों के किनारे भी मिलल जाते हैं कभी कभार तो सामाजिक अंतर्विरोधों को सही तरीके से संबोधित करके हम सभी नयी दिसा भी बना ही सकते हैं।

और इसीलिए किसी भी तरह के मतभेद के बावजूद इस वक्त संवाद बेहद जरुरी है।


जिन भगवा महानों से हम सिरे से असहमत हैं,उनसे भी संवाद की संबावना से हम इंकार नहीं करते।


आप तो खैर मित्र हैं।जो रूठते रहेंगे और मनाये भी जाते रहेंगे।


लेकिन बेहतर होगा कि ऱठने का बचपना से हम बचें और वस्तुपरक सोच अपनाकर बालिग जरुर बनें।


Dr. Anand Teltumbde


9:40 AM (4 hours ago)


*

to h.l, me





Dear Dusad ji,


I am sorry if I hurt your feelings because my opinions did not concur with yours. But to say that we constitute two banks of river that would never meet is a hasty conclusion. Because the sincerity that you have been reflecting in your writings and reflected during our meeting and most opinions you express and on the contemporary issues gave me an impression that we could carry on our discussions. Our opinions etc. are not cast in stone; they are the products of our reflection of our social experience, which in a dynamic world should be subject to change. So long as we reflect it with objectivity within the confines of our commitment to the cause of downtrodden (emancipation of humanity, rather), there is absolutely no issue. There will always be meeting point.


Your labeling me as Marxist is again pasting some identity on me. I have a serious problem with these labels. I do not consider myself as any 'ist or ite'. This kind of labeling also is identitarian fixation. I do not really know what Marxism is and least its utility because in my observation these identities have only done damage in dividing people with identitarian intoxication that prevented them seeing other's viewpoint objectively in the attempt of working together. (as you did yourself) Palash and I always thought you are a valuable resource in the battle for emancipation of our people. [I take liberty to mark this mail to Palash as I referred to his opinion. I trust, you will not mind.]


Anyways. you are respected for what you think but we would continue viewing you as our friend.


Regards

Anand


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