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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Friday, April 4, 2014

कल्‍याणकारी राज्य की चुनौतियां

कल्‍याणकारी राज्य की चुनौतियां

साभार समयांतर

Author:  Edition : 

जितनी भी सरकारें पिछले 30 सालों में आईं हैं उनकी राजनीति यही है। इसमें विश्व बैंक का जबरदस्त दबाव है। विश्व बैंक का दबाव है कि आपकी नीति होनी चाहिए 'ग्रोथ इन एनी कॉस्ट'। मतलब आपकी विकास की दर बढऩी चाहिए फिर चाहे उसकी कीमत कुछ भी हो। और यह कीमत पड़ती है कामगारों और पर्यावरण पर।

सन् 1947 में जब हमें आजादी मिली थी उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था का स्वरुप क्या था और आगे चलकर इसका क्या स्वरूप हुआ, वह समझना होगा। सन् 47 तक हमारी अर्थव्यवस्था में आम आदमी कहीं भी नहीं आता था। वह ब्रिटिश सेना का एक हिस्सा बनकर रह गया था। आजादी के बाद जो हमारा नया नेतृत्व आया उसकी समझ थी कि समाज की जो भी समस्याएं हैं वे व्यक्तिगत (इंडिविजुअल) नहीं हैं, वे सामूहिक (कलेक्टिव) हैं। ब्रिटिश हुकूमत ने हमारे यहां जितनी तादाद में स्कूल, कॉलेज, औषधालय, अस्पताल बनवाए उतनी तादाद में अपने देश में नहीं बनवाए। मैंने अपनी किताब में दिखाया है कि हमारा जो ढांचा था और ब्रिटेन में सन् 1950 में जो ढांचा था आप देखेंगे कि सन् 50 में वह पूरी तरह से सामान्य नहीं हो पाया था क्योंकि विश्वयुद्ध के दौरान वहां काफी तादाद में सड़कें, रेलवे और पुल तहस-नहस हो गए थे। फिर भी उस समय उनका जो ढांचा था; चाहे आप शिक्षा, ऊर्जा या परिवहन को ले लें और जो भारत का ढांचा था उसमें जबरदस्त अंतर था। उनका सन् 1950 में जो ढांचा था हम पचास साल बाद भी उस स्तर तक नहीं पहुंच पाए हैं। यह एक तरह का अर्द्धविकास (अंडर डेवेलपमेंट) दिखाता है।

हमारे यहां शिक्षा का जबरदस्त अभाव था। सन् 1911 की जनगणना के मुताबिक यहां सिर्फ 11 प्रतिशत लोग शिक्षित थे और उसमें भी महज आधा प्रतिशत लोग थे जिनके पास किसी तरह की विज्ञान या टेक्नोलॉजी की जानकारी थी। सन् 1950 में भी सिर्फ 16 प्रतिशत लोग शिक्षित थे। हालात खराब थे। स्वास्थ्य के क्षेत्र में देखें तो मृत्युदर भी और जन्मदर भी बहुत ज्यादा थी। लेकिन मृत्युदर इतनी ज्यादा थी कि 1930 के दशक में जनसंख्या इतनी घट गई कि मृत्युदर जन्मदर से ज्यादा हो गई थी। चाहे शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी या रोजगार सृजन हो, इन सभी में हम बहुत पिछड़े हुए थे।

राज्य की भूमिका का महत्त्व

उस समय राष्ट्रीय आंदोलन की यह धारणा थी कि हमें सामूहिक रूप से इस समस्या का समाधान करना होगा, क्योंकि वैयक्तिक रूप से इसका समाधान नहीं किया जा सकता। इसलिए राज्य को बहुत बड़ी भूमिका दी गई कि वह इन समस्याओं को समझे और हल निकाले। 1947 में हम इस रास्ते पर चले। लेकिन उस समय जो हमारा शासक वर्ग था उसकी समझ क्या थी ? वह यह कि पश्चिमी आधुनिकता की एक बस जा रही है और हमें किसी तरीके से उसमें कूद पडऩा है। उस समय दो रास्ते दिखाई दिए। एक वह आधुनिकता जो पश्चिम में थी यानी बाजार अर्थव्यवस्था (मार्केट इकोनॉमी)। दूसरा सोवियत संघ का मॉडल था जिसने सन् 1918 के बाद बहुत तरक्की की थी। बड़ी तेजी से उत्पादन बढ़ाया था। हमारे नेतृत्व को दोनों रास्ते दिख रहे थे और उसने इन दोनों को जोड़कर कर मिश्रित अर्थव्यवस्था का रास्ता चुना। हमारा विकास का मार्ग एक उधार लिया हुआ विकास का मार्ग था। इन दोनों के साथ दिक्कत यह थी कि जब ऊपर विकास होगा तब वह रिसकर नीचे भी जाएगा। इसके चलते ही गांधी जी ने कहा था कि हम लोग नीचे से ऊपर उठें और जो गांव आधारित गणतंत्र (विलेज रिपब्लिक) है उससे शुरुआत करें। हमारे राष्ट्रीय आंदोलन ने विकास का वह रास्ता नहीं चुना। इसकी वजह से आप देखेंगे कि अर्थव्यवस्था में बराबर एक संकट चलता रहा। चाहे 1967 में नक्सलवादी आंदोलन हो,1975 का आपातकाल हो या फिर 1980 के दशक का संकट हो। एक के बाद एक संकट आते चले गए। मिश्रित अर्थव्यवस्था के रास्ते पर चलते हुए विकास की दर तो जरूर बढ़ी लेकिन संकट भी चलता रहा। गरीबी बहुत हद तक बनी रही। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में तरक्की हुई, लेकिन उतनी नहीं जितनी होनी चाहिए थी। कुल मिलाकर एक जबरदस्त संकट हमारी अर्थव्यवस्था में बना रहा।

नब्बे के दशक तक हमारे संकट कुछ ज्यादा ही बढ़ गए, क्योंकि हमने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की नीतियां सन् 1980 से अपनानी शुरू कर दी थीं। इन नीतियों के पीछे सोच बिल्कुल उल्टी थी। 1990 से जो हमने नीतियां अपनाई उनमें सोच थी कि जितनी भी समस्याएं हैं वे व्यक्ति की वजह से हैं। व्यक्ति खुद अपनी समस्याओं के लिए जिम्मेदार है। अगर वह शिक्षित नहीं है, वह स्कूल नहीं गया, कॉलेज नहीं गया तो उसको स्कूल जाकर या कॉलेज जाकर खुद को पढ़ाना है। अगर स्वास्थ्य की समस्या है तो वह उसकी अपनी समस्या है, समाज का दायित्व नहीं है। इसलिए यहां यह माना जाता है कि बाजार सब चीजों का, सब समस्याओं का हल देगा। अगर शिक्षा चाहिए तो बाजार में जाइए। स्वास्थ्य चाहिए तो बाजार जाइए। अगर रोजगार सृजन करना है तो बाजार जाइए। मार्केट से आपको काम मिलेगा और वहीं से तनख्वाह मिलेगी। सन् 1990 के बाद यह हुआ कि अब व्यक्ति को खुद समझना पड़ेगा कि उसे समाज में कैसे रहना है। यह राज्य की जिम्मेदारी नहीं है। राज्य पीछे चला गया और बाजार आगे चलने लगा।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की घुसपैठ

हमारी अर्थव्यवस्था में एक बड़ी तब्दीली हुई। वैसे तब्दीलियां तो चलती रहती थीं। जैसे 1975 में जब आपातकाल लागू हुआ तभी से हमारी नीतियां दक्षिणपंथ की ओर झुकने लगी थीं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक (वल्र्ड बैंक) से बहुत सारे लोग आए। धीरे-धीरे नौकरशाही उनके कब्जे में जाने लगी और एक रिवोल्विंग डोर (घूमता द्वार) नीति हो गई। हमारे नीतिकार विश्व बैंक, आईएमएफ और अन्य वित्तीय संस्थाओं में जाते थे और वहां से लोग यहां आते थे। विचारों में आदान-प्रदान इतना ज्यादा हो गया कि जो नीतियां वे सुझाते थे वही हमारे नीति निर्माता यहां आकर समझाते थे। हमारी जो एक आंतरिक विकास के मार्ग की बात थी विकास का वह स्वतंत्र मार्ग 1970 के दशक के मध्य से ढहने लगा। नीतियों का स्वतंत्र स्पेस था, धीरे-धीरे खत्म होता चला गया, खासकर सन् 1990 के बाद से। आईएमएफ, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) आदि बड़े पैमाने पर हमारी अर्थव्यवस्था पर हावी होते चले गए। पहले डब्ल्यूटीओ नहीं था, पहले गैट (जनरल एग्रीमेंट ऑन टेरिफ्स एंड ट्रेड) था। सन् 1994 के बाद वह डब्ल्यूटीओ बन गया और डब्ल्यूटीओ में कई नए प्रावधान आ गए। चाहे वह ट्रिप्स (एग्रीमेंट ऑन ट्रेड रिलेटेड एस्पेक्ट्स ऑफ इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स) हो या अन्य।

लेकिन सबसे बड़ा था डिस्प्यूट सेटलमेंट मैकेनिज्म (विवाद निपटारा तंत्र) और क्रॉस रिटैलीएशन। मतलब अगर आपको किसी को कहना है कि यह बाजार खोलना है और उसने वह नहीं किया तो उससे आप कह सकते थे कि इसके कारण किसी दूसरे बाजार में हम आपको नुकसान (क्रॉस रिटैलीएशन) पहुंचाएंगे। गैट में यह नहीं था। इसके चलते हमारी नीतियों पर दबाव तेजी से और बहुत ज्यादा बढ़ता चला गया।

अगर आप देखें तो इधर पिछले ढाई साल में अर्थव्यवस्था में धीरे-धीरे गिरावट आ रही है। करीब 11 प्रतिशत की विकास दर अब गिरकर साढ़े चार प्रतिशत पर आ गई है। सरकार इस दिशा में क्या कर रही है? मुद्रास्फीति तेज है। वित्तीय घाटा नियंत्रण में नहीं आ रहा है। चालू खाता घाटा तेज है। रुपए का अवमूल्यन हुआ है। यह बड़े पैमाने पर हुआ है, करीब 20 प्रतिशत मुद्रा (करेंसी) गिर गई है। इन सभी समस्याओं का समाधान क्यों नहीं निकल पा रहा है? समाधान इसलिए नहीं निकल पा रहा है क्योंकि हम बाहरी क्षेत्र की तरफ ध्यान दे रहे हैं न कि अपने अंदरूनी क्षेत्र की तरफ। वहां पर कौन निर्णय कर रहे हैं? क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां (ये अमेरिकी नीतियों पर आधारित हैं) दबाव डाल रही हैं। कहते हैं कि जब राजकोषीय घाटा (फिस्कल डेफिसिट) कंट्रोल कर लेंगे तो बाकी समस्याएं हल हो जाएंगी। लेकिन यह उल्टी बात है। जितना आप राजकोषीय घाटा कम करते हैं उतना ही विकास की दर कम हो जाती है। आज नीतियों का स्पेस हमारे हाथ से धीरे-धीरे खिसक गया है। इसलिए हमारे आम नागरिक को जो चाहिए उसे वह नहीं मिलता है। दस सालों में हुआ भी यही है। जैसे कि मनरेगा जैसी योजना बनी, खाद्य सुरक्षा का अधिकार कानून बना, शिक्षा का अधिकार कानून बना, यह सब किस वजह से हुआ, क्योंकि विषमताएं तेजी से बढ़ती चली गई हैं। इसके चलते विद्रोह न हो इसलिए मनरेगा रखना पड़ेगा, क्योंकि रोजगार सृजन नहीं हो रहा है।

बढ़ती बेरोगारी और निवेश का संबंध

आज हमारा 80 प्रतिशत निवेश कॉरपोरेट सेक्टर में जा रहा है। जहां पर महज सात प्रतिशत लोग काम करते हैं। सात प्रतिशत लोगों के लिए 80 प्रतिशत निवेश जा रहा है। कृषि जैसा क्षेत्र जहां पर अभी भी 50 प्रतिशत लोग काम करते हैं उसके लिए महज चार प्रतिशत निवेश हो रहा है। सात प्रतिशत के लिए 80 प्रतिशत और 50 प्रतिशत लोगों के लिए चार प्रतिशत निवेश है। बाकी असंगठित क्षेत्र हैं जहां महज 16 प्रतिशत निवेश हो रहा है। जबकि वहां पर रोजगार अभी भी 40-45 प्रतिशत के करीब है। इसलिए असमानता बेतहाशा बढ़ी है। आप आंकड़े देखें तो हमारे कॉरपोरेट सेक्टर पर महज दशमलव एक प्रतिशत लोगों का नियंत्रण है। हमारे बाजार में 90 प्रतिशत स्टॉक होल्डिंग कॉरपोरेट सेक्टर के हाथ में है। इस दशमलव एक प्रतिशत की आय 1999 या 2000 में हमारी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का साढ़े छह प्रतिशत थी। सात साल के दौरान वह बढ़कर 21 प्रतिशत हो गई। यानी सात साल में तीन गुना बढ़ गई। कृषि की आमदनी जीडीपी के 21 प्रतिशत से घटकर 17 प्रतिशत हो गई। यानी इस दौरान जो दशमलव एक प्रतिशत लोग हैं वे कृषि में निर्भर 50 प्रतिशत लोगों से ज्यादा कमाने लगे। इस असमानता के चलते संकट बेतहाशा बढ़ा।

दूसरी बात, कॉरपोरेट सेक्टर में जहां आज हमारा 80 प्रतिशत निवेश जा रहा है, वह रोजगार सृजन नहीं कर रहा है। उदाहरण के लिए, टाटा स्टील सन् 1990 में 20 लाख टन स्टील का उत्पादन करता था और वहां 80 हजार लोग काम करते थे। सन् 2010 में एक करोड़ टन स्टील का उत्पादन करने लगा है पर वहां महज 30 हजार लोगों को नौकरी मुहैया है। यानी उत्पादन पांच गुना बढ़ गया और रोजगार रह गया एक तिहाई। सारे कॉरपोरेट सेक्टर में सब जगह यही हुआ है। इसलिए लोगों ने कहा कि रोजगार रहित विकास (जॉबलेस ग्रोथ ) हो रहा है। इस जॉबलेस ग्रोथ के चलते ही बेरोजगारी का संकट है।

हमारे यहां कामगारों को कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है। यहां कोई यह नहीं कह सकता कि मैं काम नहीं करूंगा जब तक कि मुझे मेरे जैसा काम नहीं मिलेगा। इसलिए देश में जो बेरोजगारी है वह कभी दो-ढाई प्रतिशत से ज्यादा नहीं होती, लेकिन अंडर एम्प्लॉयमेंट (अर्द्ध रोजगार)बहुत बढ़ जाता है। रिक्शा वाला बाजार में 14 घंटे खड़ा रहता है लेकिन उसे 2-3 घंटे का काम मिलता है। जो ठेले वाला बाजार में 12 घंटे खड़ा होगा उसको तीन-चार घंटे काम मिलेगा। जो सिर पर बोझा उठाता है उसको भी तीन-चार घंटे का काम मिलेगा। इसमें बेरोजगारी के आंकड़े ज्यादा नहीं बढ़ते हैं, लेकिन अंडर एम्प्लॉयमेंट बढ़ जाता है और इसके चलते गरीबी बनी रहेगी।

कुल मिलाकर जो विषमताएं बढ़ रही हैं वे इसलिए बढ़ रही हैं कि हमारे नीति निर्माताओं के पास पॉलिसी स्पेस नहीं बचा है। वे बाहर से निर्देशित हैं। हमारा व्यापार किस तरह का हो यह विश्व व्यापार संगठन से निर्धारित करता है। हमारी विदेश व्यापार नीति अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक से निर्देशित होती है। हमारी मुद्रा नीति अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष निर्देशित होती। हमारी अर्थव्यवस्था का ढांचा विश्व बैंक से निर्देशित होगा। उसमें बदले की शर्त (क्रॉस कंडीशनलिटी) निहित होती है। अगर आपको कोयले के लिए ऋण लेना है तो सिर्फ कोयला सेक्टर में ही शर्तें नहीं लगेंगी।

हम लोगों ने 2007 में एक वल्र्ड बैंक इंडिपेंडेंट पीपुल्स ट्रिब्यूनल (स्वतंत्र विश्व बैंक जन ट्रिब्यूनल) खड़ा किया था। इसके लिए मैंने अध्ययन किया था। मैंने देखा कि जब हमने ऊर्जा सेक्टर के लिए ढांचागत समायोजन ऋण लिया तो क्रॉस कंडीशनलिटी थी कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया कैसे काम करेगा। उसमें क्रॉस कंडीशनलिटी थी कि वैल्यू एडेड टैक्स को लागू करना पड़ेगा। अर्थव्यवस्था में क्रॉस कंडीशनलिटी के चलते सारा का सारा पॉलिसी स्पेस खत्म हो जाता है। वैल्यू एडेड टैक्स (वीएटी) हमारे देश के लिए बहुत ज्यादा उपयोगी नहीं है। लेकिन बाहर से दबाव आ रहा है तो वैट को लागू करना है। वैट के बाद अब गुड्स एंड सर्विस टैक्स (जीएसटी) लागू करना है। डायरेक्ट टैक्स रिफॉर्म करने हैं। ये क्रॉस कंडीशनलिटी के तहत आते हैं। कुल मिलाकर आज स्थिति यह है कि अंदरुनी समस्याओं की तरफ हमारे नीति निर्माताओं का ध्यान नहीं है। 1991 में कांग्रेस की सरकार आई। उसके बाद यूनाइटेड फ्रंट की सरकार आई, जिसमें लेफ्ट था। उसके बाद बीजेपी की मिली-जुली सरकार आई और उन्होंने स्वदेशी की बात की। लेकिन वे और भी ज्यादा विदेशी हो गए, क्योंकि उन्होंने बहुराष्ट्रीय पूंजी को आमंत्रित किया। मॉरीशस रूट खोल दिया। उन्होंने तरह-तरह से यह किया। उसके बाद यूपीए सरकार आई, 'हमारा हाथ आम आदमी के साथ', लेकिन वह भी उसी दिशा में चलती रही। जितनी भी सरकारें पिछले 30 सालों में आई हैं उनकी राजनीति यही है। इसमें विश्व बैंक का जबरदस्त दबाव है। विश्व बैंक का दबाव है कि आपकी नीति होनी चाहिए 'ग्रोथ इन एनी कॉस्ट'। मतलब आपकी विकास की दर बढऩी चाहिए फिर चाहे उसकी कीमत कुछ भी हो। और यह कीमत पड़ती है कामगारों और पर्यावरण पर। यही नीति चीन ने पिछले 20 सालों में अपनाई है। इससे आप देखिए कि उनका पर्यावरण कितना प्रदूषित हो गया है। जब वहां चार-पांच साल पहले ओलंपिक खेल हुए थे तो उनको आधी कारें सड़कों से हटानी पड़ी थीं। इतना प्रदूषण होता था कि खिलाड़ी प्रतियोगिता में भाग लेने की स्थिति में नहीं रह सकते थे। 'ग्रोथ विद एनी कॉस्ट' वाले दर्शन के चलते हमारा संकट और भी गहरा होता चला गया है। सवाल उठता है कि आज हमारी यह जो समस्या है वह विश्व के संदर्भ में किस तरह की समस्या है।

नवउदारवाद का उदय

सन् 1920 में दुनिया में बहुत ज्यादा असमानता थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से कल्याणकारी राज्य की अवधारणा आई। इसी के चलते असमानता कम हुई। लेकिन वह जो कींसियन नीतियां थीं इनका संकट सन् 60 के दशक में और 70 के दशक की शुरुआत में आया। फिर धीरे-धीरे मुद्रा नीतियां और नव क्लासिकीय नीतियां उभरने लगीं। खासकर जब 1978 में मार्गरेट थैचर और 1980 में रोनाल्ड रीगन आए। इन की नीतियों को थैचरिज्म और रीगनिज्म कहा जाता है। इन दोनों के आने के साथ सारी नीतियां पूंजीवाद समर्थक और मुक्त बाजार (फ्री मार्केट) की तरफ झुक गईं। इसके लागू होते ही यह धारणा बनी कि मुक्त बाजार की नीति सभी के लिए ठीक है। इस तरह बड़े पैमाने पर मुक्त बाजार नीतियां लागू होती हैं और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा कमजोर पड़ती चली गई है। इसके चलते समाज में असमानता तेजी से बढ़ी। सन् 2004-05 की जो रिपोर्ट अमेरिका में आई थी, जिसका क्रुगमैन बार-बार जिक्र करते हैं, उसमें दिखाया गया है कि सन् 2004-05 में अमेरिका में असमानता 1920 से ज्यादा थी। दुनिया में जो सौ सबसे बड़े संपत्तिधारी (टॉप हंड्रेड वेल्थ होल्डर्स) हैं उनकी संपत्ति सबसे नीचे की 50 प्रतिशत आबादी से ज्यादा है। यानी असमानता बेतहाशा बढ़ी है। एलन ग्रिनस्पैन ने, जो सोलह साल फैडरल रिजर्व (संयुक्त राज्य अमेरिका के रिजर्व बैंक) के प्रमुख थे और जिनको वित्तीय बाजार (फाइनेंशियल मार्केट) खुदा समझता था, जो कहते थे वही होता था, कहा कि मुक्त बाजार नीति सर्वोत्कृष्ट है। क्योंकि बाजार खुद ही चीजों को ठीक कर लेता है। यानी अगर बाजार में कोई गड़बड़ी होगी तो बाजार उसको ठीक कर लेगा। इसलिए राज्य को बाजार में हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है।

इसके चलते धीरे-धीरे मुक्त बाजार की नीति स्थापित हो गई। स्टॉक मार्केट और बाकी वित्तीय बाजार (फाइनेंशियल मार्केट) में फैलाव होने लगा। इस स्थिति में 'पेपर वेल्थ' (कागजी संपत्ति) बढ़ती है। यानी अगर आपका स्टॉक आज दस रुपए है, कल सौ रुपए है और उसके बाद एक हजार रुपए है तो इससे पेपर वेल्थ बढ़ रही है। इससे फाइनेंशियल बबल (वित्तीय गुब्बारा) का जन्म हुआ है। मिंस्की ने 1977 में रेखांकित किया था कि इस 'फाइनेंशियल बबल' का इतना बड़ा होना खतरनाक है। यह पूंजीवाद को संकट में ले जाएगा। और अंतत: 1987 में स्टॉक मार्केट ढह गया। लोगों ने मिंस्की साहब से पूछा कि क्या यह वही बैठना 'क्रैश' है जिसके बारे में आप बता रहे थे? इस पर उनका उत्तर था, नहीं-नहीं यह तो कुछ भी नहीं है। जो क्रैश होगा वह बहुत बड़ा होगा। 1997 में फिर क्रैश हुआ, जो दक्षिण पूर्व एशिया में हुआ। उस समय भी उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा कि नहीं यह भी कुछ नहीं है और भी बड़ा होगा। असल में वह (क्रैश) 2007-08 में आया, यानी जो फाइनेंसियल बबल है वह 700-800 ट्रिलियन डॉलर का हो गया था। जबकि अर्थव्यवस्था चौंसठ ट्रिलियन डॉलर की थी, तो फाइनेंशियल मार्केट इतना बड़ा हो गया कि वास्तविक अर्थव्यवस्था से दस गुना ज्यादा। अगर आपको 700-800 ट्रिलियन डॉलर पर दस प्रतिशत लाभ (रिटर्न) देना है तो आपको 70 ट्रिलियन डॉलर देना पड़ेगा। लेकिन दुनिया की अर्थव्यवस्था में 70 ट्रिलियन डॉलर का उत्पादन नहीं है, तो कहां से देंगे।

वित्तीय बाजार का संकट

यह मार्केट उस आधार पर चला जैसा सट्टा बाजार (बहुत लाभ की आशा से किया हुआ व्यापार संबंधी क्रियाकलाप) चलता है। वह बढ़ता जाता है और जिस दिन रुका तो ढह जाता है। जब 2007-08 में संकट आया और वित्तीय बाजार गिरने लगा तो एकदम से ढह गया। यह जो संकट है वह बुनियादी संकट है। वित्तीय बाजार विश्वास पर काम करता है और जब वह ढहता है तो विश्वास खत्म हो जाता है। इसलिए आप देखेंगे कि पिछले चार-पांच साल से फेडरल रिजर्व एक ट्रिलियन डॉलर लिक्विडिटी (मुद्रा) मार्केट में डालता रहा है, लेकिन अमेरिका की अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन तेज नहीं हो पा रहा है। क्योंकि वित्तीय बाजार में जो व्यापारी (ऑपरेटर्स) हैं वे पैसा लेते हैं लेकिन उसको आगे बढ़ाते नहीं हैं। जबकि उन्हें आगे बढ़ाना चाहिए, जैसा सन् 2007-08 से पहले होता था। पिछले पांच-छह साल में इतनी लिक्विडिटी डाली गई है कि अगर वह 2007-08 से पहले की डाली गई होती तो आज विकराल स्फीति (हाइपर इनफ्लेशन) नहीं होती। दाम हजार, दो हजार प्रतिशत नहीं बढ़ते रहते। लेकिन वहां पर मंदी (डिफ्लेशन) का डर है। गिरने का डर है, न कि स्फीति का डर। और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए डिफ्लेशन बहुत भयानक होता है। जैसे जापान में डिफ्लेशन हुआ और जापान की अर्थव्यवस्था करीब-करीब पंद्रह साल बढ़ी ही नहीं। डिफ्लेशन का यह डर इसलिए था क्योंकि वित्तीय बाजार विश्वास पर काम करते हैं और जब ट्रस्ट खत्म हो जाता है तो उनकी समझ में नहीं आता कि आगे कैसे चलें। 2007-08 के बाद का यह जो संकट है उससे हम अभी उबर नहीं पाए हैं। आपने देखा कि योरोप (योरोजोन) में पिछले दो साल में दोबारा संकट आ गया। 2007-08 के संकट से उबरे तो 2010 में फिर हो गया। वह ग्रीस में आया। स्पेन में आया। इटली में आया और फ्रांस तक को प्रभावित कर रहा है। तो संकट की स्थिति से अभी दुनिया की अर्थव्यवस्था उबर नहीं पाई है।

यह जो सारा मसला है इसके पीछे देखें तो एक वैश्विक स्तर पर हुआ रणनीतिक परिवर्तन है। परिवर्तन क्या है? अमेरिका और चीन में सन् 1972 में रणनीतिक गठजोड़ हुआ। 1972 में हेनरी किसिंजर भारत आए। आपको याद होगा कि 1971 में बंगाल की खाड़ी में जो सातवां बेड़ा आया था उससे संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत के संबंधों में बहुत बड़ी दरार पैदा हो गई थी। किसिंजर सन् 72 में यहां इसलिए नहीं आए थे कि दोनों देशों के बीच संबंधों में पड़ी दरार को पाटा जाए बल्कि उन्हें तो माओ से मिलने चीन जाना था। वह अचानक दो दिन के लिए गायब हो गए और वहां (चीन) माओ से समझौता करके लौटे। फिर निक्सन वहां गए। उसके बाद अमेरिका और चीन में रणनीतिक गठजोड़ हुआ। उन्होंने यह कोशिश की कि कैसे सोवियत संघ को खत्म किया जाए। उसमें वे सफल हुए। क्योंकि सोवियत संघ का रक्षा बजट जीडीपी का 15 प्रतिशत पहुंच गया था जबकि अमेरिका या बाकी देशों का तीन और चार प्रतिशत ही था। सोवियत संघ के विघटन की दिशा में यह एक रणनीतिक गठजोड़ था। चीन में माओ की मृत्यु के बाद देंग श्याओ पिंग का नया शासन आता है। चीन का यह नया शासन 180 डिग्री घूम जाता है। देंग ने कहा था कि बिल्ली सफेद हो या काली उससे क्या फर्क पड़ता है उसे तो चूहे को पकडऩा है। तो चाहे हम साम्यवाद से आगे बढ़ें या पूंजीवाद से आगे बढ़ें, हमें तो अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाना है। उन्होंने कहा कि एक अंतर के साथ समाजवाद, लेकिन वास्तव में वह पूंजीवाद की तरह था। दुनिया में सन् 1975 के बाद से बड़ा बदलाव आया। चीन के पल्टी मारने और सोवियत संघ के टूटने से दुनिया के पटल पर विशेष कर जिसे तीसरी दुनिया कहते थे या जिसे आज विकासशील दुनिया कहा जाता है, वहां पर यह भ्रम पैदा हो गया कि समाजवाद काम नहीं करेगा। सोवियत संघ, जो राष्ट्रीय आंदोलनों को एक संरक्षण देता था, मदद करता था, वह खत्म हो गया।

इससे पश्चिम की हिम्मत बढ़ गई। 1982 में जब गैट समझौता वार्ता हो रही थी तो हमारे वार्ताकार एस.पी. शुक्ल बताते हैं कि अमेरिकी वार्ताकार ने कहा था, अब हम आपके कृषि बाजार पर कब्जा करेंगे। अब आपको कोई नहीं बचा सकता। हम आपके कृषि बाजार को खुलवाएंगे। अमेरिका और पश्चिमी ताकतों की हिम्मत इसलिए बढ़ गई क्योंकि उन्हें मालूम था कि अब विकासशील दुनिया के देशों की मदद करने वाला कोई नहीं बचा है। इसलिए 1986 में उरुग्वे राउंड की वार्ता में सारे नए मुद्दे आ जाते हैं। ये मुद्दे अब तक नहीं थे। वहां पर विश्व व्यापार संगठन को बनाने की बात हुई। गैट की बात हुई। जेड इन सर्विसेज की बात वहां पर हुई। जेड इन एग्रीकल्चर की बात वहां हुई। ट्रिप्स की बात वहां हुई। अब पश्चिम निश्चिंत था कि हम विकासशील देशों पर कब्जा कर सकते हैं। उनके बाजार को कब्जा सकते हैं। इसलिए देखा जा सकता है कि जैसे ही 1991 में सोवियत संघ का विघटन होता है तुरंत ही पश्चिमी दुनिया पूंजी के विस्तार (कैपिटल मूवमेंट) की बात करती है। इसके पहले वह मदद की बात करती थी। अब वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों को छूट की बात करती है। पूंजी को आकर्षित करने के लिए छूट देने की बात हुई।

वैश्विक स्तर पर बड़े पैमाने पर स्थिति में जो बदलाव हुआ और अर्थव्यवस्था बदली इसको हमें समझना पड़ेगा। यह वैश्वीकरण के बाजारीकरण का दौर है। बाजार तो हरदम था। आप बाजार में जाते हैं, अदला-बदली करते हैं। कुछ लेते हैं और कुछ देते हैं। यह तो हर समय से था, लेकिन बाजारीकरण नया है। बाजारीकरण में जितने भी संस्थान हैं वहां बाजार के तर्क की पैठ है। बाजार का अपना तर्क क्या है? जैसे सैम्युलसन ने बताया कि बाजार का सबसे पहला तर्क है डॉलर वोट। यानी आपके पास एक डॉलर है तो एक वोट और एक मिलियन डॉलर है तो एक मिलियन वोट। यहां एक व्यक्ति एक वोट नहीं चलता। अगर आपके पास पैसा है तो मर्सिडीज बेंज खरीद सकते हैं ,याट खरीद सकते हैं। पैसा नहीं है तो आप खाना नहीं खरीद सकते हैं। बाजार का तर्क है कि जिसके पास खरीदने की क्षमता है वह निर्धारित करेगा कि क्या होना चाहिए। निर्यात में फ्लोरीकल्चर, होर्टीकल्चर, फिशीकल्चर की अहमियत जानते हैं, क्योंकि इससे ज्यादा लाभ होता है तो उत्पादन का तरीका बदल जाता है।

सबसे बड़ी बात, एक अमेरिकी की एक भारतीय से 40 गुना ज्यादा आय है। यानी एक अमेरिकी के बराबर 40 भारतीय। तो वैश्विक स्तर पर ग्लोबल गवर्नेंस के जो ढाई हजार संस्थान हैं उसमें किसकी चलती है? अमेरिका की। संयुक्त राष्ट्र में इराक पर कोई प्रस्ताव आए तो अमेरिका कहता है हम हमला करेंगे। इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट में अमेरिका पर कोई मामला दर्ज नहीं हो सकता, बाकी सारी दुनिया इसके अंतर्गत आती है। डब्ल्यूटीओ में अमेरिका को अगर कुछ असुविधाजनक लगता है तो सुपर स्पेशल 301 के तहत अलग कानून बना लेता है। यह जो खरीदने की क्षमता है वह निर्धारित कर रही है कि कौन कहां पर कितनी राजनीतिक आर्थिक ताकत का इस्तेमाल करेगा। चाहे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष हो, विश्व बैंक हो, विश्व व्यापार संघटन हो, एशियन डेवलपमेंट बैंक हो—जितने भी ढाई हजार वैश्विक संस्थान हैं वहां पर अमेरिका का वर्चस्व है। अगर आप बाजार में हाशिए पर हैं तो और ज्यादा हाशिए पर चले जाएंगे। यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होगा, राष्ट्रीय स्तर पर होगा और क्षेत्रीय स्तर पर भी होगा।

पूंजी के लिए महाराष्ट्र का क्या मतलब है? सोलापुर, कोल्हापुर और विदर्भ नहीं है। वह है मुंबई-पूना क्षेत्र और मुंबई-वडोदरा क्षेत्र। यहां पर पूंजी है और यहां पर और पूंजी जाएगी। उत्तर प्रदेश के लिए पूंजी का क्या मतलब है? बांदा नहीं, कानपुर का विऔद्योगिकीकरण हो गया है, तो यहां मतलब है गाजियाबाद और नोएडा। हरियाणा का क्या मतलब है? गुडग़ांव और फरीदाबाद और अब वहां पर बहुत हो चुका है तो बहादुरगढ़ तक फैल रहा है। यह बाजार निर्धारित कर रहा है कि कहां पर और निवेश जाएगा और किस तरह का निवेश जाएगा। तो डॉलर वोट के चलते अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, राष्ट्रीय स्तर और क्षेत्रीय स्तर पर जो हाशिए पर हैं उनका और हाशियाकरण होगा।

सबसे बड़ा रुपैया

यह बहुत बड़ा सिद्धांत है, जिस पर बाजार चलता है। इसने हर जगह अपनी पैठ बना ली है। हमारी सोच में यह पैठ बना चुका है कि कौन क्या करेगा। यह उसी तरह है कि 'मोर इज बेटर' (जितना ज्यादा उतना अच्छा)। मतलब आपके पास एक कमीज है तो दूसरी कमीज। एक कार है तो दूसरी कार। एक घर है तो दूसरा घर। यही आधार है, उपभोक्तावाद का। उपभोग तो हमेशा होता था, लेकिन उपभोग उपभोक्तावाद में बदल गया है। जो त्याग करेगा वह बेवकूफ है। बाजार के इस तर्क में उपभोक्ता की संप्रभुता का पूरा मुद्दा ही समा गया है। जो उपभोक्ता चाहता है वही होना चाहिए। आपको सिगरेट चाहिए तो बाजार आपको सिगरेट की आपूर्ति करेगा। बाजार नहीं कहता कि सिगरेट पीना खराब है। यह समाज कहता है। बाजार को आज ऑब्जेक्टिव (लक्ष्य) समझा जाता है और समाज को सब्जेक्टिव (वस्तुपरक या निष्क्रिय)। बाजार का जो नतीजा है वह ज्यादा वांछनीय है बनिस्पत इसके जो समाज कह रहा है। इसलिए समाज में स्टैंड (पक्ष) लेना बहुत कठिन है, क्योंकि बाजार ऑब्जेक्टिव है और उसके चलते बाजार आगे चल रहा है और समाज रिट्रीट कर (सिमट)रहा है। आज जो कंपनी सौ प्रतिशत डिविडेंट देती है वह बेहतर चलने वाली कंपनी है। वह चाहे सिगरेट बेचकर करे, चाहे हीरे बेचकर करे। हैथवे फंड आदि ने खरबों डालर का लाभ कमा लिया, तो यह अच्छे प्रबंधन की निशानी मानी जाती है। उससे दस लाख लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं वह कोई मायने नहीं रखता है।

यही बाजार का परिणाम है। इसके चलते आदमी केवल आर्थिक रूप से निर्धारित हो रहा है। सामाजिक रूप से नहीं, राजनीतिक रूप से नहीं, सांस्कृतिक रूप से नहीं, भावनात्मक रूप से नहीं। आदमी क्या है, रेशनल प्राणी। रेशनल क्या? रेशनल का मतलब है लाभ को अधिक से अधिक बढ़ाना। हर चीज में नफा-नुकसान देखना। इसने हमारी सोच को प्रदूषित कर दिया है। हर चीज में देखना है कि हमारा फायदा हो रहा है या नुकसान। हम क्या करें? यहीं तक हमारी सोच सीमित रह जाती है। इसलिए आदमी को हम बस सॉफिस्टिकेटेड परिष्क्रित मशीन की तरह समझते हैं। जो कभी चलती है, कभी रुक जाती है। कभी सो जाती है, आदि आदि। रोजगार उसे चालू करने का बटन है और बेरोजगारी उसे बंद करने का बटन है। इसमें कोई और मूल्य नहीं है। अब जो बेरोजगार है उसकी बीवी का क्या हो रहा है, बच्चे का क्या हो रहा है, उसकी अपनी सोच पर क्या असर हो रहा है और समाज में उसका जो सम्मान है उसका क्या हो रहा है? उससे कोई लेना-देना नहीं है। आज आपने उसको रोजगार दिया और कल उसे निकाल दिया।

कुल मिलाकर मार्केट का यह मूल्य (नैतिकता) सारे समाज में फैल गया है। इसके चलते कल्याणकारी राज्य का नामोनिशान नहीं है। राज्य को सब्सिडी नहीं देनी चाहिए। सब्सिडी को बाजार में खराब माना जाता है। गरीब को सब्सिडी देनी पड़े तो कोई तरीका ढूंढिए, सब्सिडी मत दीजिए, क्योंकि यह बाजार में हस्तक्षेप है। डब्ल्यूटीओ में आपको कृषि को बंद नहीं करना है। लेकिन आपको खाद्य सुरक्षा चाहिए तो यह बाजार में हस्तक्षेप है, इसलिए सही नहीं है। डब्ल्यूटीओ इसके खिलाफ आवाज उठा सकता है। इस दर्शन के चलते 1990-91 के बाद हमारे देश में उपजे कुलीन वर्ग के लिए वैश्वीकरण का क्या अर्थ है? उसे दुनिया के कुलीन वर्ग से जुडऩे की चाह है। वहां एक नई मर्सिडीज बेंज का मॉडल आया तो उसे छह महीने बाद यहां भी होना चाहिए। नया कंप्यूटर का मॉडल आया तो वो भी यहां होना चाहिए। आईफाइव आया है तो वह यहां भी उपलब्ध होना चाहिए। यहां पर आम जनता को क्या चाहिए? बनखेड़ी में एक और नल लग जाए। एक और डिस्पेंसरी खुल जाए। कहीं और पानी की व्यवस्था हो जाए। इस की चिंता किसे है! दिल्ली में सब चौबीस घंटे होना चाहिए बाकी देश जाए भाड़ में। जो कुलीन (अभिजात्य) है उसका आम जनता से भावनात्मक रिश्ता खत्म हो गया है और वह ग्लोबल कुलीन वर्ग से जुड़ा हुआ है। वैश्वीकरण है अभिजात्य वर्ग का दुनिया भर के अभिजात्य वर्ग से जुड़ाव, न कि गरीब व्यक्ति से। इसके चलते 1991 के बाद से ही हमारे शासक वर्ग में सहमति है कि यही नीतियां चलेंगी। चाहे कांग्रेस की सरकार आए, चाहे एनडीए की आए, चाहे यूनाइटेड फ्रंट की। चाहे कोई और सरकार आए। सरकारों से कोई फर्क नहीं पड़ता, जो सोच है वह कहीं और से आ रही है।

काला धन और असमानता का संबंध

काले धन की अर्थव्यवस्था पर दो शब्द जरूरी हैं। काले धन की अर्थव्यवस्था से असमानता बेतहाशा बढ़ जाती है। अगर आप व्हाइट इकोनॉमी (स्वच्छ धन) में देखें तो जो शीर्ष तीन प्रतिशत हैं और जो बॉटम 40 प्रतिशत हैं उनमें आय का अनुपात 12:1 का है और अगर इसमें काले धन की अर्थव्यवस्था को जोड़ दें तो यह अनुपात 200:1 का हो जाता है। देश में जो असली असमानता है वह काले धन की अर्थव्यवस्था से आती है, न कि स्वच्छ धन से। यह काला धन शीर्ष तीन प्रतिशत के हाथ में नियंत्रित है। इसके चलते असमानता और नीतियों की असफलता जबरदस्त बढ़ जाती है। काले धन की अर्थव्यवस्था के चलते हमारी विकास दर पांच प्रतिशत से कम हो गई है। सन् 1970 के दशक में जब हम साढ़े तीन प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहे थे और काला धन आज जैसा नहीं था, तो हम साढ़े आठ प्रतिशत भी बढ़ सकते थे। पिछले दस साल का औसत साढ़े सात प्रतिशत है तो हम साढ़े बारह प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहे होते। हमारी अर्थव्यवस्था आज बारह-तेरह ट्रिलियन डॉलर की होती बजाय 1.8 ट्रिलियन डॉलर के। हमारी प्रति व्यक्ति आय 12,000 डॉलर होती बजाय कि 1,500 डॉलर के। हम नीचे के 30 की जगह मध्य आयवाले देश होते। काले धन की अर्थव्यवस्था के चलते विकास में जबरदस्त असंतुलन है। शिक्षा के क्षेत्र में, स्वास्थ्य के क्षेत्र में, सब जगह नीतियों की विफलता का सामना करना पड़ता है। काले धन की अर्थव्यवस्था से पैसा बाहर भेजना आसान हो जाता है। पिछले साठ साल में करीब ढाई ट्रिलियन डॉलर देश से बाहर गया है। गरीब देश में काले धन की अर्थव्यवस्था के जरिए बड़े स्तर पर पूंजी को बाहर भेजा गया है। पूंजी की कमी क्यों है, क्योंकि काले धन की अर्थव्यवस्था है। काले धन की अर्थव्यवस्था नहीं होती तो आपकी पूंजी इस तरह से बाहर नहीं जाती। हमारे बजट में बीस प्रतिशत और ज्यादा बढ़ा होता। सिर्फ पंद्रह प्रतिशत पर हमारी सरकार चलती है। शिक्षा के क्षेत्र में हम चार प्रतिशत से ज्यादा कभी आगे नहीं जा सके। उसे हम दस प्रतिशत दे सकते थे। स्वास्थ्य के क्षेत्र में डेढ़ प्रतिशत नहीं पार कर पाए, उसके लिए तीन प्रतिशत दिया जा सकता था। इसी तरह बिजली है, सड़कें हैं; सबके लिए आज जो कमी नजर आती है वह कब की खत्म हो जाती। काले धन की अर्थव्यवस्था नहीं होती तो बाहरी सेक्टर पर हमारी निर्भरता घट जाती। पिछली योजना के चलते हम जिन समावेशी नीतियों की बात करते हैं वह तब तक नहीं हो सकती जब तक हमारी नीतियों का आधार हमारे हाथ में दोबारा न आ जाए। जब तक वह बाहर वालों के हाथ में रहेगा तब तक समावेशी नीतियां संभव नहीं हैं।

अंत में, विश्व बैंक ने 1992 में सेफ्टीनेट (सुरक्षा कवच) की बात कही। सुरक्षा कवच का तात्पर्य है कि हमारी नीतियां असमान हैं। जिसकी वजह से गरीबी बढ़ जाती है तथा बहुत से लोग नीचे चले जाते हैं। एक सुरक्षा कवच चाहिए पर सुरक्षा कवच कुछ लोगों के लिए हो सकता है। सारी जनता के लिए नहीं हो सकता है। इसलिए समस्याएं बढ़ती चली जा रही हैं। हमें बुनियादी तौर पर अपनी नीतियों को सही दिशा में लाना पड़ेगा। हमें यह समझना पड़ेगा कि बाजारीकरण और उसके दर्शन ने हमारी नीतियां बदल दी हैं और हमारी सोच पर जबरदस्त असर डाला है। वह सोच किस तरह से बदलेगी। वह सोच तब ही बदलेगी जब आंदोलन खड़ा होगा। आंदोलन ही हमें एक नए रास्ते पर ले जा सकता है।

(समयांतर के 15वें वर्ष के अवसर पर दिल्ली में आयोजित गोष्ठी में दिया गया व्याख्यान। अरुण कुमार जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं और कालेधन की अर्थव्यवस्था पर विशेषज्ञ हैं।)

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