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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, April 14, 2014

पूंजीवादी शोषण प्रणाली को चलाने में मददगार होता है जातीय उत्पीड़न

पूंजीवादी शोषण प्रणाली को चलाने में मददगार होता है जातीय उत्पीड़न

पूंजीवादी शोषण प्रणाली को चलाने में मददगार होता है जातीय उत्पीड़न

HASTAKSHEP

अम्बेडकर के 'जाति का खात्मा' पर परिचर्चा के संदर्भ में- भाग-2

पार्थ सरकार

'जात पात तोड़क मंडल' के सम्मेलन में अपने प्रस्तावित अध्यक्षीय भाषण में अम्बेडकर इस बात को रेखांकित करते हैं कि क्या सामाजिक सुधार के पहले हम राजनीतिक सुधार कर ले सकते हैं। उनका कहना था कि ऐसा नहीं हो सकता। जातीय विषमता के साथ स्वतंत्रता प्राप्ति की बात पर उन्होंने प्रश्नचिन्ह उठाया था। इस पर हमारे वक्ता ने कहा कि सामाजिक सुधारों की बात करना जरूरी तो था लेकिन एक कम्युनिस्ट होने के नाते सामाजिक सुधार व राजनीतिक सुधार के बीच कोई वरीयता वाली बात से वे सहमत नहीं हैं। कम्युनिस्ट लोग क्रांतिकारी मुकाम को हासिल करने के क्रम में सामाजिक सुधारों को भी अंजाम देते हैं और उसके लिए संघर्ष चलाते हैं, मसलन- बिहार में इज्जत की लड़ाई लड़ी गई या अन्य जगहों पर जाति विरोधी आंदोलन चलाए गए। राजनीतिक सत्ता लेने के बाद हम उन सारी चीजों को करते हैं जो सत्ता लिए बिना नहीं कर सकते। दलितों को समानता का हक दिलाने में उस समय 'जमीन जोतने वालोंका नारा बहुत ही कारगर होता। यह बिना क्रांतिकारी बदलाव का नहीं हो सकता था और क्रांति राजनीतिक सत्ता लेने के साथ सम्बंधित है

¹यहां हम इस बात का जिक्र कर देना चाहेंगे कि हर कम्युनिस्ट पार्टी के पास एक न्यूनतम कार्यक्रम होता है और एक अधिकतम कार्यक्रम होता है। इसके अलावा वह अपने लिए फौरी कार्यभारों का भी फेहरिस्त रखता है। कई चीजों को क्रांति द्वारा ही हल किया जा सकता है, जैसे 'जमीन जोतने वालों' की बात हमने कही (इस नारे के मुकम्मल अर्थ में न कि गैर-मजरूआ व सीलिंग से फाजिल जमीन के बंटवारे में। हम यहां जमीन के मुकम्मल फनर्वितरण की बात कर रहे हैं)। यह राजनीतिक सत्ता के साथ जुड़ा हुआ है और नए सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के निर्माण के साथ जुड़ा हुआ है। तो जो जातीय शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष हो सकते थे उन्हें किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी को अपने फौरी कार्यभारों में लेना चाहिए था और हम कह सकते हैं कि कई कार्यभारों को लिया गया जिससे जातीय उत्पीड़न पर चोट किया गया। इसीलिए हमारे लिए सामाजिक सुधार और राजनीतिक सुधार के बीच वैसी कोई तीखी क्रमबद्धता नहीं है जैसा कि अम्बेडकर रखते हैं। यहां कह देना चाहिए कि सामाजिक सुधारों के बारे में उस समय के कांग्रेस के नेताओं के विचारों के बारे में हम कोई अच्छा मत नहीं रखते और उनकी इसके प्रति उदासीनता को समझ सकते हैं। यहां फिर हम अम्बेडकर की चिन्ता को समझ सकते हैं और वहां तक वे बिल्कुल जायज बात कह रहे थे।

जाति जिन मौजूदा रूपों में अपने को अभिव्यक्त करती है उसका भारत के विकास के रास्ते से सम्बंध है। भारत ने कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं देखा। यहां पूंजीवाद का विकास धीमी, क्रमिक गति से हुआ जिसने यहां के मेहनतकशों के लिए अपार दुःख लाया। इसे हम मार्क्सवादी-लेनिनवादी लहजे में पूंजीपति-जमींदार रास्ता कहते हैं या जर्मनी के का जो प्रांत ऐसे विकास का प्रतीकी उदाहरण रहा है उसके नाम पर प्रशियाई रास्ता (Prussian Path)  कहते हैं। यह रास्ता पुराने (अर्ध-सामंती) बंधनों को धीरे-धीरे चटकाता है और उन्हें पूंजीवादी तर्ज पर ढाल भी देता है। जाति के साथ ऐसा ही हुआ। जातीय दर्जेबंदी के आधार पर जो जमीन की मिल्कियत थी वह कमोबेश बनी रही। भूमिहीन दलित जातियां बंधनों से मुक्त तो हुई लेकिन उनका अधिकांश हिस्सा मजदूर बना। इसी तरह से जातीय गोलबंदी का फायदा चुनावों में और व्यवसाय में लिया गया जिसकी चर्चा कर दी गई है। आरक्षण के द्वारा भी जातियों में वर्ग विभेद पैदा हुए। इन बदलावों में क्रमिक रूप से यह भी हुआ कि भारत में जमीन की मिल्कियत धीरे-धीरे पिछड़ी जातियों के हाथों में आती जा रही है और वे गांवों में नया मालिक वर्ग बन रहे हैं। जाति श्रम-विभाजन का अनमनीय रूप रहा है। इसीलिए जातीय श्रम-विभाजन को तोड़ दूसरे श्रम विभाजन में शरीक होना एक प्रगति का कदम है और इसमें जरूर इजाफा हुआ है। यह सामाजिक गतिशीलता (social mobility) जाति व्यवस्था को कमजोर करने का एक बड़ा साधन है। पूंजीवादी विकास के साथ दस्तकारी (artisanship) के कई रूपों का विलोप होता जा रहा है क्योंकि मशीनें इसका स्थान ले लेती हैं और यह भी जातीय श्रम विभाजन को तोड़ता है। विडम्बना यह है कि यह उन जातियों को मुफलिसी व कंगाली की स्थिति में भी धकेल देते हैं। और यह उन्हें कमजोर बनाता है और जातीय दंश उन्हें तब ज्यादा झेलना पड़ता है।

¹ यहां हम अपने लेख — 'जाति का सवाल' में से कुछ उद्धरण देना चाहेंगे-

अपने एक लेख में मार्क्स कहते हैं कि मध्य युग में सम्पत्ति, व्यापार, व्यक्ति सभी राजनीतिक होते थे- यानी राजनीति निजी क्षेत्रों की लाक्षणिकता होती थी। (हेगेल के न्याय के दर्शन की आलोचना में योगदान से) हम जानते हैं कि भूदास वास्तव में एक तरह से जमींदार की सम्पत्ति होते थे तथा वे कई तरह के बंधनों से बंधे होते थे। इसी तरह जमींदार अपने आप में न्यायाधीश व सेनापति भी होता था। इस तरह उससे भूदासों का रिश्ता सीधे-सीधे राजनीतिक होता था। हम पाते हैं कि वर्ग ''एस्टेट'' के रूप में अपने को पेश करते थे और राजनीतिक गुणों से विभूषित होते थे। इस तरह जब हम प्राक्-पूंजीवादी या सामंती दुनिया के समाज में विद्यमान ऐसे रूपों पर विचार करते हैं तो हमें अधिरचनात्मक तत्वों को भी अपने आकलन में लेना होगा। जाति के साथ भी ऐसा ही है। जजमानी संबंध जैसे सम्बंध जाति व्यवस्था के अवयव रहे हैं। जजमानी संबंधों के तहत लोगों को कई तरह के जातीय कार्यभारों का निर्वहन करना पड़ता था, जो ग्राम समुदाय के अंदर श्रम विभाजन की व्यवस्था थी और यह व्यवस्था अपरिवर्तनीय और सख्त थी। इस तरह से इस श्रम विभाजन के तहत लोग एक दूसरे से उत्पादन की प्रक्रिया में जुड़े होते थे — जातीय कार्यभार उत्पादन संबंध ही थे। इन जातीय कार्यभारों का निर्वहन कुछ नियमों के तहत होता था (ऊँच-नीच या दर्जेबंदीवाली व्यवस्था, अनुलंघ्घनीय वंशानुगत काम, छुआछूत, सजातीय विवाहद्ध और यह परम्परागत व्यवहार व रीति-रिवाज से परिचालित होता था ;धार्मिक अनुशंसा, अनुमोदन)। इस तरह जाति व्यवस्था अपने में आधार व अधिरचना दोनों के अवयवों को समाहित करती थी। इस व्यवस्था की अपनी विचित्रताओं में एक यह भी है कि शोषकों व शोषितों के क्रम-अनुक्रम को सटीक ढंग से बताना मुश्किल होता है यद्यपि यह एक दर्जेबंदी वाली शोषक व्यवस्था (hierarchical system) है और इसके तहत निचले पायदान पर आने वाली जातियों का ऊँची जातियों द्वारा शोषण होता था। हम पाते हैं कि इस श्रम विभाजन ने मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच के विभाजन को गहरा और चिरकालिकप्रायः बना दिया। इसने जाति व्यवस्था के भेदों को,इस श्रम विभाजन से उत्पन्न विभेदों को बढ़ा दिया और सख्त बना दिया। जाति व्यवस्था वाले समाज के नियमों की संहिता मनुस्मृति ने इसीलिए इस विभेद पर जोर डाला। जाति व्यवस्था के अंतर्गत लोगों के समूहों को खास कामों में बांधे रखने की प्रथा अनमनीयवंशानुगत व परम्परा तथा धर्म द्वारा अनुमोदन प्राप्त (sanctified) रही है। यह एक घृणास्पद व्यवस्था है जो मानव क्षमताओं के विकास को रोकती है और सम्पूर्णता में समाज विकास में बड़ी बाधा पेश करती है। (अम्बेडकर ने अपने उपरोक्त भाषण में बहुत अच्छी तरह से जाति के दुर्गुणों और उसके प्रगति विरोधी चरित्र पर टिप्पणी की है)

आज के दिन में यदि हम उत्पादन संबंधों की बात करें तो हम पाएंगे कि जजमानी संबंधों के तहत श्रम विभाजन द्वारा काम की परम्परा समाप्त हो गई है। लेकिन इसकी समाप्ति कोई क्रांतिकारी रूपांतरण द्वारा नहीं हुई है। आज जजमानी संबंधों के खत्म होने की बात के लिए किसी 'अध्ययन' पर आधारित होने की बात नहीं रह गई है। यह तो सबको साफ है। फिर भी हम एक अध्ययन पर आधारित होकर इसकी समाप्ति पर थोड़ा गौर करेंगे। वह है ''स्लेटर अध्ययनों'' के 2008 का चक्र। अंग्रेज प्रोफेसर स्लेटर द्वारा 1881 में तमिलनाडु के कुछ गांवों में इस अध्ययन की शुरुआत की गई थी और इसके कई चक्र चले हैं। ये अध्ययन बताते हैं कि कैसे क्रमिक रूप में इन संबंधों में बदलाव आया है और श्रम विभाजन का पूंजीवादी ढांचे पर रूपांतरण हुआ है। तमिलनाडु के इरूवेलपट्टु गांव का हाल में किया गया अध्ययन बताता है कि यह गांव अब एक तरह से दो जातियों का गांव हो गया है। तरह-तरह की सेवा देने वाली जातियां इस गांव को छोड़ चुकी हैं। दलित जातियां हैं जो आज अपनी दावेदारी कर रही हैं और उन पर जमींदार का साया नहीं है। यहां दासता (debt bondage) खत्म है। खेतिहर मजदूरी तो ये करते ही हैं पर साथ ही गैर-कृषि मजदूरी का महत्त्व बढ़ रहा है। आज भी पुराने जमींदारी खानदान के पास सबसे ज्यादा खेत है और वह प्रभावशाली भी है लेकिन पुराने आश्रित और आश्रयदाता (patron and client) के संबंध अब नहीं हैं। अध्ययन बताता है कि ''लोहार अब ताला बनाता है, बढ़ई के पास फर्निचर पॉलिश करने का व्यवसाय है। दोनों बाहर हैं। धोबी अभी भी पैसे के बदले आइरनिंग का काम कर देगा, लेकिन धोने का नहीं। गांव के ये भूतपूर्व सेवा देने वाले लोग अभी भी पैसे के बदले अपने विशेष रीति-रिवाज का काम कर देंगे लेकिन अब आपसी निर्भरता पर आधारित सेवा की आम प्रथा समाप्त हो गई है।'' इसी तरह का एक दूसरा महत्त्वपूर्ण अध्ययन यान ब्रीमन का है। उन्होंने विभिन्न समयों में गुजरात आकर शोध करके अनाविल ब्राह्मणों व हलपतियों (एक दलित जाति) के बीच के रिश्ते को दिखाया है। आज हलपतियों की इन पर व्यक्तिगत निर्भरता नहीं है लेकिन आज भी वे मुख्यतः खेतिहर मजदूरी करते हैं और अनाविलों के यहां ही करते हैं। इस तरह के बदलावों को समझने के लिए जरूरी है कि हम भारत के विकास के रास्ते को समझें। आज रुपए-पैसे या माल-मुद्रा के संबंधों ने पुराने संबंधों की जगह ले ली हैं।

इस तरह के बदलाव का एक मतलब यह भी होता है कि ऊपर से यह लग सकता है कि दलित व निचली जातियां जातियों के रूप में ही आज निचले पायदान पर खड़ी हैं। नहीं, वे आधुनिक मजदूर-मेहनतकश के रूप में वहां खड़ी हैं। आज उनके और उनके मालिकों के बीच का संबंध स्वतंत्र मजदूर व मालिक का है। निस्संदेह पूंजीवाद प्राक्-पूंजीवादी अधिरचनात्मक अवयवों का प्रयोग अपने हित में करता है। आर्थिक रूप से पूंजीवादी रूपांतरण तो हो जाता है लेकिन अधिरचनात्मक अवयवों का प्रयोग बंद नहीं होता। जातीय उत्पीड़न पूंजीवादी शोषण प्रणाली को चलाने में मददगार होता है लेकिन मजदूरों को जातीय उत्पीड़न के तमाम अवयव कहीं से भी अपने नए संबंधों में देय नहीं लगता। इसीलिए हम पाते हैं कि पिछली सदी के 70 व 80 के दशकों में तथा 90 के दशक के पूर्वार्ध में इज्जत का सवाल बड़े पैमाने पर जुझारू संघर्षों के केन्द्र में रहा और नक्सली आंदोलन ने इन संघर्षों की अगुवाई की। सामंती निर्भरता के संबंधों को खत्म करने में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। आज भी जातीय भेदभाव व उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष एक फौरी कार्यभार बना हुआ है।ह्

भारत में हुए पूंजीवादी बदलाव ने जातियों में वर्ग विभाजन कर दिया है और आज यह एक प्रभावी हकीकत है। ऐसे में जब भी हम जातीय सवाल को लेते हैं तब दृष्टिकोण की बात सामने आती है कि हम इसे पूंजीवादी सुधारवादी नजरिए से लेते हैं या फिर सर्वहारा क्रांतिकारी दृष्टिकोण से। सर्वहारा दृष्टिकोण इस बात को कहता है कि हर प्रकार के शोषण-उत्पीड़न का विरोध कर ही सर्वहारा अपने को मुक्त कर सकता है। इसीलिए वह जातीय उत्पीड़न के खिलाफ भी उतनी ही तल्खी से जूझता है और उसे अपने संघर्ष का अंग बनाता है। बुर्जुआ सुधारवादी तरीका दलित व पिछड़ी जातियों को सम्पत्तिवान व समृद्ध बनाने का झांसा देते हुए जाति के खात्मे का बात करता है। प्रश्न यह है कि क्या पूंजीवाद के अंतर्गत ऐसा हो सकता है? क्या बहुसंख्या गरीबी में नहीं रहती है और लोग लगातार उजड़ते नहीं हैं और सर्वहाराकरण नहीं होता है? लेकिन आज के दिन में 'भोपाल घोषणापत्र' जैसी मुहिम चलाकर दलित पूंजीवाद की पैरोकारी की जाती है। दलित पूंजीपति के बन जाने से उन जातियों से आए सर्वहारा का जातीय उत्पीड़न खत्म नहीं हो जाता। यह आम अनुभव की बात है। दूसरी बात जो बसपा जैसी तथाकथित दलित पार्टियों द्वारा फैलाई जाती है वह यह है कि दलितों की शक्ति उनके वोट में है और वोट में चमत्कारी गुण है जो उनके लिए मुक्तिदायी हो सकता है। यह चुनावी भ्रम दलित जातियों को संघर्ष से मुंह फेरने को कहता है और वस्तुतः राज्य संरक्षण की ओर उन्हें मुखातिब करता है।

इसी संदर्भ में हमारे वक्ता ने जातीय उत्पीड़न के खिलाफ दलित जातियों के प्रतिरोध की शानदार बात को सामने रखा। उन्होंने कहा कि दलित को केवल दबे-कुचले के रूप में देखना गलत है। ऐसा करना उनके प्रति एक सदाशयता वाली मानसिकता को दिखाता है। दलित जबरदस्त प्रतिरोध भी करते हैं और इसी में वे अपनी दावेदारी करते हैंकिसी के मुंहताज नहीं रहते।

वक्ता ने स्थानीय अम्बेडकर हॉस्टल के छात्रों और ऊँची जातियों की बहुलता वाले दूसरे हॉस्टल के लड़कों के बीच लड़ाई की बात की। सवर्ण लड़कों के उत्पीड़न का प्रतिरोध अम्बेडकर हॉस्टल के लड़के बहादुरी से करते हैं और वक्ता से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि वे दबने वाले नहीं हैं। इसके विपरीत यदि हम उन्हें केवल संरक्षण की जरूरत वाले मानते हैं तो अन्याय करते हैं। एक ऐसे राज्य के आश्रित के रूप में उन्हें देखते हैं जो सर्वथा दलित विरोधी है, जो जातीय उत्पीड़न के मामलों में कानून के राज के नाम पर शोषितों-उत्पीडि़तों के खिलाफ काम करता है। दलित जातियों के लोगों के जनसंहार के मामले और पुलिस-प्रशासन से लेकर कोर्ट-कचहरी के फैसले हमारे विचारों का अनुमोदन करते हैं। जब दलित जातियों के लोग बगावत का रास्ता लेते हैं तो उनके साथ जिस नृशंस तरीके से निपटा जाता है वह हम खूब जानते हैं। दलित जातियों को संविधानपरस्त बनाया जाता है जिस संविधान ने जातीय संरचनाओं को नया जीवन दिया है, जिसने चुनावों की प्रक्रिया में जातीय गोलबंदी को प्रोत्साहित कर जाति को नया जीवन दिया है। राज्य ने आरक्षण का प्रावधान कर एक तरफ तो जनतंत्रीकरण जरूर किया है लेकिन दूसरी तरफ दलित जातियों की बहुसंख्या को शोषण-उत्पीड़न झेलने को मजबूर बना दिया है। इसी बहुसंख्या के राज की बात सर्वहारा क्रांतिकारी करते हैं और उन्हें संविधानपरस्ती के रास्ता से अलग करते हैं।

हमारे वक्ता ने इसी दृष्टि से अम्बेडकर को प्रतीक  (icon) बनाए जाने की बात की थी। उन्होंने राज्य के इस प्रयास के पीछे के मंसूबे की बात कही थी जो दलितों को क्रांतिकारी संघर्ष से अलग कर संविधानपरस्त बनाता है। उस संविधान के प्रति आस्था रखने वाला बनाता है जिसे एक अत्यंत सीमित निर्वाचन समूह (electorate) के आधार पर चुनी हुई संविधान सभा ने बनाया था। कहने की जरूरत नहीं कि इस संविधान सभा में जमींदारों व पूंजीपतियों के ही प्रतिनिधियों का बोलबाला हो सकता था। दलित जातियों को क्रांतिकारी संघर्ष का रास्ता छोड़ राज्य संरक्षण का रास्ता दिखाने की प्रेरणा देने के लिए अम्बेडकर का आज इस्तेमाल हो रहा है। इसीलिए हमारे वक्ता ने अम्बेडकर से आगे जाने की बात कही। उन्होंने धार्मिक शास्त्रों की सत्ता को चुनौती देने से आगे बढ़कर जाति के गैर-धार्मिक वस्तुगत अस्तित्व की ओर ध्यान दिलाया जो आज बदले रूप में अपने को पेश करता है। उन्होंने भारत के प्रशियाई रास्ते से हुए पूंजीवादी विकास की ओर ध्यान दिलाया जिसने जाति व्यवस्था को अपनी जरूरतों के हिसाब से ढाला है और इसका इस्तेमाल अपने हित में करता है। ऐसे में जाति के खिलाफ की लड़ाई इसकी विशिष्टताओं के खिलाफ का संघर्ष भी है। दलितों की बहुसंख्या आज मजदूरी करती है और मजदूर के रूप में उनका संघर्ष उन्हें पूंजीवाद विरोधी समाजवादी क्रांति तक ले जाता है। यह क्रांतिकारी सत्ता तक दलितों को ले जाने की बात है। फौरी जाति विरोधी हमारे कार्यभार इसी मंजिल की प्राप्ति हेतु हैं और इन दोनों कार्यभारों को एक दूसरे के विपरीत खड़ा करना गलत है। इसीलिए अम्बेडकर के जनतंत्रवादी लड़ाई से, विचारधारात्मक स्तर पर धर्मशास्त्रों के खिलाफ संघर्ष से हमें आज आगे बढ़कर इस काम के लिए अपनी तैयारी करनी होगी। यह वस्तुगत परिस्थितियों के खिलाफ बगावत का रास्ता है और इसके लिए उस मुक्तिदायी रास्ते को चुनना पड़ेगा जो भारतीय पूंजीवाद को जड़-मूल से उखाड़कर उसके बदले एक समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करता हो जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण नहीं होगा।

जारी….

पिछला भाग-

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