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Memories of Another day

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Thursday, September 18, 2014

जो नजरों से ओझल है: अरुंधति रॉय से एक बातचीत

जो नजरों से ओझल है: अरुंधति रॉय से एक बातचीत

Posted by Reyaz-ul-haque on 9/18/2014 11:13:00 PM


जुलाई में जानीमानी कार्यकर्ता और लेखिका अरुंधति रॉय की इस बात पर कई हलकों में गुस्से की लहर दौड़ गई थी कि गांधी की आम तौर पर स्वीकृत छवि एक झूठ है. तिरुअनंतपुरम स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ केरल में अय्यनकली मेमोरियल व्याख्यान देते हुए अरुंधति ने यह भी कहा था कि गांधी के नाम पर बने संस्थानों का नाम बदल दिया जाना चाहिए. केरल में उठे इस विवाद से, जिसमें जुलूस, गिरफ्तारी की धमकी और गुस्से से भरे बयानों का सिलसिला चला, हिंदी की वह वैचारिक दुनिया लगभग अनजान रही, जिसने इससे महज दो-तीन महीने पहले ही डॉ. बी.आर. आंबेडकर की किताब एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट की अरुंधति द्वारा लिखी प्रस्तावना पर एक लंबा विवाद देखा था. मार्च-अप्रैल के दौरान किताब की प्रस्तावना पर और फिर केरल में व्याख्यान पर हुए विवाद के दौरान जो मुद्दे उभरे, उनपर अरुंधति ने इस बातचीत में चर्चा की है. मलयाला मनोरमा ऑनलाइन के लिए लीना चंद्रन द्वारा हाल में की गई इस लंबी बातचीत को दो किस्तों मेंहाशिया पर पोस्ट किया जाएगा. आज पहली पहली किस्त. अनुवाद: रेयाज उल हक

मुझे लगता है कि गांधी वाला विवाद थोड़ी देर से उठा. अगर लोगों ने डॉ. बी. आर. आंबेडकर की किताब एन्नाइहिलेशन ऑफ द कास्ट के लिए आपकी लिखी गई प्रस्तावना, द डॉक्टर एंड द सेंटको गहराई से पढ़ा होता तो इस साल की शुरुआत में इसके प्रकाशन के फौरन बाद ही यह विवाद पैदा होना चाहिए था. असल में, आपने द डॉक्टर एंड द सेंट में जो विचार जाहिर किए हैं, उनकी तुलना में आपने तिरुअनंतपुरम स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ केरल के इतिहास विभाग में अय्यनकाली मेमोरियल लेक्चर में जो कुछ कहा, वह उतना भड़काऊ भी नहीं था...

मैं यह नहीं कहूंगी कि द डॉक्टर एंड द सेंट भड़काऊ है, हालांकि बेशक इस पर अनेक हलकों से अच्छी-खासी मात्रा में विवाद पैदा हुआ है. उन हलकों से भी, जिनसे इसकी उम्मीद नहीं थी. लेकिन यह सब अपेक्षित ही था, क्योंकि यह एक विवादास्पद मुद्दा है. तब भी, उसमें सोचने के पारंपरिक तरीकों पर सवाल किए गए थे, और ऐसा करने के लिए ज्यादातर गांधी के कम जाने गए लेखों का हवाला दिया गया था. यह आंबेडकर के एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट की प्रस्तावना के रूप में लिखा गया था. आंबेडकर का नजरिया स्थापित व्यवस्था को बहुत मजबूती से और गहराई में जाकर चुनौती देता है. गांधी का नस्ल और जाति को लेकर जो नजरिया था, उस पर विवाद मेरे द डॉक्टर एंड द सेंट लिखने से बहुत पहले शुरू हो गया था. आप कह सकते हैं कि यह आंबेडकर-गांधी बहस के साथ ही शुरू हो गया था. दलित राजनीति की दुनिया में बरसों से यह बहस चली आ रही है – लेकिन इसे बहुत सावधानी से और बड़ी कामयाबी के साथ सत्ता प्रतिष्ठान के विमर्शों से बाहर रखा गया. अय्यनकली मेमोरियल लेक्चर के बाद केरल के मीडिया में मची खलबली उन लोगों द्वारा किया गया शोर-शराबा है, जिन्होंने कभी आंबेडकर की एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट, या द डॉक्टर एंड द सेंट या ऐसी ही कोई चीज पढ़ने की जहमत नहीं उठाई. यहां तक कि उन्होंने गांधी का लेखन भी नहीं पढ़ा है, जिसका बचाव करने को वे इतने उत्सुक हैं. इस बहस में अनेक निहित स्वार्थ काम कर रहे हैं. उनसे बदलने की उम्मीद रखना शायद कुछ ज्यादा ही होगा. लेकिन नौजवान लोग अपना नजरिया बदलेंगे. यह तय है.

आपके ज्यादातर आलोचक कहते हैं, 'अरुंधति हमारे गांधी के बारे में क्या जानती हैं? उन्हें क्या अधिकार है?' माना, आप जोरदार तरीके से गांधी के लेखन में से हवाला देती हैं, लेकिन आपने इस इंसान के पूरे लेखन का कितने विस्तार से और कितनी गहराई से पड़ताल की है? आपने किस तरह का शोध किया है? क्या आप इसके बारे में थोड़े विस्तार से बताएंगी कि आपने आंबेडकर को सीखने और गांधी को भुलाने की शुरुआत कैसे की?

'हमारे गांधी?' और यह अरुंधति कौन है? क्या इस धरती से बाहर का कोई जीव, जिसके पास वैसे अधिकार नहीं हैं, जैसे गांधी पर 'मिल्कियत' जतानेवालों के पास हैंॽ क्या यही लोग, ठीक यही लोग 'हमारे आंबेडकर' कह सकते हैं? बल्कि इसके उलट, मुझे कहने दीजिए: द डॉक्टर एंड द सेंट न तो समग्र गांधी और न ही समग्र आंबेडकर के बारे में. यह आंबेडकर और गांधी के बीच चली बहस के बारे में है. मैंने इसे लिखने से पहले आंबेडकर और गांधी के लेखन पर महीनों तक शोध और अध्ययन किया. मैंने शुरुआत गांधी द्वारा 1936 में एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट को खारिज किए जाने से की. और फिर मैं जाति और नस्ल की उनकी हिमायत का सिरा पकड़ कर आगे बढ़ी, जो दक्षिण अफ्रीका तक जाता था. (मैंने दक्षिण अफ्रीका में कुछ समय बिताया) मैं जो पढ़ रही थी, उससे मुझे बहुत धक्का लगा था और मुझे इससे भी ज्यादा धक्का इस बात से लगा कि किस कामयाबी के साथ गांधी के ये बेहद परेशान कर देने वाले पहलू सार्वजनिक और 'सत्ता प्रतिष्ठान' के बुद्धिजीवियों की खोजी निगाहों से अनदेखे गुजर गए. मैंने यह महसूस किया कि मैं जो करना चाहती थी, उसे करने का अकेला उपाय यही था कि जितना ज्यादा मुमकिन हो सके, खुद गांधी के शब्दों का ही उपयोग किया जाए – अपनी टिप्पणियों और विश्लेषण को कम से कम रखा जाए. बेशक इसका नतीजा यह हुआ कि यह एक लंबी, करीब-करीब किताब जैसी एक प्रस्तावना बन गई. इसमें जो कुछ भी है, वह बेहद संवेदनशील मुद्दा रहा है. इसलिए हर तरह की प्रतिक्रियाएं आईं- खुले दिल से अपनाने और बेहद प्यार दिखाने से लेकर, गुस्से से भरी हुई प्रतिक्रियाएं, जो अंदाजे से परे थीं. कुछ ने इस बात के लिए आलोचना की कि मैंने आंबेडकर से ज्यादा गांधी के बारे में लिखा है. यह एक जायज मुद्दा है, लेकिन इसको लेकर मेरी दलील यह है कि जब तक हम उस पर्दे को तार-तार नहीं कर देंगे, जो आंबेडकर की स्पष्टता को धुंधला बनाने के लिए गांधी ने तान रखा था, तब तक हम अंधेरे में ही टटोलते रहेंगे. यही आंबेडकर की दलील भी थी, जब उन्होंने एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट के बारे में आई सारी प्रतिक्रियाओं में से गांधी की प्रतिक्रिया को जवाब देने के लिए चुना. किताब के बारे में जो भी विवाद पैदा हुए – जिनसे बचा नहीं जा सकता था – उनमें से कुछ मेरे बारे में हैं, मेरे अपने बारे में, मेरी मंशा, मेरी प्रेरणा और राजनीतिक हमदर्दी, मेरी जाति, मेरे घर के पते के बारे में – न कि उस पर जो मैंने लिखा है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है, हालांकि इसकी पूरी संभावना थी और मैं अब ऐसी चीजों की आदी हो गई हूं. मैं एक आसान निशाना हूं – मशहूर होना दोनों पक्षों पर असर डालता है. यह मुझे और मेरे आलोचकों दोनों को ही ताकत देता है. मेरी किताबों की रॉयल्टी मुझे धनी और आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाती है – इसलिए गैरबराबरी के बारे में लिखने की मैं जुर्रत कैसे करती हूं? मैं एक 'अच्छी औरत' नहीं हूं, मुझे देख कर नहीं लगता कि मैंने अच्छे से दुख झेला है. मैंने पहले से चली आ रही तयशुदा तरीके की जिंदगी को अपनी मर्जी से कबूल नहीं किया है – इसलिए मुझे उन चीजों पर लिखने का क्या हक है, जिन पर मैं लिखती हूं? किस्मत से, मुझे किसी से भी कोई नैतिक चरित्र प्रमाण पत्र नहीं चाहिए. बुनियादी बात यह है कि मैंने जो लिखा है, पाठक उसे पढ़ने और उसके साथ बौद्धिक रूप से जुड़ने का विकल्प चुन सकते हैं या उसे छोड़ सकते हैं. बाकी सब बेवजह का शोर-शराबा है. 

नवयान द्वारा प्रकाशित आंबेडकर के एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट के संपादक एस. आनंद ने दस साल पहले आपसे एक प्रस्तावना का अनुरोध किया था. आप राजी हो गई थीं और आपने शोध और अध्ययन शुरू कर दिया था. क्या तब आपने महात्मा के योगदान पर पुनर्विचार शुरू किया?

आंबेडकर ने बहुत मजबूत और गंभीर तरीके से मेरी समझदारी को और गहरा बनाया और मेरी सोच को समृद्ध किया. उन्होंने हमें वे औजार दिए हैं, जिनसे हम उस समाज को समझ सकते हैं और उसका विश्लेषण कर सकते हैं, जिसमें हम रहते हैं. वे एक रेडिकल चिंतक थे, और वे निडर थे. गांधी की शोहरत और भारी प्रभुत्व के दिनों में उन्होंने जिस तरह गांधी को आड़े हाथों लिया, वह एक परिघटना थी. उन्होंने गांधी और कांग्रेस के बारे में बहुत लिखा क्योंकि इन दोनों ने चालाक और जटिल तरीके से आंबेडकर की राह रोकने की कोशिश की थी. आंबेडकर को पढ़ते हुए मैं गांधी के बारे में उन बनी बनाई धारणाओं से आजाद हुई, जिनके साथ हममें से अनके लोग बड़े होते हैं. हालांकि अभी आंबेडकर की विरासत भारी खतरे में है. एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट, हिंदूवाद (हिंदुइज्म) का विद्वत्तापूर्वक खंडन करता है. आंबेडकर चाहते थे कि उनके लोग हिंदूवाद को नकारें. लेकिन आज, बड़ी तेजी से दलितों का 'हिंदूकरण' और 'संस्कृतीकरण' किया जा रहा है. यह नई सरकार आंबेडकर का दुस्वप्न रही होती. 'अशुद्धों' को हिंदू घेरे में लाने के लिए एक नए शुद्धि आंदोलन का ऐलान किया गया है. आरएसएस प्रमुख ने घोषणा की है कि सारे भारतीय हिंदू हैं. यह बहुत परेशान करने वाला है.

क्या गांधी पर 'पुनर्विचार' करने में आपकी मूर्तिभंजक मां मेरी रॉय का कोई असर रहा है? मैं यह बात खास तौर से पूछ रही हूं, क्योंकि हम जिन बातों को सीखते हुए बड़े होते हैं, उनको बदलना हमेशा ही खासा मुश्किल होता है.

मेरी मूर्तिभंजक मां हमेशा से ही गांधी की बड़ी प्रशंसक रही हैं. इसलिए द डॉक्टर एंड द सेंटलिखने में उनकी कोई भूमिका नहीं है. मैं अपनी कहूं तो अभी मैंने जो कुछ पढ़ा, उसके पहले मैं सोचती थी कि गांधी एक चालाक, लेकिन मंजे हुए और कल्पनाशील राजनेता थे. उनके बारे में दो बातों ने मुझे हमेशा गहराई से परेशान किया – उनमें से एक बात थी, औरतों और सेक्स को लेकर उनका रवैया, जिस पर अलग से एक पूरी किताब लिखी जाने लायक है और दूसरी बात थी दलितों को 'हरिजन' कहना, जो मुझे घिनौनी और सरपरस्ती से भरी बात लगती थी.

लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि गांधी ने आपको पूरी तरह निराश किया? क्या गांधी में ऐसी एक भी खूबी नहीं है जिसकी आप तारीफ करती हों?

गांधी एक आकर्षक किरदार थे, जिन्होंने अपने जीवनकाल में लोगों की कल्पना को अपने वश में कर लिया था और अभी भी जनता को सम्मोहित करते हुए लगते हैं. मैं नहीं सोचती कि जिन्होंने द डॉक्टर एंड द सेंट पढ़ा है वे यह नतीजा निकालेंगे कि यह आंबेडकर के बारे में एक गैर आलोचनात्मक और भक्ति-भाव से लिखी गई कोई जीवनी है और गांधी की कठोर आलोचना है. हैरानी की बात यह है कि कुछ हलकों में, गांधी की तारीफ करने के लिए मेरी आलोचना की गई – हालांकि ऐसा लगता है कि उन्होंने भी किताब नहीं पढ़ी है. वे कहते हैं कि मैंने गांधी को संत कहा है, वे इसमें छुपी हुई विडंबना को पकड़ नहीं पाए, जिसे इस बात के जरिए जाहिर करने की मेरी मंशा थी. उनसे यह बात भी पकड़ में नहीं आई कि आंबेडकर अक्सर गांधी को व्यंग्य से संत कहते थे. फिर कुछ ऐसे लोग भी हैं – और गौर कीजिए कि सिर्फ दलित ही नहीं, कुछ ब्राह्मण भी – जो यह मानते हैं कि आंबेडकर की किसी रचना की प्रस्तावना लिखने का अधिकार किसी भी गैर-दलित को नहीं है. वे इसे प्रभुत्वशाली जाति से आने वाले किसी इंसान द्वारा आंबेडकर को 'हड़पे जाने' के रूप में देखते हैं. लेकिन अगर व्यापक रूप से देखा जाए तो कुल मिलाकर, तो यह सारी बहस, सारे इल्जाम और इशारों-इशारों में कही गई बातें, यहां तक कि केरल में फूट पड़ा गुस्सा, गिरफ्तारी की धमकियां, जुलूस, यह आखिरकार एक अच्छी चीज है – हालांकि कभी कभी इससे दुख होता है. हम सभी में हजारों बरसों के संस्थागत पूर्वाग्रह भरे हुए हैं. उन्हें बाहर निकालना ही होगा, और यह प्रक्रिया खूबसूरत नहीं होगी. हममें से कोई भी शुद्ध नहीं है, हममें से कोई परिपूर्ण नहीं है, कोई भी पाठ (रचना) पूरी तरह सही या आलोचना से परे नहीं है. हमारे पास विकल्प यह है कि हम एक अपूर्ण राजनीतिक एकजुटता के लिए एक दूसरे के साथ मिलकर खड़े हों या फिर अपने को अपनी अपनी खंदकों में बंद करते हुए एक दूसरे से अलग-थलग कर लें, और खुद के श्रेष्ठ और सही होने की अपनी ही रची हुई धारणा में सिमट कर जाएं.

इस पर गौर करना दिलचस्प है कि आपने स्वामी विवेकानंद को भी नहीं छोड़ा. द डॉक्टर एंड द सेंट में आपने खुद उनकी बात का हवाला दिया है, जिसमें उन्होंने अछूतों के धर्मांतरण को हतोत्साहित किया था. लेकिन क्या यह हवाला संदर्भ से बाहर जाकर नहीं दिया गया थाॽ

नहीं. ऐसा नहीं था. स्वामी विवेकानद ने जो कहा था, वह आबादी की बनावट के बारे में प्रभुत्वशाली जाति की बेचैनी की राजनीति का हिस्सा था, जो तब बदलनी शुरू हुई थी. यह उस बात की पैदाइश थी, जिसे आज हम हिंदुत्व की शक्ल में जानते हैं.

लेकिन गांधी और केरल में अछूतों के नेता अय्यनकली के बीच उनके योगदानों के आधार पर तुलना कितनी व्यावहारिक हैॽ अय्यनकली का काम और उनका प्रभाव एक क्षेत्रीय परिघटना थी.

उनकी तुलना क्यों नहीं की जाएॽ यह इतना अपवित्र क्यों हैॽ अय्यनकली ने 1904 में पुलय बच्चों के स्कूल में पढ़ने के अधिकार की लड़ाई लड़ी थी. उन्होंने पहली खेतिहर हड़ताल की थी और वह कामयाब रही थी – यह बात रूसी क्रांति से भी पहले की बात है. उन्हीं दिनों गांधी दक्षिण अफ्रीका में काले अफ्रीकियों और दबा कर रखी गई जातियों के भारतीय मजदूरों के बारे में सबसे आपराधिक बयान दे रहे थे. त्रिवेंद्रम में मैंने यह कहा कि कैसे गांधी जाति व्यवस्था में यकीन रखते थे. मैंने 1936 के उनके एक असाधारण निबंध 'द आयडियल भंगी' में से हवाला दिया, जिसमें वे खानदानी और परंपरागत काम-धंधों की खूबी के बारे में अपने नजरिए पर रोशनी डालते हैं. निजी तौर पर, मैं सोचती हूं कि यह गंभीर किस्म की हिंसा है. मैंने इसके बारे में कहा कि हमें इस पर सोचना चाहिए कि हमें इन दो तरह के लोगों में से किसके नाम पर विश्वविद्यालयों के नाम रखने चाहिए. क्या यह गलत हैॽ

'यथास्थिति का संत', 'सबसे मशहूर भारतीय', 'अब तक आधुनिक दुनिया द्वारा जाना गया सबसे मंजा हुआ राजनेता'...आपने महात्मापन पर सवाल खड़े किए. लेकिन अगर हम यह बारीकी से देखें कि कैसे कई दशकों के दौरान गांधी का विकास हुआ, तो क्या उनमें सुधार की प्रक्रिया नहीं दिखतीॽ क्या आप ये कहना चाहती हैं कि वह सब एक भव्य छलावा थाॽ आपके आलोचकों ने इस तरफ ध्यान दिलाया है कि गांधी की शुरुआती जिंदगी में कही गई बातों का हवाला देना एक भारी नाइंसाफी है, जब महात्मा कम महात्मा थे.

मेरे आलोचकों ने जो सवाल मेरे सामने रखे हैं, लिखने से पहले मैंने अपने सामने उन सवालों रखा था. क्या गांधी बदलेॽ क्या उनमें कोई विकास हुआॽ क्या उन्होंने जाति पर अपने नजरिए और अपने कामों को छोड़ाॽ इस मुद्दे के साथ इंसाफ करने के लिए ही मैंने उनकी पूरी वयस्क जिंदगी में शुरू से लेकर अंत तक के लेखों और भाषणों का हवाला दिया– 1890 के दशक की शुरुआत में दक्षिण अफ्रीका पहुंचने से लेकर 1946 तक जब वे एक बुजुर्ग इंसान थे. केरल यूनिवर्सिटी की अपनी बातचीत तक में मैंने 1894 में कही गई उनकी बात और फिर 40 साल के बाद 1936 में कही गई उनकी बात का हवाला दिया, जब उन्होंने 'द आयडियल भंगी' लिखी थी – तब वे करीब 70 साल के थे.

अगला इल्जाम ये है कि गलत संदर्भ में हवाले दिए गए हैं. मैं यह जानना चाहूंगी कि किस संदर्भ में काले अफ्रीकियों को गंदे 'जंगली' कहना और दबा कर रखी गई जातियों के भारतीय मजदूरों को, जिनका 'नैतिक स्वभाव नष्ट हो गया है,' जन्मजात झूठा कहना कबूल किए जाने लायक हैॽ किस संदर्भ में यह कहना कबूल किया जा सकता है कि मैला साफ करने वालों की आने वाली पीढ़ियों को भी मैला साफ करते रहना चाहिएॽ आप पूछती हैं कि क्या गांधी एक भव्य छलावा हैंॽ गांधी का सारा लेखन सार्वजनिक रूप से संकलित और उपलब्ध है. उनको संपादित नहीं किया गया या उनसे छेड़छाड़ नहीं की गई है. इसलिए उस मोर्चे पर कोई छलावा नहीं है. लेकिन हां, जिस तरह गांधी की विरासत को सार्वजनिक खपत के लिए तैयार करके परोसा गया है, उसमें भारी बेईमानी की गई है. जिन चीजों को निखार कर पेश किया गया है और जो चीजें छुपा दी गई हैं, वे विचलित करने वाली हैं और यह सोची-समझी बेईमानी भरी राजनीति है.

गांधी के बचाव में तीसरी बात यह कही जा रही है कि वे 'अपने समय के इंसान' थे और हम राजनीति और सामाजिक न्याय की अपनी समकालीन समझ को एक ऐसे इंसान पर नहीं थोप सकते जो एक सदी से भी ज्यादा पहले हुआ हो. मैंने द डॉक्टर एंड द सेंट में इसका भी जवाब दिया है और मैंने पाठकों का ध्यान पंडिता रमाबाई, जोतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले जैसे लोगों के कामों की तरफ दिलाया है, जो गांधी से भी पहले हुए थे. फिर पेरियार, अय्यनकली, श्री नारायण गुरु और दूसरे देशों में उनके समकालीनों का कहना ही क्या.

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